शिक्षाविद व समाजसेवी के रूप में लालाजी
डॉ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
आजादी की लड़ाई के महान सेनापति, शान्तिपथ पर चलने वाले क्रान्तिकारी, कर्मयोगी, त्यागमूर्ति, समाजसेवी, साहित्यकार, पत्रकार आर्य समाज के प्रचारक क्या नहीं थे लाला जी? लाला जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साधारण परिवार में जन्म लेने वाले असाधारण पुरुष थे। लाला जी के कीर्तिमान, समर्पित जीवन गाथा चिरस्मरणीय ही नहीं अनुकरणीय है। लालाजी उन भाग्यशाली लोगों में नहीं थे, जो महापुरुष या महान नेता बनने की सुविधाएँ लेकर इस संसार में आते हैं। उनका जन्म ऐसे परिवार में नहीं हुआ था, जिसमें नेतृत्व के गुण रक्त में ही मिले हों। उनका जन्म पंजाब में फिरोजपुर जिले के ढोडि गाँव में 28 जनवरी सन् 1865 को साधारण शिक्षक परिवार में इुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा भी गाँव के ही स्कूल में हुई। आप के रक्त की एक-एक बूँद देश के लिए आन्दोलन करने में लगी। अंग्रेज सरकार की लाठियों ने आपके बलिदान को भी चिर-स्मरणीय बना दिया। आप राष्ट्रीय स्वाभिमान के रक्षक, महान स्वतंत्रता सैनानी तो थे ही इससे भी पूर्व आप दीन-दुखियों के हितेषी, समाजसेवक व शिक्षाविद भी थे। आपने समझ लिया था कि स्वतंत्रता प्राप्ति व देश के विकास के लिए शिक्षा मूल भूत आवश्यकता है। अतः आप आजीवन आर्य समाज के माध्यम से शिक्षा के उन्नयन के लिए कार्यरत रहे।
पिता श्री राधाकृष्ण जी की शिक्षा जगराव के अरबी फारसी मदरसे में हुई थी। मदरसे के मुख्याध्यापक मौलवी साहब कट्टर मुसलमान व ऊँचे चरित्र के व्यक्ति थे। उनकी छाप शिष्यों पर अपने आप पड़ जाती थी। उनके शिष्यों के साथ गहरे सम्पर्क का परिणाम यह निकला कि उनके अधिकांश शिष्यों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया। राधाकिशन जी भी नीम-मुसलमान थे, वे पाँच बार नमाज पढ़ते, रोजे रखते; उनका सम्पूर्ण रहन-सहन, खान-पान, लिवास सब इस्लामी हो गया था। मुस्लिम सूफियों, इमामों तथा संतों से उनकी अच्छी-खासी मित्रता रहती थी। मुसलमानों की तरह ही हिंसा में उनका विश्वास था। वे मांस-मछली खाते थे; मांसाहारी भोजन पसन्द करते थे और यहाँ तक कि कभी-कभी मुसलमानों के घर पका-पकाया गोश्त-रोटी अपने घर लाकर खा लिया करते थे। उन्होंने इस्लाम धर्म ग्रहण नहीं किया, वह भी सिर्फ लालाजी के प्रेम के कारण। क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि उन्होंने मुसलमान धर्म अपना लिया तो पत्नी अपनी सन्तानों को लेकर अलग हो जायेगी। लाला जी की माँ का नाम गुलाब देवी था और वे सिख धर्म को मानने वालीं थीं। वे ‘गुरु ग्रंथ साहब’ का पाठ करतीं थीं और धार्मिक संस्कारों, अच्छे आचार-व्यवहार वाली संजीदा महिला थीं। लाला जी पर अपनी माता जी का अमिट प्रभाव पड़ा। माताजी के साथ-साथ स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता के हिन्दू-धर्म-दर्शन प्रेम और राजनीतिक विचारों से लाला जी अत्यधिक प्रभावित हुए। आप महिलाओं के प्रति विशेष सदाशय थे क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेरणा-स्रोत मातेश्वरी को पीड़ित होते हुए देखा था। माँ की वेदना का चित्रण लाला जी ने अपनी आत्मकथा में बड़े ही मार्मिक शब्दों में किया है, ‘‘मुझे खूब याद है मेरे बचपन में वे अपने पति के अत्याचारों पर घण्टों रोया करतीं थीं। कई दिन तक खाना नहीं खातीं थीं और अपने बच्चे को ले, ठण्डी साँसे लिया करतीं थीं। अपने पति की सब बुराइयों पर पर्दा डालतीं थीं, पर लम्बे समय के लिए उनसे अलग नहीं होतीं थीं।’’
