Monday, December 31, 2012

रामप्रीत जी की नव वर्ष



नए साल में नई सोच का ही मात्र प्रसार हुआ,
भूल पुरानी बातों को खुशियों का संसार हुआ ,
नई तरंगे, नई उमंगे जीवन का आधार बनीं ,
हर तरफ सुहाने मौसम का सिर्फ आसार हुआ ।
चकाचैंध की बनी चैकटी सबके घर आँगन में ,
मस्त होकर झूम रहे हैं लोग जीवन के सावन में,
हँसी वसुन्धरा भारत की जब खिले फूल उपवन में ,
हर द्वार पै खुशी मना लो चारों ओर प्रचार हुआ ।
किरण सुनहली सूरज की, जहाँ पहली बार पड़ी ,
चमक उठी होठों की लाली रम्भा जिसके द्वार खड़ी ,
मंद हँसी बाँकी चितवन में प्यार का एहसास हुआ ,
बाल मन सुरभित होता है ,उनके लिए उपकार हुआ।
हिन्दी, हिन्दुस्तान का नारा जिसमें गूँजा सदियों से ,
वो ही असली भारत वासी भरत बना है सदियों से ,
लहराता है जिसका झण्डा आसमान में खुशियाँ लेकर,
खिला उठा है चेहरा सबका ‘आनन्द’ को एतबार हुआ।
दिनांक- 28.12.2012 ग़ज़लकार-
आर. पी. आनन्द (एम. जे.)
जवाहर नवोदय विद्यालय पचपहाड़,
जिला- झालावाड़, राजस्थान ।

नव वर्ष हो हमें मुबारक, बन जायें हम सच्चे साधक

नव वर्ष हो हमें मुबारक



नव वर्ष हो हमें मुबारक, बन जायें हम सच्चे साधक,


पथ हो निर्बाध हमारा, बने न कोई उसमें बाधक।।



हर व्यक्ति का विकास करें हम, साथ-साथ सब आगे बढ़ें हम।


समाज हित में त्याग की क्षमता, परिवार हमारा, विकास करें हम।।



व्यक्ति, परिवार, समाज एक हों, विकास सभी की टेक एक हो।


मिल-जुल कर हम चलना सीखें, भले ही हमारे पथ अनेक हों।।



हो लोक हित में, तन्त्र कार्यरत, लोक-सेवक हो लोक सेवारत


अहम् हमारे मिट जायें सब, कर्तव्य पथ पर चलें कर्मरत।



आतंक का ना कहीं नाम हो, प्रेम भरी सुबह-शाम हो।


छुट्टियों की आदत हम छोड़े, प्यारा सबको काम हो।



नर-नारी ना हों प्रतिस्पर्धी, हो एक-दूसरे से हमदर्दी


साथ-साथ यदि चल न सकें तो, बने न किसी को हम बेदर्दी।



सपना मेरा नये बर्ष का, पल आयेगा कभी हर्ष का


स्टेन-गन ले चलने वाले, सुख पायेंगे, नेह स्पर्श का।



बने न सुविधा के आकांक्षी, नित राष्ट्रप्रेमी है शुभाकांक्षी


ईश नाम पर लड़ने वालो, कर्म करो, कर, ईश्वर साक्षी।



लक्ष्य भले ही ना मिल पाये, आगे नित हम बढ़ते जायें।


बाधाएँ आती हों आयें, पथ अपना हम क्यों घबरायें?



अकेलेपन से ना घबरायें, पथ में ही हम मित्र बनायें।


सबके हित में हाथ मिलायें, हाथों से ही उर मिल जायें।



भले ही हमारे हो आलोचक, हम तो राष्ट्र के हैं आराधक।


नव वर्ष हो हमें मुबारक, बन जायें हम सच्चे साधक।।


Wednesday, June 6, 2012

मुस्काओ तुम, अब नयनों से, नहीं बहाओ पानी है


       मुस्काओ


मैं हूँ राही अविचल चलना जिसकी रही कहानी है।
मुस्काओ तुम, अब नयनों से, नहीं बहाओ   पानी है।।
            जहाँ भी जाता पौध लगाता,
           कलियों से मैं फूल खिलाता।                      
           पाने की ना इच्छा करता,
           मैं हूं केवल प्रेम लुटाता।
नाटक था जो क्रोध दिखाया प्रेम ही सच्ची बानी है।
मुस्काओ तुम, अब नयनों से, नहीं बहाओ   पानी है।।
           कुछ पल था ठहराव हमारा,
          चाहा था हित करें तुम्हारा।
           सन्तुष्टि इससे मिलती है,
           चाह नहीं थी, पायें सहारा।
जहाँ जाओ तुम पु्ष्प बिखेरो भले राह अनजानी है।
मुस्काओ तुम, अब नयनों से, नहीं बहाओ   पानी है।।
            शक्ति सामर्थ्य शिक्षा सार,
            जीने के हैं ये    आधार।
            अपने तक ना सीमित रखना,
            करना नहीं इनका व्यापार।
शक्ति जहाँ से जैसे पाओ, व्यर्थ न कभी बहानी है।
मुस्काओ तुम, अब नयनों से नहीं बहाओ   पानी है।।

Saturday, May 26, 2012

प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण

प्रबन्धन गुरू देशभक्त संन्यासी का राष्ट्र के नाम अभिप्रेरण




रामकृष्ण मिशन इंस्टीच्यूट ऑफ कल्चर द्वारा विवेकानन्द के 125वें जन्म वर्ष के उपलक्ष में बंगला भाषा में प्रकाशित,`सबार स्वामीजी´ का हिन्दी भावानुवाद `सबके स्वामीजी´प्रथम हिन्दी संस्करण(१९९१) के पृष्ठ 39 पर स्वामीजी का राष्ट्र के कर्णधार युवाओं के लिए सन्देश दिया गया है। स्वामीजी तत्कालीन सर्वोच्च प्रबन्धन गुरू कहे जा सकते हैं. स्वामी जी ने मानव संसाधन प्रबन्धन को कितना महत्व दिया? इसमें स्पष्ट है. स्वामी मानव संसाधन की गुणवत्ता को भी समझते व स्पष्ट करते हैं. आप सबके साथ मानव संसाधन पर स्वामीजी के अभिप्रेरण को बांटते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। स्वामीजी का राष्ट्र के युवकों के नाम सन्देश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था, बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक है क्योंकि स्वामीजी द्वारा दिखाया गया लक्ष्य दिखाई देने लगा है; हमें अब और भी अधिक द्रुत गति से उस तक पहुंचना है किन्तु धैर्य व सहनशीलता के साथ। आज प्रबन्धन में हम जिस समर्पण व अभिप्रेरण की मांग करते है, वह स्वामी जी के इस अभिप्रेरण में सम्मिलित है.

