Saturday, December 27, 2008

नव वर्ष की हृार्दिक शुभकामनाएँ







सभी मित्रों को नव वर्ष की हृार्दिक शुभकामनाएँ!




नया वर्ष आपको, आपके परिवार को, समाज, राष्ट्र व विश्व को मंगलमय हो!



समरसता के साथ हम अपने कर्तव्य-पथ पर दृढ़ हो,



आगे बढ़कर सभी को स्नेह लुटाते हुए सुख, शान्ति व समृद्धि प्राप्त करें।



समस्त विभिन्नताओं के होते हुए भी समस्त नर-नारी



प्रकृति प्रदत्त अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करते हुए



एक-दूसरें के लिए जीयें सहकारिता के सिद्धांत



`एक सभी के लिए व सभी एक के लिए` को



आत्मसात कर 'वसुधैव कुटुम्बकम' के सिद्धान्त को



कार्यरूप में परिणत करने के प्रयत्न नववर्ष के हर पल करते रहें।






बन्धुत्व न झुके कभी






नव वर्ष से हमें आस, आतंक का प्रसार रूके।



विवके हो जाग्रत सभी का, नहीं आनन्द प्रचार रूके।



संकीर्णताएँ मिटें सभी, बन्धुत्व न झुके कभी,



चहुँ ओर हो विजय, सत्य न कभी झुके।




शुभ हो आपको, परिवार, राष्ट्र, विश्व को।



आंग्ल वर्ष का हर पल, शुभ हो गुरू शिष्य को।



कथनी-करनी एक हो, मार्ग हमारा नेक हो,



उर-बुद्धि हों सन्तुलित, पायें सभी लक्ष्य को।










Tuesday, December 23, 2008

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उपरोक्त कहानी मेरे पास जोधपुर से सुश्री चंदू कुमारी ने ईमेल से फोरवर्ड करके भेजी थी मैं उनका आभारी हूँ तथा सभी मित्रों को पढ़वाने की इच्छा से प्रकाशित कर रहा हूँ। इसे स्पष्ट पढने के लिए इस पर डबल क्लिक करें।

Friday, December 19, 2008

सहकर उपेक्षा सदियों से घर को संभालती देकर जन्म ये सृष्टी को तन मन से पालती

मन्दिर की आरती मस्जिद की अजान बेटियाँ गुरुग्रंथ गीता बाईबल कुरान बेटियाँ

हंसती मुस्कुराती खिलखिलाती बेटियाँ

हर मुश्किल को हंस के सुलझातीं बेटियाँ

माँ बाप की आंखों का तारा बेटियाँ

उनके बुढापे का सहारा बेटियाँ
हर अल्फाज़ का इशारा बेटियाँ
हर खुशी का नजारा बेटियाँ
दिल में बस जाती हैं फूलों की तरह
आँखों में समाती हैं सावन के झूलों की तरह
बनाती हैं सबको अपना नहीं दिखती किसी को कोई झूठा सपना
जो कहती हैं करके वो दिखती हैं
हर ग़लत कदम पर आवाज वो उठाती हैं
फिर भी हर बात पर उन्हें ही क्यों रोका जाता है
फीर भी हर बात पर उन्हें ही क्यों टोका जाता है

ग्रीष्माँ शुक्ला










Tuesday, December 16, 2008

फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!


मैंने समझकर अपना,

अपनत्व के कारण,

की तुम्हारी सेवा,

तुमको खिलाई मेवा,

स्वयं सोकर भूखे पेट,

सावन हो या जेठ,

तुमने की अर्जित शक्ति

मैं करती रही तुम्हारी भक्ति।


मैंने किया प्रेम से समर्पण

सौंपा तन-मन-धन,

तुम बन बैठे मालिक,

मुझे घर में कैद कर,

पकड़ा दिया दर्पण,

मैं सज-धज कर,

करती रही तुम्हारी प्रतीक्षा

तुमने पूरी की,

केवल अपनी इच्छा।


मैंने ही दी तुमको शिक्षा,

सहारा देकर बढ़ाया आगे

तुम फिर भी धोखा दे भागे,

कदम-कदम पर दिया धोखा,

शोषण करने का,

नहीं गवांया कोई मौका।


मैंने साथ दिया कदम-कदम पर,

अपने प्राण देकर भी,

बचाये तुम्हारे प्राण,

तुमने उसे मानकर मेरा आदर्श,

सती प्रथा थोप दी मुझ पर ।

बना लिया मुझको दासी,

वर्जित कर दी मेरे लिए काशी।

लगाते रहे कलंक पर कलंक,

तुम राजा रहे हो या रंक।

दिया निर्वासन दे न पाये आसन।

स्वयं विराजे सिंहासन।

मुझे छोड़ जंगल में,

चलाया शासन।


दिखावा करने को दिया आदर,

पल-पल दी घुटन,

पल-पल किया निरादर।

नर्क का द्वार कहकर,

घृणित बताया।

शुभ कर्मो से किया वंचित,

भोजन,शिक्षा ,स्वास्थ्य,

संपत्ति व मानव अधिकार,

छीन लिया मेरा, सब कुछ संचित।

पैतृक विरासत तुम्हारी,

मैं भटकी दहेज की मारी,

छीन लिया जन्म का अधिकार,

भ्रूण हत्या कर,

छू लिया,

विज्ञान का आकाश।


क्या सोचा है कभी?

मेरे बिन,

बचा पाओगे जमीं?

तड़पायेगी नहीं मेरी कमी?

मेरे बिन जी पाओगे?

अपना अस्तित्व बचाओगे?

हृदय-हीन होकर

कब तक रह पाओगे?


तुम्हारी ही खातिर,

जागना होगा मुझको,

तुम्हारी ही खातिर,

अर्जित करनी होगी शक्ति,

तुम्हें विध्वंस से बचाने की खातिर,

शिक्षा-धन-शक्ति से,

बनूंगी सशक्त!

फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!

Monday, December 15, 2008

vishavas

जीवन में केवल दो व्यक्तियों पर ही विश्वास करना चाहिए । एक स्वंय और एक भगवान पर क्योकि विश्वास घात वे ही लोग करते जिन पर हम विश्वास करते है। और इस सदमे को हम बर्दाश्त नही कर सकते और यह एक ऐसा नासूर बन जाता है जो हमें जीवन भर सताता रहता है।

Monday, December 8, 2008

अपना रॉल मॉडल- मैं स्वयं

अक्टूम्बर में , मैं नवोदय नेतृत्व संस्थान में व्यक्तिव विकास कार्यक्रम में भाग लेने गौतम बुद्ध नगर , उत्तर प्रदेश गया था । वहाँ संस्थान में हमें रॉल मॉडल पर लिखने के लिए कहा गया। काफी विचार के बाद मुझे लगा वास्तव में कोई एक व्यक्ति किसी के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता । प्रस्तुत हैं , इस विषय पर वहाँ लिखे विचार।

अपना रॉल मॉडल- मैं स्वयं

व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यनत अनगिनत व्यक्तियों व प्राकृतिक उपादानों के सम्पर्क में आता है। हम असंख्यों व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं तथा असंख्यों व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं( यही नहीं प्रकृति के प्रत्येक उपादान को प्रभावित करते हैं और प्रत्येक उपादान से प्रभावित होते हैं। व्यक्ति इस समिष्ट का ही अंग है। अत: उसकी प्रत्येक प्रक्रिया से सम्पूर्ण सृिष्ट प्रभावित होती है। किन्तु दूसरा पहलू भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विलक्षण (unique) व भिन्न है। हम किसी भी व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके जीवन के अनुरूप अपने जीवन को नहीं बना सकते, न ही किसी व्यक्ति के समस्त गुणों को आत्मसात कर सकते हैं। अवगुणों को आत्मसात करना तो कोई भी नहीं चाहेगा।

यह एक स्थापित सत्य है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण होने की ओर अग्रसर होना चाहता है। अत: किसी भी महान से महान व्यक्ति के नकारात्मक पक्ष को कोई भी विवेकशील व्यक्ति अपनाना नहीं चाहेगा अर्थात हम किसी भी व्यक्ति की शत-प्रतिशत नकल करना नहीं चाहेंगे और न ही ऐसा संभव है। वास्तविकता यही है कि रॉल मॉडल की अवधारणा ही काल्पनिक है। कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता। हम किसी भी व्यक्ति के समान जीना नहीं चाहेंगे। मेरा मानना है कि हमें अपने व्यक्तित्व का विकास अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं व समाज की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। कोई भी एक व्यक्ति मेरे लिए आदर्श की भूमिका में नहीं हो सकता। मैं अनेक व्यक्तियों से प्रभावित हुआ हू¡, अनेक व्यक्तियों से मार्गदर्शन प्राप्त करता हूँ करता रहूँगा किन्तु किसी भी व्यक्ति की नकल करना नहीं चाहू¡गा। मैं अपने आपको किसी अन्य व्यक्ति की तरह नहीं वरन अपने आप के रूप में ही विकसित करने के प्रयत्न करूंगा ।

हाँ, जिन लोगों से मैंने सीखा, सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ । सभी को याद रखना संभव भी नहीं हो पाता कदम-कदम पर सीख-सीख कर ही तो व्यक्ति आगे बढ़ता है। कई बार हम जानते ही नहीं कि किससे क्या सीखा और अनजाने ही आत्मसात कर लिया। वस्तुत: व्यक्ति नहीं विचार और विचार से भी आचरण महत्वपूर्ण होता है। इस सन्दर्भ में धर्मराज युधिष्ठर का प्रसंग महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। युधिष्ठर को पहला पाठ पढ़ाया गया, क्रोध न करें। युधिष्ठर उसे आत्मसात करने का प्रयत्न करते रहे। सभी विद्यार्थी आगे बढ़ गये। उन्हें द्रोणाचार्य के पास ले जाया गया। उन्होंने युधिष्ठर को पूछा, `युधिष्ठर! तुम सात दिन में पहले पाठ से आगे ही नहीं बढे़, जबकि तुम्हारे भाई आगे के कई पाठों का भी अभ्यास कर चुके हैं।´

विनम्रता के साथ युधिष्ठर ने निवेदन किया, ``गुरूदेव! मैं जब तक पहले पाठ को पूर्णत: आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक आगे कैसे बढ़ू?´´ गुरू जी ने कठोर वचन भी कहे किन्तु उनके चेहरे पर किसी भी प्रकार के क्रोध के अवशेष न थे। वे पहले पाठ को आत्मसात कर आचरण में उतार चुके थे। गुरूदेव अपने विलक्षण िशष्य को निहारते रह गये।

श्री कृष्ण, जिनको रसराज, पूर्णावतार व प्रेम का देवता माना जाता है, बचपन से ही क्या? जन्म से ही संघर्षों से पाला पड़ा। जन्म ही संघर्ष करने को हुआ। संघर्ष करते हुए भी सभी को प्रेम लुटाया। सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। उन्हें सभी चाहते हैं किन्तु वे सभी से प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते हैं। सभी को आनंदित देखना चाहते हैं किन्तु किसी से कोई आकांक्षा नहीं है। किसी से किसी प्रकार का मोह नहीं है। सभी के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, आवश्यकता पड़ने पर किसी से भी अलग होने का निर्णय करने में तनिक भी विलंब नहीं, किसी प्रकार का लगाव नहीं, सभी का हित चिन्तन करते हैं। सभी को सुखी देखना चाहते हैं। न, केवल चाहते हैं वरन् इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं। यही तो सार्वभौमिक प्रेम है।

मेरी माताजी प्रति पल सक्रिय रहती हैं। हम नहीं चाहते, वे इस उम्र में इतना काम करें। किन्तु वे काम करने के किसी भी अवसर को हाथ से जाने ही नहीं देतीं। मैंने उनसे कहा, ``हम लोग प्रत्येक कार्य करने के लिए तैयार हैं, फिर भी आप परेशान क्यों होती हैं? जो भी काम है हमें बताइये। हम करेंगे। आप बैठकर केवल निर्देश दें।´´

माताजी ने मुझे समझाया,``काम करना शरीर की आवश्यकता है। काम करना बन्द कर देने पर शरीर जाम हो जाता है। यदि मैं काम करना बन्द कर दू¡गी तो तेरे पिताजी की तरह मोटी हो जाऊ¡गी, चलना-फिरना दूभर हो जायेगा।´´

निरक्षर होने के बाबजूद मेरी माताजी ने जीवन का सार किस प्रकार मुझे बताया( मैं आश्चर्य से उन्हें देखता ही रह गया। उन्होंने निरन्तर सक्रियता को जिस प्रकार अपने आचरण में आत्मसात किया उसे आत्मसात कर सकू¡, यही उनके प्रति सच्चा सम्मान होगा।

संदर्भित उद्धरण केवल उदाहरण मात्र हैं। वस्तुत: व्यक्तित्व के विकास में असंख्यों जाने-अनजाने व्यक्तियों की प्रेरणा कार्य करती है, तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है किसी की नकल नहीं। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता, जिसकी भूमिका का निर्वाह हम अपने जीवन में कर सकें अर्थात कोई भी हमारा रॉल माडल नहीं होता। हम स्वयं में अपनी ही भूमिका का निर्वाह करते हैं और स्वयं में अपने रॉल माडल हैं। हम किसी के भी व्यक्तित्व को अपने आप पर आरोपित नहीं कर सकते। क्योंकि हम स्वयं ही मौलिक हैं।

Friday, November 28, 2008

स्वागत लेख

राष्ट्रप्रेमी
मै सभी पाठको का जो स्वागत करता हु जो हमारा ब्लॉग पढ़ते है और संतोष गौड़ का आभारी हु जिन्होंने मुझे अपने ब्लॉग में सहयोगी बनाया

