नया वर्ष आपको, आपके परिवार को, समाज, राष्ट्र व विश्व को मंगलमय हो!
शुभ हो आपको, परिवार, राष्ट्र, विश्व को।
"मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है, मधुर बनने का प्रत्येक प्रयत्न मुझे कपटी बनाता है." -विवेकानन्द
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!
मैंने समझकर अपना,
अपनत्व के कारण,
की तुम्हारी सेवा,
तुमको खिलाई मेवा,
स्वयं सोकर भूखे पेट,
सावन हो या जेठ,
तुमने की अर्जित शक्ति
मैं करती रही तुम्हारी भक्ति।
मैंने किया प्रेम से समर्पण
सौंपा तन-मन-धन,
तुम बन बैठे मालिक,
मुझे घर में कैद कर,
पकड़ा दिया दर्पण,
मैं सज-धज कर,
करती रही तुम्हारी प्रतीक्षा
तुमने पूरी की,
केवल अपनी इच्छा।
मैंने ही दी तुमको शिक्षा,
सहारा देकर बढ़ाया आगे
तुम फिर भी धोखा दे भागे,
कदम-कदम पर दिया धोखा,
शोषण करने का,
नहीं गवांया कोई मौका।
मैंने साथ दिया कदम-कदम पर,
अपने प्राण देकर भी,
बचाये तुम्हारे प्राण,
तुमने उसे मानकर मेरा आदर्श,
सती प्रथा थोप दी मुझ पर ।
बना लिया मुझको दासी,
वर्जित कर दी मेरे लिए काशी।
लगाते रहे कलंक पर कलंक,
तुम राजा रहे हो या रंक।
दिया निर्वासन दे न पाये आसन।
स्वयं विराजे सिंहासन।
मुझे छोड़ जंगल में,
चलाया शासन।
दिखावा करने को दिया आदर,
पल-पल दी घुटन,
पल-पल किया निरादर।
नर्क का द्वार कहकर,
घृणित बताया।
शुभ कर्मो से किया वंचित,
भोजन,शिक्षा ,स्वास्थ्य,
संपत्ति व मानव अधिकार,
छीन लिया मेरा, सब कुछ संचित।
पैतृक विरासत तुम्हारी,
मैं भटकी दहेज की मारी,
छीन लिया जन्म का अधिकार,
भ्रूण हत्या कर,
छू लिया,
विज्ञान का आकाश।
क्या सोचा है कभी?
मेरे बिन,
बचा पाओगे जमीं?
तड़पायेगी नहीं मेरी कमी?
मेरे बिन जी पाओगे?
अपना अस्तित्व बचाओगे?
हृदय-हीन होकर
कब तक रह पाओगे?
तुम्हारी ही खातिर,
जागना होगा मुझको,
तुम्हारी ही खातिर,
अर्जित करनी होगी शक्ति,
तुम्हें विध्वंस से बचाने की खातिर,
शिक्षा-धन-शक्ति से,
बनूंगी सशक्त!
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!
अक्टूम्बर में , मैं नवोदय नेतृत्व संस्थान में व्यक्तिव विकास कार्यक्रम में भाग लेने गौतम बुद्ध नगर , उत्तर प्रदेश गया था । वहाँ संस्थान में हमें रॉल मॉडल पर लिखने के लिए कहा गया। काफी विचार के बाद मुझे लगा वास्तव में कोई एक व्यक्ति किसी के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता । प्रस्तुत हैं , इस विषय पर वहाँ लिखे विचार।
अपना रॉल मॉडल- मैं स्वयं
व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यनत अनगिनत व्यक्तियों व प्राकृतिक उपादानों के सम्पर्क में आता है। हम असंख्यों व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं तथा असंख्यों व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं( यही नहीं प्रकृति के प्रत्येक उपादान को प्रभावित करते हैं और प्रत्येक उपादान से प्रभावित होते हैं। व्यक्ति इस समिष्ट का ही अंग है। अत: उसकी प्रत्येक प्रक्रिया से सम्पूर्ण सृिष्ट प्रभावित होती है। किन्तु दूसरा पहलू भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विलक्षण (unique) व भिन्न है। हम किसी भी व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके जीवन के अनुरूप अपने जीवन को नहीं बना सकते, न ही किसी व्यक्ति के समस्त गुणों को आत्मसात कर सकते हैं। अवगुणों को आत्मसात करना तो कोई भी नहीं चाहेगा।
यह एक स्थापित सत्य है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण होने की ओर अग्रसर होना चाहता है। अत: किसी भी महान से महान व्यक्ति के नकारात्मक पक्ष को कोई भी विवेकशील व्यक्ति अपनाना नहीं चाहेगा अर्थात हम किसी भी व्यक्ति की शत-प्रतिशत नकल करना नहीं चाहेंगे और न ही ऐसा संभव है। वास्तविकता यही है कि रॉल मॉडल की अवधारणा ही काल्पनिक है। कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता। हम किसी भी व्यक्ति के समान जीना नहीं चाहेंगे। मेरा मानना है कि हमें अपने व्यक्तित्व का विकास अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं व समाज की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। कोई भी एक व्यक्ति मेरे लिए आदर्श की भूमिका में नहीं हो सकता। मैं अनेक व्यक्तियों से प्रभावित हुआ हू¡, अनेक व्यक्तियों से मार्गदर्शन प्राप्त करता हूँ करता रहूँगा किन्तु किसी भी व्यक्ति की नकल करना नहीं चाहू¡गा। मैं अपने आपको किसी अन्य व्यक्ति की तरह नहीं वरन अपने आप के रूप में ही विकसित करने के प्रयत्न करूंगा ।
हाँ, जिन लोगों से मैंने सीखा, सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ । सभी को याद रखना संभव भी नहीं हो पाता कदम-कदम पर सीख-सीख कर ही तो व्यक्ति आगे बढ़ता है। कई बार हम जानते ही नहीं कि किससे क्या सीखा और अनजाने ही आत्मसात कर लिया। वस्तुत: व्यक्ति नहीं विचार और विचार से भी आचरण महत्वपूर्ण होता है। इस सन्दर्भ में धर्मराज युधिष्ठर का प्रसंग महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। युधिष्ठर को पहला पाठ पढ़ाया गया, क्रोध न करें। युधिष्ठर उसे आत्मसात करने का प्रयत्न करते रहे। सभी विद्यार्थी आगे बढ़ गये। उन्हें द्रोणाचार्य के पास ले जाया गया। उन्होंने युधिष्ठर को पूछा, `युधिष्ठर! तुम सात दिन में पहले पाठ से आगे ही नहीं बढे़, जबकि तुम्हारे भाई आगे के कई पाठों का भी अभ्यास कर चुके हैं।´
विनम्रता के साथ युधिष्ठर ने निवेदन किया, ``गुरूदेव! मैं जब तक पहले पाठ को पूर्णत: आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक आगे कैसे बढ़ू?´´ गुरू जी ने कठोर वचन भी कहे किन्तु उनके चेहरे पर किसी भी प्रकार के क्रोध के अवशेष न थे। वे पहले पाठ को आत्मसात कर आचरण में उतार चुके थे। गुरूदेव अपने विलक्षण िशष्य को निहारते रह गये।