गरीबी के कारण लाजपतराय का विधिवत शिक्षण न हो सका। उनकी आठवीं तक की पढ़ाई पिता ने कराई। लालाजी ने लिखा है, ‘‘अंग्रजी को मिडिल तक प्रायः सब कुछ मैंने अपने पिता से सीखा। शिक्षा के विषय से प्रेम मेरे पिता से आया। जीवन में मेरा वास्ता बीसियों अध्यापकों से पड़ा होगा, परन्तु उनसे अच्छा अध्यापक मुझे कहीं नहीं मिला। उनको अपने शिष्यों के साथ सच्चा प्रेम रहता था।’’ लालाजी ने 13 साल की उम्र में मिडिल किया और शिक्षा विभाग से 7 रुपये माह वजीफा मिला। 1880 में आपने मैट्रिक परीक्षा भी इतने अच्छे अंको से उत्तीर्ण की कि आपको छात्रवृत्ति मिली। जिससे उत्साहित होकर पिता ने आपको लाहौर के गवर्नमेन्ट कालेज पढ़ने के लिए भेज दिया। जहाँ से एफ.ए. करने के बाद मुख्तारी की परीक्षा पास की।
लाला लाजपतराय का विवाह विद्यार्थी जीवन में ही राधादेवी के साथ हो गया था। केवल परीक्षाओं तक ही आपका विद्याभ्यास सीमित नहीं रहा। आपकी शिक्षा का वास्तविक क्षेत्र दूसरा ही था। अपने शिक्षा काल में ही आपने आर्य समाज के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। स्वभाव से ही आप लोकसेवक और परोपकारी व्यक्ति थे। किसी के दुःख में हाथ बटाँना और सहायता देना आपका स्वभाव था। इसका परिणाम यह हुआ कि आपकी वकालत की परीक्षा तीन वर्ष में उत्तीर्ण हुई। हिसार जाकर आपने वकालत तो प्रारम्भ कर दी किन्तु सार्वजनिक कार्यो के प्रति समर्पण भाव में कोई कमी नहीं आई। आपकी आय का बड़ा भाग समाज के कार्यो में ही खर्च होता था। समाज की स्थापना के लिए अपनी डेढ़ हजार रुपये की सारी बचत दान में दे दी। यह रकम बड़ी भले ही न लगती हो, लेकिन उस समय काफी थी। अपना सब कुछ दान दे देने की प्रेरक भावना महत्वपूर्ण थी। आपने हिसार में ही एक संस्कृत विद्यालय की नींव भी रखी। हिसार म्यूनिसिपल बोर्ड के आप तीन वर्षो तक अवैतनिक मंत्री रहे।
लाहोर के लोगों के विशेष आग्रह पर आप हिसार से लाहौर आ गये। लाहौर पंजाब का केन्द्र था। लाला जी जानते थे कि लाहौर पंजाब की समस्त प्रगतियों के लिए केन्द्रीय-स्थल है अतः लाहौर को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाया। लाला जी ने आर्य समाज के माध्यम से सेवा करना अपना उद्देश्य बना लिया था। वे कहा करते थे, ‘‘आर्य समाज मेरी माता है और वैदिक धर्म मेरा पिता’’ लाला जी ने आर्य समाज को जनसाधारण का आन्दोलन बना दिया। आर्य समाज के प्रचार-प्रसार से असंख्य लोगों में राष्ट्रीय भावना को जागृत करने का श्रेय लाला जी को जाता है। लाला जी के अन्दर एक रचनाकार भी छिपा था, जिसका परिचय लाहौर में रहकर संसार के महापुरुषों जोसेफ मेजिनी, गेरी बासड़ी, छत्रपति शिवाजी, स्वामी दयानन्द और श्री कृष्ण की रोचक जीवनियों को लिखकर दिया। इन जीवन चरितों द्वारा लाला जी ने देश के युवकों में राष्ट्रप्रेम और देश-भक्ति की भावना को प्रेरित किया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सुझाव पर आपने ‘पंजाबी’ नामक पत्रिका भी निकाली और अपने जानदार लेखों के माध्यम से जनता में नया जोश पैदा किया।