स्वामीजी ने युवाओं को सन्देश दिया है, ``देशभक्त बनो - उस जाति से प्रेम करो जिस जाति ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं।

हे ! वीर-हृदय युवक-वृन्द...... और किसी बात की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है केवल प्रेम, सरलता और धैर्य की। जीवन का अर्थ है विस्तार( विस्तार और प्रेम एक ही है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, पे्रम ही जीवन का एकमात्र गति निर्धारक है। स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहते हुए भी यह मौत है, देहावसान में भी यही स्वार्थपरता मृत्यु स्वरूप मृत्यु है...........जितने नर पशु तुम देखते हो, उसमें नब्बे प्रतिशत हैं मृत, प्रेत तुल्य क्योंकि हे युवक वृन्द! जिसके हृदय में प्रेम नहीं वह मृत के अलावा और क्या हो सकता हैर्षोर्षो हे युवकगण! तुम दरिद्र, मूर्ख एवं पददलित मनुश्य की पीढ़ा को अपने हृदय में अनुभव करो, उस अनुभव की वेदना से तुम्हारे हृदय की धड़कन रुक जाये, सिर चकराने लगे और पागल होने लगो, तब जाकर ईश्वर चरणों में अन्तर की वेदना बताओ। तब ही तुम्हें उनसे ‘ाक्ति व सहायता मिलेगी- अदम्य उत्साह, अनन्त ‘ाक्ति मिलेगी। मेरा मूल मन्त्र था- आगे बढ़ो! अब भी यही कह रहा हूं- बढ़े चलो! तब चारों और अन्धकार ही अन्धकार था, अन्धकार के सिवा कुछ नहीं देख पाता था, तब भी कहा था- आगे बढ़ो। अब जब थोड़ा-थोड़ा उजाला दिखाई पड़ रहा है, तब भी कह रहा हूं - आगे बढ़ो! डरो मत मेरे बच्चो! अनन्त नक्षत्र खचित आकाश की ओर भयभत दृिश्ट से मत देखो, जैसे कि वह तुम्हें कुचल डालेगा। धीरज धरो, देखोगे- कुछ ही समय के बाद सब कुछ तुम्हारे पैरों तले आ गया है। न धन से काम होता है, न नाम यश से काम होता है, विद्या से भी नहीं होता, प्रेम से ही सब कुछ होता है - चरित्र ही बाधा विघ्न की वज्र कठोर दीवारों के बीच से रास्ता बना सकता है।

महान बनने के लिए किसी भी जाति या व्यक्ति में तीन वस्तुओं की आवश्यकता है- `सदाचार की ‘ाक्ति में विश्वास, ईश्र्या और सन्देह का परित्याग एवं जो सदाचारी बनने या अच्छा कार्य करने की कोशिश करता है उनकी सहायता करना।´

कार्य की सामान्य ‘ाुरूआत देखकर घबराओ मत, कार्य सामान्य से ही महान होता है। साहस रखो , सेवा करो, नेता बनने की कोशिश मत करो। नेता बनने की पाशविक प्रवृत्ति ने जीवन रूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाजो को डुबो दिया है। इस विशय में सावधान रहो, अर्थात मृत्यु को भी तुच्छ मानकर नि:स्वार्थी बनो और काम करते रहो।

हे वीर-हृदय युवको! यह विश्वास करो कि तुम्हारा जन्म बड़े-बड़े काम करने के लिए हुआ है। कुत्तों के भोंकने से न डरो- यहां तक कि आसमान से वज्रपात होने से भी न घबराना, `उठकर खड़े हो जाओ और काम करो।

विश्व के इतिहास में क्या कभी ऐसा देखा गया है कि धनवानों द्वारा कोई महान कार्य सिद्ध हुआ होर्षोर्षो हृदय और दिमाग से ही हमेशा सब बड़े काम किए जाते हैं-धन से नहीं। रुपय-पैसे सब अपने आप आते रहेंगे। आवश्यकता है मनुश्यों की धन की नहीं। मनुश्य सब कुछ करता है, रुपया क्या कर सकता हैर्षोर्षो मनुश्य चाहिए- जितने मिलें, उतना ही अच्छा है।

संसार की समस्त सम्पदाओं से मनुश्य अधिक मूल्यवान है। हे वीर-हृदय बालकगण, आगे बढ़ो! धन रहे या न रहे, लोगों की सहायता मिले या न मिले, तुम्हारे पास तो प्रेम हे नर्षोर्षो भगवान तो तुम्हारा सहारा है नर्षोर्षो आगे बढ़ो, कोई तुम्हारी गति रोक नहीं पायेगा। लोग चाहे कुछ भी क्यों न सोचें( तुम कभी अपनी पवित्रता, नैतिकता तथा भगवत् प्रेम का आदशZ छोटा न करना...... जिसे ईश्वर से प्रेम है उसके लिए ‘ाठता से घबराने का कोई कारण नहीं है, पवित्रता ही पृथ्वी और स्वर्ग में सबसे महत् दिव्य ‘ाक्ति है।

गणमान्य, उच्च पदस्थ और धनवानों पर कोई भरोसा न रखो। उनके अन्दर कोई जीवन ‘ाक्ति नहीं है- एक तरह से उनको मृतकल्प कहा जा सकता है। भरोसा तुम्हारे ऊपर ही है - जो पद मर्यादाविहीन गरीब किन्तु विश्वास परायण है........ हमें धनी और बड़े लोगों की परवाह नहीं। हम लोग हृदयहीन कोरे बुद्धिवादी व्यक्तियों और उनके निस्तेज समाचार पत्र के प्रबन्धों की परवाह नहीं करते। विश्वास-विश्वास, सहानुभूति, अग्निमय विश्वास, ज्वलन्त सहानुभूति चाहिए। जय प्रभु! जय प्रभु! जीवन तुच्छ है, तुच्छ है मरण, भूख तुच्छ है, तुच्छ है ‘ाीत भी। प्रभु की जय हो। आगे बढ़ो, बढ़ते चलो, हम ऐसे ही आगे बढ़ेंगे - एक गिरेगा तो दूसरा उसका स्थान लेगा।

ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मेरे अन्दर जो आग जल रही है, वह तुम्हारे अन्दर भी जल उठे। तुम्हारे मन और मुख एक हों, तुम लोग अत्यन्त निश्कपट बनो, तुम लोग संसार के रण क्षेत्र में वीर गति को प्राप्त करो- विवेकानन्द की यही निरन्तर प्रार्थना है।






बीकानेर से एक पत्र प्राप्त हुआ है, जो श्री किशार  दास गांधी जी ने लिखा है। उसमें कुछ पीड़ाएं थी तो कुछ आशाएं भी उनके लिये लिखे गए प्रत्युत्तर को यहाँ सार्वजनिक कर रहा हूँ-                    

