Wednesday, May 28, 2008

सुरसा के मुहँ की तरह बढ़ते वेतन व भत्ते

सुरसा के मुहँ की तरह बढ़ते वेतन व भत्ते
छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट आ गई है। पहले दिन तो लोगों की प्रतिक्रिया ठीक-ठाक ही थीं, किन्तु जैसे-जैसे उनका अर्थ समझा गया आपस में विचार-विमर्श हुआ, रिपोर्ट का विरोध किया जाने लगा। कर्मचारी-गण वेतन आयोग की रिपोर्ट से सन्तुष्ट नहीं हैं। उन्हें और अधिक चाहिए। आंकडे प्रस्तुत किये जा रहे हैं कि वेतन आयोग की रिपोर्ट में लगभग 40 प्रतिशत वृद्धि की सिफारिशें की गईं हैं किन्तु यह चालीस प्रतिशत की सिफारिशें कर्मचारियों को मान्य नहीं, कर्मचारियों की मांग को देखते हुए वेतन आयोग की रिपोर्ट का अध्ययन कर सुझाव देने के लिए एक और समिति का गठन कर दिया गया है, जो निश्चित रूप से और अधिक फायदा देने के लिए ही सिफारिशें प्रस्तुत करेगी। चुनावी वर्ष है। सरकार को सिफारिशें मान भी लेनी हैं क्योंकि वह कर्मचारियों के इतने बड़े तबके को नाराज करना नहीं चाहेगी। असंगठित किसान व मजदूरों पर संगठित कर्मचारी प्राथमिकता पा ही जाते हैं। दूसरी बात विधायिका व न्यायपालिका अपने वेतन-भत्तों को स्वयमेव जब इच्छा होती है, बढ़ा ही लेती हैं। ऐसी स्थिति में नौकरशाही को खुश रखना भी उनकी मजबूरी है। अन्तत: काम तो इनसे ही लेना है। जनसेवक के रूप में दिखाकर अपने स्वार्थों की पूर्ति तो इन्हीं से होनी है। अत: सरकार यह भी अपना पावन कर्तव्य समझती है कि वह अपने कर्मचारियों को पूर्ण रूप से सन्तुष्ट रखे। अत: होता यही है कि सरकार कर्मचारियों के हितों की सिफारिशों को तो मान लेती है किन्तु उन पर नियन्त्रण लगाने की सिफारिशों को नहीं मानतीं। छुट्टी कम करने व काम में सुधार करने की सिफारिशों को नजरअन्दाज कर दिये जाने की संभावना अधिक है।अब एक नजर पांचवे वेतन आयोग से पूर्व के वेतन पर डाली जाय। यहा पर सभी वेतनमानों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है और न ही व्यावहारिक। हम याद करें 1400 व 1600 से प्रारंभ होने वाले वेतनमानों को क्रमश: 5500 व 6500 के वेतनमान दिये गये थे। जो लगभग चार गुना वृद्धि थी। वर्तमान छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने पर इन्हें क्रमश: 13770 व 15510 रुपये 1 जनवरी 2006 से मिलेगा जो वर्तमान स्थिति में 20000 से कुछ ही कम भले रहे। वेतन में ये वृद्धि अभी हो रही हो, ऐसी बात नहीं है। सेवा अवधि के अनुसार वार्षिक वृद्धि का प्रावधान भी होता है। मह¡गाई की दर को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक छ: माह में मह¡गाई भत्ता घोषित किया जाता है। इस प्रकार छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट को लागू होने से पूर्व भी वषZ में तीन बार कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि होती रही है। एक बार वार्षिक वेतन वृद्धि के समय तथा दो बार मह¡गाई भत्ता घोषित होने के साथ 1 जनवरी व 1 जुलाई से। कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि किस कदर होती है, इसे एक उदाहरण से समझना काफी होगा। मैं एक विद्यालय में छोटा सा अध्यापक हू¡। मैंने नवम्बर 2001 में सेवा में प्रवेश किया था। प्रवेश के समय से मेरा वेतनमान 6500-200-10500 है। इस वेतनमान के अन्तर्गत मुझे प्रारंभ में दिसम्बर 2001 में 9425 रुपये मिले थे, जो दिसम्बर 2007 में 16286 रुपये हो गये थे। इस प्रकार छ: वषZ के अन्दर ही मेरे वेतन में 6861 की वृद्धि हुई। एक छोटे से अध्यापक के वेतन में वृद्धि का यह हाल है तो बड़े-बड़े अधिकारियों के वेतन में वृद्धि का अनुमान लगाया ही जा सकता है। यह स्थिति छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने से पूर्व की हैं। सिफारिशें लागू होने के बाद की स्थिति तो और भी आश्चर्यजनक होगी।