Saturday, June 28, 2008

तुम नहीं हो हमारी अमानत, स्वीकार है हमें,

मुक्तक

खड़े हैं कब से चौराहे पर, नजारा ही बदल गया।
करते-करते इन्तजार, जमाना ही बदल गया।
परीक्षा लोगी कब तक? हमारे इस जीवट की,
आ जाओ एक बार, तुम्हारा हुलिया ही बदल गया।


न देखा तुमने मुड़ के, हम दीदार न कर सके।
चाहा था हमने तुमको, तुम इन्कार न कर सके।
तुम नहीं हो हमारी अमानत, स्वीकार है हमें,
नादान हैं तुम्हें छोड़कर, प्यार ना कर सके।


हमारे दिल में है क्या हम इजहार ना कर सके।
तुम बैठे हमारे सामने, हम दीदार ना कर सके।
ठोकरें ही थीं पथ में, हम थे उसी गम में,
चाहकर भी हम तुमसे, इकरार ना कर सके।

बीत गये वे दिन रावी का बह गया वह पानी।
गुलिश्ता उजड़ गया, छाई है यहा¡ वीरानी।
क्या करेगी आकर ? हे तितली! सभंल जा,
नहीं है यहा¡ राजा, न बन सकेगी तू रानी।


दर पर खड़े तुम्हारे हम घण्टी ना बजायेंगे।
तुमको खुश करने को, ना अपने को सजायेंगे।
इकरार और इंकार सब छोड़ते हैं तुम पर,
तुम्हारे गम में डूबे, नहीं अपने को बचायेंगे।


चाहा था तुमको हमने , करते रहे तुम्हें प्यार।
बीती हैं वर्षों देखो, नहीं कर सके हम दीदार।
कहा था तुमने ही, पत्थर भी हैं दुआ देते,
राष्ट्रप्रेमी बना पत्थर? आ के कर जाओ इजहार।


नहीं थी आरजू फिर भी, तुम्हें दिल में बसाया।
दिल में हमारे बैठकर, हमें ही सताया।
तुम्हारी मुस्कराहट पर जीवन है निछावर,
का¡टो में फूल खिले, जब भी तुमने मुस्काया।

Friday, June 27, 2008

जब तक चाहो तुम,साथ चलते जाना।

आगे बढ़ते जाना
जब तक चाहो तुम,साथ चलते जाना।
तुम पर नहीं है मुझको, अधिकार पाना।।

पथ के पथिक हैं, पाथेय तुम ले लो।
नदी है, नौका है, साथ मिल इसे खे लो।
कश्ती हुई पुरानी, भंवर इससे टकरायें,
धैर्य और साहस से ,तूफानों को मिल झेलो।
पथिक हैं जितने भी साथ लेके जाना।
तुम पर नहीं है मुझको, अधिकार पाना।।

समय नहीं है अब, आगे हमको बढ़ना होगा।
कष्ट आयें कितने भी सबको ही सहना होगा।
भटके हुओं की खातिर, यदि कुछ कर पायें,
राह पर लाना है तो ,पास उनके जाना होगा।
हमने तो तुमको, बस अपना साथी माना।
तुम पर नहीं है मुझको, अधिकार पाना।।

हवा में उड़ने की, तमन्ना नहीं रही मेरी।
मधु रस पीने की, तमन्ना नहीं रही मेरी।
श्रम और कौशल से काँटों में भी फूल खिलें,
खिलाकर, पुष्प,चढ़ाने की,तमन्ना रही है मेरी।
बगिया लगाकर के, आगे बढ़ते जाना।
तुम पर नहीं है मुझको, अधिकार पाना।।

