शिक्षक दिवस पर पुनरावलोकन करें
सात वार-नौ त्योहार वाला देश है भारत। जहां हर दिन अनेकों त्योहार, महापुरूषों की जयन्तियां, बलिदान दिवस या अन्य कोई ऐसा कारण अवश्य मिल जाता है जो प्रत्येक दिवस को एक खास दिवस बना देता है। ऐसा दिन तो शायद ही कोई हो जिस दिन को भारत के किसी भी क्षेत्र में किसी विशेष त्योहार, उत्सव या विशेष दिवस के रूप में न मनाया जाता हो। इस प्रवृत्ति से हमारी उत्सवप्रियता प्रमाणित होती है, हमारी समारोहप्रियता प्रमाणित होती है, हमारी सामाजिक भावना प्रमाणित होती है। हम प्रत्येक ऐसे दिवस को, दिवस को ही क्यों? प्रत्येक ऐसे पल को जो हमारे लिए कुछ विशेष है, जिससे हमें कुछ प्रसन्नता की अनुभूति होती है, जिससे हम गौरवान्वित महसूस करते हैं ऐसे दिवस या पल को हम अकेले जीना नहीं चाहते। अपनी खुशियों में दूसरों को सम्मिलित करने तथा दूसरों के गमों में सम्मिलित होने की प्रवृत्ति ही सामाजिक संबन्धों का आधार है।
हम धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व पारिवारिक ही नहीं अनेक राष्ट्रीय गौरव के पलों को भी याद करते हैं। हम स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस, राष्ट्रभाषा दिवस, शहीद दिवस जैसे अनेकानेक दिवसों को बड़े ही उत्साह, उल्लास व समारोहपूर्वक मनाते है । इन समारोहों से हम केवल गौरव व प्रसन्नता की अनुभूति ही नहीं करते, हम उल्लास, उत्साह, साहस व कुछ कर गुजरने की अदम्य भावना से भी अनुप्रेरित हो जाते हैं। हम शारीरिक, मानसिक व वैचारिक दृष्टि से और मजबूत होते है। अपने गौरव के प्रतीकों का संरक्षण व संवर्धन करने का संकल्प लेकर आगे बढ़ने को प्रेरित होते हैं तभी इन उत्सवों, त्योहारों, समारोंहो व विशेष दिवसों की सार्थकता व प्रासंगिकता सिद्ध होती है। ऐसा ही एक दिवस है- शिक्षक दिवस।
विभिन्न प्रकार के उत्सवों, त्योहारों या जन्म दिवस या बलिदान दिवसों को मनाने का उद्देश्य अपने पूर्वजों व महानायकों को याद करके उनकी उज्ज्वल गौरव गाथा का गान करना ही नहीं बल्कि उनके उद्देश्यपूर्ण जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को प्रकाशित करना होना चाहिए। हम अपने आदर्शों को भूल न जायं, उन्हें बार-बार याद करके अपने जीवन में उतार सकें, इसी बात को ध्यान में रख विशिष्ट प्रेरकों के जन्म दिवसों को मनाने की श्रृंखला में ही शिक्षक दिवस को भी मनाया जाता है। किन्तु वर्तमान में हम किसी भी उत्सव को वास्तविक रूप में मना नहीं पाते। प्रत्येक दिवस को मनाते समय हम ओपचारिकताओं की पूर्ति मात्र ही कर रहे होते हैं। उत्सव केवल एक आडम्बर बनकर रह जाता है। उसके पीछे छिपा हुआ उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। जिस प्रेरणा या विचार के कारण हम उस दिवस को मनाते हैं। उस प्रेरणा या विचार को तो हम समारोह के पास फटकने ही नहीं देते। वस्तुत: विचार की नहीं, हम मूर्ति की पूजा करके अपने स्वार्थो में लिप्त हो जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर हम देखें शिक्षक दिवस को वास्तव में हम क्या करते हैं।