Tuesday, November 25, 2008

राजस्थान की वीर-नारियाँ -चतुर्थ भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।


राजस्थान की वीर-नारियाँ -चतुर्थ भाग

पद्मिनी :- महारानी पद्मिनी चित्तौड़ के रावल रतनसिंह की पत्नी थी। पद्मिनी इतनी सुन्दर थी कि काव्य में उसे उपमान के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जब पद्मिनी की सुन्दरता के बारे में सुना तो वह उसे प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा। उसने अपनी इच्छापूर्ति के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण भी किया, किन्तु जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने रावल रतनसिंह को सन्देश भेजा कि यदि उसे पद्मिनी को केवल दिखा दिया जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।
चित्तौड़ को विनाश से बचाने के लिए खिलजी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। सुल्तान किले में बुलाया गया और उसे पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखाया गया। उसे चाहकर भी पद्मिनी प्रत्यक्ष देखने को नहीं मिली। रावल रतनसिंह जब खिलजी को औपचारिकता वश छोड़ने के लिए गए तो वहा¡ उन्हें कैद कर लिया गया और सुल्तान के द्वारा रतनसिंह को छोड़ने के लिए पद्मिनी को साथ ले जाने की शर्त रखी।
सुल्तान की चाल का जबाब भी चाल से दिया गया। रानी ने दिलेरी के साथ सुल्तान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह सुल्तान के साथ जाने को तैयार है किन्तु वह अपने साथ अपनी दासियों को भी ले जाना चाहती है। सुल्तान को इससे क्या आपत्ति हो सकती थी। योजनानुसार पालकिया¡ तैयार की गयीं। प्रत्येक पालकी में एक वीर योद्धा शस्त्रों सहित बैठ गया। पालकी उठाने के लिए भी कहारों के रूप में छ: सशस्त्र योद्धाओं का चयन किया गया। गोरा के नेतृत्व में पालकिया¡ सुल्तान के डेरे पर पहु¡ची। गोरा ने सुल्तान से कहा कि रानी अन्तिम बार अपने पति से मिलना चाहतीं हैं।
सुल्तान की अनुमति के बाद पालकिया¡ रतनसिंह के खेमें में पह¡ची और वहा¡ पहु¡चते ही पालकियों में छिपे योद्धाओं ने राव रतनसिंह को मुक्त करा कर किले में भेज दिया। मुगल सैनिक उन्हें नहीं रोक पाये। निराश होकर सुल्तान दिल्ली लौट गया किन्तु उसने कुछ समय बाद पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण किया जिसमें राजपूतों को पीले वस्त्र पहनकर मरने-मारने के संकल्प के साथ किले से निकलना पड़ा।
पद्मिनी के नेतृत्व में महिलाओं ने अपना बलिदान करके अपनी पवित्रता व चित्तौड़ के आत्मसम्मान की रक्षा की और सिद्ध कर दिया कि भारतीय नारिया¡ सुन्दरता में ही नहीं, वीरता और बलिदान में भी आगे हैं; उन्हें शक्ति के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं ।
रानी कर्मवती - राणा सांगा खानवा के युद्ध में घायल होकर अधिक समय तक जीवित न रह सके। उनकी मृत्यु के बाद विक्रमादित्य को गद्दी पर बिठाया गया किन्तु वे अयोग्य शासक सिद्ध हुए, उनकी कमजोरी का फायदा उठाने के लिए गुजरात के शासक बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया।
विक्रमादित्य ने बहादुरशाह से सन्धि कर ली। राणा सांगा की पत्नी वीरांगना कर्मवती को यह सन्धि अपमान के रूप में लगी। उसने मेवाड़ के सामन्तों व सैनिकों को इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित किया। सभी ने रानी के सामने मातृभूमि की रक्षा में मर मिटने का संकल्प लिया। बहादुर शाह ने जब सन्धि तोड़ते हुए चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण किया तो कर्मवती की प्रेरणा से उत्साहित राजपूत सेना ने शत्रु-सेना का डटकर मुकाबला किया।
बहादुर शाह की विशाल सेना को रोक पाना संभव न रहा तो रानी ने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि शत्रु हमारे जीवित रहते हुए किले में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। रानी ने स्वयं सेना का नेतृत्व किया। रानी ने हुमायू¡ की सहायता प्राप्त करने के लिए उसे राखी भी भेजी। हुमायू¡ राखी का सम्मान करते हुए चित्तौड़ के लिए सेना के साथ रवाना भी हो गया किन्तु वह समय पर चित्तौड़ न पहु¡च सका। रानी कर्मवती ने दुर्ग के द्वार खोलकर मातृभूमि की के लिए युद्ध करते हुए रानी ने प्राण न्यौछावर कर दिए।
हाड़ी रानी :- सलूम्बर के युवा सामन्त चुण्डावत की नवविवाहिता पत्नी का नाम हाड़ी रानी था। मेवाड़ में महाराणा राजसिंह का शासन था। महाराणा राजसिंह का विवाह चारूमती (रूपमती) के साथ होने जा रहा था, उसी समय औरंगजेब ने अपनी सेना लेकर आक्रमण कर दिया।
विवाह होने तक मुगल सेना को आगे बढ़ने से रोकना आवश्यक था। औरंगजेब की सेना को रोकने का दायित्व नव विवाहित राव चुण्डावत ने स्वीकार किया। महाराणा ने चुण्डावत से कहा - `आपका कल ही तो विवाह हुआ है, आप युद्ध में न जाए¡।´ चुण्डावत सरदार ने उत्तर दिया, ``महाराणा! राजपूतों के लिए युद्ध भी विवाह के समान ही है। युद्ध में मौत का वरण किया जाता है। युद्ध में भाग लेना ही राजपूतों का धर्म है।´´
चुण्डावत सरदार महाराणा की आज्ञा प्राप्त कर अपनी हवेली पहु¡चे और रानी को दरबार में हुई बात के बारे मेें जानकारी दी। अपने वीर पति की वीरता से रोमांचित रानी प्रसन्न हो उठी, उसने सोचा मेरा जीवन धन्य हो गया, जो मुझे ऐसे वीर पति मिले। मैं आदशZ क्षत्राणी धर्म का पालन करू¡गी। हाड़ी रानी ने अपने हाथों से अपने पति को अस्त्र-शस्त्र धारण कराये, टीका लगाया और आरती उतार कर युद्ध क्षेत्र के लिए विदा किया।
चुण्डावत सरदार ने सेना के साथ युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया किन्तु जाते समय उन्हें अपनी नव-विवाहिता पत्नी की याद सताने लगी। उन्होंने अपने एक सेवक से कहा, ``जाओ! रानी से सैनाणी (निशानी) लेकर आओ।´´ सेवक ने हवेली में जाकर सरदार का संदेश सुनाया। रानी ने सोचा युद्ध क्षेत्र में भी उन्हें मेरी याद सतायेगी तो वे कमजोर पड़ जायेंगे, युद्ध कैसे कर पायेंगे। मैं उनके कर्तव्य में बाधक क्यों बनू¡? यह सोचकर हाड़ी रानी ने सेवक के हाथ से तलवार लेकर सेवक को अपना सिर ले जाने का आदेश देते हुए तलवार से अपना सिर काट डाला। सेवक रानी का कटा सिर अपनी थाली में लेकर, सरदार के पास पहु¡चा। रानी का बलिदान देखकर चुण्डावत की भुजाए¡ फड़क उठी। उत्साहित सरदार तलवार लेकर शत्रु-दल पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए ।
स्रोत: वीर बालिकाए¡, गीताप्रेस gorakhapur; सामाजिक विज्ञान (पर्यावरण अध्ययन-1) कक्षा- 4, राजस्थान राज्य पाठयपुस्तक मण्डल, जयपुर; स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी-िशवतोष दास, ´पोस्ट बॉक्स नं.11 कुचामन शहर -341508 राजस्थान

राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।



राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग



राजकुमारी रत्नावती :- जैसलमेर-नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने गये थे। जैसलमेर-किले की रक्षा उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंप दी थी। इसी दौरान दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने घेर लिया, जिसका सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुगल सेना ने घेरा डाल लिया किन्तु राजकुमारी रत्नावती इससे घबरायी नहीं और सैनिक वेश में घोड़े पर बैठी किले के बुर्जों व अन्य स्थानों पर घूम-घूम कर सेना का संचालन करती रही।

रत्नावती की फुर्ती, जागरूकता व कौशल के कारण मुगल सेना चाहकर भी आक्रमण न कर सकी और उसे अपने बहुत से वीर खोकर पीछे हटना पड़ा। जब मुगल सैनिकों ने देखा कि किले को तोड़ा नहीं जा सकता, तब एक दिन बहुत-से सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती ने रणनीतिक कौशल का प्रयोग करते हुए पहले तो अपने सैनिक हटा लिए और उन्हें चढ़ने दिया, वे जब दीवार पर चढ़ आये तब उसने उनके ऊपर पत्थर बरसाने व गरम तेल डालने की आज्ञा दे दी, इससे शत्रु का वह दल नष्ट हो गया।

एक दिन एक मुगल सैनिक छिपकर रात में किले पर चढ़ने लगा किन्तु राजकुमारी रत्नावती की नजरों से बचना संभव न था। उस सैनिक ने पहले तो यह कहकर धोखा देना चाहा, ``मैं तुम्हारे पिता का संदेश लाया हू¡।´ किंतु रत्नावती धोखे में आने वाली नहीं थी, उसने उस शत्रु-सैनिक को बाणों से बींध दिया।

मुगल सेनापति मलिक काफूर ने यह सोचकर कि वीरता से जैसलमेर का किला जीतना कठिन है। उसने बूढ़े द्वारपाल को सोने की ईंटें दीं और कहा कि वह रात को किले का फाटक खोल दे। द्वारपाल ने रत्नावती को यह बात बतला दी। रत्नावती ने द्वारपाल को रात में किले का फाटक खोलने के लिए कह दिया।

आधी रात को मलिक काफूर सौ सैनिकों के साथ किले के फाटक पर आया। बूढ़े द्वारपाल ने रत्नावती के निर्देशानुसार फाटक खोलकर उन्हें अन्दर घुसा लिया और फाटक बन्द करके उन्हें रास्ता दिखाता हुआ आगे ले चला। थोड़ी दूर आगे जाकर वह किसी गुप्त मार्ग से गायब हो गया। मलिक काफूर व उसके सैनिक हैरान रह गये। किले के बुर्ज पर खड़ी राजकुमारी को हंसते देखकर वे समझ गये कि उन्हें कैद कर लिया गया है।

सेनापति के पकड़े जाने पर मुगल सेना ने किले को घेर लिया। किले के भीतर का अन्न समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास करने लगे। रत्नावती भूख से दुर्बल होकर पीली पड़ गयी किन्तु ऐसे संकट में भी उसने राज-धर्म का पालन किया। अपने यहाँ कैद शत्रुओं को पीड़ा नहीं दी। रत्नावती अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी अन्न देती थी, किंतु मुगल बंदियों को दो मुट्ठी अन्न रोज दिया जाता था।

अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर किले में सेनापति कैद है और किले को जीतने की आशा नहीं है तो उसने महारावल रत्नसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा। राजकुमारी ने एक दिन देखा मुगल सेना अपने तम्बू-डेरे उखाड़ रही है और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं। मलिक काफूर जब किले से छोड़ा गया तो उसने कहा-`राजकुमारी साधारण लड़की नहीं, वे वीरांगना तो हैं ही, देवी भी हैं। उन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। वे तो पूजा करने योग्य हैं।´

विद्युल्लता :- विद्युल्लता चित्तौड़ के एक सरदार की कन्या थी जिसकी सगाई समरसिंह नाम के राजपूत सरदार के साथ हो गयी थी। दोनों के विवाह की तैयारी चल रहीं थी कि चित्तौड़ पर अलाउद्दीन ने आक्रमण कर दिया। समरसिंह को अपने देश की रक्षा के लिए युद्ध में जाना पड़ा। विद्युल्लता एकान्त में रहती व अपने पति का चिन्तन किया करती।

एक दिन चांदनी रात में समरसिंह विद्युल्लता के घर आया और अकेले में उससे मिलकर बोला` `मुझे लगता है कि अब थोड़े दिनों में ही चित्तौड़ मुगलों के हाथ में चला जायगा। मुसलमान सैनिक बहुत अधिक हैं, अत: राजपूतों को हारना ही पड़ेगा। अत: मेरी इच्छा है कि हम-तुम कहीं दूर भाग चलें।´

विद्युल्लता गरज उठी-`तुम सोचते हो, मैं तुम्हारे जैसे कायर से विवाह करूंगी ? कोई राजपूत-कुमारी युद्ध के भगोड़े पर थूकना भी न चाहेगी। तुम्हें मेरा हाथ पकड़ना है तो युद्ध में जाकर अपनी वीरता दिखाओ। युद्ध में मारे गये तो सती होकर स्वर्ग में, मैं तुमसे मिलूंगी ।´ विद्युल्लता समरसिंह को फटकार कर अपने घर चली गयी।

समरसिंह निराश होकर लौट पड़ा। वह अलाउद्दीन की सेना से डर गया था। वह विद्युल्लता की सुन्दरता पर मोहित था। अत: मरने से डर लगता था। उसने सोचा युद्ध समाप्त होने पर विद्युल्लता उसे मिल सकती है। वह शत्रुओं से मिल गया।

जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीत लिया समरसिंह मुगल सैनिकों के साथ विद्युल्लता से मिलने चला। विद्युल्लता ने समरसिंह को मुगल सैनिकों के साथ आते देखा तो वह समझ गयी कि यह देशद्रोही है। पास पहुंचकर समरिंसंह ने विद्युल्लता का हाथ पकड़ना चाहा, किंतु वह पीछे हट गयी और डांटकर बोली-`अधम देशद्रोही! मेरे शरीर को स्पर्श कर मुझे अपवित्र मत कर। शत्रुओं से मिलकर मेरे पास आते हुए तुझे लज्जा नहीं आयी? जा, कहीं चुल्लू भर पानी में डूब मर। विश्वासघाती कायरों के लिए यहाँ स्थान नहीं है।´

समरसिंह विजय के घमण्ड में था। वह विद्युल्लता को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन विद्युल्लता ने अपनी कटार खींच ली और अपनी छाती में दे मारी और दिव्य लोक को प्रस्थान किया। समरसिंह के हाथ लगा केवल उसका प्राणहीन शरीर और देश से विश्वासघात करने का कलंक। इस प्रकार स्वाभिमानी वीरांगना ने देशद्रोही को पति स्वीकार कर ऐश्वर्य भोगने की अपेक्षा मृत्यु का वरण करना उचित समझा।

वीरांगना कृष्णा :- मेवाड़ महाराजा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा अत्यन्त सुन्दरी थी। जयपुर और जोधपुर के नरेशों ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। मेवाड़ महाराणा ने सब बातों पर विचार करके जोधपुर नरेश के यहाँ कृष्णा की सगाई भेजी। जयपुर नरेश इस बात से चिढ़ गये और चित्तौड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे।

जोधपुर-नरेश इस बात को कैसे सहन करते कि उनके साथ सगाई करने के कारण चित्तौड़ पर आक्रमण हो। अत: जयपुर और जोधपुर राज्यों के बीच युद्ध ठन गया। जयपुर नरेश जोधपुर को हराने में सफल रहे। अब उन्होंने मेवाड़-नरेश के पास सन्देश भेजा कि अपनी पुत्री का विवाह वे उनसे कर दें।

मेवाड़ के महाराणा ने उत्तर दिया- `मेरी पुत्री कोई भेड़-बकरी नहीं है कि लाठी चलाने वालों में जो जीते, वह घेर ले जाय। मैं उसके भले-बुरे का विचार करके ही उसका विवाह करूंगा। ´

जयपुर-नरेश ने मेवाड़ के पास पड़ाव डाल दिया और कहला भेजा-`कृष्णा अब मेवाड़ में नहीं रह सकती। या तो उसे मेरी रानी बनकर रहना होगा या मेरे सामने से उसकी लाश ही निकलेगी।´ मेवाड़ की छोटी सेना जयपुर-नरेश का युद्ध में सामना नहीं कर सकती थी, किन्तु धमकी पर पुत्री को देना तो देश के पराजय से भी बड़ा अपमान था। अन्त में महाराणा भीमसिंह ने जयपुर नरेश की बात पकड़ ली- `कृष्णा की लाश ही निकलेगी।´

राजमहल में हा-हाकार मच गया। कृष्णा ने जब यह सुना तो वह ऐसी प्रसन्न हुई, जैसे उसे कोई बहुत बड़ा उपहार मिल गया हो। उसने अपनी माँ को समझाया- `माँ! आप क्षत्राणी होकर रोती हो? अपने देश के सम्मान के लिए मर जाने से अच्छी बात क्या हो सकती है? माँ! तुम्हीं तो बार-बार कहा करती थीं कि देश के लिए मर जाने वाला धन्य है। देवता भी उसकी पूजा करते हैं।´

अपने पिता महाराणा से उस वीर बालिका ने कहा-`पिताजी! आप राजपूत हैं, पुरुष हैं और फिर भी रोते हैं? चित्तौड़ के सम्मान की रक्षा के लिए तो मैं सौ-सौ बार मरने के लिए तैयार हूँ । मुझे विष का प्याला दीजिये।´

कृष्णा को विष का प्याला दिया गया, जिसे वह गटागट पी गई। जब कृष्णा की लाश निकली उस बलिदानी बालिका के लिए जयपुर-नरेश ने भी हाथ जोड़कर सिर झुका दिया और उनकी आंखों से भी आंसू टपकने लगे।

वीर बाला चम्पा :- महाराणा प्रताप परिस्थितियों के कारण वन-वन भटक रहे थे किन्तु उन्होंने मुगलों के सामने झुकना मंजूर नहीं किया। महाराणा को बच्चों के साथ दिन रात पैदल चलना पड़ता था। बहुधा बच्चों को उपवास करना पड़ता था। तीन-तीन, चार-चार दिन जंगली बेर व घास की रोटियों पर निकल जाते। कई बार ऐसा अवसर भी आता कि घास की रोटियां भी बनाते-बनाते छोड़कर भागने को विवश होना पड़ता।

महाराणा की पुत्री चम्पा ग्यारह वर्ष की थी। चम्पा एक दिन अपने चार-वर्षीय भाई के साथ नदी किनारे खेल रही थी। कुमार को भूख लगी थी। वह रोटी मांगते हुए रोने लगा। उस चार वर्ष के बच्चे में समझ कहां थी कि उसके माता-पिता के पास अपने युवराज के लिए रोटी का टुकड़ा भी नहीं है। चम्पा ने अपने भाई को कहानी सुनाकर व फूलों की माला पहनाकर बहला दिया। राजकुमार भूखा ही सो गया।

चम्पा जब अपने छोटे भाई को गोद में लेकर माता के पास सुलाने आई तो महाराणा को चिन्ता में डूबे हुए देखकर बोली, ``पिताजी! आप चिन्तित क्यों हैं?´´ `बेटी! हमारे यहां एक अतिथि पधारे हैं। आज ऐसा भी दिन आ गया है कि चित्तौड़ के राणा के यहां से अतिथि भूखा चला जाय।´ महाराणा ने उत्तर दिया।

चम्पा बोली, `पिताजी! आप चिन्ता न करें! हमारे यहां से अतिथि भूखा नहीं जायेगा। आपने मुझे कल जो दो रोटियां दी थीं, वे मैंने भाई के लिए बचा कर रखीं थीं, वह सो गया है। मुझे भूख नहीं है। आप उन रोटियों को अतिथि को दे दीजिये।´ पत्थर के नीचे दबाकर रखी घास की रोटियां पत्थर हटाकर चम्पा ले आई। थोड़ी सी चटनी के साथ वे रोटियां अतिथि को दे दी गयीं। अतिथि रोटी खाकर चला गया।

महाराणा बेटी के त्याग को देखकर द्रवित हो उठे, उनसे अपने बच्चों का कष्ट देखा नहीं गया। उस दिन उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र लिख दिया। ग्यारह-वर्षीय सुकुमार बालिका चम्पा दो-चार दिन में तो घास की रोटी पाती थी और उसे भी बचाकर रख लिया करती थी। अपने भाग की रोटी वह अपने भाई को थोड़ी-थोड़ी करके खिला देती थी। भूख के मारे वह स्वयं दुर्बल व कृश-काय हो गई थी। उस दिन अतिथि को रोटियां देने के बाद वह मूर्छित भी हो गयी।

महाराणा ने उसे गोद में उठाते हुए रोकर कहा- `मेरी बेटी! अब मैं तुझे और कष्ट नहीं दूंगा। मैंने अकबर को पत्र लिख दिया है।´ यह सुनकर चम्पा मूर्छा में भी चौक पड़ी, बोली, `पिताजी! आप यह क्या कहते हैं? हमें मरने से बचाने के लिए आप अकबर के दास बनेंगे? पिताजी! हम सब क्या कभी मरेंगे नहीं? पिताजी! देश को नीचा मत दिखाइये! देश और जाति की गौरव-रक्षा के लिए लाखों लोगों का मर जाना भी उत्तम है। पिताजी! आपको मेरी शपथ है, आप अकबर की अधीनता कभी स्वीकार न करें।´ बेचारी चम्पा महाराणा की गोद में ही सदा के लिए चुप हो गयी।

कहा जाता है जब अकबर के दरबार में महाराणा का पत्र पहुंचा तो पत्र देखकर पृथ्वीराजजी ने पत्र की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए महाराणा को पत्र लिखा और उसे पढ़कर महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने का विचार त्याग दिया। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि बालिका चम्पा ने अपने बलिदान से ही महाराणा को दृढ़ता देकर हिंदुकुल गौरव की रक्षा की।

Monday, November 24, 2008

राजस्थान की वीर-नारियाँ -द्वितीय भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा ।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।।


राजस्थान की वीर-नारियाँ -द्वितीय भाग

कृषक कन्या हम्मीर माता :- कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े कुमार अरिसिंहजी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे हैं। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, `राजकुमार! आपलोग मेरे खेत में घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट हो जायेगी। आप यहाँ रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हू¡।´

राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सूअर को कैसे मारकर लायेगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में उसने सूअर को मारकर राजकुमार के सामने ला पटका। राजकुमार का काफिला लौटकर पड़ाव पर आ गया। जब वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मा¡गने लगी।

राजकुमार बोले, `तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य मैं पड़ गया हू¡। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है।´

कृषक-कन्या ने विनम्रता से कहा, ``अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है।´´ इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैंसों की रस्सियाँ पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। उस लड़की ने उसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा।

निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया।


पन्नाधाय :- पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मा¡ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना धाय मा¡ कहलाई। पन्ना का पुत्र व राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी।

दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई।

पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंक की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।

पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आ¡खों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
वीरांगना कालीबाई :- वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई है। यहाँ तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पड़ने पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चा¡द लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियाँ सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रहीं हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामो में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का।

स्वाधीनता आन्दोलन चल रहा था। वनवासी अंचल को गुलामी का अँधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राज्य सत्ता कमजोर होगी।

राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बन्द करने का आदेश दिया। नानाभाई डूंगरपुर जिले के वनवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार के काम में लगे थे। वे गांव-गांव जाकर वनवासियों को शिक्षा का महत्व समझाते व पाठशालायें खोलते। डूंगरपुर के महाराज लक्ष्मण सिंह ने क्षेत्र के 25 वर्ष पुराने छात्रावास को बन्द करवाने के बाद नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालायें बन्द करें। लेकिन नानाभाई नहीं माने।

अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट 19 जून 1947 को पाठशाला पहुंचे , जहाँ नानाभाई का घर भी था। उस समय नानाभाई अन्य अध्यापक सेंगाभाई से बातचीत कर रहे थे। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाया और धमकाते हुए आज्ञा दी कि पाठशाला बन्द करके चाबी उन्हें दें।

पाठशाला बन्द करना नानाभाई को स्वीकार नहीं था। अत: नानाभाई व उनके साथी अध्यापकों को पीटा जाने लगा। मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्ही बालिका जो उसी समय घास काट कर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, ``अरे, तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छाड़ दो! इन्हें छोड़ दो!

हाथ में हंसियां, पाँव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बन्दूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमकियों से। उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बन्दूक तानकर कहा, ``ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दू¡गा।´´

लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाठ व सेंगाभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बन्दूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरु कर दिया और पुलिस की बन्दूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलायें भी घायल हुईं। अपनी दुर्गति का अन्दाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले।

घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में इलाज के लिए ले जाया गया। कालीबाई के साथ घायल हुईं अन्य भील महिलायें नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यापक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डू¡गरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मूर्तिया भी स्थापित की गईं हैं।

राजस्थान की वीर-नारियां :- प्रथम भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।
सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।