                                                                                                    26.05.2012


आदरणीय गांधीजी,
                 सादर प्रणाम।
आपका स्नेह आपूरित पत्र व दो पुस्तकें- 1. नारी को अधिकार दो, 2. दिव्य जीवन की ओर, प्राप्त हुईं। बहुत-बहुत धन्यवाद। आभार!
    कल ही माता-पिता के दर्शनों  व बेटे को अपने पास लाने की आकांक्षा से घर के लिए निकलना है। अत: पत्र तुरंत लिखने लग गया, अन्यथा पत्रोत्तर में देरी हो सकती थी।
    आपने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है। यह सही है कि  भ्रष्टाचार  की मात्रा बढ़ी है, किंतु विरोध भी बढ़ा है। ईमानदारी के लिए बलिदान भी दिए जा रहे है- मंजुनाथ, सतेन्द्र व नरेन्द्र सिंह आदि शहीदों के नाम मीडिया में आये हैं। पिछले माह एक अध्यापक को कार के नीचे कुचलकर इसलिए मार डाला कि वह परीक्षाओं में नकल कराने के लिए तैयार नहीं था।
     इन उदाहरणों से असत्य व दुराचरण की प्रवृत्ति तो उजागर होती ही है। एक यह पहलू भी उजागर होता है कि ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्य को अंजाम देने वाले कम भले ही हों, हैं अवश्य। गांधी, गोखले जैसे लोग भी हैं किंतु अब देश परतंत्र नहीं है। अत: लोगों की प्रवृत्ति भौतिकवाद की ओर है। सुख-सुविधाओं और प्रदर्शन की भावनाओं के कारण कृत्रिम जीवन जी रहे हैं। इतिहास साक्षी है, सत्य, ईमानदारी और सदाचरण की राह पर पुष्प नहीं कांटे ही मिलते हैं, मिलेंगे भी।
     मार्च 2010 में सरकारी भण्डार से अपने अधिकारी के यहाँ राशन जाता हुआ, पकड़ने और रोकने पर, असत्य आरोप लगाकर मुझे ही निलंबित करवा दिया गया था। उसके बाद ही यहाँ आना हुआ था। किन्तु कर्तव्य का निर्वाह करना है- राजस्थान हो , हरियाणा हो या अरूणाचल।
     हम सत्य, ईमानदारी और न्याय के पाले में खेल रहे हैं। हमें पता है कि विजयमाला हमारे गले में नहीं, फिर भी हम चुनौती अवश्य बने रहेंगे, हारेंगे नहीं और नष्ट भी नहीं होंगे क्योंकि राक्षसी प्रवृत्तियाँ कितनी भी प्रबल हों, सद-प्रवृत्तियों को मिटा नहीं सकतीं।

         यहां पर मेरी एक कविता जो निम्न लिंक पर मिलेगी उपयुक्त रहेगी-

Monday, May 21, 2012

एक और शहादत

बड़े गर्व की अनुभुति होती है, जब मालुम पड़ता है कि वर्तमान भ्रष्टाचार युग में भी ईमानदार अधिकारी भी हैं और वे साहस के साथ बिना इस बात की परवाह किए कि उनकी जान खतरे में है अपने कर्तव्य का निर्वाह किये जा रहे हैं- वास्तव में मंदिरों में जाने वाले नहीं, ये अधिकारी और कर्मचारी और वे सामान्य व्यक्ति ही कृष्ण के सच्चे अनुयायी हैं जो बिना प्राणों की परवाह किये अपने कर्तव्य का निर्वाह किये जा रहे हैं और बलिदान दे रहे हैं. गीता में यही तो कहा गया है- कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फ़लेसु कदाचन.
           जी हां, घोटालों के खिलाफ़ अपने कर्तव्य का निर्वाह करने वाले शहीदों की श्रृंखला में स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना के ठेकों में भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करने वाले सत्येंद्र दुबे, पेट्रो उत्पादों में मिलावट का विरोध करने वाले मंजुनाथ, अवैध खनन को रोकने वाले आई.पी.एस.नरेन्द्र कुमार के बाद कर्नाटक में सहकारी आवास समितियों में अवैध भू-आबंटन का भंडाफ़ोड़ करने वाले महंतेश ने भी शहीदों की सूची में नाम लिखा लिया.
         अभी तक व्हिस्टिल ब्लोअर या लोकपाल बिल में से कोई भी पास नहीं हुआ है, क्यों कि हमारे जनप्रतिनिधियों को भ्रष्टाचार से प्यार है? वे यही चाहते हैं कि बेईमानी व भ्रष्टाचार सुरक्षित रहें और वे बाहर मजे करें...............................

Saturday, May 19, 2012

दूर तो मैं आ गया हूँ , पर तुम्हें छोड़ा नहीं है


दूर
             
 भले ही आगे बढ़ रहा हूँ ,किन्तु मुख मोड़ा नहीं है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

पथ वही जिस पर मिलीं तुम, आज फिर मैं बढ़ रहा हूँ।
भावी पथ कठिनाइयों हित, आज खुद को गढ़ रहा हूँ।
कण्टकों  से  राह  पूरित,  बाधाएं  पग-पग  विछी  हैं।
पर्वतों  सी  ये  हवाएं,  रोक  उन पर  चढ़  रहा  हूँ।
चल पड़ा  हूँ  आज  पथ पर ,तुमसे  हित  तोड़ा नहीं है। 
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

विकास का जो मूल पथ है,बाधाओं की, उस पर लड़ी हैं।
सुविधा हित थीं परम्परा कुछ, आज सबकी सब  सड़ी हैं।
अन्धेरा चहुँ ओर  छाया , जाल कैसा   है  बिछाया।
पथिक  को गाड़ी  मिली  जो ,षड्यन्त्रों  से भरी  है।
कण्टकों को चुन रहा  हूँ ,एक  ही रोड़ा   नहीं  है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

राम-कृष्ण ऋषि दयानन्द ने, मार्ग हमको था दिखाया।
व्यर्थ का  सब वर्ण  भेद  है, कर्म  का  आधार पाया।
अशिक्षा, दहेज, अस्पृश्यता सी, कुरीतियां हमने गढ़ी हैं।
शूद्र  नारी  शोषितों  को,  सदियों से  हमने  सताया।
कोशिशें तो बहुत की हैं, अन्ध तम  फोड़ा  नहीं  है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

चाहता हूँ इसी पथ पर, साथ-साथ  चल सको  तुम।
कुछ समय विश्राम करके, शक्ति अक्षय  पा सको तुम।
साधना  अभ्यास  करके , क्षमताएं  अपनी  बढ़ाओ।
सत्य पथ के जो  पथिक हों,दैन्य उनका हर सको तुम।
लक्ष्य दुर्गम, दीर्घ पथ  है, किन्तु यह  थोड़ा  नहीं  है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