स्वामी दयानन्द के आदर्शो को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से लाहौर में ऐंग्लो-वैदिक कालेज की स्थापना की गई। कॉलेज को बिना सरकारी सहायता के चलाया जाना था। इस महान कार्य के लिए असाधारण संगठन शक्ति की आवश्यकता थी। लाला जी ने नगरों में घूम-घूम कर जनता से धन की भिक्षा ली। उनके ओजस्वी भाषणों को सुनने के लिए जनता उमड़ पड़ती और आपकी झोली भर जाती। स्त्रियों ने अपने आभूषण उतार कर राष्ट्रीय महायज्ञ में योगदान दिया। शिक्षा प्रचार में डी.ए.वी. कॉलेज के संचालन तक ही लालाजी के कार्यो का अन्त नहीं हो जाता। आप निरंतर शैक्षिक उन्नयन में लगे रहे। आपके सहयोग का अर्थ केवल नैतिक सहयोग या शाब्दिक सहानुभूति प्रदर्शन से नहीं था। आप जिस कार्य में योग देते तन-मन-धन की सम्पूर्ण शक्ति लगा देते। कठिन परिश्रम से जो कुछ अर्जित किया था, अपनी सम्पूर्ण बचत 50 हजार रुपये की धन राषि अर्पण कर दी। इस तपोमय जीवन का जनता पर जादू जैसा प्रभाव होता। जहाँ आप पसीना बहाते थे जनता अपना रक्त दान करने को उमड़ पड़ती। शिक्षा सम्बन्धी प्रगतियों के कारण आपकी गणना भारत के शिक्षा विशेषज्ञों में होने लगी। लार्ड कर्जन द्वारा बनाई गई शिक्षा सम्बन्धी जाँच कमेटी के समक्ष साक्षी देने का सम्मान पूर्ण निमंत्रण भी इसी बात को प्रमाणित करता है।
सन् 1897 के अकाल व प्लेग के समय लाला जी का सेवा भाव व दीन-दुखियों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना उभरकर आई। आपने अकाल-पीड़ितों की मदद के लिए समितियों का गठन किया और धन-संग्रह का कार्य करके सहायता कार्य चलाया। अनाथ बच्चों को ईसाई पादरियों के चंगुल से बचाने के उद्देश्य से आपने आर्य समाज के सहयोग से कई शहरों में अनाथालय खोले। इन अनाथालयों में हजारों बच्चों का पालन-पोषण हुआ। लालाजी के इस कार्य से हिन्दू बच्चों को बिना धर्म परिवर्तन किए ठिकाना मिला। सरकार द्वारा 1901 में दुर्भिक्ष कमीशन नियुक्त किए जाने पर कमीशन से भी आपने यह आग्रह किया कि उन अनाथ बालकों जिनके अभिभावकों की मृत्यु हो चुकी है, उनके धर्माबलम्बियों के ही सुपुर्द किया जाय। भविष्य में निराश्रित बालक सरकार द्वारा उनके सहधर्मियों को ही सुपुर्द किये जाने लगे। 1907-1908 में उड़ीसा व मध्य प्रान्त में फिर अकाल पड़ा। लालाजी फिर स्वयं सेवकों को लेकर विपत्तियों का सामना करने के लिए आगे आये। अकाल पीड़ितों की सेवा के साथ-साथ समाज के उपेक्षित वर्ग, हरिजनों के उद्धार के लिए भी आपने ठोस कार्य किया। उनके लिए स्थान-स्थान पर शालाएं खोलीं। 