Saturday, September 20, 2008

वैयक्तिक स्वतंत्रतावाद आतंकवाद से भी अधिक खतरनाक - परिवार बचाओ आन्दोलन की महती आवश्यकता

आधुनिकता और समानता तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता की मांग व संघर्ष के कारण परिवार जैसी महत्वपूर्ण संस्था कमजोर होती जा रही है और परिवार के बिना, न नर सुखी रह सकता है और न नारी, इसी विषय पर जोधपुर से प्रकाशित विवेकानन्द केन्द्र की पत्रिका केन्द्र भारती के सितम्बर अंक में प्रकाशित संगीता सोमण का आलेख परिवार बचाओ साभार यहां दिया जा रहा है। संगीता जी का आलेख वर्तमान सन्दर्भ में ऐसी महिलाओं और पुरूषों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है जो आधुनिकता के चक्कर में परिवार को ही तिलांजलि दे रहे हैं जो अविवाहित रहने को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर परिवार संस्था को कमजोर कर रहे नर-नारी आतंकवादियों से भी अधिक हानि पहुचा रहे है ये देश की जड़ो को ही खोखला कर रहे है । देश को ये कितना नुकशान पहुँचा रहे है ये इनको स्वयं ही मालुम नही , ये इस खतरे से अनजान है इन्हे सही राह दिखाने की आवश्यकता है इसी का प्रयास लेखिका ने किया है :

परिवार


किशोरी,
परसों मनीषा अपने ढाई वर्षीय बेटे साकेत के साथ मिलने आई थी। साकेत बड़े आराम से बातें भी कर रहा था तथा साथ ही साथ नानी-नानी करके घर में घूम रहा था. उन दोनों का अस्तित्व ही बहुत सुख का अहसास दे रहा था। बातों-बातों में मैंने मनीषा को पूछा, तुम नौकरी पर जाती हो तो बच्चा किसके पास छोड़कर जाती हो? तो वह बोली, मैंने नौकरी छोड़ दी है। चालीस हजार मासिक कमाई करने वाली, सी.ए. जैसा कठिन अभ्यास क्रम पूरा करने वाली मनीषा का उत्तर सुनकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। वह आगे बोली, हम दोनों ही सुबह आठ बजे तक घर से निकल जाते थे तथा रात आठ बजे घर आते थे। ऐसे में साकेत को कौन पालता? सासू मां से अब ज्यादा कष्ट झेले नहीं जा सकते और नानी है ही नहीं। पालनाघर (creche) में बच्चे को छोड़ना नहीं चाहती थी। वैसे भी दादी-नानी सक्षम होती, तो भी अब उनकी उम्र बच्चों के पीछे दौड़ने की नहीं है। उनकी उपस्थिति ही हमारा सम्बल है। अत: मैंने और विवके जी ने बच्चे के जन्म से पहले ही नौकरी छोड़ने का निर्णय लिया था। उपना बच्चा बड़ा होता हुआ देखना, उसके साथ खेलना, उसके बालहठ पूरे करना, उसका पहली बार करवट बदलना, बैठना, चलना, गिरना, इन सब सुखद क्षणों से मैं वंचित रहती। साथ ही साथ बच्चे का संवर्धन, संगोपन व संरक्षण का दायित्व हर मां का है। इसका पूरा अहसास था। साथ ही साथ बच्चा भी माँ के साथ रहकर सुरक्षा का अनुभव करता है और उसका तो वह हक भी है, तो मैं उसे उसके इस जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित क्यों करूं? यदि मैं नौकरी करती तो दिनभर हम दोनों तनाव में रहते। आज कम से कम विवेकजी निश्चिन्त होकर काम पर जाते हैं। उनके प्रमोशन्स और टूर्स निर्बाध चलते हैं, समय मिलते ही हमारे साथ रहते हैं। मेरे सामने छोटी से बड़ी हुई मनीषा इतना सोचती है यह देखकर बहुत अच्छा लगा। दोनों ही बधाई के पात्र हैं। क्योंकि चालीस हजार महीना रूपयों का लालच छोड़ना आसान बात नहीं है। विनीता के भी अभी बेटा हुआ है, वह भी सी.ए. है। उसने भी नौकरी छोड़ने का ऐलान कर दिया है। तुम्हारी दीदी, सुरभि `जी-निट´ का कोर्स किए हुए थी, उसको पैकेज भी अच्छा मिला था, परन्तु शादी के पश्चात उसने भी नौकरी छोड़ दी। मैथिली इंजीनियर है, वह भी घर पर ही रहती है, इन चारों के पति भी इस निर्णय में सहभागी थे। वास्तव में आज ऐसी मनीषा, विनीता, सुरभि, मैथिली आदि की समाज को महती आवश्यकता है।


