नया वर्ष आपको, आपके परिवार को, समाज, राष्ट्र व विश्व को मंगलमय हो!
शुभ हो आपको, परिवार, राष्ट्र, विश्व को।
"मुझे संसार से मधुर व्यवहार करने का समय नहीं है, मधुर बनने का प्रत्येक प्रयत्न मुझे कपटी बनाता है." -विवेकानन्द
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!
मैंने समझकर अपना,
अपनत्व के कारण,
की तुम्हारी सेवा,
तुमको खिलाई मेवा,
स्वयं सोकर भूखे पेट,
सावन हो या जेठ,
तुमने की अर्जित शक्ति
मैं करती रही तुम्हारी भक्ति।
मैंने किया प्रेम से समर्पण
सौंपा तन-मन-धन,
तुम बन बैठे मालिक,
मुझे घर में कैद कर,
पकड़ा दिया दर्पण,
मैं सज-धज कर,
करती रही तुम्हारी प्रतीक्षा
तुमने पूरी की,
केवल अपनी इच्छा।
मैंने ही दी तुमको शिक्षा,
सहारा देकर बढ़ाया आगे
तुम फिर भी धोखा दे भागे,
कदम-कदम पर दिया धोखा,
शोषण करने का,
नहीं गवांया कोई मौका।
मैंने साथ दिया कदम-कदम पर,
अपने प्राण देकर भी,
बचाये तुम्हारे प्राण,
तुमने उसे मानकर मेरा आदर्श,
सती प्रथा थोप दी मुझ पर ।
बना लिया मुझको दासी,
वर्जित कर दी मेरे लिए काशी।
लगाते रहे कलंक पर कलंक,
तुम राजा रहे हो या रंक।
दिया निर्वासन दे न पाये आसन।
स्वयं विराजे सिंहासन।
मुझे छोड़ जंगल में,
चलाया शासन।
दिखावा करने को दिया आदर,
पल-पल दी घुटन,
पल-पल किया निरादर।
नर्क का द्वार कहकर,
घृणित बताया।
शुभ कर्मो से किया वंचित,
भोजन,शिक्षा ,स्वास्थ्य,
संपत्ति व मानव अधिकार,
छीन लिया मेरा, सब कुछ संचित।
पैतृक विरासत तुम्हारी,
मैं भटकी दहेज की मारी,
छीन लिया जन्म का अधिकार,
भ्रूण हत्या कर,
छू लिया,
विज्ञान का आकाश।
क्या सोचा है कभी?
मेरे बिन,
बचा पाओगे जमीं?
तड़पायेगी नहीं मेरी कमी?
मेरे बिन जी पाओगे?
अपना अस्तित्व बचाओगे?
हृदय-हीन होकर
कब तक रह पाओगे?
तुम्हारी ही खातिर,
जागना होगा मुझको,
तुम्हारी ही खातिर,
अर्जित करनी होगी शक्ति,
तुम्हें विध्वंस से बचाने की खातिर,
शिक्षा-धन-शक्ति से,
बनूंगी सशक्त!
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!
अक्टूम्बर में , मैं नवोदय नेतृत्व संस्थान में व्यक्तिव विकास कार्यक्रम में भाग लेने गौतम बुद्ध नगर , उत्तर प्रदेश गया था । वहाँ संस्थान में हमें रॉल मॉडल पर लिखने के लिए कहा गया। काफी विचार के बाद मुझे लगा वास्तव में कोई एक व्यक्ति किसी के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता । प्रस्तुत हैं , इस विषय पर वहाँ लिखे विचार।
अपना रॉल मॉडल- मैं स्वयं
व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यनत अनगिनत व्यक्तियों व प्राकृतिक उपादानों के सम्पर्क में आता है। हम असंख्यों व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं तथा असंख्यों व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं( यही नहीं प्रकृति के प्रत्येक उपादान को प्रभावित करते हैं और प्रत्येक उपादान से प्रभावित होते हैं। व्यक्ति इस समिष्ट का ही अंग है। अत: उसकी प्रत्येक प्रक्रिया से सम्पूर्ण सृिष्ट प्रभावित होती है। किन्तु दूसरा पहलू भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विलक्षण (unique) व भिन्न है। हम किसी भी व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके जीवन के अनुरूप अपने जीवन को नहीं बना सकते, न ही किसी व्यक्ति के समस्त गुणों को आत्मसात कर सकते हैं। अवगुणों को आत्मसात करना तो कोई भी नहीं चाहेगा।
यह एक स्थापित सत्य है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण होने की ओर अग्रसर होना चाहता है। अत: किसी भी महान से महान व्यक्ति के नकारात्मक पक्ष को कोई भी विवेकशील व्यक्ति अपनाना नहीं चाहेगा अर्थात हम किसी भी व्यक्ति की शत-प्रतिशत नकल करना नहीं चाहेंगे और न ही ऐसा संभव है। वास्तविकता यही है कि रॉल मॉडल की अवधारणा ही काल्पनिक है। कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता। हम किसी भी व्यक्ति के समान जीना नहीं चाहेंगे। मेरा मानना है कि हमें अपने व्यक्तित्व का विकास अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं व समाज की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। कोई भी एक व्यक्ति मेरे लिए आदर्श की भूमिका में नहीं हो सकता। मैं अनेक व्यक्तियों से प्रभावित हुआ हू¡, अनेक व्यक्तियों से मार्गदर्शन प्राप्त करता हूँ करता रहूँगा किन्तु किसी भी व्यक्ति की नकल करना नहीं चाहू¡गा। मैं अपने आपको किसी अन्य व्यक्ति की तरह नहीं वरन अपने आप के रूप में ही विकसित करने के प्रयत्न करूंगा ।