साथ में तुम चल सको तो  साथ उत्तम  है तुम्हारा।
किन्तु हम  मुस्तैद  रहते, लक्ष्य  ना  भटके  हमारा।
सत्य धर्म समाज  पथ पर ,मन कर्म  से बढ़ सको तो,
चलें साथ  आगे बढ़ें मिल, लक्ष्य  ने  हमको  पुकारा।
विवेक का  अंकुश मधुर  है, समझो यह कोड़ा नहीं है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

ना किसी का दिल दुखायें, ना कभी अन्याय करते।
सबको ही अपना बनायें, आपदाओं से न डरते।
नशा रूढ़ि अज्ञान से  बच,धर्म पथ बढ़ते रहें  हम।
आज  पथ उनको  दिखायें  जो हजारों बार मरते।
गले  उनको भी  लगायें, तंग  दिल  चौड़ा  नहीं है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

हम अमर हैं, एक हैं, फिर संयोग और वियोग कैसा? 
अविचल चलें ना डगमगायें,संकल्प है ये पहाड़ जैस।
जातिवाद और बुत-परस्ती, असमानताओं को मिटायें।
कर्म जो  जैसा करेगा,  पायेगा  वह फल भी वैसा ।
ईश से वह जुड़ न सकता, जिसने दिल जोड़ा नहीं है।
दूर तो  मैं आ  गया  हूँ , पर तुम्हें  छोड़ा नहीं है।।