महत्वाकांक्षी पतियों के तो क्या कहने! वैभव, जो अमेरिका से एम.बी.ए. करना चाहता है, उसने तो अपनी पत्नी को नौकरी करने को विवश ही कर दिया है। उसकी बेटी जन्म से ही बीमार है। साल भर तो वैभव की मां उनके साथ रही, परन्तु अब वैभव की पत्नी को अहसास हुआ कि मुझे नौकरी छोड़कर बिटिया की परवरिश करनी चाहिए। वैभव ने हां तो भर दी और दूसरे महीने अमेरिका में एम.बी.ए. करने की अपनी इच्छा जाहिर की। मध्यमवर्गीय परिवार में इतने पैसे कहा¡ से आयेंगे, अत: स्वाति नौकरी करने को विवश है।


बच्चा पैदा होने के बाद उसकी परवरिश अच्छी तरह से हानी ही चाहिए। परन्तु आज समाज में हम देख रहे हैं कि उच्च शिक्षित मा¡-बाप दोनों के अच्छा कमाने के बाबजूद भी उनकी पैसे की भूख कम नहीं हुई है या वे बहुत अधिक महत्वाकांक्षी हैं। अत: दादी, नानी या पालनाघर में बच्चे पल रहे हैं। मुझे कभी-कभी लगता है कि यह हम माताओं की तो कहीं गलती नहीं है, जिन्होंने अपनी कुंठित आकांक्षाओं को अपनी बच्चियों के गले में मढ़ दिया। उन्हें उच्च िशक्षा दिलाई। बेटे-बेटी में फरक नहीं किया। बेटियों की परवरिश बेटों जैसे ही की और यहीं हम मात खा गये। बेटियों को हमने स्त्रियोचित गुणों से अवगत नहीं कराया। यही कारण है कि आजकल लड़कियों की गृहकार्य में रूचि एकदम खत्म हो गई है। खाना बनाना, सिलाई-बुनाई करना या स्वयं के कपड़े धोना, यह सब पुरानी बातें हो गईं हैं। दूसरों के लिए कुछ करना, ससुराल में सभी रिश्तेदारों के साथ तालमेल बिठाना उन्हें आता ही नहीं है। यह सब करना उन्हें प्रतिष्ठा के विरूद्ध लगता है। उनके पा¡व जमीन से उखड़ गये हैं। उन्हें उड़ने के लिए आसमान तो दे दिया, परन्तु यह बताना भूल गये कि वापस अपने नीड़ में ही आना है। उच्च िशक्षा लेने के बाद पैसा कमाना ही हमारा ध्येय हो गया है। बढ़ती म¡हगाई में दोनों का कमाना आवश्यक है, यह मैं मानती हू¡, पर कहा¡ रुकना है यह भी तो समझ में आना आवश्यक है। मैं भी नोकरी करती थी किन्तु मैंने पदोन्नति नहीं ली क्योंकि उसके बाद मेरे जीवन में जो परिवर्तन आता, उससे मेरी पूरी गृहस्थी बिगड़ जाती। मेरी उम्र की बहुत सी महिलाओं ने ऐसा ही किया, उनकी प्राथमिकता अपनी गृहस्थी थी, न कि कैरियर। परन्तु हम लड़कों से कम नहीं हैं यह दिखाने के चक्कर में, हमने हमारे परिवार संस्था को ही दा¡व पर लगा दिया है। पूरे विश्व में भारत की परिवार-प्रथा को आदशZ के रूप में देखा जाता है, पर हम ही उसे आग लगाने पर उतारू हो गये हैं। हमने हमारे बेटों की परवरिश में भी कहीं गलती की, तभी तो उनको पैसे कमाने के चक्कर में अपने दायित्व को बोध नहीं रहा। पिछले दिनों में पूना गई थी, तब मौसी की दो बेटिया मिलीं। दोनों ही उच्च िशक्षित हैं परन्तु नौकरी नहीं करतीं, बताती थीं कि घर में सास-ससुर हैं। हमारे पति उनके इकलौते बेटे हैं, हम भी यदि