राजस्थान की वीर-नारियां :- प्रथम भाग


भारत एक विकासोन्मुखी देश है। यहाँ के निवासी केवल भौतिक ही नहीं अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक विकास की ओर भी जागरूक रहते हैं। हम केवल धन की बात नहीं करते, हमारी संस्कृति व परंपरा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की बात करती है। हमारे यहाँ शरीर ही नहीं आत्मिक शक्ति के विकास पर पर्याप्त दिया जाता है। आत्मा के स्तर पर सभी प्राणियों को एक ही स्तर पर माना जाता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास करके पूर्णता अर्थात परमात्मा तक पहुँचने के प्रयत्न करके अपने आप को परमात्मा से एकाकार कर सकता है। धर्म, संप्रदाय, जाति या लिंग के आधार पर विकास में कोई अन्तर नहीं होता। नर हो या नारी सभी को उनकी प्रकृति के अनुसार विकास के समान अवसर उपलब्ध होते हैं। परमात्मा के साथ संबन्ध स्थापित करने का मार्ग केवल पूजा-पाठ से होकर ही नहीं जाता, हमारी मान्यता है कि व्यक्ति किसी भी मार्ग से परमात्मा के पास पहुँच सकता है। हमारे यहाँ पूजा को ही नहीं, युद्ध को भी स्वर्ग का साधन माना गया है। भारत भूमि को वीर प्रसू कहा जाता है।
केवल संसार से विराग अर्थात संन्यास ही धर्म का मार्ग नहीं है, युद्ध भी धर्म का का मार्ग है। देश व समाज के लिए युद्ध करते हुए प्राण उत्सर्ग करने वाले भी वीरगति को प्राप्त होते हैं। गीता में भी भगवान कृष्ण भक्ति योग, ज्ञान योग व कर्म योग का उपदेश देते हुए अर्जुन को युद्ध के लिए ही तैयार करते हैं। वस्तुत: सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है। इस संग्राम को जो देश व समाज के हित में लड़ते हैं वे इस लोक में ही नहीं परलोक में भी श्रेष्ठ स्थान पाते हैं। ऐसा भारतीय दर्शन का मानना है। वीरता भी धर्म का एक आवश्यक अंग है। वीरता के पथ को अंगीकार करने वाले वीर व वीरांगनाओं की भारत में कमी नहीं रही है।
केवल राजपूतों या राज-परिवारों तक ही वीरता सीमित नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर भारत के किसान भी हल को ही औजार बनाकर आगे आते हैं। हाथों को चूढ़ियों से सजाने वाली भारतीय नारी भी वीरता में कभी पीछे नहीं रही हैं। नारियों ने आवश्यकतानुसार घर को सभांलकर जहाँ पुरूष को शक्तिशाली बनाया है, वहीं आवश्यकतानुसार स्वयं आगे बढ़कर भी दुष्टों को धूल चटाई है। अभिमानियों का अभिमान भंग किया है।
यद्यपि संपूर्ण भारत भूमि ही नर-नारियों की वीरता की कहानी कहती है, तथापि राजस्थान की माटी में बहादुरी व साहस कूट-कूट कर भरा है। यहाँ की नारियों की बात करें तो ये भारत की वीरांगनाओं में विशेष स्थान रखती हैं। वैदिक युग से लेकर मुगल काल तक ही नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी राजस्थान की वीरांगनाओं का योगदान स्तुत्य रहा है। राजस्थान में ऐसी वीरांगनाओं का इतिहास मिलता है जिनके शौर्य और बलिदान की गाथाएँ दन्तकथा बनकर आज भी घर-घर में सुनी जाती हैं। यहाँ माताएं पालने में ही शिशुओं को देशभक्ति की लोरियां सुनाती रही हैं। अपने पति व भाइयों को खुशी-खुशी न केवल लड़ने के लिए युद्ध के लिए टीका लगाकर विदा करती रही हैं वरन् उनके कमजोर पड़ने पर उन्हें धिक्कारा व दुत्कारा भी है। यही नहीं वे युद्धक्षेत्र में उनकी याद करके कमजोर न पड़े इस उद्देश्य से अपना बलिदान भी दिया है। समय-समय पर मातृभूमि की रक्षा के लिए राजस्थान की नारियां बलिदान देने से पीछे नहीं हटी हैं। राजस्थान की नारियों में त्याग व बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है। अपने परिवार के लिए प्रेम व वात्सल्य की बर्षा करने वाली नारी अपनी व अपने परिवार की आन व शान की रक्षा की खातिर दुर्गा व चण्डी का रूप भी धारण करती है। इस प्रकार के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
राजस्थान की रानी पद्मिनी जहाँ काव्य में सौन्दर्य का प्रतिमान बनकर सामने आती हैं। वही जौहर व्रत के साथ वीरांगना रूप भी देखने को मिलता है। उनके पति युद्ध क्षेत्र में नि:श्चिंत होकर मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध कर सकें, इस उद्देश्य के लिए जीवित ही चिता की भेंट चढ़ जाना, युद्ध क्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने से भी अधिक दुष्कर कार्य है। राजकुमारी रत्नावती ने किस प्रकार किले की रक्षा में शत्रु से लोहा लिया और बन्दी सैनिकों के प्रति भी राजधर्म निभाया वर्तमान में बड़े-बड़े तथाकथित देशभक्तों के लिए दा¡तों तले उंगली दबाने वाली बात हो सकती है। वागदत्ता विद्युल्लता द्वारा अपने होने वाले देशद्रोही पति के स्पर्श से बचने के लिए अपने प्राणों का ही बलिदान दे देना, आज के भोगवादी युग में केवल किवदंती लगता है। कुछ आधुनिकाएं इसे मूर्खता भी कह सकती हैं किन्तु इससे उनके बलिदान का मूल्य कम नहीं हो जाता। राज्य के सम्मान के लिए जहर पीने वाली कृष्णा ही नहीं, महाराणा प्रताप को उनके धर्म पर दृढ़ करने वाली बालिका चम्पा के बलिदान वर्तमान भटकती हुई पीढ़ी के लिए आदर्श होने चाहिए। रानी कर्मवती और हाड़ी रानी जैसी राजपुतानियाँ ही नहीं सामान्य वनवासी बालिका कालीबाई व पन्नाधाय जैसी नारियां भी बलिदान देने से पीछे नहीं रहीं। अपनी वीरता व शक्ति के बल पर ही एक सामान्य कृषक कन्या प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दे सकी।

Wednesday, November 19, 2008

यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।

यहाँ वही है हंसता दिखता
स्वार्थ ही हमको नित्य रुलाता, स्वार्थ ही नित तड़फाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
तू कांटो को फूल समझ ले,
आग को ही तू कूल समझ ले
भूल हुई जो सुधर न सकती,
खुशियाँ अपनी धूल समझ ले।
जो भी बनता साथी यहा¡ पर, रस लेकर उड़ जाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
हँसने वाले बहुत मिलेंगे
चन्द क्षणो को साथ चलेंगे
सुख-सुविधा जब तक दे पाये
तेरे साथ में चलते रहेगें।
जिसको तेरी चाहत होती, उसको नहीं तू भाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
मृत्यु मित्र है, आनी ही है,
प्रेम से गले लगानी ही है
स्वार्थ-दहेज की आकांक्ष क्यों?
मृत्यु-प्रेयसी पानी ही है।
दुनिया में जो प्रेम ढूढ़ता, अश्रु वही छलकाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।

Friday, November 14, 2008

और देखते ही देखते हिन्दी पखवाड़े में हिन्दी समाप्त हो गई

वह केन्द्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अन्तर्गत स्वायत्तशासी निकाय द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय में हिन्दी का अध्यापक था। उसका कसूर यह था कि वह न केवल स्वयं ईमानदार था वरन अपने अधिकारियों के अनियमित कृत्यों में सहयोग भी नहीं देता था। उसके प्राचार्य व उच्चाधिकारियों ने कई बार उसे समझाने का प्रयास भी किया था कि उसकी नौकरी ईमानदारी पर नहीं, अधिकारियों की आज्ञाओं की अनुपालनाओं पर निर्भर है।
ईमानदारी व खुद्दारी के कारण उसकी नौकरी का प्राबेशन भी चार वष में पूरा हो सका था, उसके बाबजूद वह सुधरने का नाम ही नहीं ले रहा था। सम्पूर्ण भारत को एक मानने के कारण वह स्थानांतरण के लिए भी कोिशश नहीं करता था। संस्था द्वारा कम से कम स्थानान्तरण की नीति के कारण प्राचार्य महोदय द्वारा उसके स्थानांतरण के लिए किए गये प्रयास भी सफल नहीं हो सकते थे। अत: प्राचार्य महोदय ने विद्यालय से हिन्दी को ही समाप्त करने की योजना बनाई।
प्राचार्य महोदय ने हिन्दी के विकल्प के रूप में कम्प्यूटर विज्ञान प्रारंभ की व सभी छात्रों को प्रोत्साहित किया कि वे हिन्दी छोड़कर कम्प्यूटर साइन्स जो कि एक आधुनिक विषय है और उनके कैरियर के लिए महत्वपूर्ण है , लें । प्राचार्य महोदय के बार-बार समझाने के बाबजूद कुछ छात्र/छात्रा, विशेष कर कला वर्ग के छात्रों को कम्प्यूटर में कठिनाई महसूस हुई और वे हिन्दी में टिके रहे। इस प्रकार प्राचार्य महोदय का हिन्दी हटाओ अभियान का प्रथम चरण असफल रहा।
प्राचार्य महोदय बड़े ही ध्ौर्यवान, मधुरभाषी, नियोजन व प्रबंधन में पटु थे। उन्होंने अपने प्रयत्नों को विराम नहीं दिया। विद्यालय में 14 सितम्बर से 28 सितम्बर तक केन्द्रीय व संभागीय कार्यालय के निर्देशों के अनुरूप हिन्दी पखवाड़ा मनाया जा रहा था। उसी दौरान प्राचार्य महोदय ने एक बार पुन: शारीरिक िशक्षा व कला के िशक्षकों को विश्वास में लिया व उनके सहयोग से छात्र/छात्राओं की काउंसलिंग की तथा उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हिन्दी की अपेक्षा शारीरिक िशक्षा व कला उनके कैरियर के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। जो छात्र उनकी बात से सहमत नहीं हुए उन्हें कहा गया कि क्योंकि यहा¡ हिन्दी के छात्रों की संख्या कम हो गयी है। अत: यदि वे हिन्दी लेते हैं तो उन्हें दूसरे विद्यालय में भेज दिया जायेगा या वे अपना स्थानान्तरण प्रमाण पत्र लेकर किसी दूसरे विद्यालय में जाकर पढ़ सकते हैं। छात्र-छात्राए¡ उनके अप्रत्यक्ष दबाब में आ गए क्योंकि वे न तो स्थानान्तरण प्रमाण पत्र लेकर किसी अन्य विद्यालय में जाना चाहते थे और न ही प्रवासी छात्र के रूप में उसी संस्था के किसी अन्य विद्यालय में जाना चाहते थे।
प्राचार्य महोदय ने बार-बार छात्रों को यह भी कहा कि वे उन पर कोई दबाब नहीं डाल रहे हैं, वे केवल उनके भविष्य को ध्यान में रखते हुए सलाह दे रहे हैं। इस प्रकार प्राचार्य महोदय बिना किसी प्रकार का अनियमित कार्य किये ही अपने उद्देश्य में सफल हो गये और देखते ही देखते हिन्दी पखवाड़े में हिन्दी समाप्त हो गई।
हिन्दी के अध्यापक महोदय उनकी इसी कार्यशैली के प्रशंसक व वैयक्तिक रूप से प्राचार्य महोदय की प्रशासनिक क्षमता के दीवाने थे।

Sunday, November 2, 2008

`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।

हिन्द-युग्म बेबसाइट के नियंत्रक व हिन्दी सेवी श्री शैलेश भारतवासी ने मेरी आगामी पुस्तक ``चिन्ता छोड़ो - सुख से नाता जोड़ो´´ को अपना अमूल्य समय निकालकर पढ़ा और अपने विचारों को लिपिबद्ध करके मेरे पास तक पहुँचाया, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । श्री शैलेश जी ने मेरी तुलना आम आदमी से की है, मुझे प्रसन्नता हुई। मैं आम आदमी ही बना रहना चाहता हूँ । मुझे विशिष्ट बनने की आकांक्षा नहीं है। भारतवासी जी ने मेरी तुलना में कर्ण, गीता प्रेस, व आस्था व संस्कार जैसे टीवी चैनलों को प्रयोग किया है। यह मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के लिए कुछ ज्यादा ही हो गया है। कर्ण, गीता प्रेस, आस्था व संस्कार के सामने मेरा लेखन कहाँ ठहरता है। उसके बाबजूद मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए अपने अमूल्य सुझाव भी दिए है। भारतवासी जी की टिप्पणी को हूबहू देने का प्रयास कर रहा हूँ ।


`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।


एक आम आदमी बेतरतीब पहनता है, बेतरतीब खाता है, बेतरतीब चलता है और बेतरतीब बोलता है। या यूँ कह लीजिए कि आम आदमी एक ऐसा घोड़ा है जिसकी लगाम अमूमन मुक्त रहती है। दुनिया भी अजीबोगरीब तरीके से व्यवस्थित है, तथा चारों ओर केवल अव्यवस्थित व्यवस्था दिखती है।

संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी एक ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें परिधि में बंधना नहीं आता। लेखनी को ढीला छोड़ देते हैं, बातों को अपनी मर्जी से मोड़ते हैं, किसी पैरोकार में नहीं बंधते । मीमांसा लिखते-लिखते वे प्रवचन करने लग जाते हैं, उपदेश देने लग जाते हैं। सुनी-सुनाई बातें दोहराने लगते हैं। पाठकों को सुखी रहने के साधन और माध्यम बतलाते हैं, मगर कब ये खुद दुनिया भर की चिंताओं और आशंकाओं से घिर जाते हैं, ये पाठक को भी पता नहीं चलता।

जिस प्रकार एक आम आदमी सफर शुरू करते ही मंजिल पर पहुचने की जल्दी करता है, उसी तरह संतोष भी अपनी बातों को त्वरित गति से स्थापित करने की जल्दी में दिखते हैं। कई-कई जगह तो जबरदस्ती करते हुए भी जान पड़ते हैं।

यह निबंध संग्रह भी एक आम निबंध संग्रह की तरह रसहीन है। न तो इसमें रोचक तत्वों का समावेश है और न ही भौचक तत्वों का। एक आम जिंदगी की बेमेल बातों की टोकरी खोल दी है संतोष ने। निबंध लेखन के खेल को संतोष नये खिलवाड़ की तरह खेलते हैं। जीतने की जल्दी में रहते हैं हमेशा।

लेखक के मन में बातों का अम्बार है, जिसे वो महादानी कर्ण की तरह लुटाता है। औषधि की तरह नहीं बल्कि मूल्यहीन चीजों की तरह लेखन की गलियों में बहा देना चाहता है। इसलिए कभी ये बाबा बन जाते हैं, कभी कवि तो कभी समाज-सुधारक। शुरू के दो-तीन निबंधों के बाद पाठक परेशान होने लगता है, यह किताब पहाड़ लगने लगती है और वो भी काफी ऊ¡ची। एक संघर्षशील और धैर्यवान पाठक जब सभी घाटियों को पार करके शीर्ष पर पहुचता है तो खुद को काफी ठगा-ठगा महसूस करता है। गोल-मटोल बातों का ढेर और कूड़ा उसके मस्तिष्क में जमा हो जाता है, जिसे वो जल्द न प्रयोग होने वाले कोनों में डालना चाहता है।

