Saturday, September 4, 2010

शिक्षक दिवस पर पुनरावलोकन करें

शिक्षक दिवस पर पुनरावलोकन करें






सात वार-नौ त्योहार वाला देश है भारत। जहां हर दिन अनेकों त्योहार, महापुरूषों की जयन्तियां, बलिदान दिवस या अन्य कोई ऐसा कारण अवश्य मिल जाता है जो प्रत्येक दिवस को एक खास दिवस बना देता है। ऐसा दिन तो शायद ही कोई हो जिस दिन को भारत के किसी भी क्षेत्र में किसी विशेष त्योहार, उत्सव या विशेष दिवस के रूप में न मनाया जाता हो। इस प्रवृत्ति से हमारी उत्सवप्रियता प्रमाणित होती है, हमारी समारोहप्रियता प्रमाणित होती है, हमारी सामाजिक भावना प्रमाणित होती है। हम प्रत्येक ऐसे दिवस को, दिवस को ही क्यों? प्रत्येक ऐसे पल को जो हमारे लिए कुछ विशेष है, जिससे हमें कुछ प्रसन्नता की अनुभूति होती है, जिससे हम गौरवान्वित महसूस करते हैं ऐसे दिवस या पल को हम अकेले जीना नहीं चाहते। अपनी खुशियों में दूसरों को सम्मिलित करने तथा दूसरों के गमों में सम्मिलित होने की प्रवृत्ति ही सामाजिक संबन्धों का आधार है।
हम धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व पारिवारिक ही नहीं अनेक राष्ट्रीय गौरव के पलों को भी याद करते हैं। हम स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस, राष्ट्रभाषा दिवस, शहीद दिवस जैसे अनेकानेक दिवसों को बड़े ही उत्साह, उल्लास व समारोहपूर्वक मनाते है । इन समारोहों से हम केवल गौरव व प्रसन्नता की अनुभूति ही नहीं करते, हम उल्लास, उत्साह, साहस व कुछ कर गुजरने की अदम्य भावना से भी अनुप्रेरित हो जाते हैं। हम शारीरिक, मानसिक व वैचारिक दृष्टि से और मजबूत होते है। अपने गौरव के प्रतीकों का संरक्षण व संवर्धन करने का संकल्प लेकर आगे बढ़ने को प्रेरित होते हैं तभी इन उत्सवों, त्योहारों, समारोंहो व विशेष दिवसों की सार्थकता व प्रासंगिकता सिद्ध होती है। ऐसा ही एक दिवस है- शिक्षक दिवस।


विभिन्न प्रकार के उत्सवों, त्योहारों या जन्म दिवस या बलिदान दिवसों को मनाने का उद्देश्य अपने पूर्वजों व महानायकों को याद करके उनकी उज्ज्वल गौरव गाथा का गान करना ही नहीं बल्कि उनके उद्देश्यपूर्ण जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को प्रकाशित करना होना चाहिए। हम अपने आदर्शों को भूल न जायं, उन्हें बार-बार याद करके अपने जीवन में उतार सकें, इसी बात को ध्यान में रख विशिष्ट प्रेरकों के जन्म दिवसों को मनाने की श्रृंखला में ही शिक्षक दिवस को भी मनाया जाता है। किन्तु वर्तमान में हम किसी भी उत्सव को वास्तविक रूप में मना नहीं पाते। प्रत्येक दिवस को मनाते समय हम ओपचारिकताओं की पूर्ति मात्र ही कर रहे होते हैं। उत्सव केवल एक आडम्बर बनकर रह जाता है। उसके पीछे छिपा हुआ उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। जिस प्रेरणा या विचार के कारण हम उस दिवस को मनाते हैं। उस प्रेरणा या विचार को तो हम समारोह के पास फटकने ही नहीं देते। वस्तुत: विचार की नहीं, हम मूर्ति की पूजा करके अपने स्वार्थो में लिप्त हो जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर हम देखें शिक्षक दिवस को वास्तव में हम क्या करते हैं।


बताने की आवश्यकता नहीं कि शिक्षक दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस है, जिस प्रकार बाल दिवस नेहरू जी का। शिक्षक दिवस देश के सभी स्कूलों, कालेजों व विश्वविद्यालयों में मनाया जाता है। बड़े ही उत्तम-उत्तम भाषण दिये जाते हैं। वरिष्ठ छात्र-छात्राएं इस दिन अपने से कनिष्ठ छात्र-छात्राओं को पढ़ाते हैं और इस तरह शिक्षक बंधु एक दिन के लिए कुछ अवकाश पा जाते है। छात्र-छात्राएं आपस में चन्दा करके कुछ डायरियां, पेन, कृत्रिम फूल जैसी कुछ वस्तुएं भी खरीद लाते हैं तथा उन्हें सम्मान के भाव का प्रदर्शन करते हुए अपने शिक्षकों को देकर निजात पा जाते हैं। अधिकांश पत्र-पत्रिकाएं विशेष आलेख प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार राधाकृष्णन जी को याद कर लिया जाता है। उनके विचारों, आदर्शों व आचरणों पर चर्चा करने की फुर्सत किसे है? अपनाने की तो बात ही क्या है? एक शिक्षक होते हुए श्री राधाकृष्णन राष्ट्रपति के उच्चतम पद पर पहुंचे  इससे शिक्षक अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं, ऐसा कहना भी शायद उचित न हो। हां, एक दिन कक्षा में कालांशो से फुर्सत पाकर तथा छात्रों से उपहार ग्रहण कर अपने व्यक्तिगत कार्यों को निपटाने की प्रसन्नता उन्हें अवश्य होती है। छात्र एक दिन के लिए शिक्षक की भूमिका का नाटक करते हैं। किन्तु वास्तव में शिक्षक अपने कर्तव्यों को भी स्मरण कर पाते हैं? छात्र अपने शिक्षकों के प्रति वास्तव में श्रद्धा की भावना क्षण-भर को भी रख पाते हैं? श्रद्धा की तो बात ही छोड़ो उनके प्रति सामान्य सम्मान का भाव रखकर उन्हें अपमानित न करने का संकल्प ले पाते हैं? यदि नहीं, तो आज विचार करने की आवश्यकता है कि इसके पीछे क्या कारण हैं? शिक्षक दिवस का उपयोग हम शिक्षक अपना पुनरावलोकन करके इसे यथार्थ में उपयोगी बना सकते हैं।