नौकरी पर जायेंगे तो उनके साथ कौन रहेगा। बच्चों की देखभाल कौन करेगा? अत: एक ने घर में बुटीक खोल रखा है व दूसरी ने घर में हॉस्टल खोल रखा है। उनका काम अब बढ़ गया है, अत: मदद हेतु पास में रहने वाली जरूरतमन्द लड़कियों को अंशकालीन काम देती हैं। दोनों की ही समस्या का हल हो जाता है। वह बताती है कि यदि हम नौकरी करते तो शायद इससे थोड़ा ज्यादा पैसा मिलता? परन्तु आज अपना काम करने में जो आनन्द है वह कहा¡ से मिलता? हमारे पूर्वजों ने भी नौकरी को अधम ही बताया है, परन्तु नििश्चत आमदनी के कारण हम उसकी ओर आकर्षित होते हैं। आज लड़किया¡ पढ़ लिख रही हैं, परन्तु वे घर बैठे पैसा कमाये, इतना आत्मविश्वास हमने उनको नहीं दिया। आप उच्च िशक्षित लड़कियों के साथ-साथ, थोड़ी पढ़ी लिखीं लड़किया¡ भी गृह कार्य से जी चुराती हैं। घर के बाहर रहने में उनको अधिक आनन्द आता है। आवश्यकता हो तो पैसा कमाना कोई पाप नहीं है, परन्तु नौकरी और गृहस्थी का सामंजस्य बिठाना भी अनिवार्य है, अन्यथा हमारी परिवार संस्था टूट जायेगी और हम अपना अस्तित्व खो बैठेंगे। इसलिये समय रहते ही हमें इस बारे में कुछ ना कुछ करना होगा। नौकरी के घण्टों में कमी लानी होगी, अंशकालीन नौकरिया¡ उपलब्ध करानी होगीं। इस सबके लिए हम माताओं को ही मिलकर आवाज उठानी होगी, नहीं तो हमारी भावी पीढ़ियों का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। शायद वे पैसा तो कमा लेंगे, परन्तु मनुष्य नहीं बनेंगे। उनको यदि मनुष्य बनाना है तो त्याग हम माताओं को ही करना होगा। घर-घर में आज यही चित्र दिख रहा है। हमारी बेटिया¡ और बहुए¡ अभी अपने पूरे यौवन काल में हैं, उन्हें आगे वाली अंधेरी गुफा का ध्यान नहीं है। आजकल सभी रिश्तों में कड़वाहट आ रही है। अभी तो जवान हैं, सब सहन करने की क्षमता प्रकृति ने उनको दी है, परन्तु आगे बुढ़ापे में क्या होगा? क्या वे वृद्धाश्रम में ही रहना पसन्द करेंगी? वहा¡ भी सामंजस्य बिठाना पड़ता है। कहा¡ जायेगी हमारी भावी पीढ़ी? सोच सोच कर मन उदास होता है। हमारी उस समस्या से हमें ही निजात पानी है। मुझे लगता है राजीवजी दीक्षित ने जैसे `आजादी बचाओ´ आन्दोलन शुरू किया है। उसी प्रकार हमें भी `परिवार बचाओ´ आन्दोलन शुरू करना पड़ेगा। स्वामीजी ने कहा था एक बार स्त्री िशक्षित हो जाये तो वह अपने आप अपनी समस्या का हल ढू¡ढ़ लेंगी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है -

`कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा´

(अध्याय 10 “लोक 34)

`कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हू¡, इस सप्त गुणों से में स्त्रियों के हृदय में स्थित हू¡।´इसका प्रकटीकरण हमारी बेटियों में कराने का दायित्व हमारा ही है।

लेखिका : संगीता सोमण, 92, प्रेम नगर, खेमे का कु¡आ, पाल रोड, जोधपुर (राजस्थान)