श्री कृष्ण, जिनको रसराज, पूर्णावतार व प्रेम का देवता माना जाता है, बचपन से ही क्या? जन्म से ही संघर्षों से पाला पड़ा। जन्म ही संघर्ष करने को हुआ। संघर्ष करते हुए भी सभी को प्रेम लुटाया। सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। उन्हें सभी चाहते हैं किन्तु वे सभी से प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते हैं। सभी को आनंदित देखना चाहते हैं किन्तु किसी से कोई आकांक्षा नहीं है। किसी से किसी प्रकार का मोह नहीं है। सभी के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, आवश्यकता पड़ने पर किसी से भी अलग होने का निर्णय करने में तनिक भी विलंब नहीं, किसी प्रकार का लगाव नहीं, सभी का हित चिन्तन करते हैं। सभी को सुखी देखना चाहते हैं। न, केवल चाहते हैं वरन् इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं। यही तो सार्वभौमिक प्रेम है।
मेरी माताजी प्रति पल सक्रिय रहती हैं। हम नहीं चाहते, वे इस उम्र में इतना काम करें। किन्तु वे काम करने के किसी भी अवसर को हाथ से जाने ही नहीं देतीं। मैंने उनसे कहा, ``हम लोग प्रत्येक कार्य करने के लिए तैयार हैं, फिर भी आप परेशान क्यों होती हैं? जो भी काम है हमें बताइये। हम करेंगे। आप बैठकर केवल निर्देश दें।´´
माताजी ने मुझे समझाया,``काम करना शरीर की आवश्यकता है। काम करना बन्द कर देने पर शरीर जाम हो जाता है। यदि मैं काम करना बन्द कर दू¡गी तो तेरे पिताजी की तरह मोटी हो जाऊ¡गी, चलना-फिरना दूभर हो जायेगा।´´
निरक्षर होने के बाबजूद मेरी माताजी ने जीवन का सार किस प्रकार मुझे बताया( मैं आश्चर्य से उन्हें देखता ही रह गया। उन्होंने निरन्तर सक्रियता को जिस प्रकार अपने आचरण में आत्मसात किया उसे आत्मसात कर सकू¡, यही उनके प्रति सच्चा सम्मान होगा।
संदर्भित उद्धरण केवल उदाहरण मात्र हैं। वस्तुत: व्यक्तित्व के विकास में असंख्यों जाने-अनजाने व्यक्तियों की प्रेरणा कार्य करती है, तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है किसी की नकल नहीं। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता, जिसकी भूमिका का निर्वाह हम अपने जीवन में कर सकें अर्थात कोई भी हमारा रॉल माडल नहीं होता। हम स्वयं में अपनी ही भूमिका का निर्वाह करते हैं और स्वयं में अपने रॉल माडल हैं। हम किसी के भी व्यक्तित्व को अपने आप पर आरोपित नहीं कर सकते। क्योंकि हम स्वयं ही मौलिक हैं।
व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।
सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।
राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग
राजकुमारी रत्नावती :- जैसलमेर-नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने गये थे। जैसलमेर-किले की रक्षा उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंप दी थी। इसी दौरान दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने घेर लिया, जिसका सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुगल सेना ने घेरा डाल लिया किन्तु राजकुमारी रत्नावती इससे घबरायी नहीं और सैनिक वेश में घोड़े पर बैठी किले के बुर्जों व अन्य स्थानों पर घूम-घूम कर सेना का संचालन करती रही।
रत्नावती की फुर्ती, जागरूकता व कौशल के कारण मुगल सेना चाहकर भी आक्रमण न कर सकी और उसे अपने बहुत से वीर खोकर पीछे हटना पड़ा। जब मुगल सैनिकों ने देखा कि किले को तोड़ा नहीं जा सकता, तब एक दिन बहुत-से सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती ने रणनीतिक कौशल का प्रयोग करते हुए पहले तो अपने सैनिक हटा लिए और उन्हें चढ़ने दिया, वे जब दीवार पर चढ़ आये तब उसने उनके ऊपर पत्थर बरसाने व गरम तेल डालने की आज्ञा दे दी, इससे शत्रु का वह दल नष्ट हो गया।
एक दिन एक मुगल सैनिक छिपकर रात में किले पर चढ़ने लगा किन्तु राजकुमारी रत्नावती की नजरों से बचना संभव न था। उस सैनिक ने पहले तो यह कहकर धोखा देना चाहा, ``मैं तुम्हारे पिता का संदेश लाया हू¡।´ किंतु रत्नावती धोखे में आने वाली नहीं थी, उसने उस शत्रु-सैनिक को बाणों से बींध दिया।
मुगल सेनापति मलिक काफूर ने यह सोचकर कि वीरता से जैसलमेर का किला जीतना कठिन है। उसने बूढ़े द्वारपाल को सोने की ईंटें दीं और कहा कि वह रात को किले का फाटक खोल दे। द्वारपाल ने रत्नावती को यह बात बतला दी। रत्नावती ने द्वारपाल को रात में किले का फाटक खोलने के लिए कह दिया।
आधी रात को मलिक काफूर सौ सैनिकों के साथ किले के फाटक पर आया। बूढ़े द्वारपाल ने रत्नावती के निर्देशानुसार फाटक खोलकर उन्हें अन्दर घुसा लिया और फाटक बन्द करके उन्हें रास्ता दिखाता हुआ आगे ले चला। थोड़ी दूर आगे जाकर वह किसी गुप्त मार्ग से गायब हो गया। मलिक काफूर व उसके सैनिक हैरान रह गये। किले के बुर्ज पर खड़ी राजकुमारी को हंसते देखकर वे समझ गये कि उन्हें कैद कर लिया गया है।
सेनापति के पकड़े जाने पर मुगल सेना ने किले को घेर लिया। किले के भीतर का अन्न समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास करने लगे। रत्नावती भूख से दुर्बल होकर पीली पड़ गयी किन्तु ऐसे संकट में भी उसने राज-धर्म का पालन किया। अपने यहाँ कैद शत्रुओं को पीड़ा नहीं दी। रत्नावती अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी अन्न देती थी, किंतु मुगल बंदियों को दो मुट्ठी अन्न रोज दिया जाता था।
अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर किले में सेनापति कैद है और किले को जीतने की आशा नहीं है तो उसने महारावल रत्नसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा। राजकुमारी ने एक दिन देखा मुगल सेना अपने तम्बू-डेरे उखाड़ रही है और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं। मलिक काफूर जब किले से छोड़ा गया तो उसने कहा-`राजकुमारी साधारण लड़की नहीं, वे वीरांगना तो हैं ही, देवी भी हैं। उन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। वे तो पूजा करने योग्य हैं।´
विद्युल्लता :- विद्युल्लता चित्तौड़ के एक सरदार की कन्या थी जिसकी सगाई समरसिंह नाम के राजपूत सरदार के साथ हो गयी थी। दोनों के विवाह की तैयारी चल रहीं थी कि चित्तौड़ पर अलाउद्दीन ने आक्रमण कर दिया। समरसिंह को अपने देश की रक्षा के लिए युद्ध में जाना पड़ा। विद्युल्लता एकान्त में रहती व अपने पति का चिन्तन किया करती।
एक दिन चांदनी रात में समरसिंह विद्युल्लता के घर आया और अकेले में उससे मिलकर बोला` `मुझे लगता है कि अब थोड़े दिनों में ही चित्तौड़ मुगलों के हाथ में चला जायगा। मुसलमान सैनिक बहुत अधिक हैं, अत: राजपूतों को हारना ही पड़ेगा। अत: मेरी इच्छा है कि हम-तुम कहीं दूर भाग चलें।´