हम अपने छात्रों से सदैव अपेक्षा रखते हैं कि वे `गुरूब्रह्मा गुरूर्विष्णू गुरूर्देवो महेश्वर:´ के आदर्श का पालन करते हुए हमको ईश्वर के समान समझे। हम छात्रों को पढ़ाते हैं-

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पायं।


बलिहारी गुरू आपने,गोविन्द दियो बताय।।

हम अपने छात्रों से बड़ी-बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं किन्तु कभी अपने आप पर विचार नहीं करते। हम छात्रों को पाठ पढ़ाते हैं-`श्रद्धावान लभते ज्ञानम्´ किन्तु हम यह क्यों नहीं सोचते कि केवल शिक्षक के रूप में नियुक्ति से ही हम श्रद्धा के पात्र कैसे हो जाते हैं? क्या शिक्षक के रूप में, हमारे जो कर्तव्य हैं उन पर कभी विचार किया है? केवल अधिकारों के प्रति जागरूक होना तथा कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों की बात आने पर बगलें झांकना हमारे लिए उपयुक्त है? शिक्षक कक्षाओं को पढ़ाने में रूचि न लेकर ट्यूशन में रूचि लेकर छात्रों को अपने घर पर या कोचिंग सेन्टर पर पढ़ने जाने को मजबूर करते हैं। प्रैक्टिकल परीक्षाओं में अंक कम करने या अन्य दबाबों के द्वारा छात्र को ट्यूशन के लिए मजबूर करते हैं। शिक्षक संगठनों जो राजनीतिक संगठनों के ही प्रतिरूप हैं का सहारा लेकर विद्यालय को शिक्षा मन्दिर की जगह राजनीतिक अखाड़ो में तब्दील कर दिया जाता है। अभी कुछ वर्ष पूर्व  की ही तो बात है जब अखबारों में प्रकाशित हुआ था कि एक विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय ने प्रवक्ताओं की उपस्थिति लगने की व्यवस्था बनाने की बात की तो उसका विरोध किया गया। जब शिक्षा मन्दिरों को जैसे-तैसे धन खींचने के लिए प्रयोग किया जा रहा हो, गरीब छात्र के लिए शिक्षा प्राप्त करना दूभर हो रहा हो, सत्य, अहिंसा, सामाजिक कार्यो, छात्र कल्याण से शिक्षकों का दूर-दूर का भी वास्ता न रह गया हो, ऐसे समय में छात्रों से इतनी अपेक्षा क्यों?


अखबारों में खबरें प्रकाशित होती रहती हैं किस तरह शिक्षण में लगे लोग इस व्यवसाय की गरिमा को धूमिल कर रहे है। छात्र/छात्राओं का आर्थिक, मानसिक व शारीरिक शोषण किया जाता है। अध्यापक को अध्यापक कहने में शर्म आती है। अनुचित साधनों का प्रयोग करवाकर छात्रों को प्रमाणपत्र दिलवाने का कार्य शिक्षक ही कर रहे हैं। शराब पीकर कक्षाओं में जाने वाले अध्यापक या अपने ही छात्रों से मादक पदार्थ मंगाने वाले अध्यापक कौन से आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं? मेरे एक साथी हिन्दी में पी.एच.डी. करने की इच्छा से एक गाइड की खोज में थे। उन्होंने एक गाइड महोदय का चयन भी कर लिया, गाइड महोदय उन्हें एक-दो स्थानों पर अपना रौब दिखाने के लिए ले गए। उनके साथ मदिरा का सेवन किया जब काम की बारी आई तो पी.एच.डी. कराने के लिए सीधे कह दिया कि एक लाख रुपये लगेंगे। जो अध्यापक प्राचार्य की कुर्सी पा जाते हैं उनका तो कहना ही क्या है? वे अपने आप को तानाशाह समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि वह भी कभी अध्यापक थे। वे अपने आप को किसी आई.ए.एस.अफसर से कम नहीं समझते। वे जो भी उल्टा सीधा बोलते हैं, अध्यापको को आंख बन्द करके मानना चाहिए। उनका तो यही विचार रहता है। उनका तर्क होता है कि अधिकारी जो भी करता है वही सही होता है। उनमें, छात्रों के लिए आने वाली छात्र-वृत्ति व पौष्टिक आहार की तो बात ही क्या पूरे छात्र को ही अपने पेट में रखने की, प्रवृत्ति बलवती होती जाती है।