Sunday, September 14, 2008

मानव के शव पर

मन्दिर का निर्माण
लालता प्रसाद गंगवार `प्रलयंकर´, बरेली

मानव ने पत्थर पूजे पर, मानव को कब पहचान सका।
यद्यपि इसकी ही छाया में, पा रंग रूप भगवान सका।।
मानव फुटपाथों पर सोते, भगवान भवन में झूले पर।
मानव सुत पत्तल चाट रहे, नैवेध वहा¡ थाली भर-भर।।
जा रही हजारों की लाशें, वेकफन यहा¡ शमशानों में।
श्रृंगार नहीं पूरा होता, उनका रेशम के थानों में।।
पत्थर नहलाये जाते हैं, दुर्भाग्य दूध, घी से जल से।
भूखी भिखमंगिन का बच्चा, दो बू¡द न पी पाया कल से।।
सोने-चा¡दी के ढेरों पर, जिसने भगवान बनाये हैं।
जिसने मानव चूस-चूस, कंकाल समान बनायें हैं।।
यदि यही धर्म के नेता हैं, धिक्कार रहा उनको यह स्वर।
यदि यही धर्म के हैं धुरीण, लानत है उन पर, है ठोकर।।
इन्सार उठो, फेंको पत्थर, मानव का जब पूजन होगा।
मानव के शव पर मन्दिर का, निर्माण-विधान नहीं होगा।।
सोन-चा¡दी के आभूषण, पत्थर के साज नहीं होंगे।
घंटों में शंख निनादों में, हम बे-आवाज नहीं होंगे।।
मेरी आवाज पुकारेगी, मानव-मानव के कानों में।
हम आग लगा देंगे बढ़कर, इन शोषण के भगवानों में।।
हम भू पर स्वर्ग उतारेंगे, अपने दो-चार इशारों में।
तुम देखो तो कितना बल है, इन क्रान्ति पूर्ण उद्गारों में।।







टालस्टाय की बाल लघु-कथा
आजादी की वापसी

एक मकान की उपरी मंजिल पर एक अमीर आदमी रहता था और नीचे की मंजिल पर एक गरीब दरजी । कपड़े सीते समय दरजी गाया करता था। उसके गाने से अमीर आदमी की नींद में बाधा पड़ती थी। वह उसका गाना रोकना चाहता था।
एक दिन उसने दरजी को रूपयों की एक थैली दी और कहा कि वह गाना बंद कर दे। दरजी मान गया और रूपये पाकर बहुत खुश हुआ। कुछ समय बीता लेकिन गाने के बिना दरजी का मननहीं लगता था। वह परेशान हो उठा। आखिर एक दिन वह रूपयों की थैली लेकर अमीर आदमी के पास गया और थैली उसको लौटाते हुए बोला, ``अपना धन वापस ले लीजिए और मेरा गाने का अधिकार मुझे वापस दीजिए। गाने के बिना मैं तंग आ गया हू¡।´´
अमीर आदमी उसे हैरानी से देखने लगा। दरजी चला गया फिर कुछ देर में उसने नीचे से दरजी के गाने की खुशी भरी आवाज सुनी।

Sunday, September 7, 2008

बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!

नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा

मैं कर सकता/सकती हूं कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!

मैं भारत का/की शिक्षित नर/नारी हूं¡
मैं हूं सशक्त, नहीं बिचारा/बिचारी हूं।
मैं जानता/जानती चैंटिंग और ब्लागिंग
मैं अंग्रेजी में धारा-प्रवाह,
लिख व बोल सकता/सकती हूं¡
मैं गालियां दे सकता/सकती हूं¡
भारतीय संस्कृति, विरासत और परंपराओं को,
मैं शादी, परिवार व समाज को,
गरिया सकता/सकती हूं¡
सब जायं¡ जहन्नुम में,
मैं सबको अपने ठेंगे पर रखता/रखती हूँ
अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वछंदता की खातिर,
मैं नारी को देखना चाहता/चाहती हूं
स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ही नहीं,
पूर्णत: स्वतंत्र और स्वछन्द भी,
शादी, परिवार व समाज की,
समस्त मर्यादाओं से मुक्त
आज के भारतीय नर और नारी शिक्षित हैं,
वे नहीं रह सकते बनकर एक-दूसरे के पूरक
औरत को मर्द की और मर्द को औरत की,
वश है जरूरत,
दोनों समान हैं,
दोनों के लिए खुला आसमान है,
समलैंगिक सम्बन्धों को भी सम्मान है
जरूरतें पूरी करना बड़ा आसान है,
हम अपनी जरूरतें! कर लें पूरी,
कैसे भी, कहीं से भी,
किसी के साथ रहकर या
किसी को साथ रखकर
या फिर चलते फिरते,
ऑफिस में काम करते।
क्या फर्क पड़ता है?
मैं कर सकता/सकती हू¡ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।

