Tuesday, December 16, 2008

फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!


मैंने समझकर अपना,

अपनत्व के कारण,

की तुम्हारी सेवा,

तुमको खिलाई मेवा,

स्वयं सोकर भूखे पेट,

सावन हो या जेठ,

तुमने की अर्जित शक्ति

मैं करती रही तुम्हारी भक्ति।


मैंने किया प्रेम से समर्पण

सौंपा तन-मन-धन,

तुम बन बैठे मालिक,

मुझे घर में कैद कर,

पकड़ा दिया दर्पण,

मैं सज-धज कर,

करती रही तुम्हारी प्रतीक्षा

तुमने पूरी की,

केवल अपनी इच्छा।


मैंने ही दी तुमको शिक्षा,

सहारा देकर बढ़ाया आगे

तुम फिर भी धोखा दे भागे,

कदम-कदम पर दिया धोखा,

शोषण करने का,

नहीं गवांया कोई मौका।


मैंने साथ दिया कदम-कदम पर,

अपने प्राण देकर भी,

बचाये तुम्हारे प्राण,

तुमने उसे मानकर मेरा आदर्श,

सती प्रथा थोप दी मुझ पर ।

बना लिया मुझको दासी,

वर्जित कर दी मेरे लिए काशी।

लगाते रहे कलंक पर कलंक,

तुम राजा रहे हो या रंक।

दिया निर्वासन दे न पाये आसन।

स्वयं विराजे सिंहासन।

मुझे छोड़ जंगल में,

चलाया शासन।


दिखावा करने को दिया आदर,

पल-पल दी घुटन,

पल-पल किया निरादर।

नर्क का द्वार कहकर,

घृणित बताया।

शुभ कर्मो से किया वंचित,

भोजन,शिक्षा ,स्वास्थ्य,

संपत्ति व मानव अधिकार,

छीन लिया मेरा, सब कुछ संचित।

पैतृक विरासत तुम्हारी,

मैं भटकी दहेज की मारी,

छीन लिया जन्म का अधिकार,

भ्रूण हत्या कर,

छू लिया,

विज्ञान का आकाश।


क्या सोचा है कभी?

मेरे बिन,

बचा पाओगे जमीं?

तड़पायेगी नहीं मेरी कमी?

मेरे बिन जी पाओगे?

अपना अस्तित्व बचाओगे?

हृदय-हीन होकर

कब तक रह पाओगे?


तुम्हारी ही खातिर,

जागना होगा मुझको,

तुम्हारी ही खातिर,

अर्जित करनी होगी शक्ति,

तुम्हें विध्वंस से बचाने की खातिर,

शिक्षा-धन-शक्ति से,

बनूंगी सशक्त!

फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!

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