इस निबंध संग्रह को पढ़कर या तो गीता प्रेस, गोरखपुर से छपने वाली तमाम प्रेरणा दायक पुस्तकों की याद आती है या टीवी पर उपलब्ध आस्था और संस्कार जैसे चैनलों की। ऐसी किताबें और चैनल्स जिस तरह आज की पीढ़ी और उसकी भाषा के साथ तारतम्य नहीं बिठा पातीं, उसी तरह संतोष की लेखनी भी एन्टीक लगती है।
लेखक के पास बहुत सी बातें हैं, जिन्हें ये एक-एक करके ही कहें तो पाठक-सुलभ और ग्राह्य होंगी। मनन करे कि एक सामान्य व्यक्ति इन बातों से कितनी जल्दी या देर में सहमत होगा। बातों को विषय केंद्रित करे। अनावश्यक बातों का संपादन करे। निबंध लिखते रहने का अभ्यास करे। छपने की जल्दी न करे। सर्वप्रथम खुद को एक फिल्टर बनाये। लेखक में संभावनाए¡ हैं, बस वो दोहन करना सीख ले।

०६-०७-२००८ शैलेश भारतवासी

नई दिल्ली नियंत्रक, हिन्द-युग्म

www.hindyugm.com

Tuesday, October 28, 2008

छोटा सा एक, दीप जलायें।

सभी मित्रों को परिवार व समाज सहित दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं
अपक्षा है, हम लोग दीपावली को सादगीपूर्वक मनायें तथा अपने आप को समाज के प्रति समर्पित करने के लिये तैयार करें, अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक ध्यान दें और सभी के दिलों में प्रेम का एक दीपक जलाने में सफ़ल हों

छोटा सा एक, दीप जलायें।




छोटा सा एक, दीप जलायें।
मानव-मन को पुन: मिलायें।।
अंधकार से ढका विश्व है,
दीप से दीप जलाते जायें।

चौराहे पर रक्त बह रहा,
नारी नर को कोस रही है,
नर नारी का खून पी रहा,
लक्ष्मीजी चीत्कार रही हैं।

राम का हम हैं, स्वागत करते
रावण मन के अन्दर बस रहा।
लक्ष्मी को है मारा कोख में
अन्दर लक्ष्मी पूजन हो रहा।

आओ शान्ति सन्देश जगायें
हर दिल प्रेम का दीप जलायें।
बाहर दीप जले न जले,
सबके अन्दर दीप जलायें।

विद्वता बहुत हाकी है अब तक,
पौथी बहुत बांची हैं अब तक,
हर दिल से आतंक मिटायें,
छोटा सा एक, दीप जलायें।

Monday, October 27, 2008

घर-घर दमकें मानिक मोती

दीपोत्सव

घर-घर दमकें मानिक मोती,
घर-घर ईश वन्दना होती।
घर-घर जगमगाय रही जोती,
हर घर लक्ष्मी पूजा होती।

लक्ष्मी और गोवर्धन पूजा,
भाई बहिन सा नाता न दूजा।
सबसे मोहक जैसे चूजा,
हर्ष से सारा घर है गूंजा।

बच्चे चलाते चकरी पटाके,
धायं-धायं और धायं धमाके।
स्वयं हंसे औरों को हंसा के,
बच्चे करते बहुत तमाशे।

अंधियारी हो भले ही रात ,
दीप ज्योति से लगे प्रभात।
दीपावली सिखाती बात,
उन्नति सब मिल करें हठात।

सत्य असत्य पर विजय है पाता,
धर्म अधर्म से आगे आता।
अनाचार का नाश हो जाता,
दीपावली का पर्व बताता।

बच्चे सबके मन को भाते,
मनोबल सबका बहुत बढ़ाते।
पत्थर दिल को भी पिघलाते,
दीपोत्सव का पर्व मनाते।

Saturday, October 18, 2008

सच्ची देवी कौन ?

दीपावली का शुभ अवसर है, इस पर्व की भिन्न-भिन्न मान्यताएं व् परम्पराए है, इस अवसर पर धन की देवी लक्ष्मी के पूजन का विधान है। घर-घर में लक्ष्मी का पूजन होता है किंतु वास्तविक देवी की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है , या साकार सशरीर देवियों की उपेक्षा की जाती है फ़िर हमको शान्ति व सुख समृद्धि कैसे मिल सकती है?


आओ दीपावली के इस अवसर पर हम समझे कि प्रतिमा की अपेक्षा वास्तविक देवी की पूजा न सही उसकी, घर की देवी आवाज को सुने और उसके साथ चलाकर उसका सहयोग प्राप्त कर सुख व शान्ति देकर सुख व शान्ति प्राप्त करें और वास्तविक रूप में एक दूसरे के पूरक की भूमिका पूर्ण कर पूर्णता को प्राप्त करे ।



सच्ची देवी ?



एक गाँव में एक गरीब परिवार रहता था। दो भाई थे, दोनों की शादी हो चुकी थी। गरीबी उन्हें दो क्षण भी सुख के नसीब नहीं होने देती थी। दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी थे। दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर था। दोनों में खटपट ही रहती थीं। दोनों में एक ही समानता थी कि दोनों गरीबी के कारण दुखी रहते थे। छोटा भाई अन्धविश्वासी था, वह देवी-देवताओं को ही सब-कुछ मानता था। वह अपना अधिकाँश समय देवी की पूजा में लगाया करता था। उसका कहना था,`यदि देवी प्रसन्न हो जाय तो छप्पर फाड़कर देगी।´


जबकि बड़े भाई का कहना था कि परिश्रम से ही सब-कुछ प्राप्त किया जा सकता है। हमें देवी-देवताओं से अपेक्षा न करके ईमानदारी पूर्वक परिश्रम करना चाहिए। प्रत्येक स्त्री के लिए उसका पति ही देवता है तो प्रत्येक पति के लिए उसकी पत्नी ही सच्ची देवी है। दोनों का सामंजस्य ही परिवार की उन्नति कर सकता है।


दोनों भाइयों में सदैव खटपट रहती। वे दोनों कभी भी एक साथ बैठकर बात नहीं कर सकते थे। छोटा भाई सदैव देवी को प्रसन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार की पूजा करता रहता। भजन व पूजा-पाठ में ही मस्त रहता। वह सदैव दैवी के मन्दिर में पड़ा रहता, जो कुछ भी होता, देवी के पूजा-पाठ में बरबाद कर देता। काम करने के लिए उसके पास समय ही कहाँ था?


उसका बड़ा भाई दिनभर कठिन परिश्रम करता, उसकी पत्नी गृहस्थी को व्यवस्थित ढंग से चलाती। वह सदैव पति की आज्ञा का पालन करती और पति सदैव पत्नी की सलाह से ही महत्वपूर्ण निर्णय लेता। दोनों में बड़ा स्नेह था। अत: गरीबी मैं भी उनकी गाड़ी पटरी पर चल रही थी। उनकी स्थिति सुधरती जा रही थी।


छोटा भाई सदैव लक्ष्मी देवी की तस्वीर के सामने उनके प्रसन्न होने की राह देखा करता। उसकी पत्नी उसे उस स्थिति में देखकर ही जल-भुन जाती। उसे कोसती रहती। सारी घर-गृहस्थी ही अव्यवस्थित रहती। आखिर घर के खर्चे के लिए कोई आमदनी का साधन नहीं था। वह क्या कर सकती थी? वह पति को देखकर कुढ़ती रहती। उसके पति को यह समझ तो थी ही नहीं कि सच्ची देवी घर में परेशान हो तो लक्ष्मी देवी प्रसन्न कैसे हो सकती हैं? यदि घर की मालकिन ही प्रसन्न नहीं होगी तो कोई देवी कुछ नहीं कर सकती।


परिश्रम के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता। कर्म करना जीवन के लिए आवश्यक है, इस बात को उसे कौन समझाता वह किसी की बात सुनने को तैयार ही न था। पत्नी के द्वारा कुछ भी कहे जाने पर उसे पीटने लगता। वह देवी के नशे में चूर था, कैसे समझता कि सभी स्त्री-पुरुष देवी-देवताओं का रूप हैं, बशर्ते वे अपने कर्तव्य का पालन करें। बड़े भाई ने भी छोटे भाई को समझाने का काफी प्रयास किया था। उसने उसकी एक न सुनी तो परेशान होकर उसने अपना रहन-सहन अलग कर लिया। संपत्ति के नाम पर उनके पास जो भी था, सब कुछ बाँट दिया गया। उसकी पत्नी परेशान थी, सोचा शायद अब कुछ काम-धाम करने लगें। घर-गृहस्थी का ध्यान रखने लगें, उसने भी उसे काफी समझाया किन्तु वह मानने वाला कहाँ था? उसके सिर पर तो देवी का भूत सवार था।

देवी जो एक तस्वीर मात्र थी के सामने बैठा पूजा करता रहता, सच्ची देवी जो उसके सामने रोती-गिड़गिड़ाती रहती, उसका कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ता। दीपावली का दिन था। सभी प्रसन्नता के साथ दीपावली मना रहे थे। सभी के घरों से मिठाइयों और पकवानों की सुगन्ध आ रही थी। बच्चे पटाखों से आकाश को गुंजायमान कर रहे थे, वह आज भी देवी की तस्वीर के सामने बैठा सोच रहा था कि आज तो लक्ष्मी देवी जरूर प्रसन्न हो जायेंगी और उसकी गरीबी दूर हो जायेगी। करता भी क्या? घर में कुछ भी न था। दीवाली पर उसे बच्चे रोटी के लिए तरस रहे थे।

अचानक उसे ध्यान आया। आज दीपावली है और आज के दिन जुआ खेला जाता है। जुआ खेलना भी लक्ष्मीजी की एक प्रकार से आराधना ही है। बिना जुआ खेले तो लक्ष्मी प्रसन्न हो ही नहीं सकतीं। जुआ खेलने के लिए रूपयों की आवश्यकता थी जो उसके पास नहीं थे। अन्तत: उसने अपनी जमीन को ही दाव पर लगा दिया और जब हार गया तो फूट-फूट कर रोने लगा। आज उसे बड़े भाई का कथन याद आ रहा था, `सच्ची देवी तो पत्नी ही होती है। उसी के सहयोग, समन्वय व सामंजस्य से प्रसन्नता मिल सकती है।´ आज उसे भाई का कथन बार-बार कचोट रहा था। उसकी आँखों से पश्चाताप के आंसू बह रहे थे।

Monday, October 13, 2008

अंगरेजी का रोजगार समाचार पढ़ा कीजिये मास्टर जी

बेचारी हिन्दी

सितम्बर के अन्तिम सप्ताह की बात है। मुझे उत्तर प्रदेश माध्यमिक सेवा चयन बोर्ड द्वारा विज्ञापित प्रधानाचार्य के पद हेतु आवेदन करना था। अतः ड्राफ्ट बनबाने के उद्देश्य से सेण्ट्रल बैंक आफ इण्डिया की स्थानीय शाखा में ड्राफ्ट का फार्म भरकर दिया। बैंक कर्मचारी ने फार्म यह कहकर वापस कर दिया कि इसे अंग्रेजी में भरकर लाओ। मैंने दलील दी कि महोदय हम लोग हिन्दी पखवाड़ा मना रहे हैं और आप है कि हिन्दी में भरे फार्म को भी अस्वीकार कर रहे हैं। उसने मुझे हिकारत से देखते हुए कहा, कम्प्यूटर अंग्रेजी नहीं जानता। मुझे मजबूरी में ड्राफ्ट फार्म पर चयन बोर्ड का नाम अंग्रेजी में लिखना पड़ा। जब अंग्रेजी में नाम लिखने के लिए, पूरा नाम मोबाइल पर अपने मित्र को पूछ रहा था तो बैंक के अधिकारी महोदय ने सुझाव दिया । रोजगार समाचार अंग्रेजी में भी आता है। उसे पढ़ा कीजिए मास्टर जी।

प्रश्न यह है की जो व्यक्ति अंगरेजी नहीं जानता वह ड्राफ्ट नही बनवा सकता ?

Sunday, October 12, 2008

दूरियां

दूरियां


वैश्वीकरण ने आज मिटा दी, भौगोलिक दूरियां ।

परिवहन और संचार से, मिट गईं सब दूरियां ।

भौतिक विकास कब मिटा सका, दो दिलों की दूरियां ।

जाति, धर्म विचार की भी, बढ़ रहीं नित दूरियां ।

शिक्षित इंसान की, इंसान से, बढ़ रहीं क्यों दूरियां ?

प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा है, और नर-नारी में दूरियां ।

पास-पास रहकर भी देखो, पसरी हुई क्यों दूरियां ?

दूरियां ही दूरियां हैं, इंसान की मजबूरियां ।


हर दिल में खिलें पुष्प, लता फैलें चहुं ओर,

सुगंध व्यापे कण-कण , मिट जायें सब दूरियां ।

Thursday, October 9, 2008

विजयादशमी की शुभकामनाये

समस्त मित्रो को विजयादशमी की शुभ कामनाये इस आशा के साथ कि हम अपने दुर्गुणों को दूर करते हुए अपने आप को पूर्णता की और ले जाने के प्रयत्न करेगे । अपने परिवार,समाज,देश व् विश्व के लिए हर त्याग करने की सामर्थ्य जुटाने की कोशिश करेगे.