विद्युल्लता गरज उठी-`तुम सोचते हो, मैं तुम्हारे जैसे कायर से विवाह करूंगी ? कोई राजपूत-कुमारी युद्ध के भगोड़े पर थूकना भी न चाहेगी। तुम्हें मेरा हाथ पकड़ना है तो युद्ध में जाकर अपनी वीरता दिखाओ। युद्ध में मारे गये तो सती होकर स्वर्ग में, मैं तुमसे मिलूंगी ।´ विद्युल्लता समरसिंह को फटकार कर अपने घर चली गयी।
समरसिंह निराश होकर लौट पड़ा। वह अलाउद्दीन की सेना से डर गया था। वह विद्युल्लता की सुन्दरता पर मोहित था। अत: मरने से डर लगता था। उसने सोचा युद्ध समाप्त होने पर विद्युल्लता उसे मिल सकती है। वह शत्रुओं से मिल गया।
जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीत लिया समरसिंह मुगल सैनिकों के साथ विद्युल्लता से मिलने चला। विद्युल्लता ने समरसिंह को मुगल सैनिकों के साथ आते देखा तो वह समझ गयी कि यह देशद्रोही है। पास पहुंचकर समरिंसंह ने विद्युल्लता का हाथ पकड़ना चाहा, किंतु वह पीछे हट गयी और डांटकर बोली-`अधम देशद्रोही! मेरे शरीर को स्पर्श कर मुझे अपवित्र मत कर। शत्रुओं से मिलकर मेरे पास आते हुए तुझे लज्जा नहीं आयी? जा, कहीं चुल्लू भर पानी में डूब मर। विश्वासघाती कायरों के लिए यहाँ स्थान नहीं है।´
समरसिंह विजय के घमण्ड में था। वह विद्युल्लता को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन विद्युल्लता ने अपनी कटार खींच ली और अपनी छाती में दे मारी और दिव्य लोक को प्रस्थान किया। समरसिंह के हाथ लगा केवल उसका प्राणहीन शरीर और देश से विश्वासघात करने का कलंक। इस प्रकार स्वाभिमानी वीरांगना ने देशद्रोही को पति स्वीकार कर ऐश्वर्य भोगने की अपेक्षा मृत्यु का वरण करना उचित समझा।
वीरांगना कृष्णा :- मेवाड़ महाराजा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा अत्यन्त सुन्दरी थी। जयपुर और जोधपुर के नरेशों ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। मेवाड़ महाराणा ने सब बातों पर विचार करके जोधपुर नरेश के यहाँ कृष्णा की सगाई भेजी। जयपुर नरेश इस बात से चिढ़ गये और चित्तौड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे।
जोधपुर-नरेश इस बात को कैसे सहन करते कि उनके साथ सगाई करने के कारण चित्तौड़ पर आक्रमण हो। अत: जयपुर और जोधपुर राज्यों के बीच युद्ध ठन गया। जयपुर नरेश जोधपुर को हराने में सफल रहे। अब उन्होंने मेवाड़-नरेश के पास सन्देश भेजा कि अपनी पुत्री का विवाह वे उनसे कर दें।
मेवाड़ के महाराणा ने उत्तर दिया- `मेरी पुत्री कोई भेड़-बकरी नहीं है कि लाठी चलाने वालों में जो जीते, वह घेर ले जाय। मैं उसके भले-बुरे का विचार करके ही उसका विवाह करूंगा। ´
जयपुर-नरेश ने मेवाड़ के पास पड़ाव डाल दिया और कहला भेजा-`कृष्णा अब मेवाड़ में नहीं रह सकती। या तो उसे मेरी रानी बनकर रहना होगा या मेरे सामने से उसकी लाश ही निकलेगी।´ मेवाड़ की छोटी सेना जयपुर-नरेश का युद्ध में सामना नहीं कर सकती थी, किन्तु धमकी पर पुत्री को देना तो देश के पराजय से भी बड़ा अपमान था। अन्त में महाराणा भीमसिंह ने जयपुर नरेश की बात पकड़ ली- `कृष्णा की लाश ही निकलेगी।´
राजमहल में हा-हाकार मच गया। कृष्णा ने जब यह सुना तो वह ऐसी प्रसन्न हुई, जैसे उसे कोई बहुत बड़ा उपहार मिल गया हो। उसने अपनी माँ को समझाया- `माँ! आप क्षत्राणी होकर रोती हो? अपने देश के सम्मान के लिए मर जाने से अच्छी बात क्या हो सकती है? माँ! तुम्हीं तो बार-बार कहा करती थीं कि देश के लिए मर जाने वाला धन्य है। देवता भी उसकी पूजा करते हैं।´
अपने पिता महाराणा से उस वीर बालिका ने कहा-`पिताजी! आप राजपूत हैं, पुरुष हैं और फिर भी रोते हैं? चित्तौड़ के सम्मान की रक्षा के लिए तो मैं सौ-सौ बार मरने के लिए तैयार हूँ । मुझे विष का प्याला दीजिये।´
कृष्णा को विष का प्याला दिया गया, जिसे वह गटागट पी गई। जब कृष्णा की लाश निकली उस बलिदानी बालिका के लिए जयपुर-नरेश ने भी हाथ जोड़कर सिर झुका दिया और उनकी आंखों से भी आंसू टपकने लगे।
वीर बाला चम्पा :- महाराणा प्रताप परिस्थितियों के कारण वन-वन भटक रहे थे किन्तु उन्होंने मुगलों के सामने झुकना मंजूर नहीं किया। महाराणा को बच्चों के साथ दिन रात पैदल चलना पड़ता था। बहुधा बच्चों को उपवास करना पड़ता था। तीन-तीन, चार-चार दिन जंगली बेर व घास की रोटियों पर निकल जाते। कई बार ऐसा अवसर भी आता कि घास की रोटियां भी बनाते-बनाते छोड़कर भागने को विवश होना पड़ता।
महाराणा की पुत्री चम्पा ग्यारह वर्ष की थी। चम्पा एक दिन अपने चार-वर्षीय भाई के साथ नदी किनारे खेल रही थी। कुमार को भूख लगी थी। वह रोटी मांगते हुए रोने लगा। उस चार वर्ष के बच्चे में समझ कहां थी कि उसके माता-पिता के पास अपने युवराज के लिए रोटी का टुकड़ा भी नहीं है। चम्पा ने अपने भाई को कहानी सुनाकर व फूलों की माला पहनाकर बहला दिया। राजकुमार भूखा ही सो गया।
चम्पा जब अपने छोटे भाई को गोद में लेकर माता के पास सुलाने आई तो महाराणा को चिन्ता में डूबे हुए देखकर बोली, ``पिताजी! आप चिन्तित क्यों हैं?´´ `बेटी! हमारे यहां एक अतिथि पधारे हैं। आज ऐसा भी दिन आ गया है कि चित्तौड़ के राणा के यहां से अतिथि भूखा चला जाय।´ महाराणा ने उत्तर दिया।
चम्पा बोली, `पिताजी! आप चिन्ता न करें! हमारे यहां से अतिथि भूखा नहीं जायेगा। आपने मुझे कल जो दो रोटियां दी थीं, वे मैंने भाई के लिए बचा कर रखीं थीं, वह सो गया है। मुझे भूख नहीं है। आप उन रोटियों को अतिथि को दे दीजिये।´ पत्थर के नीचे दबाकर रखी घास की रोटियां पत्थर हटाकर चम्पा ले आई। थोड़ी सी चटनी के साथ वे रोटियां अतिथि को दे दी गयीं। अतिथि रोटी खाकर चला गया।
महाराणा बेटी के त्याग को देखकर द्रवित हो उठे, उनसे अपने बच्चों का कष्ट देखा नहीं गया। उस दिन उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र लिख दिया। ग्यारह-वर्षीय सुकुमार बालिका चम्पा दो-चार दिन में तो घास की रोटी पाती थी और उसे भी बचाकर रख लिया करती थी। अपने भाग की रोटी वह अपने भाई को थोड़ी-थोड़ी करके खिला देती थी। भूख के मारे वह स्वयं दुर्बल व कृश-काय हो गई थी। उस दिन अतिथि को रोटियां देने के बाद वह मूर्छित भी हो गयी।
