Friday, January 28, 2011

अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवाने की शहादत पहली या अन्तिम नहीं


यशवन्त की शहादत न तो पहली है और न ही अन्तिम

ईमानदार इंजीनियर सत्येन्द्र दुबे, ईमानदार अधिकारी शणमुगम मंजुनाथ और अतिरिक्त जिलाधिकारी यंशवन्त सोनवाने इनमें से किसी की भी शहादत न तो पहली थी और न ही अन्तिम होगी। यह एक ऐसी श्रृंखला है........ जो रूकनी नहीं चाहिए। आज आजादी की लड़ाई की तरह भ्रष्टाचार के लिखाफ लड़ाई की जरूरत है। आज फिर हमें ऐसे जज्बे की जरूरत है कि हम मौत से डरे नहीं वरन् देश हित में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में अपनी जान देकर गौरव की अनुभूति कर सकें। आज ऐसा समय आ गया है कि हम विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका या मीडिया में से किसी से भी संस्थागत स्तर पर सुधार की अपेक्षा नहीं कर सकते। 
         
माना जाता है कि स्वतन्त्रता से पूर्व या स्वतन्त्रता के तुरन्त पश्चात् व्यक्ति भ्रष्ट होता था, संस्था नहीं( किन्तु वर्तमान में भ्रष्टाचार संस्थागत रूप ले चुका है। आज कोई भी संस्था भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। हां, प्रसन्नता की बात है कि वैयक्तिक स्तर पर अभी भी ईमानदारी जिन्दा है। कुछ व्यक्ति सभी संस्थाओं में ईमानदारी पूर्वक कार्य करते हुए मिल सकते हैं।
       ईमानदार इंजीनियर सत्येन्द्र दुबे, ईमानदार अधिकारी ‘ाणमुगम मंजुनाथ और अतिरिक्त जिलाधिकारी यंशवन्त सोनवाने ही केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ शहीद होने वालों में नहीं हैं। हां, इनकी शहादत अखबारों की सुर्खियां बनी। इनके अतिरिक्त भी अनेकों ईमानदार नागरिकों की हत्याएं उनके द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के कारण होती रहती हैं। जो आकड़ों में नहीं आ पातीं। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी कार्यालयों में प्रताड़नाएं, षड्यन्त्रपूर्वक फंसाकर निलम्बन व बर्खास्तगी भी सुनने को यदाकदा किवदन्तियों की तरह मिल सकती हैं।
       वास्तविकता यही है कि यदि कोई कर्मचारी या अधिकारी या नागरिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ करता है तो व्यवस्था भ्रष्टाचारी के बचाव के लिए उतर आती है। यह एक वास्तविकता है, मैं, इसे पूरी ताकत के साथ कह सकता हूं, क्योंकि मैं ईमानदारी से कार्य करते हुए भ्रष्ट  अधिकारी के कारनामें उजागर करने के कारण षड्यन्त्रपूर्वक फंसाये जाने पर निलंबन का सामना कर चुका हूं। मार्च-अपैल 2010 में जबकि मैं इसी सन्दर्भ में निलंबन का सामना कर रहा था, इण्डियन आयल कॉरपोरेशन मथुरा में तेल चोरी करने वाले माफियाओं की अधिकारियों से शिकायत करने के कारण एक ईमानदार नागरिक की हत्या कर दी गई थी। उसका शव बल्देव के पास किसी ग्राम में मिला था तो उसकी कार जयपुर में पाई गई थी। उसी समय मेरे पास सहानुभूति व्यक्त करने के लिए आने वाले फोन पर वार्तालाप के समय मैंने कहा था कि मेरे साथ तो कुछ भी नहीं हुआ है। मैंने छोटे भ्रष्टाचार को बेनकाब किया था. अत: जिन्दा तो हूं। बड़े भ्रष्टाचारी को पकड़ने की क्षमता जिस दिन हो जायेगी तो शायद जीवन से ही बर्खास्त कर दिया जाऊं। मेरा मानना है कि ईमानदार व निष्ठावान नागरिक को किसी भी खतरे के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार करके रखना चाहिए। अपने कर्तव्य के निर्वाह के समय ये भी स्मरण रखना चाहिए कि वह सरकारी या निजी जिस भी संस्था के बेनर तले कार्य कर रहा है, उसे किसी से सहायता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।  संस्थागत स्तर पर उसे सहायता मिलने वाली नहीं। हां, वैयक्तिक स्तर पर कुछ सहायक आगे आ सकते है, वे भी अपने आप को सुरक्षित रखते हुए यानि छिपकर।
        उत्तराखण्ड से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका जुलाई से सितम्बर 2010 में प्रकाशित आलेख `कदम-कदम पर मरते दुबे व मंजुनाथ´ में भी मैंने यही लिखा था कि ईमानदार लोगों की हत्या रूकने वाली नहीं हैं। रूकनी भी नहीं चाहिए  क्योंकि इस प्रकार की हत्याएं या उत्पीड़न रुकने का आशय यह होगा कि भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेक देना और किसी भी कीमत पर हमें भ्रष्टाचार के सामने घुटने नहीं टेकने हैं। सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, सदाचार-भ्रष्टाचार के बीच संघर्ष अनादि काल से चला आ रहा है और आज भी चल रहा है। अभी असत्य, अन्याय, भ्रष्टाचार के साथ लोग अधिक हैं। हो सकता है हम इस स्थिति को पलटने में कामयाब हो सकें.  फ़िलहाल हमें सत्य के लिए, न्याय के लिए और ईमान के लिए बलिदान देने का तत्पर रहना होगा और मेरा विश्वास है यह श्रृंखला टूटेगी नहीं।  