1912 में एक अछूत कांफ्रेस आपके सभापतित्व में गुरुकुल काँगड़ी में सालाना जलसे के अवसर पर हुई। उस समय तक महात्मा गांधी ने हरिजन सेवा का कार्य आरम्भ नहीं किया था। लाला लाजपतराय जो स्वभाव से दलित वर्ग के सदा सहायक रहते थे, इस कार्य में भी अग्रणी हुए। आर्य समाज के सहयोग से आप आगे आये। केवल प्रचार-प्रसार से आप सन्तुष्ट नहीं हुए। प्रत्येक सुधार के काम का आधार आप शिक्षा को समझते थे। अतः आपने हरिजनों की शिक्षा के लिए विशेष उपाय किए। इस कार्य के लिए अपने पास से चालीस हजार रुपये का दान किया। स्वयं सर्वस्व समर्पित करने के बाद ही आप अन्य श्रीमानों से भिक्षा लेने उनके दरवाजे पर जाते थे और आपके लिए लोग दिल खोलकर सहयोग करते थे।
सन् 1885 में मि. ह्यूम ने तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन की सलाह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। इसका चौथा अधिवेशन 1888 में हुआ जिसमें आपको भाषण देने का अवसर मिला और आपने कौंसिल सुधार सम्बन्धी प्रस्ताव पेश किया। प्रयाग में 1892 के अधिवेशन में बाँटने के लिए विशेष रूप से आपने एक पत्रिका प्रकाशित की, जिसमें सर सैय्यद अहमद के कांग्रस विरोधी विचारों का उत्तर दिया गया था। प्रयाग अधिवेशन में ही यह तय किया गया कि अगला अधिवेशन लाहौर में होगा किन्तु लाहौर में अधिवेशन कराना काफी मुश्किल था क्योंकि वहाँ राष्ट्रीय वातावरण नहीं बन पाया था। मुसलमानों ने अधिवेशन में सहयोग करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया था। लालाजी की प्रेरणा से आर्यसमाज ने अधिवेशन में सक्रिय सहयोग दिया व अधिवेशन सफल रहा। लालाजी ने स्वागत समिति के अध्यक्ष या मंत्री न रहते हुए भी अधिवेशन को सफल बनाने के लिए कोई कोर-कसर न रहने दी। इसके बाद लालाजी की राष्ट्रीय भावना दिन-प्रतिदिन प्रखर होती गई। महाराष्ट्र में लोकमान्य का प्रभाव बढ़ रहा था। दोनों के स्वाभाव में अनुकूलताएँ थी अतः दोंनों ने मिलकर कार्य करने का निश्चय किया। इनके विचार नरम दलीय नेताओं से नहीं मिलते थे। अतः इनको विरोध का सामना करना पड़ा। काँग्रेस का सूरत अधिवेशन दोंनो दलों के मतभेद का चरम बिन्दु था। लालाजी स्वभाव से गरमदलीय थे वे विदेशी सरकार से लड़कर राज्य चाहते थे, भिक्षा माँगकर नहीं।
सन् 1905 में बंग-भंग आंदोलन के कारण देशभर में अंग्रज सरकार के विरुद्ध प्रबल जनमत जाग्रत हुआ; सरकार ने देशभक्तों को चुन-चुन कर जेल में भरना शुरू कर दिया। लालाजी भी कहाँ बचते, 1818 के बंगाल रेग्यूलेशन कानून के अन्तर्गत गिरफतार करके मई 1907 में आपको माण्डले जेल भेज दिया गया। इसके बाद आप वकालत छोड़कर पूर्णरूप से सामाजिक कार्य में लग गये। जून 1910 में इग्लैण्ड के कैक्टसन हॉल में शासित जातियों का सम्मेलन हुआ, जिसमें फिनलैंड, जार्जिया, मोरक्को, फारस, पोलैंड और मिश्र के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। भारत की ओर से लाला लाजपतराय सम्मिलित हुए। सन् 1914 में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में आप इग्लैंण्ड गए तथा अपने मार्मिक भाषणों के द्वारा लोगों के मनों में भारत के प्रति सहानुभूति उत्पन्न की। अक्टूबर 1917 में ‘इंडिया होम रूल’ की स्थापना की गई। लालजी उसके प्रधान बनाये गए। जनवरी 1918 में लालाजी के सम्पादकत्व में यंग इण्डिया निकाली गई। लालाजी 1920 में भारत लौटकर आये। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में आपको अध्यक्ष चुना गया। गांधी जी द्वारा चलाये गये सविनय अवज्ञा आन्दोलन में आप को पुनः गिरफतार कर लिया गया। आपने 1925 में ‘सर्वेन्ट ऑफ पीपुल्स सोसाइटी’(लोक सेवक मण्डल) की स्थापना कर ‘पीपुल’ नामक प्रसिद्ध पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।