ऐसी स्थिति में हमें शिक्षक के रूप में सम्मान पाने की अपेक्षा क्यों करनी चाहिए? आज शिक्षक दिवस पर हमें अपने आत्मावलोकन की आवश्यकता है। हमें विचार करने की आवश्यकता है शिक्षण कर्म नौकरी नहीं है एक सेवाकार्य है। समाज निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य केवल आजीविका का साधन या धनी बनने का हथकण्डा मात्र नहीं हो सकता। हमें यह सुनना तो अच्छा लगता है कि अध्यापक राष्ट्र-निर्माता है किन्तु राष्ट्र निर्माण में कितना योगदान कर रहे हैं इसका विचार नहीं करते। जब राष्ट्र-निर्माता ही विद्यालय में न रहते हुए भी रजिस्ट्र में हस्ताक्षार करता है, तो उसकी महानता के आगे सर झुकाना कौन चाहेगा? शिक्षा संस्थाओं के बारे में सम्पूर्ण समाज को चिन्तन करना चाहिए कि शिक्षालयों को किस प्रकार राजनीतिक गतिविधियों से मुक्त रखा जाय। शिक्षालयों का नियन्त्रण राजनेताओं के हाथ में नहीं होना चाहिए शिक्षक का स्थानान्तरण आवश्यकता के आधार पर होना चाहिए न कि राजनैतिक आधार पर। शिक्षा-संस्थाओं को राजनीति से मुक्त कराने के लिए पिछले दिनों शिक्षा संस्थाओं में चुनावों पर नियन्त्रण लगाकर एक सराहनीय कार्य किया गया है किन्तु यह पर्याप्त नहीं है। शिक्षा संस्थाएं अपराधियों की शरणगाह बन गई है। इन्हें पुन: शिक्षण जैसे पुनीत कार्य हेतु उपयुक्त बनाये जाने के लिए सभी के सम्मिलित प्रयासों की आवश्यकता है। इस स्थिति के सुधार के लिए समाज के सभी वर्गो अभिभावकों, शिक्षकों, प्रशासकों व राजनेताओं को पुनरावलोकन की ही नहीं आत्मावलोकन की भी आवश्यकता है।

कौने पायो है तेरो सौ गौरी रूप, मेरो तो चित चोरि लियो

कौने पायो है.......




कौने पायो है तेरो सो गोरी रूप,मेरो तो चित चोरि लियो।।


शीशफूल, नथुनी में मोती, मांग में भरयौ सिन्दूर।


केश पीठ लहराय नागिन से, मनवा लेइ हिलोर।।


जीति बिन शस्त्र लियो।।


सत बिन तेज धर्म बिन तप के को पावे बृजभूमि।


कैसे कर्म किये कान्हा ? तैनें कारो पायो रूप।।


और तेरो कारो ही हीयो।।


कारो सबसे न्यारौ, गौरी कारो नैनन संग ।


कारे नैन, नैन मे रसिया, है गयो कारो रंग।।


नांच कारे पै कीयौ।।


बातें करत बहुत तू कान्हा, प्रगट्यौ कारी रात।


पांच-पांच हैं मैया तेरी , कितने बताओ तात ?


जन्म कुल कौन लियौ।।


टीकौ भेज सगाई करि दई, लई बुलाय बरात।


धन्य-धन्य बरसाने तौकूं? दुलहिन पूछै जात??


नीर कूं छानौ खूब पियौ।।


कौने पायो है तेरो सो गोरी रूप,मेरो तो चित चोरि लियो।।

Tuesday, August 3, 2010

मानव संसाधन प्रबंधन का आधार: शैक्षणिक विषय चयन

शैक्षणिक प्रबंधन का आधार : विषय चयन




मानव संसाधन के विकास का आधार शिक्षा है। प्रत्येक राष्ट्र अपने नागरिकों का श्रेष्ठतम विकास सुनिश्चित कर विकास के सोपानों को पार कर शिखर पर पहुंचना चाहता है। इस उद्देश्य से राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक प्रबंधन हेतु नीतियां विभिन्न आयोगों, संस्थाओं व विद्वानों के साथ विचार-विमर्श व चिन्तन-मनन करके तैयार की जाती हैं। शैक्षणिक प्रबंधन के बिना कोई राष्ट्र अपने नागरिकों का विकास नहीं कर सकता और अविकसित मानव संसाधन के साथ राष्ट्र के विकास की तो बात ही नहीं सोची जा सकती।


राष्ट्र के सन्तुलित विकास के लिए सभी विषयों के विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। प्रत्येक विषय का अपना महत्व होता है। कोई भी विषय महत्वपूर्ण या गैर महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकाता। राष्ट्रीय नीति की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, किन्तु राष्ट्र अपने नागरिकों पर विषय थोप नहीं सकता। प्रत्येक नागरिक (विद्यार्थी) की अभिरूचि, क्षमता व आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न होती हैं, जिनके अनुरूप वह अपने अध्ययन के विषय चुनता है और अपने वैयक्तिक व पारिवारिक विकास को सुनिश्चित करता है।