Saturday, January 28, 2012

ईश्वर से बड़े पंच



ईश्वर से बड़े पंच
         

कैलाश पर्वत के पवित्र सुरम्य व मनमोहक वातावरण में वसंत ऋतु के आगमन ने चार चांद लगा दिए। देवाधिदेव महादेव समाधि में विराजमान थे। पार्वती अकेले बैठे-बैठे बोर हो रहीं थीं। वे बार-बार विचार करतीं, ऐसे मनोरम वातावरण में भी महादेव को क्या सूझी कि समाधि में बैठ गए। उसी समय `नारायण, नारायण´ की ध्वनि सुनाई दी। भ्रमण करते हुए त्रिलोकी पत्रकार नारद आ पहुंचे। नारद तो ठहरे पत्रकार उन्हें तो सभी लोकों की ख़बरें चाहिए ताकि सभी को सूचना देकर मीडिया की ताकत से रूबरू कराते रहें। पार्वतीजी ने उनसे कुशल समाचार पूछे देवलोक, ब्रह्म लोक व विष्णु लोक के समाचार जानकर अपनी प्रिय सहेली लक्ष्मी व सरस्वती के हाल-चाल सुने। 
        नारदजी इस दौरान पार्वतीजी द्वारा परोसे गए नाश्ते के बाद लस्सी पी कर निवृत्त हो चुके थे। नाश्ते पर हाथ साफ़कर जब वे सीधे होकर बैठे तो पार्वती जी ने नारदजी से प्रश्न किया नारदजी आपने शादी-विवाह तो किया नहीं, आपका समय कैसे कटता होगा? मैं तो महादेवजी के समाधि पर बैठने वाले दिनों में ही इतनी बोर हो जाती हूं कि यहां से कहीं घूमने जाने को मन करता है ( किंतु महादेवजी को समाधि में छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकती। एक तो उनकी देखभाल करना आवश्यक है, दूसरे गुस्सैल बहुत हैं पता नहीं, मैं कहीं चली जाऊं और वे नाराज हो जायं। एक बार पहले गलती कर चुकी हूं, दोबारा नहीं कर सकती। एक बार की गलती के कारण तो मुझे जलते हुए हवन कुंड में कूदकर दूसरा जन्म लेना पड़ा और घोर तपस्या करके महादेव को दोबारा पाया है। अब मैं कोई गलती नहीं करना चाहती। वास्तविक बात यह भी है कि महादेव से अलग रहने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। अत: यहीं बैठे-बैठे बोर होती रहती हूं।  
         नारदजी बोले, ``आप सही कहती हैं। देवलोक में विष्णु-लोक हो या ब्रह्म लोक, अमरावती हो या यमपुरी या देवाधिदेव शिवजी का कैलाश सभी स्थानों पर महिलाएं बंधन महसूस करती हैं। हां, पृथ्वी-लोक की महिलाएं स्वतंत्रता की ओर बढ़ रही हैं। कुछ आधुनिकाएं तो स्वच्छंदता की हद तक स्वतंत्रता का उपभोग कर रही हैं, किंतु देवलोक की देवियां अपने पति प्रेम के कारण घूमने फिरने भी नहीं जा सकती। यह तो मानना पड़ेगा कि देवलोक में यह बंधन देवियों ने स्वयं स्वीकार किया है, मृत्यु लोक की तरह देवताओं ने परंपराओं के बंधन बनाकर उन्हें नहीं जकड़ा है। हां, महिलाओं को जो स्वतंत्रता असुर लोक में प्राप्त है, वह देव लोक में तो संभव नहीं है; हो सकता है पृथ्वी लोक पर विलासी प्रवृत्ति के पुरूषों व व्यावसायिकता के कारण वहां की महिलाओं को प्राप्त हो जाय किंतु उसमें भी उनकी सुरक्षा को लेकर मैं संदेह में रहता हूं।´´
         नारदजी के लंबे चौड़े वक्तव्य को सुनकर पार्वतीजी बोली, ``नारदजी आप की प्रवृत्ति कभी नहीं बदलेगी। आपतो मुझे मेरे प्राणप्रिय महादेव के खिलाफ भड़काने का प्रयत्न कर रहे हो। मुझे ऐसी किसी स्वतंत्रता की आकांक्षा नहीं है। मैं अपने प्रियतम के प्रेम के बंधन में बंधकर ही आनंद पाती हूं। आप तो इतना बताइए, महादेव के समाधि पर होते हुए मेरे पास जो खाली समय होता है; उसमें क्या किया जाय?´´
         नारदजी दो मिनट मौन रहकर विचार करने लगे। अचानक उनके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव उभरे मानो उन्हें पार्वती की समस्या का समाधान मिल गया हो। मुस्कराते हुए अपनी झोली में हाथ डाला और एक किताब निकाल कर पार्वतीजी की और बढ़ाते हुए बोले, ``महादेवी! क्षमा चाहता हूं। देवाधिदेव के विरूद्ध आपको भड़काने का दुस्साहस मुझमें कैसे हो सकता है? मेरे लिए तो आप और महादेव दोनों ही पूज्य है। मैं तो केवल पृथ्वी लोक और असुर लोक के वातावरण की तुलना करके आपको बता रहा था। रही आपके अकेलेपन के समय को काटने की बात, आपके चरणारविंदों में यह पुस्तक समर्पित है। अभी-अभी मैं पृथ्वी लोक की यात्रा करके आ रहा हूं। वहां एक कहानीकार था, जिसे लोग उपन्यास सम्राट भी कहते हैं। मुझे भी उसके उपन्यासों के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई तो एक बुक-स्टॉल पर गया। बुक-स्टॉल पर उपन्यास देखकर तो मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई इतना बड़ा उपन्यास तो बेकार आदमी ही पढ़ सकता है, मेरे पास इतना समय कहां? जो उस उपन्यास को पढ़ पाता। मुझे परेशान देखकर बुक-विक्रेता ने यह किताब मुझे दी और कहा, ``सरजी आप उपन्यास तो पढ़ नहीं पाएंगे, आप यह किताब ले जाइए जब भी समय मिले एक कहानी पढ़ लो इस प्रकार आपकी राह भी कट जाएगी और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से परिचय भी हो जाएगा।´´
            मैं उसे धन्यवाद देकर जैसे ही चलने लगा, उसने मेरी झोली पकड़ ली और बोला, ``किताब क्या फोकट में मिलती है? इसकी क़ीमत चुकाओ तब किताब लेकर जाओ।´´ 
             मेरे पास भारतीय मुद्रा तो थी नहीं, देवलोक की मुद्रा को उसने नकली बताकर लेने से इन्कार कर दिया। मजबूरन मुझे उसे अपना परिचय देने को मजबूर होना पड़ा। मेरे परिचय देने के बाद वह अट्टहास करके हंसने लगा और बोला, `` ओ बाबा! मैं तेरी इन चिकनी-चुपड़ी बनावटी बातों को नहीं मानता किंतु यह किताब काफी दिनों से पड़ी है, आजकल हिंदी की बुक्स का कोई क्रेज भी नहीं रहा। अत: यह बुक मैं तुम्हें दया करके दे देता हूं।´´
        पार्वतीजी बोली, `किंतु नारद! तुम किसी से कोई वस्तु मुफ्त में स्वाकार नहीं करते। यहां तक कि आवभगत में नाश्ता-पानी के एवज में भी समाचार सुनाकर हिसाब चुकता कर देते हो, फिर आपने उससे यह किताब या बुक, जो भी हो स्वीकार कैसे की?´
       ``महादेवी के वचन शत-प्रतिशत सत्य हैं। मैं उसे किताब वापस करने का वचन देकर किताब लाया हूं। अत: पढ़ने के बाद महादेवी किताब वापस कर देंगी और मैं मृत्यु लोक की अपनी अगली विजिट में यह किताब उस किताब वाले को धन्यवाद सहित वापस कर आऊंगा। महादेवी अब मुझे प्रस्थान करने की आज्ञा प्रदान करें। महादेव के समाधि से उठने पर पुन: आऊंगा।´´ यह कहते हुए नारदजी उठकर खड़े हो गए। पार्वतीजी ने किताब उपलब्ध करवाने के लिए धन्यवाद करते हुए दरवाजे तक साथ जाकर नारदजी को विदा किया।