Thursday, June 26, 2008

दहेज नहीं, अधिकार चाहिए।जीवन भर का प्यार चाहिए।।

दहेज नहीं, अधिकार चाहिए

दहेज एक विलक्षण शब्द है। इसके उन्मूलन के लिए विभिन्न कार्यक्रम व आन्दोलन संस्थाओं द्वारा चलाये जाते हैं तो सरकारों द्वारा विभिन्न कानून बनाये जाते हैं। संस्थाओं व सरकारों द्वारा औपचारिक रूप से किए गए समस्त प्रयासों के विपरीत व्यक्तियों द्वारा अधिकतम दहेज प्राप्त करने या देने पर ही जोर दिया जाता है। यद्यपि कुछ अपवाद भी मिल सकते हैं तथापि दहेज का विरोध करना एक फैशन है और अधिकतम् दहेज प्राप्त करना या देना खान्दान की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। दहेज देते समय हम दहेज मा¡गने वालों को गरिया भी सकते हैं, किन्तु दहेज प्राप्त करना हमारे लिए किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं होता। दहेज एक ऐसी परंपरा है जिसका जितना ज्याादा विरोध किया जाता है, यह उतना ही अधिक प्रसार पाती है। वास्तव में दहेज एक शब्द नहीं शब्द-युग्म है, `दान-दहेज´। दान-दहेज इस बात को इंगित करता है कि पिता के द्वारा बेटी को दान के रूप में दहेज दिया जाता है। मूल रूप से विवाह को कन्यादान कहा जाता रहा है। दान के साथ दक्षिणा के रूप में पिता श्रद्धानुसार धन दिया जाता है। इस प्रकार दान-दहेज की अवधारणा पूर्ण होती है। दान-दहेज की अवधारणा के मूल में है बेटी को पिता द्वारा अपने घर का सदस्य न मानना, उसे पराया धन कहना। कन्या दान इसी बात को इंगित करता है कि बेटी वस्तु है और उसे दान करके पिता पुण्य का अधिकारी है। यह अवधारणा नारी को व्यक्ति के रूप में स्वीकार ही नहीं करती। बेटी को भाइयों के समकक्ष परिवार का सदस्य संपत्ति में उत्तराधिकारी ही नहीं मानती। दहेज को समाप्त करने की बात पर जितना जोर दिया जाता है, उतना संपत्ति में अधिकार देने की बात पर नहीं। दान-दहेज की आड़ में अभी तक नारी को उसके संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जाता रहा है, दहेज को संपत्ति का अधिकार दिए बिना समाप्त करना, उसके साथ घोर अन्याय करना है। नारी को संपत्ति में अधिकार देने के बाद कुछ शतािब्दयों में दहेज स्वयं ही समाप्त हो जायेगा।

प्राचीन काल से ही धर्म की आड़ लेकर नारियों को छला जाता रहा है और उसी का एक रूप है दान-दहेज। अब हम समझने लगे हैं कि बेटी भी बेटे की तरह पिता की ही नहीं, संयुक्त परिवार की संपत्ति में भी बराबर की अधिकारी हैं, इसलिए दान-दहेज की अवधारणा ही समाप्त हो जाती है। लेकिन अभी तक सरकारों ने कानून बनाए हैं, उन्हें व्यक्तियों ने अंगीकार नहीं किया है। दहेज को गालिया¡ तो देते हैं, किन्तु दहेज बंद करके पिता की संपित्त में बेटी के अधिकार को मान्यता नहीं दे रहे। कानून भले ही बन गया हो किन्तु कितने लोग बेटी को उसका हिस्सा देने को तैयार हैं? कितनी बेटिया¡ इसकी हिम्मत जुटा पा रहीं हैं कि वे भाई से अपने अधिकार की मा¡ग कर सकें? कितने भाई बहन को उसका हिस्सा देकर उसके साथ प्रेम और सौहार्द्र से जीवन भर व्यवहार करने को तैयार हैं? कोई बहन बिना कानूनी कार्यवाही के पिता की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त नहीं कर सकती और कानूनी कार्यवाही के बाद भाई कह देते हैं कि अब उससे हमारा कोई रिश्ता नहीं। ऐसा ब¡टवारे के बाद भाइयों में तो नहीं होता कि आपस में उनका कोई रिश्ता ही न रहे फिर बहन के साथ सामान्य ब¡टवारा क्यों नहीं स्वीकार किया जा सकता? बेटी का पिता की संपत्ति में अधिकार देने से दान-दहेज स्वयं ही समाप्त हो जायेगा। किसी कानूनी, संस्थागत या जनान्दोलन की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