राष्ट्र अपनी नीतियों, आबंटित बजट व अपनी संस्थाओं के माध्यम से अपनी आवश्यकताओं के आधार पर शैक्षिक प्रबंधन की प्राथमिकताओं का निर्धारण करता है और प्राथमिकताओं के आधार पर विभिन्न वि्षयों में अध्ययन व शोधों को प्रोत्साहन देता है। वही राष्ट्र श्रेष्ठ माना जाता है, जो अपने नागरिकों को विकास के अवसर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाता है किन्तु उन्हें नागरिकों पर थोपता नहीं। अध्ययन के विषयों का चयन अन्तत: अध्येता का विशेषाधिकार है। उसमें राष्ट्र, विद्यालय, अभिभावक या शिक्षक को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हां, अपने अनुभवों व योग्यता के कारण आवश्यकता पढ़ने पर सुझाव देने की सामर्थ्य इनमें होती है। परिवार व विद्यालय को विषय चयन करने की प्रक्रिया में विद्यार्थी की सहायता करनी चाहिए किन्तु अपनी इच्छा थोपनी नहीं चाहिए। भारत में अध्ययन व कार्य की स्वतन्त्रता संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों में समाहित है। यदि किसी भी स्तर पर कोई अधिकारी अपने पूर्वाग्रहों के कारण किसी को किसी विशेष विषय लेने या विशेष कार्य को करने को मजबूर करता है तो वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।


वास्तव में शिक्षा या विद्या व्यक्ति की अन्तर्निहित प्रतिभा का उद्घाटन करती है। विद्या वही है, जिससे मनुष्य स्वयं को पहचाने। अपनी अन्तर्निहित प्रतिभा के अनुरूप अध्ययन करके ही विद्यार्थी श्रेष्ठ नागरिक के रूप में विकसित हो सकता है। विद्यार्थी को विषय चयन में जागरूक रहना चाहिए। आइंस्टीन के शब्दों में, ``स्कूल को कभी भी अपनी शिक्षा में हस्तक्षेप न करने दें।´´

विद्वान यूरिपेडीज ने भी लिखा है, ``प्रत्येक व्यक्ति सब बातों में निपुण नहीं हो सकता, प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्ट उत्कृष्टता होती है।´´ वास्तव में विद्यार्थी की इसी विशिष्ट उत्कृष्टता को निखारने की जिम्मेदारी राष्ट्र, परिवार, समाज, विद्यालय व शिक्षक की होती है। किन्तु वर्तमान समय में देखने में आता है कि विद्यार्थी की इच्छा व अभिरूचि को नज़रअन्दाज करते हुए अभिभावक विद्यार्थी पर अपनी इच्छाएं थोपते हैं, जिसके कारण उसका स्वाभाविक विकास अवरूद्ध होता है। किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में किसी की मनमर्जी लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण करती है.


जुलाई 1999 में जवाहर नवोदय विद्यालय, चंबा में मेरी वाणिज्य की कक्षा में एक प्रतिभाशाली छात्रा जागृति आई थी। विषय में उसकी अभिरूचि देखकर मुझे प्रसन्नता होती थी। मेरा विचार बन रहा था कि यह छात्रा वाणिज्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर सकती है। वह मुश्किल से पन्द्रह दिन ही पढ़ पाई होगी कि उसके पिता ने उसे विज्ञान लेने को मजबूर कर दिया जिसमें उसकी इच्छा बिल्कुल नहीं थी। वह विज्ञान की छात्रा होकर भी कई दिनों तक वाणिज्य की कक्षाएं लेती रही। उसे किसी तरह समझाकर उसकी कक्षा में भेजना पड़ा था। मुझे लगता है कि यह उसके साथ ज्यादती थी और वह उस विषय में कुछ विशेष नहीं कर पाई होगी। इसी प्रकार की घटना और भी देखने को मिली, जिसमें विद्यालय के प्राचार्य महोदय ने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर विद्यार्थियों को हिन्दी के स्थान पर शारीरिक शिक्षा व कला पढ़ने को मजबूर किया। विद्यार्थियों की असन्तुष्टि की वजह से विद्यालय का वातावरण खराब हुआ, विद्यार्थियों का अध्ययन प्रभावित हुआ और अन्तत: मानव संसाधन मन्त्रालय, राजभाषा विभाग व मुख्यालय के हस्तक्षेप के बाद विद्यार्थियों को हिन्दी विषय स्वीकृत करना पड़ा। इस तरह की घटनाएं नमूना मात्र हैं। अभी तक हमारी प्रवृत्ति लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। हम चाहते हैं कि विद्यार्थी को जैसा कहा जाय वह उसका अनुकरण करे।


वास्तविक बात यह है विशेषकर सरकारी कर्मचारी के लिए कि अधिकांश कर्मचारी आकड़े पूरे करना चाहते हैं। विद्यालयों के सन्दर्भ में बात करें तो बहुत कम शिक्षक व प्रधानाचार्य होंगे जो वास्तव में विद्यार्थी के विकास में रूचि लेते हैं। अधिकांश को विद्यालय के परीक्षा परिणाम को सुधारने की चिन्ता रहती है। सभी अपनी नौकरी को बचाने लायक कार्य ही करते दिखाई देते हैं। इस चक्कर में कई निजी विद्यालय तो नौवीं कक्षा में ही दसवीं का तथा ग्यारहवीं कक्षा में ही बारहवीं का पाठयक्रम पढ़ाने लग जाते हैं। कई बार विद्यालय अपने परिणाम को शत-प्रतिशत दिखाने के लिए विद्यार्थियों को छठा विषय अतिरिक्त लेने के लिए मजबूर करते हैं। यह सभी प्रवृत्तियां राष्ट्रीय शिक्षा नीति जिसमें विद्यार्थी को अधिकतम् स्वतन्त्रता देने की बात की जाती है के विरूद्ध है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को असफल करने में सबसे अधिक योगदान शिक्षकों का ही होता है। अभिभावकों, शिक्षकों व अधिकारियों के पूर्वाग्रह एक स्वतन्त्र नागरिक के रूप में विद्यार्थी के विकास में भी बाधक होते हैं। अन्तत: यूरिपेडीज ने जिस उत्कृष्टता की बात की है वह उत्कृष्टता दबी ही रह जाती है। जिसका कारण हमारे पूर्वाग्रह ही होते हैं।