30 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन लाहौर के रेलवे स्टेशन पर उतरा। कांग्रेस की ओर से कमीशन का विरोध करने की घोषणा की गई थी। हजारों आदमी लालाजी के नेतृत्व में स्टेशन पर काले झण्डे लेकर पहुँचे। पुलिस अधिकारियों ने जुलूस को तितर-बितर होने की चेतावनी दी किन्तु लालाजी के नेतृत्व में जनता डटी रही। पुलिस ने निहत्थे लोगों पर लाठी चार्ज कर दिया। किसी का सिर फूटा तो किसी की टाँग टूटी। सैंकडों घायल हुए। लालाजी को तो ऐसी चोट लगी कि फिर न उठ सके और 16 नवम्बर 1928 को सुबह 7 बजे आप हमें बलिदानों का रास्ता दिखाकर चले गए। लालाजी की मौत से हजारों लोग प्रेरित हुए। क्रांतिकारी युवकों ने लालाजी की मौत का बदला भी लिया। स्वतंत्रता की चिन्गारी आग बनकर जलने लगी और उन्नीस वर्ष के अन्दर अंग्रेजों को मजबूरन भारत को स्वतंत्र करना ही पड़ा।
आज हमारे बीच में लालाजी भले ही न हों उनके द्वारा दिखाया गया मार्ग अभी भी हमारे सामने है। भारत ने राजनीतिक आजादी भले ही प्राप्त कर ली हो किन्तु आज भी आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से हम आजाद नहीं हैं। भ्रष्टाचार, आतंकवाद, बेरोजगारी जैसी भयंकर समस्याएँ मुँह बायें खड़ी हैं। आजादी के सात दशक पूरे होने को हैं, किन्तु हम अभी तक जनता के लिए मूल-भूत आवश्यकताओं शिक्षा, स्वास्थ्य व चिकित्सा की व्यवस्था भी नहीं कर पाये हैं। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर त्याग, समर्पण, लगन, कर्मठता को अपने आचरण में उतार कर ही हम भारत की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखते हुए, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक उन्नयन के साथ, भारत को विकसित देशों की पंक्ति में खड़ा कर सकते हैं। उनकी प्रेरणा लेकर हम अपने दम पर ही भारत का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। हम अपनी संस्कृति, अपने धर्म व अपनी शिक्षा-संस्थाओं को आधार बनाकर, सभी भारतवासियों के सहयोग से, बिना विदेशी कर्ज व विदेशी निवेश के अपने देश को गौरवपूर्ण स्थान दिला सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है तो इस बात की कि हम लालाजी से प्रेरणा ग्रहण करते हुए अपने आप को देश-धर्म व समाज के हित के लिए समर्पित करना सीखें। अपना सब कुछ अर्पण करने की भावना को जन-जन में जगायें। हमारे जो नेता देश व जनता की सेवा की बात करके कुर्सी पर पहुँचते हैं। उन्हें अपने कर्तव्यों को समझने के लिए लालाजी की जीवनी से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। हमारे समाज सेवकों, शिक्षाविदों, साहित्यकारों, पत्रकारों सभी के लिए लालाजी का जीवन अनुकरणीय है।