हाँ, जिन लोगों से मैंने सीखा, सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ । सभी को याद रखना संभव भी नहीं हो पाता कदम-कदम पर सीख-सीख कर ही तो व्यक्ति आगे बढ़ता है। कई बार हम जानते ही नहीं कि किससे क्या सीखा और अनजाने ही आत्मसात कर लिया। वस्तुत: व्यक्ति नहीं विचार और विचार से भी आचरण महत्वपूर्ण होता है। इस सन्दर्भ में धर्मराज युधिष्ठर का प्रसंग महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। युधिष्ठर को पहला पाठ पढ़ाया गया, क्रोध न करें। युधिष्ठर उसे आत्मसात करने का प्रयत्न करते रहे। सभी विद्यार्थी आगे बढ़ गये। उन्हें द्रोणाचार्य के पास ले जाया गया। उन्होंने युधिष्ठर को पूछा, `युधिष्ठर! तुम सात दिन में पहले पाठ से आगे ही नहीं बढे़, जबकि तुम्हारे भाई आगे के कई पाठों का भी अभ्यास कर चुके हैं।´
विनम्रता के साथ युधिष्ठर ने निवेदन किया, ``गुरूदेव! मैं जब तक पहले पाठ को पूर्णत: आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक आगे कैसे बढ़ू?´´ गुरू जी ने कठोर वचन भी कहे किन्तु उनके चेहरे पर किसी भी प्रकार के क्रोध के अवशेष न थे। वे पहले पाठ को आत्मसात कर आचरण में उतार चुके थे। गुरूदेव अपने विलक्षण िशष्य को निहारते रह गये।
श्री कृष्ण, जिनको रसराज, पूर्णावतार व प्रेम का देवता माना जाता है, बचपन से ही क्या? जन्म से ही संघर्षों से पाला पड़ा। जन्म ही संघर्ष करने को हुआ। संघर्ष करते हुए भी सभी को प्रेम लुटाया। सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। उन्हें सभी चाहते हैं किन्तु वे सभी से प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते हैं। सभी को आनंदित देखना चाहते हैं किन्तु किसी से कोई आकांक्षा नहीं है। किसी से किसी प्रकार का मोह नहीं है। सभी के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, आवश्यकता पड़ने पर किसी से भी अलग होने का निर्णय करने में तनिक भी विलंब नहीं, किसी प्रकार का लगाव नहीं, सभी का हित चिन्तन करते हैं। सभी को सुखी देखना चाहते हैं। न, केवल चाहते हैं वरन् इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं। यही तो सार्वभौमिक प्रेम है।
मेरी माताजी प्रति पल सक्रिय रहती हैं। हम नहीं चाहते, वे इस उम्र में इतना काम करें। किन्तु वे काम करने के किसी भी अवसर को हाथ से जाने ही नहीं देतीं। मैंने उनसे कहा, ``हम लोग प्रत्येक कार्य करने के लिए तैयार हैं, फिर भी आप परेशान क्यों होती हैं? जो भी काम है हमें बताइये। हम करेंगे। आप बैठकर केवल निर्देश दें।´´
माताजी ने मुझे समझाया,``काम करना शरीर की आवश्यकता है। काम करना बन्द कर देने पर शरीर जाम हो जाता है। यदि मैं काम करना बन्द कर दू¡गी तो तेरे पिताजी की तरह मोटी हो जाऊ¡गी, चलना-फिरना दूभर हो जायेगा।´´
निरक्षर होने के बाबजूद मेरी माताजी ने जीवन का सार किस प्रकार मुझे बताया( मैं आश्चर्य से उन्हें देखता ही रह गया। उन्होंने निरन्तर सक्रियता को जिस प्रकार अपने आचरण में आत्मसात किया उसे आत्मसात कर सकू¡, यही उनके प्रति सच्चा सम्मान होगा।
संदर्भित उद्धरण केवल उदाहरण मात्र हैं। वस्तुत: व्यक्तित्व के विकास में असंख्यों जाने-अनजाने व्यक्तियों की प्रेरणा कार्य करती है, तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है किसी की नकल नहीं। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता, जिसकी भूमिका का निर्वाह हम अपने जीवन में कर सकें अर्थात कोई भी हमारा रॉल माडल नहीं होता। हम स्वयं में अपनी ही भूमिका का निर्वाह करते हैं और स्वयं में अपने रॉल माडल हैं। हम किसी के भी व्यक्तित्व को अपने आप पर आरोपित नहीं कर सकते। क्योंकि हम स्वयं ही मौलिक हैं।
लुब्धानां याचकः शत्रुमूर्खाणां बोधकः रिपुः। जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चोराणां चन्द्रमा रिपुः॥६॥ मनुस्मृति दशवा अध्याय अर्थात- लोभी व्...
"स्वतन्त्र भारत में नारी को मिले वैधानिक अधिकारों की कमी नहीं- अधिकार ही अधिकार मिले हैं, परन्तु कितनी नारियां हैं जो अपने अधिकारों का सुख भोग पाती हैं? आप अपने कर्तव्यों के बल पर अधिकार अर्जित कीजिए। कर्तव्य और अधिकार दोनों का सदुपयोग कर आप व्यक्ति बन सकती हैं। आपको अपने कर्तव्यों का भान है तो कोई पुरुष आपको भोग्या नहीं बना सकता-व्यक्ति मानकर सम्मान ही करेगा। इसी तरह आने वाली पीढ़ी आपकी ऋणी रहेगी।"