महाराणा ने उसे गोद में उठाते हुए रोकर कहा- `मेरी बेटी! अब मैं तुझे और कष्ट नहीं दूंगा। मैंने अकबर को पत्र लिख दिया है।´ यह सुनकर चम्पा मूर्छा में भी चौक पड़ी, बोली, `पिताजी! आप यह क्या कहते हैं? हमें मरने से बचाने के लिए आप अकबर के दास बनेंगे? पिताजी! हम सब क्या कभी मरेंगे नहीं? पिताजी! देश को नीचा मत दिखाइये! देश और जाति की गौरव-रक्षा के लिए लाखों लोगों का मर जाना भी उत्तम है। पिताजी! आपको मेरी शपथ है, आप अकबर की अधीनता कभी स्वीकार न करें।´ बेचारी चम्पा महाराणा की गोद में ही सदा के लिए चुप हो गयी।
कहा जाता है जब अकबर के दरबार में महाराणा का पत्र पहुंचा तो पत्र देखकर पृथ्वीराजजी ने पत्र की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए महाराणा को पत्र लिखा और उसे पढ़कर महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने का विचार त्याग दिया। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि बालिका चम्पा ने अपने बलिदान से ही महाराणा को दृढ़ता देकर हिंदुकुल गौरव की रक्षा की।
व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा ।
सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।।
राजस्थान की वीर-नारियाँ -द्वितीय भाग
कृषक कन्या हम्मीर माता :- कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े कुमार अरिसिंहजी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे हैं। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, `राजकुमार! आपलोग मेरे खेत में घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट हो जायेगी। आप यहाँ रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हू¡।´
राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सूअर को कैसे मारकर लायेगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में उसने सूअर को मारकर राजकुमार के सामने ला पटका। राजकुमार का काफिला लौटकर पड़ाव पर आ गया। जब वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मा¡गने लगी।
राजकुमार बोले, `तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य मैं पड़ गया हू¡। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है।´
कृषक-कन्या ने विनम्रता से कहा, ``अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है।´´ इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैंसों की रस्सियाँ पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। उस लड़की ने उसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा।
निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया।
पन्नाधाय :- पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मा¡ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना धाय मा¡ कहलाई। पन्ना का पुत्र व राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी।
दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई।
पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंक की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आ¡खों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
वीरांगना कालीबाई :- वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई है। यहाँ तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पड़ने पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चा¡द लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियाँ सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रहीं हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामो में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का।
स्वाधीनता आन्दोलन चल रहा था। वनवासी अंचल को गुलामी का अँधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राज्य सत्ता कमजोर होगी।
राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बन्द करने का आदेश दिया। नानाभाई डूंगरपुर जिले के वनवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार के काम में लगे थे। वे गांव-गांव जाकर वनवासियों को शिक्षा का महत्व समझाते व पाठशालायें खोलते। डूंगरपुर के महाराज लक्ष्मण सिंह ने क्षेत्र के 25 वर्ष पुराने छात्रावास को बन्द करवाने के बाद नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालायें बन्द करें। लेकिन नानाभाई नहीं माने।
अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट 19 जून 1947 को पाठशाला पहुंचे , जहाँ नानाभाई का घर भी था। उस समय नानाभाई अन्य अध्यापक सेंगाभाई से बातचीत कर रहे थे। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाया और धमकाते हुए आज्ञा दी कि पाठशाला बन्द करके चाबी उन्हें दें।
पाठशाला बन्द करना नानाभाई को स्वीकार नहीं था। अत: नानाभाई व उनके साथी अध्यापकों को पीटा जाने लगा। मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्ही बालिका जो उसी समय घास काट कर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, ``अरे, तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छाड़ दो! इन्हें छोड़ दो!
हाथ में हंसियां, पाँव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बन्दूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमकियों से। उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बन्दूक तानकर कहा, ``ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दू¡गा।´´
लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाठ व सेंगाभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बन्दूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरु कर दिया और पुलिस की बन्दूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलायें भी घायल हुईं। अपनी दुर्गति का अन्दाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले।
घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में इलाज के लिए ले जाया गया। कालीबाई के साथ घायल हुईं अन्य भील महिलायें नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यापक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डू¡गरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मूर्तिया भी स्थापित की गईं हैं।