बताने की आवश्यकता नहीं कि शिक्षक दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस है, जिस प्रकार बाल दिवस नेहरू जी का। शिक्षक दिवस देश के सभी स्कूलों, कालेजों व विश्वविद्यालयों में मनाया जाता है। बड़े ही उत्तम-उत्तम भाषण दिये जाते हैं। वरिष्ठ छात्र-छात्राएं इस दिन अपने से कनिष्ठ छात्र-छात्राओं को पढ़ाते हैं और इस तरह शिक्षक बंधु एक दिन के लिए कुछ अवकाश पा जाते है। छात्र-छात्राएं आपस में चन्दा करके कुछ डायरियां, पेन, कृत्रिम फूल जैसी कुछ वस्तुएं भी खरीद लाते हैं तथा उन्हें सम्मान के भाव का प्रदर्शन करते हुए अपने शिक्षकों को देकर निजात पा जाते हैं। अधिकांश पत्र-पत्रिकाएं विशेष आलेख प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार राधाकृष्णन जी को याद कर लिया जाता है। उनके विचारों, आदर्शों व आचरणों पर चर्चा करने की फुर्सत किसे है? अपनाने की तो बात ही क्या है? एक शिक्षक होते हुए श्री राधाकृष्णन राष्ट्रपति के उच्चतम पद पर पहुंचे इससे शिक्षक अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं, ऐसा कहना भी शायद उचित न हो। हां, एक दिन कक्षा में कालांशो से फुर्सत पाकर तथा छात्रों से उपहार ग्रहण कर अपने व्यक्तिगत कार्यों को निपटाने की प्रसन्नता उन्हें अवश्य होती है। छात्र एक दिन के लिए शिक्षक की भूमिका का नाटक करते हैं। किन्तु वास्तव में शिक्षक अपने कर्तव्यों को भी स्मरण कर पाते हैं? छात्र अपने शिक्षकों के प्रति वास्तव में श्रद्धा की भावना क्षण-भर को भी रख पाते हैं? श्रद्धा की तो बात ही छोड़ो उनके प्रति सामान्य सम्मान का भाव रखकर उन्हें अपमानित न करने का संकल्प ले पाते हैं? यदि नहीं, तो आज विचार करने की आवश्यकता है कि इसके पीछे क्या कारण हैं? शिक्षक दिवस का उपयोग हम शिक्षक अपना पुनरावलोकन करके इसे यथार्थ में उपयोगी बना सकते हैं।
हम अपने छात्रों से सदैव अपेक्षा रखते हैं कि वे `गुरूब्रह्मा गुरूर्विष्णू गुरूर्देवो महेश्वर:´ के आदर्श का पालन करते हुए हमको ईश्वर के समान समझे। हम छात्रों को पढ़ाते हैं-
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पायं।
बलिहारी गुरू आपने,गोविन्द दियो बताय।।
हम अपने छात्रों से बड़ी-बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं किन्तु कभी अपने आप पर विचार नहीं करते। हम छात्रों को पाठ पढ़ाते हैं-`श्रद्धावान लभते ज्ञानम्´ किन्तु हम यह क्यों नहीं सोचते कि केवल शिक्षक के रूप में नियुक्ति से ही हम श्रद्धा के पात्र कैसे हो जाते हैं? क्या शिक्षक के रूप में, हमारे जो कर्तव्य हैं उन पर कभी विचार किया है? केवल अधिकारों के प्रति जागरूक होना तथा कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों की बात आने पर बगलें झांकना हमारे लिए उपयुक्त है? शिक्षक कक्षाओं को पढ़ाने में रूचि न लेकर ट्यूशन में रूचि लेकर छात्रों को अपने घर पर या कोचिंग सेन्टर पर पढ़ने जाने को मजबूर करते हैं। प्रैक्टिकल परीक्षाओं में अंक कम करने या अन्य दबाबों के द्वारा छात्र को ट्यूशन के लिए मजबूर करते हैं। शिक्षक संगठनों जो राजनीतिक संगठनों के ही प्रतिरूप हैं का सहारा लेकर विद्यालय को शिक्षा मन्दिर की जगह राजनीतिक अखाड़ो में तब्दील कर दिया जाता है। अभी कुछ वर्ष पूर्व की ही तो बात है जब अखबारों में प्रकाशित हुआ था कि एक विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय ने प्रवक्ताओं की उपस्थिति लगने की व्यवस्था बनाने की बात की तो उसका विरोध किया गया। जब शिक्षा मन्दिरों को जैसे-तैसे धन खींचने के लिए प्रयोग किया जा रहा हो, गरीब छात्र के लिए शिक्षा प्राप्त करना दूभर हो रहा हो, सत्य, अहिंसा, सामाजिक कार्यो, छात्र कल्याण से शिक्षकों का दूर-दूर का भी वास्ता न रह गया हो, ऐसे समय में छात्रों से इतनी अपेक्षा क्यों?
