Monday, December 8, 2008

अपना रॉल मॉडल- मैं स्वयं

अक्टूम्बर में , मैं नवोदय नेतृत्व संस्थान में व्यक्तिव विकास कार्यक्रम में भाग लेने गौतम बुद्ध नगर , उत्तर प्रदेश गया था । वहाँ संस्थान में हमें रॉल मॉडल पर लिखने के लिए कहा गया। काफी विचार के बाद मुझे लगा वास्तव में कोई एक व्यक्ति किसी के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता । प्रस्तुत हैं , इस विषय पर वहाँ लिखे विचार।

अपना रॉल मॉडल- मैं स्वयं

व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्युपर्यनत अनगिनत व्यक्तियों व प्राकृतिक उपादानों के सम्पर्क में आता है। हम असंख्यों व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं तथा असंख्यों व्यक्तियों से प्रभावित होते हैं( यही नहीं प्रकृति के प्रत्येक उपादान को प्रभावित करते हैं और प्रत्येक उपादान से प्रभावित होते हैं। व्यक्ति इस समिष्ट का ही अंग है। अत: उसकी प्रत्येक प्रक्रिया से सम्पूर्ण सृिष्ट प्रभावित होती है। किन्तु दूसरा पहलू भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विलक्षण (unique) व भिन्न है। हम किसी भी व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके जीवन के अनुरूप अपने जीवन को नहीं बना सकते, न ही किसी व्यक्ति के समस्त गुणों को आत्मसात कर सकते हैं। अवगुणों को आत्मसात करना तो कोई भी नहीं चाहेगा।

यह एक स्थापित सत्य है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण होने की ओर अग्रसर होना चाहता है। अत: किसी भी महान से महान व्यक्ति के नकारात्मक पक्ष को कोई भी विवेकशील व्यक्ति अपनाना नहीं चाहेगा अर्थात हम किसी भी व्यक्ति की शत-प्रतिशत नकल करना नहीं चाहेंगे और न ही ऐसा संभव है। वास्तविकता यही है कि रॉल मॉडल की अवधारणा ही काल्पनिक है। कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के लिए रॉल मॉडल नहीं हो सकता। हम किसी भी व्यक्ति के समान जीना नहीं चाहेंगे। मेरा मानना है कि हमें अपने व्यक्तित्व का विकास अपनी प्राथमिकताओं, क्षमताओं व समाज की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। कोई भी एक व्यक्ति मेरे लिए आदर्श की भूमिका में नहीं हो सकता। मैं अनेक व्यक्तियों से प्रभावित हुआ हू¡, अनेक व्यक्तियों से मार्गदर्शन प्राप्त करता हूँ करता रहूँगा किन्तु किसी भी व्यक्ति की नकल करना नहीं चाहू¡गा। मैं अपने आपको किसी अन्य व्यक्ति की तरह नहीं वरन अपने आप के रूप में ही विकसित करने के प्रयत्न करूंगा ।

हाँ, जिन लोगों से मैंने सीखा, सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ । सभी को याद रखना संभव भी नहीं हो पाता कदम-कदम पर सीख-सीख कर ही तो व्यक्ति आगे बढ़ता है। कई बार हम जानते ही नहीं कि किससे क्या सीखा और अनजाने ही आत्मसात कर लिया। वस्तुत: व्यक्ति नहीं विचार और विचार से भी आचरण महत्वपूर्ण होता है। इस सन्दर्भ में धर्मराज युधिष्ठर का प्रसंग महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। युधिष्ठर को पहला पाठ पढ़ाया गया, क्रोध न करें। युधिष्ठर उसे आत्मसात करने का प्रयत्न करते रहे। सभी विद्यार्थी आगे बढ़ गये। उन्हें द्रोणाचार्य के पास ले जाया गया। उन्होंने युधिष्ठर को पूछा, `युधिष्ठर! तुम सात दिन में पहले पाठ से आगे ही नहीं बढे़, जबकि तुम्हारे भाई आगे के कई पाठों का भी अभ्यास कर चुके हैं।´

विनम्रता के साथ युधिष्ठर ने निवेदन किया, ``गुरूदेव! मैं जब तक पहले पाठ को पूर्णत: आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक आगे कैसे बढ़ू?´´ गुरू जी ने कठोर वचन भी कहे किन्तु उनके चेहरे पर किसी भी प्रकार के क्रोध के अवशेष न थे। वे पहले पाठ को आत्मसात कर आचरण में उतार चुके थे। गुरूदेव अपने विलक्षण िशष्य को निहारते रह गये।

श्री कृष्ण, जिनको रसराज, पूर्णावतार व प्रेम का देवता माना जाता है, बचपन से ही क्या? जन्म से ही संघर्षों से पाला पड़ा। जन्म ही संघर्ष करने को हुआ। संघर्ष करते हुए भी सभी को प्रेम लुटाया। सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। उन्हें सभी चाहते हैं किन्तु वे सभी से प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते हैं। सभी को आनंदित देखना चाहते हैं किन्तु किसी से कोई आकांक्षा नहीं है। किसी से किसी प्रकार का मोह नहीं है। सभी के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, आवश्यकता पड़ने पर किसी से भी अलग होने का निर्णय करने में तनिक भी विलंब नहीं, किसी प्रकार का लगाव नहीं, सभी का हित चिन्तन करते हैं। सभी को सुखी देखना चाहते हैं। न, केवल चाहते हैं वरन् इसके लिए प्रयत्न भी करते हैं। यही तो सार्वभौमिक प्रेम है।

मेरी माताजी प्रति पल सक्रिय रहती हैं। हम नहीं चाहते, वे इस उम्र में इतना काम करें। किन्तु वे काम करने के किसी भी अवसर को हाथ से जाने ही नहीं देतीं। मैंने उनसे कहा, ``हम लोग प्रत्येक कार्य करने के लिए तैयार हैं, फिर भी आप परेशान क्यों होती हैं? जो भी काम है हमें बताइये। हम करेंगे। आप बैठकर केवल निर्देश दें।´´

माताजी ने मुझे समझाया,``काम करना शरीर की आवश्यकता है। काम करना बन्द कर देने पर शरीर जाम हो जाता है। यदि मैं काम करना बन्द कर दू¡गी तो तेरे पिताजी की तरह मोटी हो जाऊ¡गी, चलना-फिरना दूभर हो जायेगा।´´

निरक्षर होने के बाबजूद मेरी माताजी ने जीवन का सार किस प्रकार मुझे बताया( मैं आश्चर्य से उन्हें देखता ही रह गया। उन्होंने निरन्तर सक्रियता को जिस प्रकार अपने आचरण में आत्मसात किया उसे आत्मसात कर सकू¡, यही उनके प्रति सच्चा सम्मान होगा।

संदर्भित उद्धरण केवल उदाहरण मात्र हैं। वस्तुत: व्यक्तित्व के विकास में असंख्यों जाने-अनजाने व्यक्तियों की प्रेरणा कार्य करती है, तथापि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में मौलिक होता है किसी की नकल नहीं। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता, जिसकी भूमिका का निर्वाह हम अपने जीवन में कर सकें अर्थात कोई भी हमारा रॉल माडल नहीं होता। हम स्वयं में अपनी ही भूमिका का निर्वाह करते हैं और स्वयं में अपने रॉल माडल हैं। हम किसी के भी व्यक्तित्व को अपने आप पर आरोपित नहीं कर सकते। क्योंकि हम स्वयं ही मौलिक हैं।

1 comment:

  1. काफी समय के बाद आ पाया, क्षमा प्रार्थी हूँ ! बहुत बढ़िया लेख, आनंद आ गया !

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