कर्मचारियों में भी छोटे कर्मचारियों को झेलना ही पड़ता है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों में भी वेतन में 1 : 12 का अन्तर दिखाया गया है। अब कहा¡ एक रुपया और कहा¡ 12 रुपये। एक रुपये पाने वाला भी सरकारी कर्मचारी और 12 रुपये पाने वाला भी सरकारी कर्मचारी। 1 जनवरी 2006 को वेतन निर्धारण के समय एक कर्मचारी को 5740 रुपये पगार मिलेगी तो दूसरे को 90000 रुपये पगार के रुप में मिलेंगे। दोनों ही सरकार के कर्मचारी होंगे। यह अन्तर लगभग सोलह गुना बैठता है। यह ठीक है कि सभी कर्मचारी समान नहीं होते और कार्य की प्रकृति के आधार पर वेतन में विभिन्नता आवश्यक है किन्तु इतना अधिक अन्तर कहा¡ तक न्यायोचित है? विचार करने की बात है। वेतन में वृद्धि के पीछे मह¡गाई की दर को आधार बनाया जाता है। मह¡गाई की दर में वृद्धि की दलील देकर विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका के वेतनों में मनमानी वृद्धि हो जाती है। निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को मिलने वाले बड़े-बड़े पैकेजों को भी वेतन-वृद्धि का एक कारण प्रस्तुत किया जा रहा हैं। इसका आशय यही है कि निजी क्षेत्र में व्यवसायी वर्ग अनियिन्त्रत लाभ कमा रहा है, जो एक प्रकार से जनता का शोषण ही है। पू¡जीवादी अर्थव्यवस्था मेें व्यवसायी वर्ग अपने मुनाफे को आसमान की और ले ही जाता है।देश के आधार किसान व मजदूरों की स्थिति की चिन्ता किसी को भी नहीं है। यह ध्यान किसी को भी नहीं है कि मह¡गाई की मार उनको भी प्रभावित करती है। खाद्यान्नों की वृद्धि पर तो चिन्ता जाहिर की जा रही है किन्तु यह नहीं देखा जा रहा कि किसान के द्वारा उपभोग की जा रही प्रत्येक वस्तु की कीमत आसमान छू रही हैं, फिर उसके द्वारा उत्पादित खाद्यान्न की कीमत को लेकर ही इतना हो हल्ला क्यों मचाया जा रहा है? यहा¡ यह सुनििश्चत करने की आवश्यकता है कि खाद्यान्नों में होने वाली वृद्धि का लाभ किसानों को मिले। किसान व असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के जीवन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उन लोगों पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है जो िशक्षा व स्वास्थ्य जैसी आधारभूत आवश्यकताओं के बारे में भी सोच नहीं पाते क्योंकि उनको अभी पेट की भूख शान्त करने से ही होश नहीं है। जनता की सेवा के नाम पर मौज लेने वाले जनसेवकों को काश! जनता की भी थोड़ी बहुत चिन्ता होती तो सुरसा के मुह¡ की भा¡ति वेतन-भत्तों में होती वेतन-वृिद्ध का उपभोग करते हुए भी जनता को विभिन्न समाज कल्याण योजनाओं के अन्तर्गत दिये जा रहे अनुदानों को चट नहीं कर जाते। किसी आलेख में पढ़ा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने किसी स्थान पर कहा था कि मैं अपने कर्मचारियों को इतना वेतन देना सुनििश्चत करू¡गा कि उन्हें भ्रष्टाचार की आवश्यकता न पड़े। यहा¡ पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि भ्रष्टाचार आवश्यकता की नहीं, मनोवृत्ति की उपज है। जिस प्रकार वेतन व भत्तों में वृद्धि हो रही है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार में भी वृद्धि हो रही है। क्योंकि व्यवस्था लागू करने वाले लोग ही भ्रष्टाचार के संरक्षक हैं। इस स्थिति पर नियंत्रण न किया गया तो शीघ्र ही देश में अराजकता पैदा होने की संभावना बलवती होगी। ज्यों-ज्यों असमानता बढ़गी, त्यों-त्यों जनता में असंतोष बढेगा और सामाजिक सोहार्द्र की स्थिति खराब होगी। अत: अच्छा यही होगा कि सामाजिक मुद्दों को सामाजिक स्तर पर ही हल किया जाय। बढ़ते हुए वेतन-भत्तों को नियंत्रित किया जाय। न्यूनतम् मजदूरी अधिनियम से काम नहीं चलता, उसके साथ-साथ अधिकतम मजदूरी अधिनियम भी बनाया जाय।