हिन्द-युग्म बेबसाइट के नियंत्रक व हिन्दी सेवी श्री शैलेश भारतवासी ने मेरी आगामी पुस्तक ``चिन्ता छोड़ो - सुख से नाता जोड़ो´´ को अपना अमूल्य समय निकालकर पढ़ा और अपने विचारों को लिपिबद्ध करके मेरे पास तक पहुँचाया, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । श्री शैलेश जी ने मेरी तुलना आम आदमी से की है, मुझे प्रसन्नता हुई। मैं आम आदमी ही बना रहना चाहता हूँ । मुझे विशिष्ट बनने की आकांक्षा नहीं है। भारतवासी जी ने मेरी तुलना में कर्ण, गीता प्रेस, व आस्था व संस्कार जैसे टीवी चैनलों को प्रयोग किया है। यह मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के लिए कुछ ज्यादा ही हो गया है। कर्ण, गीता प्रेस, आस्था व संस्कार के सामने मेरा लेखन कहाँ ठहरता है। उसके बाबजूद मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए अपने अमूल्य सुझाव भी दिए है। भारतवासी जी की टिप्पणी को हूबहू देने का प्रयास कर रहा हूँ ।
`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।
एक आम आदमी बेतरतीब पहनता है, बेतरतीब खाता है, बेतरतीब चलता है और बेतरतीब बोलता है। या यूँ कह लीजिए कि आम आदमी एक ऐसा घोड़ा है जिसकी लगाम अमूमन मुक्त रहती है। दुनिया भी अजीबोगरीब तरीके से व्यवस्थित है, तथा चारों ओर केवल अव्यवस्थित व्यवस्था दिखती है।
संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी एक ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें परिधि में बंधना नहीं आता। लेखनी को ढीला छोड़ देते हैं, बातों को अपनी मर्जी से मोड़ते हैं, किसी पैरोकार में नहीं बंधते । मीमांसा लिखते-लिखते वे प्रवचन करने लग जाते हैं, उपदेश देने लग जाते हैं। सुनी-सुनाई बातें दोहराने लगते हैं। पाठकों को सुखी रहने के साधन और माध्यम बतलाते हैं, मगर कब ये खुद दुनिया भर की चिंताओं और आशंकाओं से घिर जाते हैं, ये पाठक को भी पता नहीं चलता।
जिस प्रकार एक आम आदमी सफर शुरू करते ही मंजिल पर पहुचने की जल्दी करता है, उसी तरह संतोष भी अपनी बातों को त्वरित गति से स्थापित करने की जल्दी में दिखते हैं। कई-कई जगह तो जबरदस्ती करते हुए भी जान पड़ते हैं।
यह निबंध संग्रह भी एक आम निबंध संग्रह की तरह रसहीन है। न तो इसमें रोचक तत्वों का समावेश है और न ही भौचक तत्वों का। एक आम जिंदगी की बेमेल बातों की टोकरी खोल दी है संतोष ने। निबंध लेखन के खेल को संतोष नये खिलवाड़ की तरह खेलते हैं। जीतने की जल्दी में रहते हैं हमेशा।
लेखक के मन में बातों का अम्बार है, जिसे वो महादानी कर्ण की तरह लुटाता है। औषधि की तरह नहीं बल्कि मूल्यहीन चीजों की तरह लेखन की गलियों में बहा देना चाहता है। इसलिए कभी ये बाबा बन जाते हैं, कभी कवि तो कभी समाज-सुधारक। शुरू के दो-तीन निबंधों के बाद पाठक परेशान होने लगता है, यह किताब पहाड़ लगने लगती है और वो भी काफी ऊ¡ची। एक संघर्षशील और धैर्यवान पाठक जब सभी घाटियों को पार करके शीर्ष पर पहुचता है तो खुद को काफी ठगा-ठगा महसूस करता है। गोल-मटोल बातों का ढेर और कूड़ा उसके मस्तिष्क में जमा हो जाता है, जिसे वो जल्द न प्रयोग होने वाले कोनों में डालना चाहता है।
इस निबंध संग्रह को पढ़कर या तो गीता प्रेस, गोरखपुर से छपने वाली तमाम प्रेरणा दायक पुस्तकों की याद आती है या टीवी पर उपलब्ध आस्था और संस्कार जैसे चैनलों की। ऐसी किताबें और चैनल्स जिस तरह आज की पीढ़ी और उसकी भाषा के साथ तारतम्य नहीं बिठा पातीं, उसी तरह संतोष की लेखनी भी एन्टीक लगती है।
लेखक के पास बहुत सी बातें हैं, जिन्हें ये एक-एक करके ही कहें तो पाठक-सुलभ और ग्राह्य होंगी। मनन करे कि एक सामान्य व्यक्ति इन बातों से कितनी जल्दी या देर में सहमत होगा। बातों को विषय केंद्रित करे। अनावश्यक बातों का संपादन करे। निबंध लिखते रहने का अभ्यास करे। छपने की जल्दी न करे। सर्वप्रथम खुद को एक फिल्टर बनाये। लेखक में संभावनाए¡ हैं, बस वो दोहन करना सीख ले।
०६-०७-२००८ शैलेश भारतवासी
नई दिल्ली नियंत्रक, हिन्द-युग्म
दीपावली का शुभ अवसर है, इस पर्व की भिन्न-भिन्न मान्यताएं व् परम्पराए है, इस अवसर पर धन की देवी लक्ष्मी के पूजन का विधान है। घर-घर में लक्ष्मी का पूजन होता है किंतु वास्तविक देवी की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है , या साकार व सशरीर देवियों की उपेक्षा की जाती है फ़िर हमको शान्ति व सुख समृद्धि कैसे मिल सकती है?
आओ दीपावली के इस अवसर पर हम समझे कि प्रतिमा की अपेक्षा वास्तविक देवी की पूजा न सही उसकी, घर की देवी आवाज को सुने और उसके साथ चलाकर उसका सहयोग प्राप्त कर सुख व शान्ति देकर सुख व शान्ति प्राप्त करें और वास्तविक रूप में एक दूसरे के पूरक की भूमिका पूर्ण कर पूर्णता को प्राप्त करे ।
सच्ची देवी ?
एक गाँव में एक गरीब परिवार रहता था। दो भाई थे, दोनों की शादी हो चुकी थी। गरीबी उन्हें दो क्षण भी सुख के नसीब नहीं होने देती थी। दोनों ही एक-दूसरे के विरोधी थे। दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर था। दोनों में खटपट ही रहती थीं। दोनों में एक ही समानता थी कि दोनों गरीबी के कारण दुखी रहते थे। छोटा भाई अन्धविश्वासी था, वह देवी-देवताओं को ही सब-कुछ मानता था। वह अपना अधिकाँश समय देवी की पूजा में लगाया करता था। उसका कहना था,`यदि देवी प्रसन्न हो जाय तो छप्पर फाड़कर देगी।´
जबकि बड़े भाई का कहना था कि परिश्रम से ही सब-कुछ प्राप्त किया जा सकता है। हमें देवी-देवताओं से अपेक्षा न करके ईमानदारी पूर्वक परिश्रम करना चाहिए। प्रत्येक स्त्री के लिए उसका पति ही देवता है तो प्रत्येक पति के लिए उसकी पत्नी ही सच्ची देवी है। दोनों का सामंजस्य ही परिवार की उन्नति कर सकता है।
दोनों भाइयों में सदैव खटपट रहती। वे दोनों कभी भी एक साथ बैठकर बात नहीं कर सकते थे। छोटा भाई सदैव देवी को प्रसन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार की पूजा करता रहता। भजन व पूजा-पाठ में ही मस्त रहता। वह सदैव दैवी के मन्दिर में पड़ा रहता, जो कुछ भी होता, देवी के पूजा-पाठ में बरबाद कर देता। काम करने के लिए उसके पास समय ही कहाँ था?
