काया ही मिलतीं वहाँ, मन में भरे विकार।
संबन्धों के जाल में, उलझा करें शिकार।।
असत कपट से है भरा, देखो यह संसार।
धीरज निज का मित्र है, बाकी हैं सब भार।।
निबल प्रेम की चाह थी, गही न सच की राह।
छलना है ऐसी मिली, मन में मिली न थाह।।
जन जीवन है जूझता, जग न सूझती राह।
पैसे के पीछे पड़े, कहें प्रेम की चाह।।
भौतिक सुख की चाह में, मूल्यहीन हुए आज।
मानव बस नौकर बना, और तजे सब साज।।
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