Saturday, January 22, 2011

राजभाषा

नव-आंग्ल वर्ष २०११ में आप सभी का इस ब्लोग पर स्वागत है. नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है इस वर्ष का नया पोस्ट- एक कविता
 

राजभाषा 

राजभाषा जिसको कहते हैं, देखो उसमें काम न करते
सड़क से लेकर संसद तक, इसको लिखने से हैं डरते
इसको लिखने से हैं डरते, हमसे हिन्दी में काम न होता
हिन्दी-हिन्दी राग अलापें, काम के नाम उड़ जाते तोता।


राजभाषा हिन्दी को कहते, नहीं राज से इसका नाता
अनुवाद इसमें होता है, वह प्रामाणिक नहीं माना जाता
प्रामाणिक नहीं माना जाता, अंग्रेजी हावी होती है,
अंग्रेजी राजभाषा अपनी, इससे ही चलती रोटी है।


राजभाषा हिन्दी है अपनी- एक संवैधानिक झूंठ
झूंठ के आवरण में लिपटी, भाषा होती ठूंठ
भाषा होती ठूंठ, सरकारी तन्त्र से इसे बचायें
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायालय बहलायें।


हिन्दी हित नहीं कर सकता, यह सरकारी तन्त्र।
आत्मा यहां नहीं है मिलती, भ्रष्टाचार है मन्त्र।।
भ्रष्टाचार है मन्त्र, वहां, राजभाषा का मान हो कैसे?
राष्ट्र और  राजभाषा से क्या? स्वार्थ साधना जैसे-तैसे.


हिन्दी राजभाषा नहीं, है अंग्रेजी सरताज
स्वीकार इसको करो, बन जाये सब काज
बन जाये सब काज, हिन्दी भी विकास करेगी
इसे तन्त्र से मुक्त करो, विश्व में विजय ध्वजा फहरेगी।


वास्तविकता स्वीकार करो, कब तक गलतफहमी में जीओगे?
दुग्ध नहीं, मदिरा है हाथ में, कब तक दुग्ध समझ पीओगे?
कब तक दुग्ध समझ पीओगे? आगे बढ़ दुग्ध तुम पाओ,
राजभाषा अंग्रेजी है मानो, हिन्दी हित में फिर जुट जाओ।