Wednesday, October 8, 2008

नन से बलात्कार करने वाले हिन्दू नहीं, दुराचारी व जघन्य अपराधी हैं

नन से बलात्कार करने वाले हिन्दू नहीं, दुराचारी व जघन्य अपराधी हैं।


उड़ीसा की घटनाओं ने पूरे देश को विश्व के सामने शर्मिन्दा किया है। स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों को बचाया है। जो शक्ति स्वामी जी के हत्यारों के विरूद्ध लगनी चाहिए थी, वह इन अपराधियों की ओर लगानी पड़ रही है। निर्दोषों को प्रताडित करने वाले अपराधी ही होते हैं, वे अपराधियों की सहायता ही करते हैं, वही वर्तमान समय में उड़ीसा में तथाकथित धर्म का झण्डा उठाने वाले अधर्मी कर रहे हैं। अपने कृत्यों से हिन्दू धर्म को हानि पहुंचा रहे हैं। उन्हें धर्मांतरण की इतनी ही चिन्ता थी तो स्वामी जी के स्थान को भरते। आगे बढ़कर जो व्यक्ति मजबूरी में ईसाई बन रहे हैं। उन्हें गले लगाते। स्वामी जी के काम को आगे बढ़ाते। स्वामीजी के नाम पर पैशाचिक कृत्य करके ये लोग स्वामी जी की आत्मा को कष्ट पहु¡चा रहे हैं। ऐसे कृत्यों का कोई भी संगठन समर्थन नहीं कर सकता और प्रत्येक सरकार को वोटों की चिन्ता किए बिना इनके खिलाफ कानून के अनुसार कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए यही नहीं जिस संगठनों के साथ इनका नाम जुड़ रहा है, उन संगठनों को ऐसे अपराधियों को पकड़ने में सरकार की सहायता व ऐसे कृत्यों की तीव्र भर्त्सना करनी चाहिए। परिवार व समाज में ऐसे लोगों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

Sunday, October 5, 2008

रत्नो को पहचान न पाते, मेरे जैसे अन्धे होते

रचना

हमें रोशनी दे पायें जो, ऐसे कुछ ही चन्दे होते।
पथिकों पर विश्वास करें जो, ऐसे कुछ ही बन्दे होते।।
यात्रा से हम थके हुए थे,
निराशाओं से घिरे हुए थे।
तुमने है विश्वास दिलाया,
सच है ये पथ, चुने हुए थे।
हमें सहारा दे पायें जो, ऐसे कुछ ही कन्धे होते।
पथिकों पर विश्वास करें जो, ऐसे कुछ ही बन्दे होते।।
रचना ही सृष्टि करती है,
विध्वंशो को गले लगाती।
स्नेह-नीर से सींच-सींच कर,
गंगा आगे बढ़ती जाती।
शान्ति और सुख देने वाले, जग में कुछ ही धन्धे होते।
पथिकों पर विश्वास करें जो, ऐसे कुछ ही बन्दे होते।।
स्नेह और विश्वास मिले बस,
और न कोई करूं कामना।
तुमरे जैसे छात्र मिलें तो,
और किसी की मुझे चाह ना।
रत्नो को पहचान न पाते, मेरे जैसे अन्धे होते।
पथिकों पर विश्वास करें जो, ऐसे कुछ ही बन्दे होते।।

महिलायें अपनी योग्यताओं का इस्तेमाल अपने पतियों के करियर के उन्नयन में करें - मेगन बाशम

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट दिनांक ५अक्टूबर २००८ के पृष्ठ २ से साभार

किताबों की दुनिया कॉलम के अन्तर्गत डॉ.दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा मेगन बाशम की हाल ही में प्रकाशित किताब `बिसाइड एवरी सक्सेसफुल मैन´ की समीक्षा की गई है जिसे मैं साभार हूबहू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । निश्चित रूप से यह किताब हमारे यहाँ के महिला और पुरूषों के लिए मार्गदर्शक हो सकती है जो समानता के नशे में परिवार व समाज को ही नजरअन्दाज करते हैं, जो भारतीय संस्कृति व परंपराओं पर ही कुठाराघात करते हैं। आधुनिकता और समानता तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग व संघर्ष के कारण परिवार जैसी महत्वपूर्ण संस्था कमजोर होती जा रही है और परिवार के बिना न नर सुखी रह सकता है और न नारी। ऐसे नर-नारी जो अपनी भ्रमित अवधारणाओं के कारण परिवार को ही नजरअन्दाज करने पर उतारू हैं, अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करें तो शायद नर, नारी, परिवार व समाज के लिए वे अधिक उपयोगी बन सकेंगे।

पत्रकार और प्रसारण माध्यमों की जानी-मानी टिप्पणीकार मेगन बाशम की हाल ही में प्रकाशित किताब `बिसाइड एवरी सक्सेसफुल मैन´ एक चौंकाने वाली स्थापना करती है और वह कि आज की औरत कामकाजी दुनिया से बाहर निकलने के लिये व्याकुल है, लेकिन दौहरी कमाई से घर चला पाने की विवशता के कारण काम करते रहने को मजबूर है। कहना अनावश्यक है, यह स्थापन प्रचलित नारीवादी सोच से हटकर है।
मेगन पश्चिम के एक लोकप्रिय मनोरंजन चैनल ई! से एक मार्मिक प्रसंग उठाती हैं। एक आकर्षक युवा शल्य चिकित्सक ने उतनी ही आकर्षक एक डॉक्टर से शादी की। कुछ समय बाद वे एक घर खरीदने की योजना बनाते हैं। एक एस्टेट एजेंट उन्हें एक बहुत उम्दा घर बताता है। घर दोनों को बहुत पसन्द आता है। पति पत्नी से कहता है, `यह घर हमारे लिये एकदम उपयुक्त है। लेकिन हम यदि इसे खरीदना चाहें तो तुम्हें अपनी नौकरी जारी रखनी पड़ेगी।´ पत्नी पूछती है, `कब तक?´ `यह तो मैं नहीं जानता। शायद काफी दिनों तक।´ पति का जबाब है। हताश-उदास पत्नी कहती है, `मगर हमने तो बच्चों के बारे में बात की थी, तुम भी तो तैयार थे।´
`अभी उसके लिए बहुत वक्त है।´ पति का यह भावहीन उत्तर सुनकर पत्नी अपनी कड़ुवाहट रोक नहीं पाती है, हाँ , काफी वक्त है, अगर तुम किसी और औरत के साथ बच्चे चाहो तो। वैसे भी मैं पैंतीस की तो हो चुकी हू¡।´
अब जरा इस यथार्थ की तुलना कुछ वर्ष पहले के उस यथार्थ से कीजिए जहाँ पति चाहता था कि पत्नी घर में ही रहे, बच्चे पैदा करे और पाले। मेगन बताती हैं कि जब भी वे और उनकी सहेलियां मिलती हैं (सभी 25 से 35 के बीच की उम्र की हैं) तो उनकी बातचीत इस मुद्दे पर सिमट आती है कि आखिर कब उनके पति उन्हें नौकरी से मुक्ति दिलायेंगे?
मेगन न्यूजर्सी की एक महिला वकील को यह कहते हुए उद्धृत करती हैं कि उनका सपना है कि वे अपने काम से मुक्त हो जायं और सप्ताह के किसी दिन दोपहर में ग्रॉसरी शापिंग करें। इसी तरह एक 29 वर्षीया डॉक्टर कहती हैं कि हालांकि उन्हें अपने काम में मजा आता है, फ़िर भी वे एक पत्नी और माँ बने रहना ज्यादा पसन्द करेंगी। `अच्छा होता, मैं डॉक्टर न होती।´ वे कहती हैं।
मेगन बताती हैं कि उनके देश में हुए अधिकांश जनमत सर्वेक्षण ही बताते हैं कि अब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं अपने जीवन के बेहतर वर्षों को घर और बच्चो के लिए प्रयुक्त करना चाहती हैं यहां तक कि वे युवा अविवाहित लड़कियां भी , जिन्होंने अब तक की जरूरतों का स्वयं अनुभव नहीं किया है, कहती हैं कि वे करियर की सीढ़ियां चढ़ने की बजाय परिवार की देखभाल में समय लगाना अधिक पसंद करेंगी।
लेकिन असल चुनौती यहीं उत्पन्न होती है। क्या स्त्री पढ़-लिख कर काम न करे? अपने ज्ञान, प्रतिभा, योग्यता सब को चूल्हे चौके में झोंक दे? और अगर वह ऐसा कर भी दे, तो उन आर्थिक जरूरतों की पूर्ति कैसे होगी, जो दिन व दिन बढ़ती जा रही हैं। और यहीं मेगन एक नई बात कहतीं हैं , सुझाती हैं कि शिक्षित, प्रतिभा संपन्न और दक्ष महिलाओं के लिए बेहतर विकल्प यह है कि वे अपनी योग्यताओं का इस्तेमाल अपने पतियों के करियर के उन्नयन में करें। ऐसा करने से न तो उनकी योग्यताओं का अपव्यय होगा, न उन्हें ठाले रहने का मलाल होगा और न बेहतर जिन्दगी जीने के अपने सपनों में कतर-ब्योंत करनी पड़ेगी। काम के मोर्चे पर पति की कामयाबी में पति की सहयोगी बनकर स्त्री कुछ भी खोये बगैर सब कुछ प्राप्त कर सकती है। आज की स्त्री को मेगन की सलाह है कि वह एकल स्टार बनने की बजाय मजबूत टीम की सदस्य बने। और यही वजह है कि उन्होंने इस किताब के शीर्षक में बिहाइंड की जगह बिसाइड शब्द का प्रयोग किया है।

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट दिनांक ५अक्टूबर २००८ के पृष्ठ २ से साभार

Thursday, October 2, 2008

गांधी-शास्त्री को आचरण में उतारें

आज दो अक्टूम्बर है राष्ट्रपिता गांधी जी देश के हिरदय में विराजमान लाल बहादुर शास्त्री की जयन्ती। औपचारिकतावश स्थान-स्थान पर आयोजन होंगे भाषण होंगे और देश व देश के नागरिको को बेबकूफ बनाने के प्रयास होंगे। इतने आयोजनों के बाबजूद हिंसा भी बढेगी भ्रष्टाचार भी सत्य की तो परिभाषा ही बदल दी गयी है। आओ हम संकल्प करे हम ऐसे झूठे आयोजनों की अपेक्षा इन महापुरुषों के कार्य के प्रति अपने आप को समर्पित करेगे । इनके द्बारा किए गए काम को आगे आकर पूरा करेंगे। अपने आचरण के द्बारा इनके कामो को सम्मान देंगे।

Saturday, September 20, 2008

वैयक्तिक स्वतंत्रतावाद आतंकवाद से भी अधिक खतरनाक - परिवार बचाओ आन्दोलन की महती आवश्यकता

आधुनिकता और समानता तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग व संघर्ष के कारण परिवार जैसी महत्वपूर्ण संस्था कमजोर होती जा रही है और परिवार के बिना, न नर सुखी रह सकता है और न नारी, इसी विषय पर जोधपुर से प्रकाशित विवेकानन्द केन्द्र की पत्रिका केन्द्र भारती के सितम्बर अंक में प्रकाशित संगीता सोमण का आलेख परिवार बचाओ साभार यहां दिया जा रहा है। संगीता जी का आलेख वर्तमान सन्दर्भ में ऐसी महिलाओं और पुरूषों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है जो आधुनिकता के चक्कर में परिवार को ही तिलांजलि दे रहे हैं जो अविवाहित रहने को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर परिवार संस्था को कमजोर कर रहे नर-नारी आतंकवादियों से भी अधिक हानि पहुचा रहे है ये देश की जड़ो को ही खोखला कर रहे है । देश को ये कितना नुकशान पहुँचा रहे है ये इनको स्वयं ही मालुम नही , ये इस खतरे से अनजान है इन्हे सही राह दिखाने की आवश्यकता है इसी का प्रयास लेखिका ने किया है :

परिवार


किशोरी,
परसों मनीषा अपने ढाई वर्षीय बेटे साकेत के साथ मिलने आई थी। साकेत बड़े आराम से बातें भी कर रहा था तथा साथ ही साथ नानी-नानी करके घर में घूम रहा था. उन दोनों का अस्तित्व ही बहुत सुख का अहसास दे रहा था। बातों-बातों में मैंने मनीषा को पूछा, तुम नौकरी पर जाती हो तो बच्चा किसके पास छोड़कर जाती हो? तो वह बोली, मैंने नौकरी छोड़ दी है। चालीस हजार मासिक कमाई करने वाली, सी.ए. जैसा कठिन अभ्यास क्रम पूरा करने वाली मनीषा का उत्तर सुनकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। वह आगे बोली, हम दोनों ही सुबह आठ बजे तक घर से निकल जाते थे तथा रात आठ बजे घर आते थे। ऐसे में साकेत को कौन पालता? सासू मां से अब ज्यादा कष्ट झेले नहीं जा सकते और नानी है ही नहीं। पालनाघर (creche) में बच्चे को छोड़ना नहीं चाहती थी। वैसे भी दादी-नानी सक्षम होती, तो भी अब उनकी उम्र बच्चों के पीछे दौड़ने की नहीं है। उनकी उपस्थिति ही हमारा सम्बल है। अत: मैंने और विवके जी ने बच्चे के जन्म से पहले ही नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया था। उपना बच्चा बड़ा होता हुआ देखना, उसके साथ खेलना, उसके बालहठ पूरे करना, उसका पहली बार करवट बदलना, बैठना, चलना, गिरना, इन सब सुखद क्षणों से मैं वंचित रहती। साथ ही साथ बच्चे का संवर्धन, संगोपन व संरक्षण का दायित्व हर मां का है। इसका पूरा अहसास था। साथ ही साथ बच्चा भी माँ के साथ रहकर सुरक्षा का अनुभव करता है और उसका तो वह हक भी है, तो मैं उसे उसके इस जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित क्यों करूं? यदि मैं नौकरी करती तो दिनभर हम दोनों तनाव में रहते। आज कम से कम विवेकजी निश्चिन्त होकर काम पर जाते हैं। उनके प्रमोशन्स और टूर्स निर्बाध चलते हैं, समय मिलते ही हमारे साथ रहते हैं। मेरे सामने छोटी से बड़ी हुई मनीषा इतना सोचती है यह देखकर बहुत अच्छा लगा। दोनों ही बधाई के पात्र हैं। क्योंकि चालीस हजार महीना रूपयों का लालच छोड़ना आसान बात नहीं है। विनीता के भी अभी बेटा हुआ है, वह भी सी.ए. है। उसने भी नौकरी छोड़ने का ऐलान कर दिया है। तुम्हारी दीदी, सुरभि `जी-निट´ का कोर्स किए हुए थी, उसको पैकेज भी अच्छा मिला था, परन्तु शादी के पश्चात उसने भी नौकरी छोड़ दी। मैथिली इंजीनियर है, वह भी घर पर ही रहती है, इन चारों के पति भी इस निर्णय में सहभागी थे। वास्तव में आज ऐसी मनीषा, विनीता, सुरभि, मैथिली आदि की समाज को महती आवश्यकता है।


