Sunday, February 28, 2010

अबीर गुलाल उड़ाता आ रहा है फागुन

नचा रहा है फागुन




अबीर गुलाल उड़ाता आ रहा है फागुन


कितना प्यारा बसन्त ला रहा है फागुन


बाग बगीचे वाटिकाएं सभी लगते हैं रंगीले


जमीन पर आसमान पर छा रहा है फागुन






चहुं ओर है प्यार पावन होली के आने पर


उर-उर के तार झनका रहा है फागुन


नृत्य करती प्रकृति झूम कर चहुं ओर


गांव-गांव, जंगल-जंगल छा रहा है फागुन






कोयल करती शोर ,कैसा? नांच रहा है मोर


बाल-युवा-वृद्ध सबको, नचा रहा है फागुन


रंगो में हैं मस्त, बाल किशोर युवा और प्रौढ़,


कण-कण में अमृत रस झलका रहा है फागुन।

सबको ही बाटें मुस्कानें

नयी प्रेरणा






फागुन है ऐसा मुस्काता


ज्यों कलियों में जीवन।


घर-घर सूरज है खिलता,


आंगन में सजता उपवन।






द्वार-द्वार है खुशी खेलती,


बाल वृद्ध सब हैं उत्साही।


कैसे घोल सकेगा कोई ,


इस उत्सव में स्याही।






लेकर नव संकल्प बढे़ हम,


नयी प्रेरणा होली से।


सबको ही बाटें मुस्कानें,


नहीं डरें हम गोली से।

Thursday, February 25, 2010

गले तो लगालो रे




राग द्वेष  के तेल से, दीप जलाने वालो !


ईर्ष्या  द्वेष की होली को जलाओ रे !


मत भूलो समानता भाई चारे को,


ठुकराये हुओं को गले तो लगाओ रे !


ईर्ष्या, द्वेष, असमानता से लाभ उठाने वालो,


कुछ रंग जीवन के, इनको भी दिखलाओ रे!


नहीं झेल पाओगे तुम, किंचित भी,


मत विद्रोह की आग, ह्रदय में  जलाओ रे!


उगते हुए सूरज को, नमस्कार करने वालो!


अस्त होते सूरजों को भी, पथ दिखलाओ रे!


प्रेम, स्नेह के भाषण  ही न देते रहो,


रंग में समरसता के, डुबकी लगाओ रे!


दुर्व्यवस्था फैला के, लाभ उठाने वालो!


समाज में सुव्यवस्था भी, तुम अब लाओ रे!


स्वार्थ को ही तुमने अब तक पाला पोसा,


उसकी अब होली भी, तुम ही जलाओ रे!
लुभाती होली




मन को खूब लुभाती होली


रंग बरसाती आती होली


गली-गली मड़राती होली


सबको गले मिलाती होली।


पेड़े बरफी और रसगुल्ले


पूड़ी कचौड़ी और हैं भल्ले


मिठाईयों के लगते गल्ले


सबको खूब हंसाती होली।


मम्मी-पापा भैया-भाभी


सबको खूब खिलाती होली


सबको अपने रंग में रंगकर


कितनी है इठलाती होली।

Monday, February 8, 2010

हलन्त



                      डॉ.सन्तोष  गौड़ राष्ट्रप्रेमी



कैसे?


मनाऊं बसन्त


विदेश में कन्त


न वियोग का अन्त


न जाने कहां?


भटकते होंगे पिया


जबसे हुए हैं सन्त


अधूरी हूं मैं


लगा है हलन्त!

Saturday, February 6, 2010

दस्तक



                            डॉ.सन्तोष  गौड़ राष्ट्रप्रेमी





फटे हुए चिथड़े


पहनकर


बीती है सर्दी


आंसुओं की धार पीकर


बीती है सर्दी
पिया के सपने


लेकर


बीती है सर्दी
लम्बी काली रातें


जागकर


बीती है सर्दी
कम्पन,ठिठुरन,


जकड़न में


बीती है सर्दी
न लौटे कन्त


बड़े बेदर्दी


दस्तक दे ले बसन्त


समझ गई मैं


सर्दी का हुआ अन्त


किन्तु दरवाजा न खुलेगा


जब तक


आयेंगे न मेरे कन्त!

Friday, February 5, 2010

बेशर्म बसन्त



                      डॉ.सन्तोष  गौड़ राष्ट्रप्रेमी





बेशर्म बसन्त,


फिर आ गया तू


अकेला


क्या?


भूल गया


मैंने कितनी बार


लौटाया है तुझे


इस दरवाजे से


कितनी बार?


बताया है तुझे


घर पर नहीं हैं पिया,


अकेले,


किसी के स्वागत को,


करता न मेरा जिया


लगता है डर,


कांपता है दिल,


रोजगार की खातिर


परदेश में हैं कन्त


मेरे दुखों का है न अन्त


यदि,


चाहता है तू


मुझे सुख पहुंचाना


पिया को साथ लेकर,


मेरे घर आना।