भारत में माध्यमिक शिक्षा स्तर पर विषय विभाजन किया जाता है। इस स्तर तक आते-आते विद्यार्थी अपनी अभिरूचि के अनुरूप विषय चयन करने में सक्षम हो जाता है। यदि ऐसा नहीं भी हो पाता तो परिवार व विद्यालय को उसका मार्गदर्शन करना चाहिए किन्तु निर्णय उसी पर छोड़ देना चाहिए क्योंकि अन्तत: उसी के जीवन का मामला है। प्रत्येक व्यक्ति अपने बारे में सबसे अच्छी जानकारी रखता है। इसी प्रकार विद्यार्थी के बारे में उससे अधिक अच्छी जानकारी कौन रख सकता है\ उसकी अभिरूचि, आवश्यकताएं व उसके उद्देश्य केवल वही जानता है। अत: किन विषयों का अध्ययन करना है, कितना अध्ययन करना है? यह उसी को निर्धारित करने देना चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि जो अधिक समय तक किताबों में लगे रहते हैं वही जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे या अधिक अंक लाने वाले ही देश के श्रेष्ठतम् नागरिक सिद्ध होंगे। वि्षय चयन का विकल्प जब उपलब्ध होता है तो चयन करने का निर्णय करने का अधिकार विद्यार्थी का है। अभिभावक, विद्यालय व समाज को उसे इतना सक्षम बनाना चाहिए कि वह विवेकपूर्ण निर्णय कर सके। यही व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व के विकास का आधार है।

Friday, July 23, 2010

पहली बार एक चुटकला

टिंकू ( टेलीफ़ोन पर हेडमास्टर से) -

टिंकू आज बीमार है. वह स्कूल नहीं आयेगा.

अध्यापक-आप कौन बोल रहे हैं?

टिंकू-मैं मेरा पापा बोल रहा हूँ.

Monday, July 5, 2010

ताकि कोई जनक आकर, उसे जमीन से निकाल न सके।

क्यों लिखूं?




पढ़ना-लिखना साक्षर होने की पहचान है,


शिक्षित होने की नहीं।


साक्षर शिक्षित हो, यह आवश्यक नहीं,


निरक्षर अशिक्षित हो, यह अनिवार्य नहीं।


उच्च-डिग्रीधारी भी अशिक्षित मिल जाते हैं,


तो आज भी कबीर जगह-जगह पाये जाते हैं।


हम जानते हैं, उन्हें लिखना नहीं आता था,


और न ही कभी लिखने की कोशिश की।


वे नहीं जानते थे, पत्र-पत्रिका और ब्लॉग।






मैं लिखना जानता हूं और लिखता हूं।


लेकिन क्यों?


शायद इस भ्रम में कि


कविता, कथा और आलेख आदि


मेरे लेखन से बदल जायेगी दुनियां


ब्लॉगिंग करके कर लिया बहुत बड़ा काम


और सभी करेंगे मेरा अनुकरण


इस झूंठे अहम् में कब तक जीता रहूंगा मैं?






