Monday, May 30, 2016

“मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

“मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

साहब मैं थाने नहीं आउंगा,

अपने इस घर से कहीं नहीं जाउंगा,

माना पत्नी से थोडा मन मुटाव था,

सोच में अन्तर और विचारों में खिंचाव था,

पर यकीन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

मानता हूँ कानून आज पत्नी के पास है,

महिलाओं का समाज में हो रहा विकास है।

चाहत मेरी भी बस ये थी कि माँ बाप का सम्मान हो,

उन्हें भी समझे माता पिता, न कभी उनका अपमान हो।

पर अब क्या फायदा, जब टूट ही गया हर रिश्ते का धागा,

यकीन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

परिवार के साथ रहना इसे पसंन्द नहीं,

कहती यहाँ कोई रस, कोई आनन्द नही,

मुझे ले चलो इस घर से दूर, किसी किराए के आशियाने में,

कुछ नहीं रखा माँ बाप पर प्यार बरसाने में,

हाँ छोड़ दो, छोड़ दो इस माँ बाप के प्यार को,

नहीं मांने तो याद रखोगे मेरी मार को,

बस बूढ़े माता पिता का ही मोह, न छोड़ पाया मैं अभागा,

यकींन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

फिर शुरू हुआ वाद विवाद माँ बाप से अलग होने का,

शायद समय आ गया था, चैन और सुकून खोने का,

एक दिन साफ़ मैंने पत्नी को मना कर दिया,

न रहुगा माँ बाप के बिना ये उसके दिमाग में भर दिया।

बस मुझसे लड़ कर मोहतरमा मायके जा पहुंची,

2 दिन बाद ही पत्नी के घर से मुझे धमकी आ पहुंची,

माँ बाप से हो जा अलग, नहीं सबक सीखा देगे,

क्या होता है दहेज़ कानून तुझे इसका असर दिखा देगें।

परिणाम जानते हुए भी हर धमकी को गले में टांगा,

यकींन माँनिये साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

जो कहा था बीवी ने, आखिरकार वो कर दिखाया,

झगड़ा किसी और बात पर था, 

पर उसने दहेज़ का नाटक रचाया।

बस पुलिस थाने से एक दिन मुझे फ़ोन आया,

क्यों बे, पत्नी से दहेज़ मांगता है, 

ये कह के मुझे धमकाया।

माता पिता भाई बहिन जीजा सभी के रिपोर्ट में नाम थे,

घर में सब हैरान, सब परेशान थे,

अब अकेले बैठ कर सोचता हूँ, 

वो क्यों ज़िन्दगी में आई थी,

मैंने भी तो उसके प्रति हर ज़िम्मेदारी निभाई थी।

आखिरकार तमका मिला हमे दहेज़ लोभी होने का,

कोई फायदा न हुआ मीठे मीठे सपने सजोने का।

बुलाने पर थाने आया हूँ, छूप कर कहीं नहीं भागा,

लेकिन यकींन मानिए साहब, “मैंने दहेज़ नहीं माँगा”

😪झूठे दहेज के मुकदमों के कारण, पुरुष के दर्द से ओतप्रोत एक मार्मिक कृति…🙏🏻“मैंने दहेज़ नहीं माँगा"
12 मई 10:34 पूर्वाह्न

टिप्पणी- यह रचना मेरी नहीं है। एक मित्र ने 
मेसेन्जर से भेजी थी मैं केवल पोस्ट कर रहा हूं।
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Tuesday, May 24, 2016

झूठ, छल, और कपट की सीख कहाँ से पाई

विश्वास पर की आपने विश्वासघात की चोट।


पोल खुली जब आपकी हम में निकालें खोट।


झूठ, छल, और कपट की  सीख कहाँ से पाई?


विश्वास का यूँ खून किया, कितने चाहिए नोट
?