       नारद को विदा कर पार्वतीजी पुन: महादेव के पास आईं। उनके आसन की साफ़-सफाई की और पुन: अपने आसन पर बैठकर किताब का अवलोकन करने लगीं। अनुक्रमणिका में कहानियों के शी्र्षक देख रहीं थी कि उनकी नज़र `पंच परमेश्वर´ पर टिक गई उन्हें आश्चर्य हुआ कि महादेव का नाम इस किताब में कैसे आ गया। उन्हें परमेश्वर से पहले `पंच´ शब्द भी अजीब लग रहा था। खैर हो सकता है कि कहानीकार महादेव का भक्त हो और पंच-परमेश्वर कहानी के माध्यम से उन्होंने परमेश्वर श्री महादेव की महिमा का बखान किया हो। कुछ आश्वस्त होते हुए उन्होंने सर्वप्रथम उस कहानी को पढ़ना प्रारंभ किया। पार्वतीजी ने पूरी कहानी को पढ़ डाला। कहानी उत्सुकता के साथ पढ़ी वह काफी रोचक भी लगी किंतु कहानी में महादेव का नाम न पाकर वे बैचेन हो उठीं। उन्हें कहानीकार प्रेमचंद पर क्रोध आने लगा। वे विचार करने लगीं, मृत्युलोक के सामान्य आदमी के लिए परमेश्वर शब्द का इस्तेमाल करके उसने परमेश्वर का अपमान किया है, क्योंकि ब्रह्मांड में परमेश्वर तो केवल देवाधिदेव महादेव ही हैं। मृत्युलोक के एक सामान्य से कहानीकार की इतनी जुर्रत कि वह परमेश्वर शब्द का प्रयोग सामान्य मानवों के लिए करे। इसे दंडित करना ही होगा। पार्वतीजी विचारमग्न होते हुए आक्रोशित हो रहीं थी कि तभी उन्होंने अपने नेत्रों को बंद पाया और महादेव के स्पर्श को महसूस किया।
          पार्वतीजी ने सामान्य होने का प्रयत्न करते हुए कहा, `स्वामी समाधि से उठ गए मेरे अहोभाग्य! मैं तो आपकी सेवा करने के लिए तरस गई थी। आप बैठिए मैं आपके लिए जलपान की व्यवस्था करती हूं।´ महादेव ने पार्वती को प्रेम से पकड़कर अपनी गोद में बिठा लिया, `पार्वतीजी जलपान की ऐसी क्या जल्दी है? अभी तो हम आपके पास बैठकर आपके स्नेह का पान करना चाहते हैं। समाधि के समय आप ने समय कैसे व्यतीत किया? आपके समाचार जानना चाहते हैं।´ महादेव के प्रेम भरे वचनों से अभिभूत पार्वतीजी ने लजाकर अपना चेहरा महादेव के वक्ष में छुपा लिया। महादेव ने प्रेमपूर्वक अपना हाथ महादेवी के केशों पर फिराते हुए कहा, `क्या बात है आज महादेवी वैचारिक रूप से आक्रोशित लग रही हैं?´ 
          पार्वतीजी ने कहा, `कुछ विशेष बात नहीं है, आप कई दिनों बाद समाधि से उठे हैं आइए पहले आपको स्नान करातीं हूं, तदोपरांत जलपान के बाद वार्ता उचित रहेगी।´
         `नहीं, जब तक आपके विचारों में  आक्रोश होगा; आप स्नान कराकर हमें शीतलता प्रदान कैसे करेंगी? विचारों में शान्ति  व मृदुता के स्थान पर आक्रोश होने पर जलपान स्वास्थ्यकर कैसे होगा? अत: उचित यही है कि महादेवी उद्विग्नता के कारण को बताएं और शांति की अनुभूति करें। चिंतन व अभिव्यक्ति वैचारिक उद्विग्नता व आक्रोश का शमन करने के आधारभूत उपकरण हैं।´ महादेव ने पार्वती से स्नेहपूर्वक आग्रह किया।
        `स्वामी तो अंतर्यामी हैं फिर भी मेरे मुंह से ही क्यों कहलवाते हैं? इसका राज आज समझ आया। स्वामी मुझे वैचारिक रूप से शांति व प्रसन्नता प्रदान करने के लिए ही मेरे मुंह से सब कुछ सुनते हैं।´ `यह तो एक पहलू है पार्वती! इसका दूसरा पहलू यह है प्रिये! आपकी वाणी को सुनकर हमें असीम आनंदानुभूति होती है। अत: आप तो अपनी मधुर वाणी से अपने आक्रोश का कारण बताकर श्रवणामृत का पान कराएं।´ महादेव ने मुस्कराहट के साथ पार्वती से प्रेमपूर्वक आग्रह किया।
        पार्वती ने नारद के आने व उनसे किताब प्राप्त कर मुंशी प्रेमचंद की कहानी `पंच-परमेश्वर´ पढ़ने का उल्लेख करते हुए कहा,`स्वामी! मृत्युलोक का एक मामूली कहानीकार मामूली इंसानों की तुलना परमेश्वर से कैसे कर सकता है? अवश्य ही वह दंड का भागी है। मैं आपका अपमान किसी भी क़ीमत पर सहन नहीं कर सकती। आपकी अनुमति से मैं उसे दंडित करना चाहती हूं। यही मेरी उद्विग्नता का कारण है।´
        शांत देवी शांत! न तो कहानीकार मामूली आदमी होता है और न ही पंच-परमेश्वर शीर्षक देकर कहीं भी हमारा निरादर होता है। इसके विपरीत इससे तो हमारा मान बढ़ता ही है। नि:संदेह न्याय प्रदान करना हमारे वरदान प्रदान करने के कृत्य से भी महान कृत्य है। देव और देवियां, ऋषि और मुनि वरदान या श्राप दे सकते हैं किंतु न्याय प्रदान करना मानव समुदाय में पंच का ही कृत्य है। न्याय संसार में किसी भी पदार्थ से अधिक महत्वपूर्ण हैं। न्याय प्रदान कर पंचायतें निश्चित रूप से महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। हां, कुछ व्यक्ति पंचायत के नाम पर झूठी प्रतिष्ठा को ओढ़कर एक-दूसरे के प्रेम में बंधे युवक-युवतियों को मौत के फरमान देकर जघन्य पाप करते हैं तथा इसे मृत्युलोक में `ऑनर किलिंग´ का नाम दिया जा रहा है.  हां, इस प्रकार के जघन्य पाप करने वाले व्यक्ति मानव के रूप में राक्षसों से भी निकृष्ट कोटि के हैं। इस प्रकार के जघन्य कृत्य के समर्थन में आने वाली पंचायतें व जन-समुदाय भी माफी के लायक नहीं है। यह सब होते हुए भी न्याय प्रदान करने वाले पंचों का महत्व कम नहीं हो जाता। न्याय प्रदान करने वाला इंसान हमसे भी बढ़ा है। उसे `परमेश्वर´ नाम देकर कहानीकार ने हमारा सम्मान ही बढ़ाया है। अत: देवी उद्विग्नता का त्याग करें और मृत्यु-लोक के भ्रमण के दौरान स्वयं न्यायिक प्रक्रिया को देखकर आश्वस्त हो लें।
        मृत्यु-लोक के नियमित भ्रमण के दौरान शिव और पार्वती समस्त जीवों के सुख-दुखों का अवलोकन करते हुए चले जा रहे थे। इसी दौरान पार्वती को स्मरण हो आया और वे बोलीं, `स्वामी! आपने एक बार मेरे द्वारा `पंच-परमेश्वर´ शब्द पर आपत्ति करने पर मृत्यु-लोक की पंचायतों की प्रशंसा करते हुए मुझे पंचायतों की न्याय प्रणाली का अवलोकन कराने का वायदा किया था। कृपया अब मुझे पंचायतों के द्वारा न्याय प्रदान करने की शक्ति का अवलोकन कराएं।´ 