उसका बड़ा भाई दिनभर कठिन परिश्रम करता, उसकी पत्नी गृहस्थी को व्यवस्थित ढंग से चलाती। वह सदैव पति की आज्ञा का पालन करती और पति सदैव पत्नी की सलाह से ही महत्वपूर्ण निर्णय लेता। दोनों में बड़ा स्नेह था। अत: गरीबी मैं भी उनकी गाड़ी पटरी पर चल रही थी। उनकी स्थिति सुधरती जा रही थी।
छोटा भाई सदैव लक्ष्मी देवी की तस्वीर के सामने उनके प्रसन्न होने की राह देखा करता। उसकी पत्नी उसे उस स्थिति में देखकर ही जल-भुन जाती। उसे कोसती रहती। सारी घर-गृहस्थी ही अव्यवस्थित रहती। आखिर घर के खर्चे के लिए कोई आमदनी का साधन नहीं था। वह क्या कर सकती थी? वह पति को देखकर कुढ़ती रहती। उसके पति को यह समझ तो थी ही नहीं कि सच्ची देवी घर में परेशान हो तो लक्ष्मी देवी प्रसन्न कैसे हो सकती हैं? यदि घर की मालकिन ही प्रसन्न नहीं होगी तो कोई देवी कुछ नहीं कर सकती।
परिश्रम के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता। कर्म करना जीवन के लिए आवश्यक है, इस बात को उसे कौन समझाता वह किसी की बात सुनने को तैयार ही न था। पत्नी के द्वारा कुछ भी कहे जाने पर उसे पीटने लगता। वह देवी के नशे में चूर था, कैसे समझता कि सभी स्त्री-पुरुष देवी-देवताओं का रूप हैं, बशर्ते वे अपने कर्तव्य का पालन करें। बड़े भाई ने भी छोटे भाई को समझाने का काफी प्रयास किया था। उसने उसकी एक न सुनी तो परेशान होकर उसने अपना रहन-सहन अलग कर लिया। संपत्ति के नाम पर उनके पास जो भी था, सब कुछ बाँट दिया गया। उसकी पत्नी परेशान थी, सोचा शायद अब कुछ काम-धाम करने लगें। घर-गृहस्थी का ध्यान रखने लगें, उसने भी उसे काफी समझाया किन्तु वह मानने वाला कहाँ था? उसके सिर पर तो देवी का भूत सवार था।
देवी जो एक तस्वीर मात्र थी के सामने बैठा पूजा करता रहता, सच्ची देवी जो उसके सामने रोती-गिड़गिड़ाती रहती, उसका कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ता। दीपावली का दिन था। सभी प्रसन्नता के साथ दीपावली मना रहे थे। सभी के घरों से मिठाइयों और पकवानों की सुगन्ध आ रही थी। बच्चे पटाखों से आकाश को गुंजायमान कर रहे थे, वह आज भी देवी की तस्वीर के सामने बैठा सोच रहा था कि आज तो लक्ष्मी देवी जरूर प्रसन्न हो जायेंगी और उसकी गरीबी दूर हो जायेगी। करता भी क्या? घर में कुछ भी न था। दीवाली पर उसे बच्चे रोटी के लिए तरस रहे थे।
अचानक उसे ध्यान आया। आज दीपावली है और आज के दिन जुआ खेला जाता है। जुआ खेलना भी लक्ष्मीजी की एक प्रकार से आराधना ही है। बिना जुआ खेले तो लक्ष्मी प्रसन्न हो ही नहीं सकतीं। जुआ खेलने के लिए रूपयों की आवश्यकता थी जो उसके पास नहीं थे। अन्तत: उसने अपनी जमीन को ही दाव पर लगा दिया और जब हार गया तो फूट-फूट कर रोने लगा। आज उसे बड़े भाई का कथन याद आ रहा था, `सच्ची देवी तो पत्नी ही होती है। उसी के सहयोग, समन्वय व सामंजस्य से प्रसन्नता मिल सकती है।´ आज उसे भाई का कथन बार-बार कचोट रहा था। उसकी आँखों से पश्चाताप के आंसू बह रहे थे।
बेचारी हिन्दी
सितम्बर के अन्तिम सप्ताह की बात है। मुझे उत्तर प्रदेश माध्यमिक सेवा चयन बोर्ड द्वारा विज्ञापित प्रधानाचार्य के पद हेतु आवेदन करना था। अतः ड्राफ्ट बनबाने के उद्देश्य से सेण्ट्रल बैंक आफ इण्डिया की स्थानीय शाखा में ड्राफ्ट का फार्म भरकर दिया। बैंक कर्मचारी ने फार्म यह कहकर वापस कर दिया कि इसे अंग्रेजी में भरकर लाओ। मैंने दलील दी कि महोदय हम लोग हिन्दी पखवाड़ा मना रहे हैं और आप है कि हिन्दी में भरे फार्म को भी अस्वीकार कर रहे हैं। उसने मुझे हिकारत से देखते हुए कहा, कम्प्यूटर अंग्रेजी नहीं जानता। मुझे मजबूरी में ड्राफ्ट फार्म पर चयन बोर्ड का नाम अंग्रेजी में लिखना पड़ा। जब अंग्रेजी में नाम लिखने के लिए, पूरा नाम मोबाइल पर अपने मित्र को पूछ रहा था तो बैंक के अधिकारी महोदय ने सुझाव दिया । रोजगार समाचार अंग्रेजी में भी आता है। उसे पढ़ा कीजिए मास्टर जी।
प्रश्न यह है की जो व्यक्ति अंगरेजी नहीं जानता वह ड्राफ्ट नही बनवा सकता ?
दूरियां
वैश्वीकरण ने आज मिटा दी, भौगोलिक दूरियां ।
परिवहन और संचार से, मिट गईं सब दूरियां ।
भौतिक विकास कब मिटा सका, दो दिलों की दूरियां ।
जाति, धर्म विचार की भी, बढ़ रहीं नित दूरियां ।
शिक्षित इंसान की, इंसान से, बढ़ रहीं क्यों दूरियां ?
प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा है, और नर-नारी में दूरियां ।
पास-पास रहकर भी देखो, पसरी हुई क्यों दूरियां ?
दूरियां ही दूरियां हैं, इंसान की मजबूरियां ।
हर दिल में खिलें पुष्प, लता फैलें चहुं ओर,
सुगंध व्यापे कण-कण , मिट जायें सब दूरियां ।
नन से बलात्कार करने वाले हिन्दू नहीं, दुराचारी व जघन्य अपराधी हैं।
उड़ीसा की घटनाओं ने पूरे देश को विश्व के सामने शर्मिन्दा किया है। स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों को बचाया है। जो शक्ति स्वामी जी के हत्यारों के विरूद्ध लगनी चाहिए थी, वह इन अपराधियों की ओर लगानी पड़ रही है। निर्दोषों को प्रताडित करने वाले अपराधी ही होते हैं, वे अपराधियों की सहायता ही करते हैं, वही वर्तमान समय में उड़ीसा में तथाकथित धर्म का झण्डा उठाने वाले अधर्मी कर रहे हैं। अपने कृत्यों से हिन्दू धर्म को हानि पहुंचा रहे हैं। उन्हें धर्मांतरण की इतनी ही चिन्ता थी तो स्वामी जी के स्थान को भरते। आगे बढ़कर जो व्यक्ति मजबूरी में ईसाई बन रहे हैं। उन्हें गले लगाते। स्वामी जी के काम को आगे बढ़ाते। स्वामीजी के नाम पर पैशाचिक कृत्य करके ये लोग स्वामी जी की आत्मा को कष्ट पहु¡चा रहे हैं। ऐसे कृत्यों का कोई भी संगठन समर्थन नहीं कर सकता और प्रत्येक सरकार को वोटों की चिन्ता किए बिना इनके खिलाफ कानून के अनुसार कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए यही नहीं जिस संगठनों के साथ इनका नाम जुड़ रहा है, उन संगठनों को ऐसे अपराधियों को पकड़ने में सरकार की सहायता व ऐसे कृत्यों की तीव्र भर्त्सना करनी चाहिए। परिवार व समाज में ऐसे लोगों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