रचे जाते रहे हैं,


महाकाव्य, शास्त्र, पुराण और ग्रन्थ,


युगों-युगों से।


पढ़े व पढ़ाये ही नहीं,


रटे व रटाये भी जाते रहे हैं।


यही नहीं, हम करते रहते हैं, उनकी पूजा


और मन्दिर, मस्जिद और चर्चो में पारायण।






किन्तु परिवर्तन न हो सका आज तक,


सूपर्णखा की नाक आज भी काटी जा रही है


`ऑनर किलिंग´ के नाम पर भरी पंचायत में ही


मारा जा रहा है, सूपर्णखा को ही नहीं, उसके प्रेमियों को भी।


सीता की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं आया है,


जमीन में दफनाई गई, जनक द्वारा निकाली गई,


शादी के बाद पति के साथ वनवास,


राज्यारोहण के बाद, पति के द्वारा वनवास


आखिर पृथ्वी से निकली थी, पृथ्वी में समाई


हम करते रहते हैं, पूजा किन्तु आज सीता,


गर्भ में ही जाती हैं गिराई।


विज्ञान का कमाल है, पढ़ने-लिखने का चमत्कार है


भ्रूण में ही जानकर, नष्ट कर सकते हैं,


जन्म देकर दफनाने की मजबूरी नहीं,


ताकि कोई जनक आकर, उसे जमीन से निकाल न सके।






प्रेमचन्द का होरी और गोबर,


आज भी वहीं है, महंगाई की मार से


आत्महत्या करने को मजबूर है।


रावण और कंस को बनाकर खलनायक,


लिखते रहें ग्रन्थ, कमाते रहें नाम और यश


जलाते रहें रावणों के असंख्यों पुतले हर वर्ष,


किन्तु राज आज भी रावण कर रहा है,


पुतलों के दहन का आयोजन भी वह स्वयं कर रहा है,


ताकि लोग पुतले को जलता देख मान ले रावण का अन्त,


और उसे पहचान न सके और अक्षुण्य रहे उसकी सत्ता


उसकी इच्छा के विरूद्ध हिलता नहीं पत्ता,


राष्ट्र को आतंक व रिश्वत से चूना लगाने वाला ही


आज जगह-जगह तिरंगा फहरा रहा है


और जन-गण-मन बूंदी के दो लड्डू खाकर खुश है


ताली बजा रहा है।






क्यों लिखूं?


मेरी समझ नहीं आता।


युगों-युगों के लेखन से भरे हैं ग्रन्थागार,


सीताओं के अपहरण, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या का ग्राफ,


निरन्तर ऊपर चढ़कर रावण और कंस के अस्तित्व को,


प्रमाणित कर रहा है।


दहेज के विरूद्ध लिखने वाला,


दहेज हत्या कर रहा है।


हनुमान विकास की चमक में फ़ंस,


चेटिंग और ब्लोगिंग कर रहा है.


क्यों लिखूं?


लिखने की बजाय यदि,


बचा सकूं, एक सीता को अपहरण होने से,


बचा सकूं एक गीता को भ्रूण में नष्ट होने से,


सूपर्णखां को बचा सकूं ऑनर किलिंग से,


दहेज-हत्या रोक सकूं, सिर्फ एक ही,


शिक्षित कर सकूं एक बच्चा और


लगा सकूं एक पौधा,


तो क्या कविता लिखने और छपने से


बेहतर नहीं होगा.


नहीं मिलेगीं, ब्लॉग पर टिप्पणी,


नहीं आयेगा पत्र-पत्रिकाओं में नाम।


किन्तु आत्म सन्तुष्टि भी कोई चीज होती है।

Monday, June 7, 2010

धनी हो के जायेंगे

धनी हो के जायेंगे











आये न जाने कितने, टिकट कटाए बिना


सोच-विचार कर, बच कर ही जाएंगे


जीवन गाड़ी लम्बी है, चैकर होगा एक ही


कितना भी ढूढ़ेगा नहीं हाथ आएंगे






भूल से भी यदि हम, नज़र में आ गए


डालकर उसे घास, साफ निकल जाएंगे


घास से न यदि हम, मना पाये उसको


मन्दिर में जाकर, माखन-मिश्री चढ़ाएंगे






नवागन्तुकों से कहें, आओ हमारे पास


गाड़ी में आरक्षण, हम दिलवाएंगे


टिकट वालों को कहें दूसरों में जायें आप


अधिकार हमारा, आप जाने नहीं पाएंगे






खड़े हो गेट पर, बन सेवक जनता के


भरी थी जिनकी जेब, खाली ले के जाएंगे


टिकट खरीदने को, न था धेला इनके पास


`राष्ट्रप्रेमी´ मेवा से धनी हो के जाएंगे

Monday, May 17, 2010

आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट

मेरे एक भूत-पूर्व छात्र अमित चोधरी ने ऑरकुट प्रोफाइल पर मेरे लिए एक कविता लिखी है . अमित को धन्यवाद व शुभकामनाओं के साथ इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.
प्रस्तुत है अमित चोधरी की कविता



सफेदपोश शैतान


शरीर से रक्त

 
बहता है पसीना बनकर

 
कांटों को बुनती हुई

 
हथेलियां लहुलहान हो गयीं


अपनी मेहनत से पेट भरने वाले ही


रोटी खाते बाद में

 
पहले खजाना भर जाते हैं।

सीना तानकर चलते



आंखों में लिये कुटिल मुस्कराहट लेकर


लिया है जिम्मा जमाने का भला करने का


वही सफेदपोश शैतान उसे लूट जाते हैं।


4u sir

Tuesday, May 11, 2010

मेरे साथ हैं, मेरी मां सा

मेरे साथ हैं, मेरी मां सा




अज्ञान के क्षण

असहायता के पल

अज्ञात पथ

लड़खड़ाते पद

लांघी फिर भी हद

बढ़ता रहा कद

चूमा था माथ

मां थी मेरे साथ।



अंजाना शहर

तपती दोपहर

तन्हाई का कहर

बीते वो पहर

मां की थी महर।



पल-पल शिक्षा

कदम-कदम परीक्षा

उड़ने की इच्छा

लेनी नहीं भिक्षा

मां ने दी दीक्षा।



मर गईं सारी इच्छा

देनी नहीं परीक्षा

नहीं रही चाह

निकलती न आह

नहीं किसी की परवाह

नहीं किसी से आशा

कहां मिलेगी निराशा



आयेगी नहीं हताशा

मेरे साथ हैं, मेरी मां सा।





मौत से भी टकराऊं

कर्तव्य पथ पर मारा जाऊं

अपनी मेहनत का ही खाऊं

सच के गीत गाऊं

नहीं कभी ललचाऊं

न मोह में बांधा जाऊं

दु:ख में भी हरषाऊं

मां का आशीष पाऊं।

Tuesday, May 4, 2010

सरकारी सज्जनता?