        `देवी ने सही फरमाया। निश्चित रूप से आपको पंचायत की न्यायिक प्रणाली का अवलोकन कराना चाहता हूं किंतु सामने के जिस गांव की ओर आप संकेत कर रही हैं, इस गांव के लोग, पंच और पंचायत न्याय प्रदान करने में सक्षम नहीं रह गये हैं। `आनर किलिंग´ के नाम पर यहां निर्दोष युवक-युवतियों की हत्या की जाती है। यहां के लोगों का जमीर भी इतना मर चुका है कि वे इस प्रकार के जघन्य कृत्य के विरोध में खड़े नहीं होते। अत: इस प्रकार के कुकृत्य करने वाले गांव में हमारा प्रवेश किसी भी प्रकार से उचित नहीं। कोई भी देव इस गांव में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नहीं आएगा। इस प्रदेश की सीमा की समाप्ति पर अगली ग्राम पंचायत की सीमा में आपको न्याययिक प्रक्रिया देखने का अवसर प्राप्त हो सकता है।´ महादेव ने पार्वती जी को जबाब दिया।
       पार्वती और शंकर भ्रमण करते-करते काफी आगे निकल चुके थे। पार्वतीजी ने फिर याद दिलाया,`स्वामी! मुझे पंचायत की कार्य प्रणाली दिखाकर पंच के बारे में मेरी जिज्ञासा को शांत करने की कृपा करें।´ महादेव ने कुछ क्षणों तक विचार किया और बोले, `देवी! इस समय पंचायत के सामने कोई विवाद ही नहीं है तो हम आपको पंचायती न्याय प्रणाली का अवलोकन कैसे कराएं? इसके लिए तो हमें तब तक यहीं ठहरना पड़ेगा, जब तक पंचायत के समक्ष न्याय-निर्णय के लिए कोई विवाद नहीं आ जाता। हम यहां लंबे समय तक कैसे रूक सकते हैं? अत: इस कार्य को अगले भ्रमण के लिए स्थगित करके हमारा कैलाश लौटना ही उचित होगा।´
       पार्वतीजी निराश होते हुए बोलीं, `स्वामी इस प्रकार तो मैं कभी भी पंचों की कार्य प्रणाली का अवलोकन नहीं कर पाऊंगी। इसके लिए हम अपनी माया से विवाद पैदाकर पंचों के सामने प्रस्तुत करें तो उनकी न्याय प्रणाली का अवलोकन कर सकेंगे। आपसे मेरी प्रार्थना है कि मेरी जिज्ञासा का शमन अवश्य करें।´ `यह तो पंचायत की परीक्षा लेना हो जाएगा, जो मुझे उचित नहीं लगता। देवी पुन: विचार कर लें पंचों की न्याय शक्ति पर संदेह कर उनकी परीक्षा लेना अनुचित है। देवी ने इसी प्रकार का संदेह श्री राम के ईश्वरत्व को लेकर किया था और परीक्षा ली थी तो काफी लंबे समय तक हम दोनों को अलग-अलग रहना पड़ा था। अत: इस विचार का त्याग करना ही उचित जान पड़ता है।´ महादेव ने मत प्रकट किया।
       पार्वती ने आग्रहपूर्वक प्रार्थना की, `नि:संदेह! मुझसे उस समय भूल हुई थी और उस भूल के लिए मैं दंड भी भोग चुकी हूं। अब मैं किसी प्रकार की गलती नहीं करूंगी। स्वामी जिस प्रकार चाहेंगे, उसी प्रकार विवाद का सृजन करें किंतु स्वामी मुझे पंचों की महानता के दर्शन अवश्य कराएं। मैं पंचों की न्यायिक शक्ति पर संदेह नहीं कर रही, मैं तो उसका अवलोकन कर अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहती हूं।´ `ठीक है! किंतु ध्यान रखें पंचों की न्यायिक प्रक्रिया में हम अपनी मायावी या देवी शक्ति का प्रयोग करके किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। यह बात आप याद रखें।´ महादेव ने निर्देश दिया।
      जैसी स्वामी की आज्ञा, `मैं कुछ नहीं करूंगी, केवल अवलोकन करूंगी। आप जैसा चाहें वैसा विवाद बनाकर प्रस्तुत करें।´ लोगों की नज़रों से बचने के लिए पार्वती ने भिखारिन का रूप बनाया और वहीं आस-पास विचरने लगी।
      मध्याह्न का समय था। एक किसान काम की थकान उतारने के लिए एक पेड़ के नीचे लेटा हुआ था। महादेव उसी किसान का रूप बनाकर ठीक उसी प्रकार उसकी बगल में लेट गए। कुछ समय बाद ही किसान की पत्नी भोजन लेकर वहां पहुंच गई और दूर से ही बोली, `अजी! उठ जाओ और हाथ-मुहं धुलकर रोटी खालो।´ किसान पत्नी की आवाज सुनकर आंखे मिचमिचाता हुआ जगा तो साथ ही उसका हमशक्ल दूसरा किसान भी ठीक उसी प्रकार उठा। किसान व किसान की पत्नी दोनों ही आश्चर्य में पड़ गए। किसान की पत्नी निर्धारित नहीं कर पा रही थी कि दोनों में कौन सा उसका पति है? इधर दोनों किसान आपस में झगड़ने लगे और एक-दूसरे पर बहरूपिया होने का आरोप लगाने लगे। दोनों एक ही महिला पर अपनी पत्नी होने का दावा कर रहे थे। आस-पास के खेतों से और किसान भी आ गए। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि मामला क्या है? सभी ने मिलकर कहा, `चलो पंचायत में मामला रख़ते हैं, अब तो पंच ही यह निर्धारित कर सकते हैं कि वास्तविक किसान कौन है और यह स्त्री किसकी पत्नी है?´
       दोनों किसानों को पंचायत घर ले जाया गया। पंचायत घर में पंचायत का आयोजन हुआ। पंचों को भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय? दोनों में कोई समानता नहीं वरन् दोनों एक ही थे। खैर पंचों को कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही था। अत: उन्होंने पंचायत घर के अंदर जाकर आपस में विचार-विमर्श किया। बाहर आकर पुन: जब वे अपने-अपने आसनों पर बैठे तो सभी उत्सुकता से उनकी ओर देखने लगे। 
       एक पंच ने खड़े होकर कहा, `हम सभी ने मिलकर यह तय किया है कि वास्तविक किसान कौन है? इसका निर्धारण करने के लिए हम दोनों को कुछ काम देंगे और जो उन सभी कामों को पहले पूर्ण कर लेगा, यह स्त्री उसी की पत्नी होगी।´ सर्वप्रथम दोनों में अंतर करने के लिए एक को सरसों व दूसरे को गेंदा के फूलों की माला पहनाई गई। पंच ने पुन: जनता को संबोधित करते हुए कहा, `स्त्री के लिए वस्त्र और आभूषण विशेष प्रिय होते हैं। इस स्त्री के पास न तो ढंग के वस्त्र हैं और न ही आभूषण। अत: दोनों किसानों को निर्देशित किया जाता है कि अपनी पत्नी के लिए सुंदर वस्त्र व आभूषणों की व्यवस्था करें।´ बेचारा गरीब किसान कहां से अच्छे वस्त्र और आभूषणों की व्यवस्था करता? अत: सरसों के फूलों की माला पहने हुए किसान निराश होकर वहीं जमीन को कुरेदने लगा, जबकि गेंदा के फूलों की माला पहने हुए किसान तुरंत गया और पांच मिनट बाद ही सुंदर-सुंदर वस्त्र और आभूषण ले आया। वस्त्रों और आभूषणों को देखकर न केवल वह महिला वरन् सभी भौचक्के रह गए। पंचों के चेहरों पर हल्की सी मुस्कान आ गई। वे पहली बार दोनों में कोई अंतर देख रहे थे।