Tuesday, May 20, 2008

आतंक का मौसम

आतंक का मौसम

आतंक का मौसम आया रे! आतंक का मौसम, भारत में बहार है। सभी को वोटों की दरकार है। भारत हो या पाक दोनों और खींचातान है। आतंकवादियों पर किसी की नहीं लगाम है। सभी आतंक को करते सलाम है। परवेज मुशरफजी के हाथ से निकल चुकी कमान है। मजबूरी में ही सही, अमेरिकी दबाब में आतंकवादियों के विरुद्ध मुशरफजी ने कुछ उठाये थे कदम। आज मुशरफजी खुद ही हो चुके हैं बेदम। गिलानी हो या जरदारी, नवाज शरीफ से हार न मानी। जज करने में बहाल, सभी को आ गयी नानी याद। आतंकवादियों से किया समझौता। स्वात घाटी का कर दिया सौदा। सरकार ने दी गांरटी नहीं करेगी, उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही, उनको भी वायदे की याद दिलाई। पाक में आतंक नही मचायेंगे। सारे भारत में खेल रचायेगें। वही उनकी कर्मभूमि है। पाक में तो खानी बस पूरी हैं। भारतीय भी धर्मभीरू हैं। अतिथियों को देवता मानते हैं। वे आतंकवादियों को भी गले से लगायेंगे। भले ही संसद में सांसद मारे जायेंगे। उनके खिलाफ कोई कानून नहीं बनायेंगे। वे अहिंसक हैं, न्यायालय से फांसी बुल जाने पर भी फांसी नहीं लगायेंगे। जरूरत पड़ी तो हवाई जहाज में बिठाकर पाक में पहुचायेंगे। जहाँ से वे पुन: अपना खेल दिखाएँगे । पाक में भी अब नहीं है इनके लिए काम, भारत में भी चुनावी मौसम में इनके खिलाफ नहीं हो सकता कोई भी कठिन प्लान। बर्फ भी पिघल रही है। डगर आसन बन रही है। अत: अगले वर्षों में ये भारत में ही खून बहायेंगे। सारे भारत पर अपने आतंक का शासन फैलायेंगे।

Wednesday, May 14, 2008

सत्ता

सत्ता

भाजपा

आगामी चुनाव के बाद

सरकार अवश्य बनाएगी
राम ने साथ न दिया तो,

काशीराम, मायावती,कम्यूनिज्म

या मुस्लिम लीग को,

गले लगायेगी

क्योंकि सत्ता-सिद्धान्त के आगे
सभी मुद्दे बोने हैं,

सत्ता के लिए

राम, कश्मीर, आचार संहिता
तथा चरित्र तो खिलौने हैं।

Tuesday, May 6, 2008

चरित्र का फण्डा-कैसा है ये झण्डा?