Monday, May 23, 2016

समझे थे, ज्ञानी हुये, यही बड़ा अज्ञान

छल कपट मन माँहि है, पैसा ही भगवान।

मानव कितना मूढ़ है, निज मन मिले न मान।।


धोखा सबको देत है, कपट के रचे विधान।

औरों को बर्बाद कर, निज चाहे कल्याण।।


झूठ पर जीवन टिका, कपट भरा मन माहिं।

मनुआ निज वैरी भया, शान्ति मिलेगी नाहि़।।


समझे थे, ज्ञानी हुये, यही बड़ा अज्ञान।

ज्ञान खोज में जन मिटे, खोज रहा जग ज्ञान॥




Sunday, May 22, 2016

मानव बस नौकर बना, और तजे सब साज

काया ही मिलतीं वहाँ, मन में भरे विकार।

संबन्धों के जाल में, उलझा करें शिकार।।


असत कपट से है भरा, देखो यह संसार।

धीरज निज का मित्र है, बाकी हैं सब भार।।


निबल प्रेम की चाह थी, गही न सच की राह।

छलना है ऐसी मिली, मन में मिली न थाह।।


जन जीवन है जूझता, जग न सूझती राह।

पैसे के पीछे पड़े, कहें प्रेम की चाह।।


भौतिक सुख की चाह में, मूल्यहीन हुए आज।

मानव बस नौकर बना, और तजे सब साज।।

Saturday, May 21, 2016

संन्यास का अर्थ नहीं, दुनिया तज दी जाय

संकल्पों के त्याग की, चोटें गहरी होत।

आत्मबल जाता रहे, दिखते केवल खोट॥


जीना मुश्किल है बड़ा, आदर्शों का साथ।

अपने भी हैं छोड़ते, पकड़ झूठ का हाथ॥


संन्यासी का धर्म है, कर न किसी से आश।

नित्य ईश का काम कर, नहीं किसी का ह्रास॥


न्यास अर्थ विश्वास है, सम का अर्थ समान।

ईश सृजित यह सृष्टि है, संन्यासी को समान॥



संन्यास का अर्थ नहीं, दुनिया तज दी जाय।

समाज हित में न्यास हो, सच पर चलता जाय॥

Friday, May 20, 2016

संदेश- 1 से 7 मई 2016 के जन प्रवाह में प्रकाशित


Tuesday, May 17, 2016

गगन में उड़ने की हसरतें थी हमारी भी

गगन में उड़ने की हसरतें थी हमारी भी।

अकेले निकलने का साहस न कर सके।

साथी लेकर उड़ान के लिये सोचा ही था,

कि साथी ने ही हमारे होसले कुचल डाले।

रिश्ते तो धोखे हुए, स्वार्थ हुआ ईमान

संन्यास नहीं भागना, संन्यास नहीं त्याग।

रोना-धोना छोड़कर, छोड़ो भागम भाग॥



सहज राह जीवन चले, कर न किसी की चाह।

पथिक अकेला चल पड़े, मिलती जाती राह॥


जीवन है बहती नदी, मरा गया ठहराय।

अपना कुछ भी है नहीं, क्यों तू फ़िर घबराय॥


रिश्ते पद अब बन गये, घर का नहीं निशान।

अपना किसको कह सकें, अच्छा है शमसान॥


रिश्ते तो धोखे हुए, स्वार्थ हुआ ईमान।

सदाचार पुस्तक बना, पैसा है भगवान॥


प्रेम का आधार बने, नहीं बना कानून।

झूठ, छ्ल और कपट तो, सिर्फ़ करें बातून॥



सच पर पड़त रही सदा, छली कपट की चोट।

आपने भी एक मार ली, फ़िर भी छिपें न खोट॥

Saturday, May 7, 2016

जहां रह वहां मौज कर, ना होंगे हम भ्रष्ट

चन्द क्षणों पीड़ित हुये, सही आपकी चोट।

स्वस्थ हुए फ़िर चल पड़े, नहीं हमारा खोट॥


जीवन सरिता बह रही, कहीं खुशी कहीं गम।

खुशी में आसूं निकलें, दुख क्यों आखें नम॥


ना खुशी, न प्रसन्नता, न आनन्द के भाव।

छल कपट जो जी रहे, मिले न शान्ति ठाव॥


हम मनमौजी राही हैं, सहते रहते कष्ट।

जहां रह वहां मौज कर, ना होंगे हम भ्रष्ट॥


जीवन में हैं छ्ल-कपट, वे दया के पात्र।

जीवन मूल्यों से रहित, ना शिक्षक ना छात्र॥


धन पद यश सम्बन्ध ही, करते हैं कमजोर।

करते झूठा आचरण, आदर्शों का शोर॥


सबको धन की चाह है, दिखती इसमें शान।

कुछ की चाहत मान है, हो सबका कल्यान॥


रंग हीन दुनियादारी, बिना प्रेम के रंग।

होली तो होली होत, अपनों के ही संग॥


चाह गयी, चिन्ता गई, मनुआ बेपरवाह।

जाको कछू न चाहिये, वो ही शहंशाह॥


मित्रों! यह संभव नहीं, क्यूं झेलें संत्रास।

विश्वास बिना मित्र नहीं, कितने भी हों पास॥