         दूसरे पंच ने खड़े होकर कहा, `किसान का मूल आधार बैल होते हैं, यह किसान इतना लापरवाह रहा है कि इसने अपने बच्चों के लिए एक गाय और अपने खेतों के लिए बैलों की भी व्यवस्था नहीं की। अत: अब इसे चाहिए कि आज पड़ोस की हाट में जाकर बैलों की जोड़ी व एक गाय लेकर आए ताकि इसकी स्त्री प्रसन्न रह सके।´ दोनों किसान गए, गेंदा के फूलों की माला पहने हुए किसान दस मिनट बाद ही बैलों की सुंदर जौड़ी व एक सुंदर गाय के साथ पंचों के सम्मुख प्रस्तुत हुआ। सरसों के फूलों की माला पहने हुए किसान अपना चेहरा लटकाए वापस आ गया। उसके पास बैल व गाय ख़रीदने को धन ही नहीं था और किसी ने उसकी सहायता भी नहीं की।
         भिखारिन बनी पार्वती दूर से ही तमाशा देख रहीं थीं। अब तीसरे पंच ने खड़े होकर कहा, `बड़ा जटिल मामला है, न्याय करने की एवज में पंचायत के लिए किसान को पंचायत के लिए भी कुछ काम करने होंगे; तभी उसकी पत्नी उसे दी जाएगी।´ दोनों किसानों ने एक साथ कहा, `पंचायत के लिए काम करके हमें प्रसन्नता होगी। हमें बताया जाय क्या काम करना है?´ यद्यपि दोनों किसानों ने यह वाक्य बोला था किंतु सरसों के फूलों की माला पहने हुए किसान की आवाज निराशा के कारण कमजोर थी। 
         सरपंच ने दोनों किसानों को आश्वस्त किया, `वे घबड़ाएं नहीं, यह स्त्री उसी के साथ भेजी जाएगी जो उसका वास्तविक पति होगा। यह एक न्यायिक प्रक्रिया है। अत: किसी भी प्रकार का निषकर्ष निकाल कर निराश न हों। हां, न्यायिक प्रक्रिया में दोनों को भाग लेना होगा, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि यह महिला वास्तव में किसकी पत्नी है?´ सरपंच ने तीसरे पंच को अपनी बात कहने का संकेत किया।
       दोनों किसानों की ओर मुखातिब होकर तीसरे पंच ने कहा, `तीसरी परीक्षा यह है कि ग्राम पंचायत की 30 एकड़ जमीन अनुपजाऊ और बंजर पड़ी है अब देखना यह है कि दोनों किसानों में से कौन सा किसान उसे उपजाऊ और हरी-भरी बना देता है?´ सरसों के फूलों की माला पहने हुए किसान एक बार फिर निराश होकर जमीन पर बैठ गया, जबकि दूसरा किसान तुरंत उस भूमि पर गया और कुछ समय बाद आकर पंचों से बोला, `जमीन उपजाऊ और हरी-भरी बन चुकी है पंच निरीक्षण कर सकते हैं।´
       अब चौथे पंच की बारी थी,`चौथा पंच खड़ा हुआ और बोला,`गांव में स्कूल भवन नहीं है, मास्टरजी बच्चों को पेड़ के नीचे पढ़ाते हैं। अत: पंचायत इन दोनों किसानों को निर्देश देती है कि वे एक-एक करके स्कूल भवन का निर्माण करें, हम देखेंगे कौन सुंदर व मज़बूत भवन का निर्माण करता है?´ गेंदा के फूलों की माला की फिर विजय हुई उस किसान ने शीघ्र ही पंचो को एक सुंदर, मज़बूत व सुविधाजनक स्कूल भवन ही नहीं उसके साथ मास्टर्जी के आवास की भी व्यवस्था की थी। सभी पंच प्रसन्न हो गए।
       अब सरपंचजी की बारी थी। सरपंचजी ने सरसों के फूलों की माला पहने किसान की और इंगित करते हुए कहा,`तुम कुम्हार के पास जाकर एक हांडी व उसे ढकने का ढक्कन लेकर आओ।´ उस किसान को पहली बार लगा कि यह कार्य उसकी क्षमता के अनुसार है और कुछ ही देर में वह हांडी लेकर उपस्थिति हो गया। इसके बाद वह हांडी दूसरे किसान को दी कि तुम इसमें छोटे-छोटे 99 छेद कर दो। वह किसान तो सब कुछ कर सकता था। वह पंचायत भवन के पीछे गया और उसमें बड़े सुंदर व सुडोल छेद करके ले आया। सरपंच ने पुन: एक पहले किसान को भेजकर गांव के तालाब से चिकनी मिट्टी मंगाई। हांडी पर उसका ढक्कन सही प्रकार से रखकर चिकनी मिट्टी से उसके मुंह को भली प्रकार बंद कर दिया गया।
       अब सरपंच ने दोनों के हाथ में गंगाजल देकर शपथ दिलाई, `वे किसी भी प्रकार इस हांडी को फोड़ेगे नहीं, कोई चालाकी नहीं करेंगे।´ जब वे दोनों शपथ ले चुके, सरपंचजी ने उस हांडी के एक छेद से प्रवेश कर दूसरे से निकलकर आने का निर्देश दिया। सरसों के फूलों की माला पहने किसान ने निराशा से जमीन पकड़ ली जबकि दूसरे किसान ने सूक्षम रूप बनाकर हांडी में प्रवेश किया। सरपंचजी ने उस छेद को चिकनी मिट्टी से बंद कर दिया और दूसरे छेद से निकलकर आने को कहा। बाहर आने के बाद दूसरे छेद को भी बंद कर दिया गया। पुन: तीसरे छेद से प्रवेश करने को कहा गया और उसे बंद कर दिया गया। यह प्रक्रिया जारी रही और हांडी के 98 छेद बंद हो चुके थे। किसान को पुनः उसके अन्दर प्रवेश करने के लिये कहा गया; जैसे ही गैंदा के फूलों की माला पहने किसान ने 99 वें छेदमें प्रवेश किया उस छेद को भी बंद कर दिया गया। अब बाहर एक ही किसान रह गया। सरपंचजी ने निर्णय सुनाया, `यही वास्तविक किसान है, यह स्त्री इसी की पत्नी है। यह स्त्री इन वस्त्रों व आभूषणों को लेकर गाय और बैलों की जोड़ी के साथ अपने पति को लेकर अपने घर जा सकती है।´
       वह स्त्री बोली, `पंचों की जय हो, पंचों की कृपा से मेरा पति मुझे मिल गया किंतु ये वस्त्राभूषण, गाय और बैल मेरे नहीं हैं तथा अत्यंत आवश्यक होते हुए भी हम दोनों इन्हें स्वीकार नहीं कर सकते। हम दोनों परिश्रम पूर्वक दो रोटी खाने में विश्वास करते हैं। हम गरीब सही किंतु मुफ्त में कुछ पाना नहीं चाहते। अत: यह सभी सामिग्री हमारी तरफ से पंचायत ग्रहण करे।´
       सरपंचजी ने कहा, `ठीक है। जैसी तुम्हारी इच्छा। फावड़ा लाकर एक गढ्ढा खोदकर उसमें यह हांडी दबा दी जाय।´ 
     भिखारिन बनी पार्वतीजी घटनाक्रम को देखकर आश्चर्यचकित रह गई और तुरंत पंचायत के समक्ष हाथ जोड़कर उपस्थित हुई और पंचों से निवेदन किया, `नि:संदेह आपने सही न्याय किया है। पंच परमेश्वर होते हैं किंतु इस हांडी में मेरे पतिदेव बंद हैं। कृपया, उन्हें छोड़कर मुझ पर अनुग्रह करें।´ अब सभी का ध्यान उस भिखारिन की और हो गया। सरपंचजी ने कहा, `हम समझ रहे हैं, आप लोग साधारण व्यक्ति नहीं हैं। आपको अपने पति को मुक्त करवाना है तो अपना वास्तविक परिचय दीजिए और हमारे सामने अपना वास्तविक रूप प्रकट कीजिए।´ 
       अब पार्वतीजी के सामने कोई चारा नहीं था। उन्होंने न केवल अपना परिचय दिया वरन् वास्तविक रूप में आकर सभी को दर्शन भी दिए। सभी पंचों व ग्रामीणों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। तुरंत हांडी का ढक्कन हटा कर महादेव को निकाला गया। सभी ने शकंर-पार्वती के युगल रूप के दर्शन कर अपने जीवन को कृतार्थ किया।