                                    सरकारी सज्जनता?

उसने  अपने मित्र को अपने एक अधिकारी की सज्जनता का बखान करते हुए कहा, "बड़े ही सज्जन पुरुष हैं."   मैंने अपने जीवनमें इतने सज्जन अधिकारी दूसरे नहीं देखे.

मित्र ने उत्सुकता से उनकी ओर देखा तो उन्होंने बात आगे बढ़ाई. उनके समय में हम अपनी इच्छानुसार काम करते थे. जब काम में मन न लगता बाहर निकल जाते. याद नहीं आता कभी सुबह कार्यालय के लिए देर से आने पर भी उन्होंने कभी डांट लगाई हो.
एक बार मोहन के पिताजी बीमार पढ़ गए और मोहन १८ दिन घर रहा, वापस आने पर उससे हस्ताक्षर करवा लिए, बेचारे की १८ दिन की छुट्टी बच गईं.
एक बार सद्यः ब्याहता महिला कर्मचारी के पति पहली बार उससे मिलने आये तो न केवल उस महिला को अपने पति के साथ दो दिन घूमने के लिए भेज दिया, वरन सरकारी गाड़ी भी उनके साथ भेज दी ताकि वे एन्जॉय कर सकें. 
उनका मित्र सरकारी सज्जन की सरकारी सज्जनता की कहानी सुनकर गदगद हो गया और उसके मुह से निकला काश! ऐसे सज्जन अधिकारी के अधीन कार्य करने का मौक़ा मिलता.

Tuesday, April 27, 2010

चोर-चोर मौसेरे भाई

चोर-चोर मौसेरे भाई,

मिलकर सारे करें कमाई.

ईमानदार की करें कुटाई,

हम भी इनमें फंस गए भाई. 
हसंते सारे   लोग-लुगाई.
चोर-चोर   मौसेरे भाई.

भ्रष्टाचार की कैसी लीला?
लेने को सबका कुरता ढीला.
रिश्वत की महिमा तो देखो,
खाई को दिखला दे टीला.
ईमान की देखो यहाँ हंसाई.
चोर-चोर मौसेरे भाई.

बेईमान की सुविधा के हित,
ईमानदार भी हो जाए चित.
सुविधा-शुल्क की महिमा न्यारी,
देते हैं जो, पाते वो नित.
बेईमानी सबको है भाई.
चोर-चोर मौसेरे भाई

लेने को ललचाते हैं सब,
देने में ही याद आये रब.
लेन-देन जब दोनों भायें,
समृद्धि पाता नर-पशु तब.
विरुदावली सबने हैं गाईं.
चोर-चोर मौसेरे भाई.

ईमानदार की सनद मिली है,
रिश्वत भाई देनी पड़ी है.
बेईमानी ही हुई भलाई.
चोर-चोर मौसेरे भाई

एक दिन हमने चोर को पकड़ा,
हम थे छोटे, चोर था तगड़ा.
उसने हम पर दावा ठोका,
हमने उससे किया क्यों झगड़ा?
अफसर  ने हमारी करी कुटाई,
चोर-चोर मौसेरे भाई.

सच का आज दुश्मन है ज़माना,
झूंठ से मिलता उसे खजाना.
बाजार में गवाह हैं बिकते,
ईमानदार को पड़े लजाना.
सच अस्तित्व की लड़े लड़ाई.
चोर-चोर मौसेरे भाई.

Monday, April 19, 2010

नवीन पता-

नवीन पता-
डा. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी
जवाहर नवोदय विद्यालय
खुंगा-कोठी, जींद -१२६१०२
हरियाणा 

Sunday, April 11, 2010

नारी , NAARI: माँ तुझे सलाम....

नारी , NAARI: माँ तुझे सलाम....

नारी , NAARI: न दैन्यम न पलायनम : फ़िरदौस ख़ान

नारी , NAARI: न दैन्यम न पलायनम : फ़िरदौस ख़ान

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

Thursday, April 8, 2010

निलंबन पर गर्व

मित्रो नमस्कार
काफी समय से ब्लॉग के माध्यम से संपर्क नहीं रख पा रहा हूँ . अत: क्षमा चाहता हूँ. अभी में out of station तो नहीं without station हूँ.
एक स्थान पा जाने के बाद पुन: संपर्क होगा ऐसी आशा है. फिलहाल मैं ईमानदारी के कारण निलंबन का आनंद उठा रहा हूँ और इस पर मुझे गर्व है.

Sunday, February 28, 2010

अबीर गुलाल उड़ाता आ रहा है फागुन

नचा रहा है फागुन




अबीर गुलाल उड़ाता आ रहा है फागुन


कितना प्यारा बसन्त ला रहा है फागुन


बाग बगीचे वाटिकाएं सभी लगते हैं रंगीले


जमीन पर आसमान पर छा रहा है फागुन






चहुं ओर है प्यार पावन होली के आने पर


उर-उर के तार झनका रहा है फागुन


नृत्य करती प्रकृति झूम कर चहुं ओर


गांव-गांव, जंगल-जंगल छा रहा है फागुन






कोयल करती शोर ,कैसा? नांच रहा है मोर


बाल-युवा-वृद्ध सबको, नचा रहा है फागुन


रंगो में हैं मस्त, बाल किशोर युवा और प्रौढ़,


कण-कण में अमृत रस झलका रहा है फागुन।

सबको ही बाटें मुस्कानें

नयी प्रेरणा






फागुन है ऐसा मुस्काता


ज्यों कलियों में जीवन।


घर-घर सूरज है खिलता,


आंगन में सजता उपवन।






द्वार-द्वार है खुशी खेलती,


बाल वृद्ध सब हैं उत्साही।


कैसे घोल सकेगा कोई ,


इस उत्सव में स्याही।






लेकर नव संकल्प बढे़ हम,


नयी प्रेरणा होली से।


सबको ही बाटें मुस्कानें,


नहीं डरें हम गोली से।

Thursday, February 25, 2010

गले तो लगालो रे




राग द्वेष  के तेल से, दीप जलाने वालो !