महत्वाकांक्षी पतियों के तो क्या कहने! वैभव, जो अमेरिका से एम.बी.ए. करना चाहता है, उसने तो अपनी पत्नी को नौकरी करने को विवश ही कर दिया है। उसकी बेटी जन्म से ही बीमार है। साल भर तो वैभव की मां उनके साथ रही, परन्तु अब वैभव की पत्नी को अहसास हुआ कि मुझे नौकरी छोड़कर बिटिया की परवरिश करनी चाहिए। वैभव ने हां तो भर दी और दूसरे महीने अमेरिका में एम.बी.ए. करने की अपनी इच्छा जाहिर की। मध्यमवर्गीय परिवार में इतने पैसे कहा¡ से आयेंगे, अत: स्वाति नौकरी करने को विवश है।


बच्चा पैदा होने के बाद उसकी परवरिश अच्छी तरह से हानी ही चाहिए। परन्तु आज समाज में हम देख रहे हैं कि उच्च शिक्षित मा¡-बाप दोनों के अच्छा कमाने के बाबजूद भी उनकी पैसे की भूख कम नहीं हुई है या वे बहुत अधिक महत्वाकांक्षी हैं। अत: दादी, नानी या पालनाघर में बच्चे पल रहे हैं। मुझे कभी-कभी लगता है कि यह हम माताओं की तो कहीं गलती नहीं है, जिन्होंने अपनी कुंठित आकांक्षाओं को अपनी बच्चियों के गले में मढ़ दिया। उन्हें उच्च िशक्षा दिलाई। बेटे-बेटी में फरक नहीं किया। बेटियों की परवरिश बेटों जैसे ही की और यहीं हम मात खा गये। बेटियों को हमने स्त्रियोचित गुणों से अवगत नहीं कराया। यही कारण है कि आजकल लड़कियों की गृहकार्य में रूचि एकदम खत्म हो गई है। खाना बनाना, सिलाई-बुनाई करना या स्वयं के कपड़े धोना, यह सब पुरानी बातें हो गईं हैं। दूसरों के लिए कुछ करना, ससुराल में सभी रिश्तेदारों के साथ तालमेल बिठाना उन्हें आता ही नहीं है। यह सब करना उन्हें प्रतिष्ठा के विरूद्ध लगता है। उनके पा¡व जमीन से उखड़ गये हैं। उन्हें उड़ने के लिए आसमान तो दे दिया, परन्तु यह बताना भूल गये कि वापस अपने नीड़ में ही आना है। उच्च िशक्षा लेने के बाद पैसा कमाना ही हमारा ध्येय हो गया है। बढ़ती म¡हगाई में दोनों का कमाना आवश्यक है, यह मैं मानती हू¡, पर कहा¡ रुकना है यह भी तो समझ में आना आवश्यक है। मैं भी नोकरी करती थी किन्तु मैंने पदोन्नति नहीं ली क्योंकि उसके बाद मेरे जीवन में जो परिवर्तन आता, उससे मेरी पूरी गृहस्थी बिगड़ जाती। मेरी उम्र की बहुत सी महिलाओं ने ऐसा ही किया, उनकी प्राथमिकता अपनी गृहस्थी थी, न कि कैरियर। परन्तु हम लड़कों से कम नहीं हैं यह दिखाने के चक्कर में, हमने हमारे परिवार संस्था को ही दा¡व पर लगा दिया है। पूरे विश्व में भारत की परिवार-प्रथा को आदशZ के रूप में देखा जाता है, पर हम ही उसे आग लगाने पर उतारू हो गये हैं। हमने हमारे बेटों की परवरिश में भी कहीं गलती की, तभी तो उनको पैसे कमाने के चक्कर में अपने दायित्व को बोध नहीं रहा। पिछले दिनों में पूना गई थी, तब मौसी की दो बेटिया मिलीं। दोनों ही उच्च िशक्षित हैं परन्तु नौकरी नहीं करतीं, बताती थीं कि घर में सास-ससुर हैं। हमारे पति उनके इकलौते बेटे हैं, हम भी यदि नौकरी पर जायेंगे तो उनके साथ कौन रहेगा। बच्चों की देखभाल कौन करेगा? अत: एक ने घर में बुटीक खोल रखा है व दूसरी ने घर में हॉस्टल खोल रखा है। उनका काम अब बढ़ गया है, अत: मदद हेतु पास में रहने वाली जरूरतमन्द लड़कियों को अंशकालीन काम देती हैं। दोनों की ही समस्या का हल हो जाता है। वह बताती है कि यदि हम नौकरी करते तो शायद इससे थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता? परन्तु आज अपना काम करने में जो आनन्द है वह कहा¡ से मिलता? हमारे पूर्वजों ने भी नौकरी को अधम ही बताया है, परन्तु नििश्चत आमदनी के कारण हम उसकी ओर आकर्षित होते हैं। आज लड़किया¡ पढ़ लिख रही हैं, परन्तु वे घर बैठे पैसा कमाये, इतना आत्मविश्वास हमने उनको नहीं दिया। आप उच्च िशक्षित लड़कियों के साथ-साथ, थोड़ी पढ़ी लिखीं लड़किया¡ भी गृह कार्य से जी चुराती हैं। घर के बाहर रहने में उनको अधिक आनन्द आता है। आवश्यकता हो तो पैसा कमाना कोई पाप नहीं है, परन्तु नौकरी और गृहस्थी का सामंजस्य बिठाना भी अनिवार्य है, अन्यथा हमारी परिवार संस्था टूट जायेगी और हम अपना अस्तित्व खो बैठेंगे। इसलिये समय रहते ही हमें इस बारे में कुछ ना कुछ करना होगा। नौकरी के घण्टों में कमी लानी होगी, अंशकालीन नौकरिया¡ उपलब्ध करानी होगीं। इस सबके लिए हम माताओं को ही मिलकर आवाज उठानी होगी, नहीं तो हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। शायद वे पैसा तो कमा लेंगे, परन्तु मनुष्य नहीं बनेंगे। उनको यदि मनुष्य बनाना है तो त्याग हम माताओं को ही करना होगा। घर-घर में आज यही चित्र दिख रहा है। हमारी बेटिया¡ और बहुए¡ अभी अपने पूरे यौवन काल में हैं, उन्हें आगे वाली अंधेरी गुफा का ध्यान नहीं है। आजकल सभी रिश्तों में कड़वाहट आ रही है। अभी तो जवान हैं, सब सहन करने की क्षमता प्रकृति ने उनको दी है, परन्तु आगे बुढ़ापे में क्या होगा? क्या वे वृद्धाश्रम में ही रहना पसन्द करेंगी? वहा¡ भी सामंजस्य बिठाना पड़ता है। कहा¡ जायेगी हमारी भावी पीढ़ी? सोच सोच कर मन उदास होता है। हमारी उस समस्या से हमें ही निजात पानी है। मुझे लगता है राजीवजी दीक्षित ने जैसे `आजादी बचाओ´ आन्दोलन शुरू किया है। उसी प्रकार हमें भी `परिवार बचाओ´ आन्दोलन शुरू करना पड़ेगा। स्वामीजी ने कहा था एक बार स्त्री िशक्षित हो जाये तो वह अपने आप अपनी समस्या का हल ढू¡ढ़ लेंगी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है -

`कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा´

(अध्याय 10 “लोक 34)

`कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हू¡, इस सप्त गुणों से में स्त्रियों के हृदय में स्थित हू¡।´इसका प्रकटीकरण हमारी बेटियों में कराने का दायित्व हमारा ही है।

लेखिका : संगीता सोमण, 92, प्रेम नगर, खेमे का कु¡आ, पाल रोड, जोधपुर (राजस्थान)

Sunday, September 14, 2008

मानव के शव पर

मन्दिर का निर्माण
लालता प्रसाद गंगवार `प्रलयंकर´, बरेली

मानव ने पत्थर पूजे पर, मानव को कब पहचान सका।
यद्यपि इसकी ही छाया में, पा रंग रूप भगवान सका।।
मानव फुटपाथों पर सोते, भगवान भवन में झूले पर।
मानव सुत पत्तल चाट रहे, नैवेध वहा¡ थाली भर-भर।।
जा रही हजारों की लाशें, वेकफन यहा¡ शमशानों में।
श्रृंगार नहीं पूरा होता, उनका रेशम के थानों में।।
पत्थर नहलाये जाते हैं, दुर्भाग्य दूध, घी से जल से।
भूखी भिखमंगिन का बच्चा, दो बू¡द न पी पाया कल से।।
सोने-चा¡दी के ढेरों पर, जिसने भगवान बनाये हैं।
जिसने मानव चूस-चूस, कंकाल समान बनायें हैं।।
यदि यही धर्म के नेता हैं, धिक्कार रहा उनको यह स्वर।
यदि यही धर्म के हैं धुरीण, लानत है उन पर, है ठोकर।।
इन्सार उठो, फेंको पत्थर, मानव का जब पूजन होगा।
मानव के शव पर मन्दिर का, निर्माण-विधान नहीं होगा।।
सोन-चा¡दी के आभूषण, पत्थर के साज नहीं होंगे।
घंटों में शंख निनादों में, हम बे-आवाज नहीं होंगे।।
मेरी आवाज पुकारेगी, मानव-मानव के कानों में।
हम आग लगा देंगे बढ़कर, इन शोषण के भगवानों में।।
हम भू पर स्वर्ग उतारेंगे, अपने दो-चार इशारों में।
तुम देखो तो कितना बल है, इन क्रान्ति पूर्ण उद्गारों में।।







टालस्टाय की बाल लघु-कथा
आजादी की वापसी

एक मकान की उपरी मंजिल पर एक अमीर आदमी रहता था और नीचे की मंजिल पर एक गरीब दरजी । कपड़े सीते समय दरजी गाया करता था। उसके गाने से अमीर आदमी की नींद में बाधा पड़ती थी। वह उसका गाना रोकना चाहता था।
एक दिन उसने दरजी को रूपयों की एक थैली दी और कहा कि वह गाना बंद कर दे। दरजी मान गया और रूपये पाकर बहुत खुश हुआ। कुछ समय बीता लेकिन गाने के बिना दरजी का मननहीं लगता था। वह परेशान हो उठा। आखिर एक दिन वह रूपयों की थैली लेकर अमीर आदमी के पास गया और थैली उसको लौटाते हुए बोला, ``अपना धन वापस ले लीजिए और मेरा गाने का अधिकार मुझे वापस दीजिए। गाने के बिना मैं तंग आ गया हू¡।´´
अमीर आदमी उसे हैरानी से देखने लगा। दरजी चला गया फिर कुछ देर में उसने नीचे से दरजी के गाने की खुशी भरी आवाज सुनी।

Sunday, September 7, 2008

बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!

नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा

मैं कर सकता/सकती हूं कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!

मैं भारत का/की शिक्षित नर/नारी हूं¡
मैं हूं सशक्त, नहीं बिचारा/बिचारी हूं।
मैं जानता/जानती चैंटिंग और ब्लागिंग
मैं अंग्रेजी में धारा-प्रवाह,
लिख व बोल सकता/सकती हूं¡
मैं गालियां दे सकता/सकती हूं¡
भारतीय संस्कृति, विरासत और परंपराओं को,
मैं शादी, परिवार व समाज को,
गरिया सकता/सकती हूं¡
सब जायं¡ जहन्नुम में,
मैं सबको अपने ठेंगे पर रखता/रखती हूँ
अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वछंदता की खातिर,
मैं नारी को देखना चाहता/चाहती हूं
स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ही नहीं,
पूर्णत: स्वतंत्र और स्वछन्द भी,
शादी, परिवार व समाज की,
समस्त मर्यादाओं से मुक्त
आज के भारतीय नर और नारी शिक्षित हैं,
वे नहीं रह सकते बनकर एक-दूसरे के पूरक
औरत को मर्द की और मर्द को औरत की,
वश है जरूरत,
दोनों समान हैं,
दोनों के लिए खुला आसमान है,
समलैंगिक सम्बन्धों को भी सम्मान है
जरूरतें पूरी करना बड़ा आसान है,
हम अपनी जरूरतें! कर लें पूरी,
कैसे भी, कहीं से भी,
किसी के साथ रहकर या
किसी को साथ रखकर
या फिर चलते फिरते,
ऑफिस में काम करते।
क्या फर्क पड़ता है?
मैं कर सकता/सकती हू¡ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।