सम्बन्धों की कृत्रिमता, कराया है अहसास।

झूठे रिश्ते नाते हैं, ज्यों उड़ जात कपास॥

Friday, May 6, 2016

नारी नर को सीख दे, तू क्यों भया उदास

ईश निर्मित हर वस्तु है, कर न किसी का त्याग।

लोभ मोह का त्याग कर, त्याग न रस,रंग,राग॥


किसकी चिन्ता हम करें, ना अपना, जो दूर ।

पथ से अपने ना डिगे, दिखें भले ही हूर॥


शादी है धन्धा बनीं, दहेज ला हथियार।

पति पर केस ठोक कर, मौज लेत संग यार॥


चलते-चलते मत थको, चलना जीवन नाम।

थकना फ़िर विश्राम है, मृत्यु मिले वरदान॥


राही अपनी राह चल, कर न किसी की आस।

मीठा गठरी सूंघ कर, चींटी आवत पास॥


समाज हित जीवन करो, यही होत संन्यास।

आडम्बर को त्याग कर, आत्मा में कर वास॥


सीधा सच्चा जीवन जी रह तनाव से दूर।

लोभ मोह सब छोड़कर जी जीवन भरपूर॥


छल कपट के साथ फ़िरो, लेकर साथ तनाव।

पर्स में लेकर दवा को, कब तक जिये जनाव॥



तुलसी जहां सीख मिली, वहीं से कालीदास।

नारी नर को सीख दे, तू क्यों भया उदास॥

Wednesday, May 4, 2016

आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय

संतो देखो जग बौराना। 

साँच कहे ते मारन धावै, झूठे जग पतियाना।

कबीरदास बड़े ही पहुँचे हुए संत थे। उन्होंने उस समय जो कहा था, संसार आज भी वैसा ही बौराया हुआ है। जो सच बोलता है, लोग उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और जो झूठ बोलता है उसका सम्मान करते हैं, उसके बहकाबे में आकर उस पर विश्वास करते हैं। कबीरजी की एक उलटवासी बड़ी सत्य मालुम पड़ती है।


चलती को गाड़ी कहें, सार तत्व को खोया।

रंगी को नारंगी कहें, देख कबीरा रोया।।


कबीरदास की बात वास्तव में सच है। उनका वाणी के वह स्वयं ही साक्षी नही वरन समय साक्षी है। मेरे व्यक्तिगत अनुभव में कई बार कबीर की वाणी सिद्ध हो चुकी है। एक बार कर्तव्यपालन करते समय सरकारी भण्डार से चोरी करके ले जा रहे सामान को रोकने की कोशिश की तो चोरी करके ले जाने वाले से यह लिखवा लिया गया कि मैं ही उसे अपने यहाँ सामान पहुँचाने के लिए विवश कर रहा था। जो वास्तव में दोषी थे, उनका कुछ नहीं हुआ और मुझे ही प्रताड़ना व करियर में हानि का सामना करना पड़ा। इस प्रकार कबीर की वाणी सच-प्रतिशत सच हुई। दूसरी बार विद्यार्थी जीवन से ही दहेज के विरोध में लेखन करते रहने, महिला अधिकारों का प्रबल समर्थक रहने, दहेज के लेन-देन वाली शादी में भाग न लेने का संकल्प करने व उसका पालन करने के प्रक्रम में अपने भाई-बहनों की शादी में भी भाग न ले सकने के बाबजूद दहेज के झूठे मुकदमों का सामना करने को मजबूर हो गया। तथाकथित पत्नी ने एक भी रूपया, कोई वस्तु या कोई भी खाद्य पदार्थ स्वीकार न करने के बाबजूद न केवल धन वसूलने के लिए झूठा मुकदमा दर्ज करवा दिया वरन् दण्ड के रूप में 23 वर्ष के कारागार की धाराएँ भी लगाईं। अब देखने की बात है कि झूठा मुकदमा अदालत में कितना टिकता है। साँच को आँच नहीं वाली कहावत सत्य सिद्ध होती है या हमारी तथाकथित पत्नी हमें जेल भिजवाकर आनंद की अनुभूति करती हैं। हाँ! हम प्रत्येक स्थिति के लिए तैयार हैं। कारागार में रहकर भी हम आनन्दित ही रहेंगे क्योंकि कबीरजी के अनुसार-

कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।

आप ठगे सुख  होत है, और ठगे दुःख होय।।

 निसंदेह कबीरदास ने जो बात उस समय कहीं थी, वह आज भी सत्य है और मेरा विचार है कि वह सार्वकालिक है और सदैव सत्य रहेगी। चूँकि मैंने किसी को नहीं ठगा है, कोई गलत काम नहीं किया है, तो आत्मसन्तुष्टि के कारण मुझे तो कोई चिंता नहीं है। चाह गयी, चिंता गयी; मनुआ बेपरवाह। जाको कछू न चाहिए, वो ही शहंशाह।।