अखबारों में खबरें प्रकाशित होती रहती हैं किस तरह शिक्षण में लगे लोग इस व्यवसाय की गरिमा को धूमिल कर रहे है। छात्र/छात्राओं का आर्थिक, मानसिक व शारीरिक शोषण किया जाता है। अध्यापक को अध्यापक कहने में शर्म आती है। अनुचित साधनों का प्रयोग करवाकर छात्रों को प्रमाणपत्र दिलवाने का कार्य शिक्षक ही कर रहे हैं। शराब पीकर कक्षाओं में जाने वाले अध्यापक या अपने ही छात्रों से मादक पदार्थ मंगाने वाले अध्यापक कौन से आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं? मेरे एक साथी हिन्दी में पी.एच.डी. करने की इच्छा से एक गाइड की खोज में थे। उन्होंने एक गाइड महोदय का चयन भी कर लिया, गाइड महोदय उन्हें एक-दो स्थानों पर अपना रौब दिखाने के लिए ले गए। उनके साथ मदिरा का सेवन किया जब काम की बारी आई तो पी.एच.डी. कराने के लिए सीधे कह दिया कि एक लाख रुपये लगेंगे। जो अध्यापक प्राचार्य की कुर्सी पा जाते हैं उनका तो कहना ही क्या है? वे अपने आप को तानाशाह समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि वह भी कभी अध्यापक थे। वे अपने आप को किसी आई.ए.एस.अफसर से कम नहीं समझते। वे जो भी उल्टा सीधा बोलते हैं, अध्यापको को आंख बन्द करके मानना चाहिए। उनका तो यही विचार रहता है। उनका तर्क होता है कि अधिकारी जो भी करता है वही सही होता है। उनमें, छात्रों के लिए आने वाली छात्र-वृत्ति व पौष्टिक आहार की तो बात ही क्या पूरे छात्र को ही अपने पेट में रखने की, प्रवृत्ति बलवती होती जाती है।
ऐसी स्थिति में हमें शिक्षक के रूप में सम्मान पाने की अपेक्षा क्यों करनी चाहिए? आज शिक्षक दिवस पर हमें अपने आत्मावलोकन की आवश्यकता है। हमें विचार करने की आवश्यकता है शिक्षण कर्म नौकरी नहीं है एक सेवाकार्य है। समाज निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य केवल आजीविका का साधन या धनी बनने का हथकण्डा मात्र नहीं हो सकता। हमें यह सुनना तो अच्छा लगता है कि अध्यापक राष्ट्र-निर्माता है किन्तु राष्ट्र निर्माण में कितना योगदान कर रहे हैं इसका विचार नहीं करते। जब राष्ट्र-निर्माता ही विद्यालय में न रहते हुए भी रजिस्ट्र में हस्ताक्षार करता है, तो उसकी महानता के आगे सर झुकाना कौन चाहेगा? शिक्षा संस्थाओं के बारे में सम्पूर्ण समाज को चिन्तन करना चाहिए कि शिक्षालयों को किस प्रकार राजनीतिक गतिविधियों से मुक्त रखा जाय। शिक्षालयों का नियन्त्रण राजनेताओं के हाथ में नहीं होना चाहिए शिक्षक का स्थानान्तरण आवश्यकता के आधार पर होना चाहिए न कि राजनैतिक आधार पर। शिक्षा-संस्थाओं को राजनीति से मुक्त कराने के लिए पिछले दिनों शिक्षा संस्थाओं में चुनावों पर नियन्त्रण लगाकर एक सराहनीय कार्य किया गया है किन्तु यह पर्याप्त नहीं है। शिक्षा संस्थाएं अपराधियों की शरणगाह बन गई है। इन्हें पुन: शिक्षण जैसे पुनीत कार्य हेतु उपयुक्त बनाये जाने के लिए सभी के सम्मिलित प्रयासों की आवश्यकता है। इस स्थिति के सुधार के लिए समाज के सभी वर्गो अभिभावकों, शिक्षकों, प्रशासकों व राजनेताओं को पुनरावलोकन की ही नहीं आत्मावलोकन की भी आवश्यकता है।
स्वामी विवेकानन्द के दृष्टिकोण से
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धर्म
*स्वामी विवेकानन्द को हिन्दू संन्यासी कहना एकदम गलत होगा। वे संन्यासी तो
थे, किन्तु हिंदू संन्यासी थे, यह सही नहीं है। उन्हें हिन्दू धर्म तक सीमित
क...
2 weeks ago