आधुनिकता और समानता तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग व संघर्ष के कारण परिवार जैसी महत्वपूर्ण संस्था कमजोर होती जा रही है और परिवार के बिना, न नर सुखी रह सकता है और न नारी, इसी विषय पर जोधपुर से प्रकाशित विवेकानन्द केन्द्र की पत्रिका केन्द्र भारती के सितम्बर अंक में प्रकाशित संगीता सोमण का आलेख परिवार बचाओ साभार यहां दिया जा रहा है। संगीता जी का आलेख वर्तमान सन्दर्भ में ऐसी महिलाओं और पुरूषों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है जो आधुनिकता के चक्कर में परिवार को ही तिलांजलि दे रहे हैं जो अविवाहित रहने को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर परिवार संस्था को कमजोर कर रहे नर-नारी आतंकवादियों से भी अधिक हानि पहुचा रहे है ये देश की जड़ो को ही खोखला कर रहे है । देश को ये कितना नुकशान पहुँचा रहे है ये इनको स्वयं ही मालुम नही , ये इस खतरे से अनजान है इन्हे सही राह दिखाने की आवश्यकता है इसी का प्रयास लेखिका ने किया है :
परिवार
किशोरी,
परसों मनीषा अपने ढाई वर्षीय बेटे साकेत के साथ मिलने आई थी। साकेत बड़े आराम से बातें भी कर रहा था तथा साथ ही साथ नानी-नानी करके घर में घूम रहा था. उन दोनों का अस्तित्व ही बहुत सुख का अहसास दे रहा था। बातों-बातों में मैंने मनीषा को पूछा, तुम नौकरी पर जाती हो तो बच्चा किसके पास छोड़कर जाती हो? तो वह बोली, मैंने नौकरी छोड़ दी है। चालीस हजार मासिक कमाई करने वाली, सी.ए. जैसा कठिन अभ्यास क्रम पूरा करने वाली मनीषा का उत्तर सुनकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। वह आगे बोली, हम दोनों ही सुबह आठ बजे तक घर से निकल जाते थे तथा रात आठ बजे घर आते थे। ऐसे में साकेत को कौन पालता? सासू मां से अब ज्यादा कष्ट झेले नहीं जा सकते और नानी है ही नहीं। पालनाघर (creche) में बच्चे को छोड़ना नहीं चाहती थी। वैसे भी दादी-नानी सक्षम होती, तो भी अब उनकी उम्र बच्चों के पीछे दौड़ने की नहीं है। उनकी उपस्थिति ही हमारा सम्बल है। अत: मैंने और विवके जी ने बच्चे के जन्म से पहले ही नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया था। उपना बच्चा बड़ा होता हुआ देखना, उसके साथ खेलना, उसके बालहठ पूरे करना, उसका पहली बार करवट बदलना, बैठना, चलना, गिरना, इन सब सुखद क्षणों से मैं वंचित रहती। साथ ही साथ बच्चे का संवर्धन, संगोपन व संरक्षण का दायित्व हर मां का है। इसका पूरा अहसास था। साथ ही साथ बच्चा भी माँ के साथ रहकर सुरक्षा का अनुभव करता है और उसका तो वह हक भी है, तो मैं उसे उसके इस जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित क्यों करूं? यदि मैं नौकरी करती तो दिनभर हम दोनों तनाव में रहते। आज कम से कम विवेकजी निश्चिन्त होकर काम पर जाते हैं। उनके प्रमोशन्स और टूर्स निर्बाध चलते हैं, समय मिलते ही हमारे साथ रहते हैं। मेरे सामने छोटी से बड़ी हुई मनीषा इतना सोचती है यह देखकर बहुत अच्छा लगा। दोनों ही बधाई के पात्र हैं। क्योंकि चालीस हजार महीना रूपयों का लालच छोड़ना आसान बात नहीं है। विनीता के भी अभी बेटा हुआ है, वह भी सी.ए. है। उसने भी नौकरी छोड़ने का ऐलान कर दिया है। तुम्हारी दीदी, सुरभि `जी-निट´ का कोर्स किए हुए थी, उसको पैकेज भी अच्छा मिला था, परन्तु शादी के पश्चात उसने भी नौकरी छोड़ दी। मैथिली इंजीनियर है, वह भी घर पर ही रहती है, इन चारों के पति भी इस निर्णय में सहभागी थे। वास्तव में आज ऐसी मनीषा, विनीता, सुरभि, मैथिली आदि की समाज को महती आवश्यकता है।
महत्वाकांक्षी पतियों के तो क्या कहने! वैभव, जो अमेरिका से एम.बी.ए. करना चाहता है, उसने तो अपनी पत्नी को नौकरी करने को विवश ही कर दिया है। उसकी बेटी जन्म से ही बीमार है। साल भर तो वैभव की मां उनके साथ रही, परन्तु अब वैभव की पत्नी को अहसास हुआ कि मुझे नौकरी छोड़कर बिटिया की परवरिश करनी चाहिए। वैभव ने हां तो भर दी और दूसरे महीने अमेरिका में एम.बी.ए. करने की अपनी इच्छा जाहिर की। मध्यमवर्गीय परिवार में इतने पैसे कहा¡ से आयेंगे, अत: स्वाति नौकरी करने को विवश है।
बच्चा पैदा होने के बाद उसकी परवरिश अच्छी तरह से हानी ही चाहिए। परन्तु आज समाज में हम देख रहे हैं कि उच्च शिक्षित मा¡-बाप दोनों के अच्छा कमाने के बाबजूद भी उनकी पैसे की भूख कम नहीं हुई है या वे बहुत अधिक महत्वाकांक्षी हैं। अत: दादी, नानी या पालनाघर में बच्चे पल रहे हैं। मुझे कभी-कभी लगता है कि यह हम माताओं की तो कहीं गलती नहीं है, जिन्होंने अपनी कुंठित आकांक्षाओं को अपनी बच्चियों के गले में मढ़ दिया। उन्हें उच्च िशक्षा दिलाई। बेटे-बेटी में फरक नहीं किया। बेटियों की परवरिश बेटों जैसे ही की और यहीं हम मात खा गये। बेटियों को हमने स्त्रियोचित गुणों से अवगत नहीं कराया। यही कारण है कि आजकल लड़कियों की गृहकार्य में रूचि एकदम खत्म हो गई है। खाना बनाना, सिलाई-बुनाई करना या स्वयं के कपड़े धोना, यह सब पुरानी बातें हो गईं हैं। दूसरों के लिए कुछ करना, ससुराल में सभी रिश्तेदारों के साथ तालमेल बिठाना उन्हें आता ही नहीं है। यह सब करना उन्हें प्रतिष्ठा के विरूद्ध लगता है। उनके पा¡व जमीन से उखड़ गये हैं। उन्हें उड़ने के लिए आसमान तो दे दिया, परन्तु यह बताना भूल गये कि वापस अपने नीड़ में ही आना है। उच्च िशक्षा लेने के बाद पैसा कमाना ही हमारा ध्येय हो गया है। बढ़ती म¡हगाई में दोनों का कमाना आवश्यक है, यह मैं मानती हू¡, पर कहा¡ रुकना है यह भी तो समझ में आना आवश्यक है। मैं भी नोकरी करती थी किन्तु मैंने पदोन्नति नहीं ली क्योंकि उसके बाद मेरे जीवन में जो परिवर्तन आता, उससे मेरी पूरी गृहस्थी बिगड़ जाती। मेरी उम्र की बहुत सी महिलाओं ने ऐसा ही किया, उनकी प्राथमिकता अपनी गृहस्थी थी, न कि कैरियर। परन्तु हम लड़कों से कम नहीं हैं यह दिखाने के चक्कर में, हमने हमारे परिवार संस्था को ही