चरित्र का फण्डा-कैसा है ये झण्डा?
भारत देश महान है। सर्वगुणों की खान है। ये मेरा हिन्दुस्तान है। जो ये नारा लगाते हैं, वे तो कम से कम महान नहीं होते। नारे लगाने से कोई महान नहीं हो सकता। राम ने हमारे यहाँ जन्म लिया इस तथ्य से हम सभी राम तो नहीं हो जाते? जिस प्रकार रावण ने हमारे यहाँ जन्म लिया तो हम सभी रावण नहीं हो जाते? वस्तुत: भूतकाल में हम क्या थे? यह महत्वपूर्ण तो है, किन्तु यह हमारी महानता का परिचायक नहीं है। हमारी वर्तमान स्थिति का आकलन वर्तमान जीवन पद्धति व आचरण से ही होगा। उस समय की सामाजिक व्यवस्था भिन्न थी। आज की भिन्न है। यदि हम उस समय की सामाजिक व्यवस्था की कल्पना करें तो कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है, क्योंकि राम की तरह आज कोई भी गद्दी को त्यागने को तैयार नहीं है। सोनिया जी प्रधानमंत्री पद को भले ही लेने से मना कर दें किन्तु वनवास पर जाने के लिए तो कोई भी तैयार नहीं है। क्या हुआ हम कुर्सी पर नहीं बैठे, हम कुर्सी के नियामक बनकर उसको संचालित तो करते ही हैं। हो सकता है कि हम स्वयं भ्रष्टाचार न करते हों किन्तु हम भ्रष्टाचारियों का बचाव तो करते ही हैं। क्या हुआ? हम उच्च मूल्यों की बात करते हैं। हम उन मूल्यों की स्थापना के लिए कुछ भी त्यागने या भोगने को तैयार नहीं हैं। हम सत्य की बात तो करते हैं किन्तु सिर्फ चन्द रुपयों या स्वार्थ के कारण सत्य को सरे राह नीलाम करने को तैयार बैठे हैं। हम दूसरों को चरित्रहीन, भ्रष्टाचारी, कुमार्गी व पापी कहते हैं किन्तु हम स्वयं यह भी विचार नहीं करते कि इन शब्दों की परिभाषा क्या है? कहीं हम भी इनकी हद में नहीं आ रहे?
एक शब्द को ही लेते हैं- चरित्र। यह सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। देश के कौने-कौने में इसका प्रचलन देखने को मिलेगा। बड़ा व्यापक है- चरित्र का फण्डा, यह बन जाता है लोगों के लिए धंधा और चरित्रहीन ही उठाते हैं, इसका झण्डा। चरित्र की बात करते हैं सभी, सभी चरित्र के नाम पर करते हैं दिल्लगी। चरित्रवान का प्रमाण-पत्र सभी पा जाते हैं और चरित्रहीन होकर चरित्र के गीत गाते हैं। चरित्र की बात सभी करते हैं, किन्तु क्या कभी हम इसकी अवधारणा पर विचार करते हैं? विचार करने की बात है- क्या बिना टिकिट यात्रा करने वाला, क्या पंक्ति तोड़कर आगे जाने वाला, क्या धनराशी लेकर भी यात्री को टिकिट न देने वाला, क्या परीक्षाओं में नकल करने वाला, क्या परीक्षाओं में नकल कराने वाला, क्या रिश्वत लेने वाला, क्या रिश्वत देकर सार्वजनिक सेवा में स्थान पाने वाला, क्या मिलावट करने वाला, क्या पड़ोसी को धोखा देने वाला, क्या जाति के आधार पर वोट देने वाला, क्या भाषा के नाम पर दंगे भड़काने वाला, क्या धर्म या जाति के नाम पर राजनीति करने वाला, क्या सार्वजनिक सम्पत्ति को नियमों का दुरुपयोग करके स्वयं हथियाने वाला, क्या अपने कर्तव्य में कोताही बरत कर राष्ट्र व समाज को नुकसान पहु¡चाने वाला, क्या प्रदूषण फैलाकर धरती व आसमान को ही संकट में डालने वाला आदि चरित्रवान, पुण्यवान व सदाचारी है? यदि ऐसे लोग चरित्रवान हैं तो कम से कम मेरे विचार में ऐसे चरित्रवानों से भगवान बचाये। ऐसे लोग किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए धीमा जहर हैं जो उसे धीरे-धीरे खोखला कर रहे हैं।