मैं झूठ बोलने में पारंगत,
भ्रष्टाचार में सिद्धहस्त,
मैं अपने में ही रहता/रहती मस्त,
सत्य का सूरज कर दूं अस्त,
ईमानदारी के हौसले पस्त।
कथनी से ही छा जाऊं जगत में
शराब पीकर, मांस खाकर,बन जाऊं भगत मैं।
मैं, जो बोलता/बोलती हूं,
जो करता/करती हूं,
दोनों में दूर-दूर तक,
खोज न पाये कोई रिश्ता,
भले ही आ जाये फरिश्ता।
मैं बोलकर और लिखकर ही सम्मान पाता/पाती हूं,
साथ में दौलत भी कमाता/कमाती हूं।
गधे को तो क्या?
दुश्मन को भी बाप बनाता/बनाती हूं,
किसमें है हिम्मत
जो मेरी करनी को देखे
आखिर प्राइवेसी भी कोई चीज होती है!
तुम्हे क्या वह किसके साथ सोता या सोती है?
अरे भाई!
निजत्व का सम्मान करो!!
जाओ! अपना काम करो।
तुम हो ही क्या चीज?
अपने आदर्शों के झोले को,
उठाये फिरते/फिरती हो!
केवल ठगे जाते/जाती हो!
किसी को नहीं ठगते/ठगती हो।
शादी करके एक पत्नी या पति के साथ
रहने वाले या रहने वाली,
दो जून की रोटी के लिए,
रात-दिन परिश्रम करने वाले या करने वाली
ईमानदारी और सत्य के व्यसनी मूर्खो की,
बात करने वाले या करनी वाली,
जाओ आगे बढ़ो!
यह दुनिया¡ तुम्हारी नहीं, मेरी है,
क्योंकि यह इक्कीसवीं सदी है,
मेरे पास सोने की ढेरी सजी है।
मैं खरीद सकता/सकती हूं कुछ भी,
सारी सुख-सुविधाए¡,
यहाँ तक कि बिस्तर के साथी,
नर-नारी को भी खरीदना संभव है,
आत्मा को जिन्दा रखकर,
आत्मनिर्भर बनना असंभव है।
मैं कर सकता/सकती हूं कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।

मैं आजाद भारत का/की,
आजाद नागरिक हूं,
स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा,
फहराऊंगा/ फहराऊंगी।
मिठाई बांटकर खुशियां,
मनाऊंगा/मनाऊंगी।
पीटकर ताली,
लोग,मिठाई खाने में हो जायेंगे मस्त,
मैं तो वश कमीशन खाऊंगा/खाऊंगी।
जरूरत पड़ी तो आतंकवादियों से भी हाथ,
मिलाऊंगा/ मिलाऊंगी!
आखिर वे भी हमारे वोटर हैं,
उनके लिए कानून सरल बनाऊंगा/बनाऊंगी।
बाजार तो भाई!आज युग की है जरूरत,
दोस्तो देखो बाजार है, कितना खुबसूरत,
जिसको आती है कला,
रुपया बनाने, छापने या लूटने की,
वही सबसे है भला,
खरीदना या बेचना नहीं है आसान,
बाजार में मच जाता है घमासान,
सांसदों, विधायकों या मन्त्रियों की बिक्री मैंने देखी है,
हम क्या कर सकते यह तो ईश्वर की लेखी है।
मैं भी अपनी सरकार बनाऊं!
बड़ा सा सरकारी पद पा जाऊं
स्वयं मलाई खाकर,
दूसरों को भी खिलाऊं!
नहीं चाहिए मुझे, ईमानदारी का तमगा,
चाहत है यही वश सफल कहाऊं!
हिन्दी का नाम जपकर,
अंग्रेजी का झण्डा लहराऊं!!

Tuesday, August 26, 2008

हँसी खुद ही रो रही है।

हँसी खुद ही रो रही है।

दु:ख में खुशी, हमें हो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
बुद्धि उर पर हुई हावी,
ख्याल उगते, नहीं पुलावी।
मकरन्द को, भंवरा नहीं,
योजना नहीं है, कोई भावी।
कली बसन्त को ढो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
प्रेम का व्यापार फलता,
स्वार्थ से संसार चलता।
टीवी पर मुस्कान बिकती,
किशोर का यौवन है ढलता।
बेचैनी ही अब सो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
फूल अब चुभने लगे हैं,
कांटे ही लगते भले हैं।
आलिंगनों से डर है लगता,
प्रेम में कटते गले हैं।
शान्ति आतंक बो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।

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Sunday, August 17, 2008

क्या शादी अनावश्यक व कैरियर में बाधक है? क्या शादी की व्यवस्था समाप्त हो जानी चाहिए?

क्या शादी अनावश्यक व कैरियर में बाधक है? क्या शादी की व्यवस्था समाप्त हो जानी चाहिए?

मित्रो वर्तमान में शादी व पारिवारिक व्यवस्था कुछ कमजोर सी होती जा रही है, चिन्ता भी होती है कि शादी के प्रति बढ़ता अनाकषZण क्या पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न नहीं कर देगा किन्तु कुछ उदाहरण ऐसे भी है कि उन्होंने स्वार्थवश केवल अपने लिए शादी से तोबा नहीं की है वरन उनका मकसद ही उन्हें शादी से दूर ले आया। समाज व परिवार के लिए अपने वैवाहिक जीवन को दाव पर लगाने वाले लोग उन लोगों से भिन्न हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता या निजी स्वार्थ वश शादी के दायित्वों से भाग रहे हैं। इसी विषय को राजस्थान पत्रिका ने कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है जिसे साभार प्रस्तुत कर रहा हू¡।

अजमेर से प्रकािशत राजस्थान पत्रिका दिनांक 11 अगस्त 2008 के प्रथम पृष्ठ से साभार

जिन्दगी कुछ यूं हुई बसर तनहा..........................................

एकाकियों की सूची में कई राजनेता, नौकरशाह, डॉक्टर और समाजसेवी

जयपुर, 10 अगस्त (का.सं.)
जिन्दगी बेमकसद नहीं कटती। लेकिन कभी-कभी मकसद की राह में सिर उठाकर ये भी देखने की फुर्सत नहीं मिलती कि कोई साथ रहा या नहीं। मंजिल का सफर बिना हमसफर ही कट जाता है और बचती है तो सिर्फ तनहाई। मकसद पूरा करने की सन्तुिष्ट तो मिलती है, जिन्दगी के कुछ मोड़ों पर अकेलेपन की टीस बाकी रह जाती है। `पत्रिका´ की यह पड़ताल उन लोगों के नाम है जिन्होंने अपने मकसद के लिए, चाहे वो कैरियर हो, समाजसेवा या राजनीति, अकेले रहना चुना और आज उन्हें अपने फैसले पर कोई मलाल भी नहीं। राष्ट्रीय स्तर पर तो पूर्व राष्ट्रपति एण्पीण्जेण् अब्दुल कलाम से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक कई बड़े नाम इसमें शामिल है। लेकिन राज्य की सूची में भी कम बड़े नाम नहीं हैं।

ये हैं बिन ब्याहे
राजनेता : भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सांसद कैलाश चन्द्र मेघववाल, भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष सोसद ओमप्रकाश माथुर, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष डाण् गिरिजा व्यास, पूर्व केन्द्रीय मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी।
आईएएस अधिकारी : परिवहन आयुक्त जगदीश कातिल, चिकित्सा िशक्षा सचिव डॉण् गोविन्द शर्मा, प्रमुख कला एवं संस्कृति सचिव एसण्अहमद, प्रमुख जनजाति क्षेत्रीय विकास सचिव गुरजोत कौर, सेेवानिवृत्त अतिरिक्त मुख्य सचिव ए.के.आहूजा
आरएएस अधिकारी : रेखा गुप्ता, ऊषा शर्मा, लक्ष्मी बैरवा, शमीम अख्तर
सेवानिवृत्त आरपीएस : बादाम बैरवा
चिकित्सक : पैट्रीसिया वीकर्स, मालती गुप्ता ( एसएमएस से सेवानिवृत्त)
समाजसेवी : निखिल डे, कविता श्रीवास्तव
(राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक शादी नहीं करते, इस सूची में भाजपा के प्रदेश संगठन महामंत्री प्रकाश चंद्र शामिल हैं।)

जिम्मेदारियों ने नहीं दिया मौका

कैरियर और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण मैंने ईमानदारी से शादी के लिए प्रयास नहीं किये। कैरियर के बाद छोटे भाई बहनों की शादी को प्राथमिकता देना जरूरी था। वैसे विवाह के मामले में कम से कम 50 प्रतिशत फैसला ईश्वर करता है। दिलचस्प यह है कि जब 35 वषZ का था, तब एक महिला ज्योतिषी ने मा¡ से कहा कि इसके हाथ में तो शादी की रेखा ही नहीं है। अविवाहित होने से विभागीय कायोZ के लिए मिल रहे समय का पूरा उपयोग कर रहा हू¡।
-जगदीश चन्द्र, परिवहन आयुक्त

वैवाहिक जीवन का विरोधी नहीं हू¡

``मैंने जीवन भर शादी नहीं करने का कोई प्रण नहीं लिया है और न ही वैवाहिक जीवन का विरोधी हू¡। विवाह एक पवित्र बंधन है, जिसका पूरा सम्मान करता हू¡। लेकिन मेरा समाज के प्रति एक बड़ा संकल्प है और उसको पूरा करने के लिए किसी दूसरे का जीवन प्रभावित नहीं करना चाहता।´´
-निखिल डे, सामजिक कार्यकर्ता

कोई बंधन नहीं चाहती
मैं किसी सामाजिक संस्था के बंधन में नहीं बंधना चाहती। समाज के प्रति अंतहीन संकल्प हैं। महिलाओं पर परिवार में ज्यादा बंदिशे होती है। मैंने परिवार के प्रति जिम्मेदारी को पूरा किया है, मा¡-बाप की सेवा की है। शादी करके ही कोई कर्तव्य पूरा होता है, ऐसा नहीं है। मुझे लगता है, मेरे पास दोनों सुख हैं और स्वतंत्र व्यक्ति भी हू¡। मेरा घर शॉर्ट स्टे होम की तरह है, कई लोगों के घर बसाये हैं। वैकल्पिक रिश्तों को ईमानदारी से निभाया है। कभी अकेलापन या फ्रस्टेशन महसूस नहीं किया।
- कविता श्रीवास्तव, पीयूसीएल पदाधिकारी

कोई टिप्पणी नहीं करू¡गा :
शादी करने या नहीं करने का सवाल बड़ा वैसा है, मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहू¡गा।
-सांसद कैलाश मेघववाल, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भाजपा

ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज....

खोज

जाति वर्ण धर्म धन मद में,ना तुमको कुछ होश रहा है।

ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में नित आराधन करते हो।

कथा भागवत नाम कमाते लूट-लूट घर भरते हो।

नित के व्रत उपवास करो और माल चकाचक चरते हो।

असत्य भ्रष्टता इष्ट तुम्हारे गैरों का धन हरते हो।

ईश्वर को निज पक्ष में लाने ब्राºमण का हो भोज रहा है।

ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।


अरबों का करके घोटाला एक लाख मन्दिर में देते।

तुम्ही बता दो भाई मेरे ईश्वर भी क्या रिश्वत लेते ?

दानवीर फिर भी कहलाते कितने गले हैं तुमने रेते ?

भला न कुछ भी होने वाला दरिद्र नारायण नहीं हैं चेते।

भगवा वस्त्र हैं तूने पहने फिर भी देख उरोज रहा है।

ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।


सर्वोच्च अदालत ईश्वर की है जहा¡ न कोई रिश्वत चलती ।

सत्य अहिंसा सदाचार की ,मानव धर्म की बेल है पलती।

दूध का दूध पानी का पानी नहीं वका लत यहा¡ है फलती।

सच्चा न्याय सभी को मिलता नहीं कभी भी होती गलती।

कर्म का फल निश्चय ही मिलता भले ही मिन्दर धोक रहा है।

ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।

Thursday, August 14, 2008

स्वतन्त्रता दिवस

नमस्कार मित्रों सभी को स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें!

आशा है हम सभी इस स्वतन्त्रता दिवस की आन की रक्षा के लिये अपने पूर्वजों के प्राणों द्वारा सृजित देश की स्वतन्त्रता के लिये जीना सीखेगे, याद रखें देश के लिये मरने से अधिक कठिन हे देश के लिये जीना।
स्वतंत्रता


स्व-तंत्रता दिवस मनाते हैं पर स्वतंत्र का अर्थ नहीं जाना।
स्व-तंत्र को तो ध्वस्त करें नित, गायें स्वतंत्रता का गाना।।
स्वतंत्र हुए स्वच्छन्द नहीं, सबको पड़ेगा समझाना।
तोड-फोड़ कर आग लगाते,लक्ष्य विकास का यू¡ पाना?
सार्वजनिक सम्पत्ति अपनी, समझ के घर ही ले जाना।
अधिकारॊं को झगड़ रहे नित, कर्तव्यो को ठुकराना॥
कैसे होगा विकास साथियो? मार्ग तुम्हीं को दिखलाना।
दिवस मनाते हैं, पर स्वतंत्र का अर्थ नहीं जाना।।
कैसा तंत्र कैसी व्यवस्था?हमको हड़ताल पर है जाना!
हमारी सरकार, हमारी निगमें,बिना टिकिट हमको जाना॥
देश के, स्वतंत्र नागरिक, बिना किये सब कुछ पाना।
विद्यालयों में विलास करेंगे,नकल से पास ही हो जाना॥
दाम के बिन काम करें नहीं, भले ही हो चारा खाना।
दिवस मनाते हैं,पर स्वतंत्र का अर्थ नहीं जाना।।
आज स्वतंत्रता दिवस साथियो, संकल्प एक करना
तन्त्र दुरूस्त करने की खातिर, जागरूक रहना होगा।
भ्रष्टाचार करने वालों को, आखिर सबक सिखाना होगा॥
हाथी के पाव¡ में सबका पा¡व, सबको ही समझाना
सार्वजनिक हित में निजी स्वार्थ तज, गायें स्वतंत्रता का गाना।
स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, पर स्वतंत्र का अर्थ नहीं जाना।।