दा¡व पर लगा दिया है। पूरे विश्व में भारत की परिवार-प्रथा को आदशZ के रूप में देखा जाता है, पर हम ही उसे आग लगाने पर उतारू हो गये हैं। हमने हमारे बेटों की परवरिश में भी कहीं गलती की, तभी तो उनको पैसे कमाने के चक्कर में अपने दायित्व को बोध नहीं रहा। पिछले दिनों में पूना गई थी, तब मौसी की दो बेटिया मिलीं। दोनों ही उच्च िशक्षित हैं परन्तु नौकरी नहीं करतीं, बताती थीं कि घर में सास-ससुर हैं। हमारे पति उनके इकलौते बेटे हैं, हम भी यदि नौकरी पर जायेंगे तो उनके साथ कौन रहेगा। बच्चों की देखभाल कौन करेगा? अत: एक ने घर में बुटीक खोल रखा है व दूसरी ने घर में हॉस्टल खोल रखा है। उनका काम अब बढ़ गया है, अत: मदद हेतु पास में रहने वाली जरूरतमन्द लड़कियों को अंशकालीन काम देती हैं। दोनों की ही समस्या का हल हो जाता है। वह बताती है कि यदि हम नौकरी करते तो शायद इससे थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता? परन्तु आज अपना काम करने में जो आनन्द है वह कहा¡ से मिलता? हमारे पूर्वजों ने भी नौकरी को अधम ही बताया है, परन्तु नििश्चत आमदनी के कारण हम उसकी ओर आकर्षित होते हैं। आज लड़किया¡ पढ़ लिख रही हैं, परन्तु वे घर बैठे पैसा कमाये, इतना आत्मविश्वास हमने उनको नहीं दिया। आप उच्च िशक्षित लड़कियों के साथ-साथ, थोड़ी पढ़ी लिखीं लड़किया¡ भी गृह कार्य से जी चुराती हैं। घर के बाहर रहने में उनको अधिक आनन्द आता है। आवश्यकता हो तो पैसा कमाना कोई पाप नहीं है, परन्तु नौकरी और गृहस्थी का सामंजस्य बिठाना भी अनिवार्य है, अन्यथा हमारी परिवार संस्था टूट जायेगी और हम अपना अस्तित्व खो बैठेंगे। इसलिये समय रहते ही हमें इस बारे में कुछ ना कुछ करना होगा। नौकरी के घण्टों में कमी लानी होगी, अंशकालीन नौकरिया¡ उपलब्ध करानी होगीं। इस सबके लिए हम माताओं को ही मिलकर आवाज उठानी होगी, नहीं तो हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। शायद वे पैसा तो कमा लेंगे, परन्तु मनुष्य नहीं बनेंगे। उनको यदि मनुष्य बनाना है तो त्याग हम माताओं को ही करना होगा। घर-घर में आज यही चित्र दिख रहा है। हमारी बेटिया¡ और बहुए¡ अभी अपने पूरे यौवन काल में हैं, उन्हें आगे वाली अंधेरी गुफा का ध्यान नहीं है। आजकल सभी रिश्तों में कड़वाहट आ रही है। अभी तो जवान हैं, सब सहन करने की क्षमता प्रकृति ने उनको दी है, परन्तु आगे बुढ़ापे में क्या होगा? क्या वे वृद्धाश्रम में ही रहना पसन्द करेंगी? वहा¡ भी सामंजस्य बिठाना पड़ता है। कहा¡ जायेगी हमारी भावी पीढ़ी? सोच सोच कर मन उदास होता है। हमारी उस समस्या से हमें ही निजात पानी है। मुझे लगता है राजीवजी दीक्षित ने जैसे `आजादी बचाओ´ आन्दोलन शुरू किया है। उसी प्रकार हमें भी `परिवार बचाओ´ आन्दोलन शुरू करना पड़ेगा। स्वामीजी ने कहा था एक बार स्त्री िशक्षित हो जाये तो वह अपने आप अपनी समस्या का हल ढू¡ढ़ लेंगी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है -
`कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा´
(अध्याय 10 “लोक 34)
`कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हू¡, इस सप्त गुणों से में स्त्रियों के हृदय में स्थित हू¡।´इसका प्रकटीकरण हमारी बेटियों में कराने का दायित्व हमारा ही है।
लेखिका : संगीता सोमण, 92, प्रेम नगर, खेमे का कु¡आ, पाल रोड, जोधपुर (राजस्थान)
हँसी खुद ही रो रही है।
दु:ख में खुशी, हमें हो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
बुद्धि उर पर हुई हावी,
ख्याल उगते, नहीं पुलावी।
मकरन्द को, भंवरा नहीं,
योजना नहीं है, कोई भावी।
कली बसन्त को ढो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
प्रेम का व्यापार फलता,
स्वार्थ से संसार चलता।
टीवी पर मुस्कान बिकती,
किशोर का यौवन है ढलता।
बेचैनी ही अब सो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
फूल अब चुभने लगे हैं,
कांटे ही लगते भले हैं।
आलिंगनों से डर है लगता,
प्रेम में कटते गले हैं।
शान्ति आतंक बो रही है।
हँसी खुद ही रो रही है।।
खोज
जाति वर्ण धर्म धन मद में,ना तुमको कुछ होश रहा है।
ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।
मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में नित आराधन करते हो।
कथा भागवत नाम कमाते लूट-लूट घर भरते हो।
नित के व्रत उपवास करो और माल चकाचक चरते हो।
असत्य भ्रष्टता इष्ट तुम्हारे गैरों का धन हरते हो।
ईश्वर को निज पक्ष में लाने ब्राºमण का हो भोज रहा है।
ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।
अरबों का करके घोटाला एक लाख मन्दिर में देते।
तुम्ही बता दो भाई मेरे ईश्वर भी क्या रिश्वत लेते ?
दानवीर फिर भी कहलाते कितने गले हैं तुमने रेते ?
भला न कुछ भी होने वाला दरिद्र नारायण नहीं हैं चेते।
भगवा वस्त्र हैं तूने पहने फिर भी देख उरोज रहा है।
ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।
सर्वोच्च अदालत ईश्वर की है जहा¡ न कोई रिश्वत चलती ।
सत्य अहिंसा सदाचार की ,मानव धर्म की बेल है पलती।
दूध का दूध पानी का पानी नहीं वका लत यहा¡ है फलती।
सच्चा न्याय सभी को मिलता नहीं कभी भी होती गलती।
कर्म का फल निश्चय ही मिलता भले ही मिन्दर धोक रहा है।
ईश्वर को तुम खोज न पाये,ईश्वर तुमको खोज रहा है।।
लुब्धानां याचकः शत्रुमूर्खाणां बोधकः रिपुः। जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चोराणां चन्द्रमा रिपुः॥६॥ मनुस्मृति दशवा अध्याय अर्थात- लोभी व्...
"स्वतन्त्र भारत में नारी को मिले वैधानिक अधिकारों की कमी नहीं- अधिकार ही अधिकार मिले हैं, परन्तु कितनी नारियां हैं जो अपने अधिकारों का सुख भोग पाती हैं? आप अपने कर्तव्यों के बल पर अधिकार अर्जित कीजिए। कर्तव्य और अधिकार दोनों का सदुपयोग कर आप व्यक्ति बन सकती हैं। आपको अपने कर्तव्यों का भान है तो कोई पुरुष आपको भोग्या नहीं बना सकता-व्यक्ति मानकर सम्मान ही करेगा। इसी तरह आने वाली पीढ़ी आपकी ऋणी रहेगी।"