दूसरी ओर यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को निश्चित समय पर गंभीरता के साथ पूरा करता है, रिश्वत नहीं लेता है, रिश्वत नहीं देता है, किसी को धोखा नहीं देता है, समाज को हानि पहु¡चाने वाले किसी भी कृत्य में सिम्मलित नहीं होता है। जिसका जीवन सार्थक व पारदर्शी है। जो न केवल स्वप्नदर्शी है, वरन् व्यावहारिक भी है( जो व्यावहारिकता के नाम पर झू¡ठ नहीं बोलता) जो कहता है, वही करता है और जो करता है वही कहता है, जो अपने कुकर्मो को छिपाकर अपना चरित्र नहीं गढ़ता है। उसके वैयक्तिक जीवन को लेकर, वे लोग जो अपने आप को उससे हीन समझते हैं, अपनी हीनता के भाव के वशीभूत उसे दुनिया¡ की नजर में से गिराने के लिए या अपने आपको श्रेष्ठ मानकर अह्म पालने के लिए उसके चरित्र को लांक्षित करते हैं। चरित्र का आशय केवल स्त्री-पुरुष सम्बन्धों से ही क्यों लिया जाता है? प्रसिद्ध व्यंगकार श्री हरिशंकर परसाई के अनुसार, `चरित्र केवल दोनों टा¡गों के बीच की ही विषय-वस्तु क्यों है?´ व्यक्ति का जो व्यवहार उसके और उसके साथी के बीच ही सीमित है, जिससे वह या उसका साथी कोई भी असंतुष्ठ नहीं है, जिससे किसी को भी कोई कष्ट नहीं है केवल ऐसे व्यवहार से तो व्यक्ति को चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है किन्तु जो लोग अपने कृत्यों से सार्वजनिक जीवन को ही कष्टप्रद बना रहे हैं, जो लोगों के प्राणों को ही संकट में डाल रहे हैं। जो वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति की खातिर रिश्वत लेकर या देकर सार्वजनिक सेवाओं को ही कमजोर कर रहे हैं, जिनके कृत्यों से समुदाय का अस्तित्व ही संकट में पड़ रहा है, जो सत्ता के लिए झू¡ठ पर झू¡ठ बोले जा रहे हैं, जो दुश्मन को भी गले का हार बता रहे हैं और अपने भाई का ही गला काट रहे हैं। इस प्रकार के लोग कैसे चरित्रवान हैं? विचार करने की बात है।
सार्वजनिक जीवन की अपेक्षा वैयक्तिक जीवन की शुचिता या योन व्यवहार को ही व्यक्ति के मूल्यांकन का मापदण्ड क्यों माना जाता है। यह मापदण्ड व्यक्ति को सबल बनाता है या नहीं संदिग्ध है किन्तु समुदाय को कमजोर अवश्य करता है। चरित्र को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचारियों , मिलावटखोरों, झू¡ठ में पारंगत हस्तियों, धर्म के ठेकेदारों, आडम्बरी साधुओं, कर्तव्य विमुख नेताओं व अधिकारियों को चरित्रहीनों के खिताब से नवाज कर उनका सार्वजनिक बहिष्कार क्यों नहीं किया जाता? अपनी आर्थिक मजबूरियों व सामाजिक अत्याचारों के फलस्वरुप अपनी देह को बेचकर अपनी आजीविका कमाने वाले महिला/पुरुष लोगों के अंगों को बेचकर मालामाल होने वाले सफेदपोश डाक्टरों, अधिकारियों या नेताओं की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ट क्यों नहीं हैं? अपने पर्दे के पीछे कुकृत्यों को छिपाने वाले महिला/पुरुषों से अपनी मजबूरियों या सामाजिक अन्याय के चलते कोठों पर कार्य करने वाले, वैश्या-वृत्ति को ही ईमानदारी से अपनी आजीविका मानने वाले व्यक्ति श्रेष्ट क्यों नहीं हैं? वास्तविकता यह है कि चरित्र के बारे में हमारी अवधारणाए¡ एकांगी है, जिन्हें व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार श्लीलता और अश्लीलता की अवधारणाए¡ समय सापेक्ष हैं, उसी प्रकार चरित्र की अवधारणा भी एकांगी नहीं समाज सापेक्ष है या होनी चाहिए। जो व्यक्ति समाज के लिए उपयोगी व समर्पित है और जो किसी के साथ भी किसी प्रकार का अत्याचार, अन्याय व जबरदस्ती करने का विचार भी मन में नहीं लाते, ऐसे व्यक्तियों को किसी से भी चरित्र-प्रमाण पत्र हासिल करने की आवष्यकता नहीं है, खासकर ऐसे लोगों से जो स्वयं ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे होने के कारण चरित्रहीन है, जो वैयक्तिक स्वार्थों को सर्वोच्चता देने के कारण स्वयं ही समुदाय को हानि पहु¡चा रहे हैं, जो लोकसेवक होते हुए भी लोक का अहित करने के कारण समाज विरोधी हैं जो लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को हानि पहु¡चाकर देष को कमजोर कर रहे हैं, जो अपनी कमजोरियों के चलते समाज के उन्नयन में बाधक हैं, ऐसे लोगों के पीछे चलने की अपेक्षा, हमें ऐसे लोगों के पीछे नही, साथ चलना चाहिए जिनका सामाजिक जीवन सुचिता व पवित्रता लिए हुए है। वास्तव में चरित्र की अवधारणा ऐसे व्यक्तियों के कृत्य ही निर्मित करेंगे।