ईर्ष्या  द्वेष की होली को जलाओ रे !


मत भूलो समानता भाई चारे को,


ठुकराये हुओं को गले तो लगाओ रे !


ईर्ष्या, द्वेष, असमानता से लाभ उठाने वालो,


कुछ रंग जीवन के, इनको भी दिखलाओ रे!


नहीं झेल पाओगे तुम, किंचित भी,


मत विद्रोह की आग, ह्रदय में  जलाओ रे!


उगते हुए सूरज को, नमस्कार करने वालो!


अस्त होते सूरजों को भी, पथ दिखलाओ रे!


प्रेम, स्नेह के भाषण  ही न देते रहो,


रंग में समरसता के, डुबकी लगाओ रे!


दुर्व्यवस्था फैला के, लाभ उठाने वालो!


समाज में सुव्यवस्था भी, तुम अब लाओ रे!


स्वार्थ को ही तुमने अब तक पाला पोसा,


उसकी अब होली भी, तुम ही जलाओ रे!
लुभाती होली




मन को खूब लुभाती होली


रंग बरसाती आती होली


गली-गली मड़राती होली


सबको गले मिलाती होली।


पेड़े बरफी और रसगुल्ले


पूड़ी कचौड़ी और हैं भल्ले


मिठाईयों के लगते गल्ले


सबको खूब हंसाती होली।


मम्मी-पापा भैया-भाभी


सबको खूब खिलाती होली


सबको अपने रंग में रंगकर


कितनी है इठलाती होली।

Monday, February 8, 2010

हलन्त



                      डॉ.सन्तोष  गौड़ राष्ट्रप्रेमी



कैसे?


मनाऊं बसन्त


विदेश में कन्त


न वियोग का अन्त


न जाने कहां?


भटकते होंगे पिया


जबसे हुए हैं सन्त


अधूरी हूं मैं


लगा है हलन्त!

Saturday, February 6, 2010

दस्तक



                            डॉ.सन्तोष  गौड़ राष्ट्रप्रेमी





फटे हुए चिथड़े


पहनकर


बीती है सर्दी


आंसुओं की धार पीकर


बीती है सर्दी
पिया के सपने


लेकर


बीती है सर्दी
लम्बी काली रातें


जागकर


बीती है सर्दी
कम्पन,ठिठुरन,


जकड़न में


बीती है सर्दी
न लौटे कन्त


बड़े बेदर्दी


दस्तक दे ले बसन्त


समझ गई मैं


सर्दी का हुआ अन्त


किन्तु दरवाजा न खुलेगा


जब तक


आयेंगे न मेरे कन्त!

Friday, February 5, 2010

बेशर्म बसन्त



                      डॉ.सन्तोष  गौड़ राष्ट्रप्रेमी





बेशर्म बसन्त,


फिर आ गया तू


अकेला


क्या?


भूल गया


मैंने कितनी बार


लौटाया है तुझे


इस दरवाजे से


कितनी बार?


बताया है तुझे


घर पर नहीं हैं पिया,


अकेले,


किसी के स्वागत को,


करता न मेरा जिया


लगता है डर,


कांपता है दिल,


रोजगार की खातिर


परदेश में हैं कन्त


मेरे दुखों का है न अन्त


यदि,


चाहता है तू


मुझे सुख पहुंचाना


पिया को साथ लेकर,


मेरे घर आना।

Monday, January 25, 2010

प्रकृति छटा को देख खुशी से

कण-कण कहे






प्रकृति छटा को देख खुशी से,


मन मयूर है हरषाया।


मलयागिरि की पवन चले जब,


कण-कण कहे बसन्त आया।






अब तो भूल गये हैं सब ही,


सर्दी   ने जो कहर ढाया।


प्रिया भूली गत वियोग को,


प्रियतम उसका घर आया।






हर्षित  कैसी होती हैं अब,


मोटी-पतली सब काया।


हर मानव है मुदित हो रहा,


लाया कैसी है माया।






लता-लता अब फूल उठी है,


आम्र वृक्ष भी बौराया।


कौये की तो चौंच मढ़ गई,


कोयल ने गाना गाया।



कैसा बसन्त?






कोयल की ये मधुर मल्हारें,

उसको लगतीं करुण पुकारें,

सबसे यही मनोती मॉगे,

प्रियतम आकर उसे दुलारें।



इन्द्रधनुष की सभी छटाएं,

उसको अंगारे बरसाएं,

कैसा बसन्त वह क्या जाने,

निशा वियोग की जिसे सताएं।



काक तू वैरी रोज पुकारे,

प्रियतम कौ सन्देश सुना रे,

मुझ विरहनि को धीर बधा के,

अपनी बिगड़ी जात बना रे।