मैं झूठ बोलने में पारंगत,
भ्रष्टाचार में सिद्धहस्त,
मैं अपने में ही रहता/रहती मस्त,
सत्य का सूरज कर दूं अस्त,
ईमानदारी के हौसले पस्त।
कथनी से ही छा जाऊं जगत में
शराब पीकर, मांस खाकर,बन जाऊं भगत मैं।
मैं, जो बोलता/बोलती हूं,
जो करता/करती हूं,
दोनों में दूर-दूर तक,
खोज न पाये कोई रिश्ता,
भले ही आ जाये फरिश्ता।
मैं बोलकर और लिखकर ही सम्मान पाता/पाती हूं,
साथ में दौलत भी कमाता/कमाती हूं।
गधे को तो क्या?
दुश्मन को भी बाप बनाता/बनाती हूं,
किसमें है हिम्मत
जो मेरी करनी को देखे
आखिर प्राइवेसी भी कोई चीज होती है!
तुम्हे क्या वह किसके साथ सोता या सोती है?
अरे भाई!
निजत्व का सम्मान करो!!
जाओ! अपना काम करो।
तुम हो ही क्या चीज?
अपने आदर्शों के झोले को,
उठाये फिरते/फिरती हो!
केवल ठगे जाते/जाती हो!
किसी को नहीं ठगते/ठगती हो।
शादी करके एक पत्नी या पति के साथ
रहने वाले या रहने वाली,
दो जून की रोटी के लिए,
रात-दिन परिश्रम करने वाले या करने वाली
ईमानदारी और सत्य के व्यसनी मूर्खो की,
बात करने वाले या करनी वाली,
जाओ आगे बढ़ो!
यह दुनिया¡ तुम्हारी नहीं, मेरी है,
क्योंकि यह इक्कीसवीं सदी है,
मेरे पास सोने की ढेरी सजी है।
मैं खरीद सकता/सकती हूं कुछ भी,
सारी सुख-सुविधाए¡,
यहाँ तक कि बिस्तर के साथी,
नर-नारी को भी खरीदना संभव है,
आत्मा को जिन्दा रखकर,
आत्मनिर्भर बनना असंभव है।
मैं कर सकता/सकती हूं कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।

मैं आजाद भारत का/की,
आजाद नागरिक हूं,
स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा,
फहराऊंगा/ फहराऊंगी।
मिठाई बांटकर खुशियां,
मनाऊंगा/मनाऊंगी।
पीटकर ताली,
लोग,मिठाई खाने में हो जायेंगे मस्त,
मैं तो वश कमीशन खाऊंगा/खाऊंगी।
जरूरत पड़ी तो आतंकवादियों से भी हाथ,
मिलाऊंगा/ मिलाऊंगी!
आखिर वे भी हमारे वोटर हैं,
उनके लिए कानून सरल बनाऊंगा/बनाऊंगी।
बाजार तो भाई!आज युग की है जरूरत,
दोस्तो देखो बाजार है, कितना खुबसूरत,
जिसको आती है कला,
रुपया बनाने, छापने या लूटने की,
वही सबसे है भला,
खरीदना या बेचना नहीं है आसान,
बाजार में मच जाता है घमासान,
सांसदों, विधायकों या मन्त्रियों की बिक्री मैंने देखी है,
हम क्या कर सकते यह तो ईश्वर की लेखी है।
मैं भी अपनी सरकार बनाऊं!
बड़ा सा सरकारी पद पा जाऊं
स्वयं मलाई खाकर,
दूसरों को भी खिलाऊं!
नहीं चाहिए मुझे, ईमानदारी का तमगा,
चाहत है यही वश सफल कहाऊं!
हिन्दी का नाम जपकर,
अंग्रेजी का झण्डा लहराऊं!!