जब बेटी पिता की संपत्ति में अपना अधिकार प्राप्त करके विवाह करे तो पति के साथ उसकी संपत्ति में बराबर की अधिकारी भी होगी। वर्तमान स्थिति में उसे निर्वाह व्यय के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं, जबकि निर्वाह व्यय देने की बात ही कहा¡ आती है? वह अपने पति के साथ समस्त संपत्ति में परिवार के एक सदस्य के रूप् में अधिकारी होनी चाहिए। बेटे-बेटियों को मा¡-बाप द्वारा भेदभाव रहित प्यार-दुलार मिले, उनका पालन-पोषण भेदभाव रहित वातावरण में हो, िशक्षा के अवसर देकर दोनों को ही विकास के अवसर मिलें और समय आने पर दोनों को ही पारिवारिक सदस्य होने के नाते पारिवारिक सम्पत्ति में भाग मिले। शादी के बाद परिस्थितियों को देखकर पति-पत्नी निर्धारित करें कि स्थाई रूप से उन्हें पत्नी या पति के पैतृक स्थान किस स्थान पर रहना है। नर-नारी की प्राकृतिक भिन्नताओं के बाबजूद अपनी-अपनी प्रकृति, आवश्यकताओं व क्षमताओं के अनुरूप उन्हें अपने-अपने कौशल के विकास के अवसर मिलें ताकि वे समाज के लिए अच्छे से अच्छा कर पायें। समान क्षमताओं व अधिकारों से सम्पन्न स्त्री-पुरूष पति-पत्नी के रूप में मिलेंगे तो उनमें अधिक सामंजस्य व प्रेम होगा और हम एक आदर्श समाज की और बढ़ सकेंगे। सभी के लिए अवसर मिलने पर समानता के संघर्ष से भी बचा जा सकेगा, जो किसी भी दृिष्ट से समाज के लिए उपयोगी नहीं है। समान अवसरों की अवको व्यवहार में लागू कर देने से दहेज अपने आप समाप्त हो जायेगा। दहेज और संपत्ति का ब¡टवारा दोनों को साथ-साथ लेकर चलना होगा। संपत्ति में अधिकार के साथ-साथ मायके व ससुराल दोनों ही स्थानों पर परिवार के सदस्य के रूप में मान्यता देनी होगी। आज की नारी की यही मा¡ग है:-

दहेज नहीं, अधिकार चाहिए।

जीवन भर का प्यार चाहिए।।

Tuesday, June 24, 2008

अविश्वास भरा विश्वास, सन्देह भरा समर्पण,

आपका हंसता हुआ वो चेहरा याद आता है,

होठों का मुस्काता गुलाब, अब भी याद आता है।


मधुरता लिए हुए वो गुस्सा था कितना मनोहर,

नयनों में बसा वो प्रेम, अब भी याद आता है।


मुस्कराने की वो अदा, वो ढलती हुई जवानी,

इंकार में छिपा आमंत्रण, अब भी याद आता है।


कुछ भी करने की चाहत, वो संदेहों के घेरे,

साथ निभाने का वायदा, अब भी याद आता है।


अविश्वास भरा विश्वास, सन्देह भरा समर्पण,

लोक-भय भरा आलिंगन, अब भी याद आता है।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

प्रेम नहीं कर पाओगी

वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की नहीं सुन पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

पढ़ने-लिखने भर से कोई,श्रेष्ठ नहीं बन जाता है।

आत्मसात कर करे आचरण,वो ही कुछ कर पाता है।

हमने सब कुछ कह डाला है, तुम भी क्या कुछ कह पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

तुम्हे पाने की चाह नहीं थी, स्वार्थ भरी यह राह नहीं थी।

तुम्हारी खुशियों की खातिर ही, हमने तुम्हारी बा¡ह गही थी।

जाते हुए यह दुख है , केवल तन्हा कैसे रह पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

काश तुम्हें खुशियां दे पाते, प्रेम तुम्हारे से मिलवाते।

तुमको जीवन रस मिल जाता,शायद हम भी खुश रह पाते।

सोचा था तुम बनोगी साथी, लेकिन तुम ना बन पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

Monday, June 23, 2008

विचार करें और बतायें

महाराष्ट्र से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका लोक-यग्य के अप्रैल-जून २००८ के अंक के सम्पादकीय में सुप्रसिद्ध कहानीकार अमरकान्तजी की दयनीय स्थिति को उजागर किया गया है कि वे आजकल अपने गांव में दाने-दाने को तरस रहै है. इसी प्रकार का एक समाचार २००६ में बिहार के बढईया के कवि श्री कान्त प्रसाद सिंह का भी मिला था. इस प्रकार के उदाहरण साहित्य-जगत में भरे पढे हैं. भावनात्मक रूप से यह विषय साहित्यकार की सहायता की मांग करता है किन्तु यह प्रश्न भी उठ्ता है कि सन्सार को सीख देने वाला एक बुध्दिजीवी इतना असहाय क्यों हो जाता है कि उसे रोटी के लिये हाथ फ़ैलाना पडे? मेरा विचार है साहित्य जीविकोपर्जन का साधन नहीं है, यह केवल एक शौक, एक जज्बा है समाजसेवा जैसा. इसको समाज सेवा की तरह ही लेना चाहिये, इससे जो आजीविका कमाना चाहेगा, उसका ऐसा ही हश्र होगा. यद्यपि कुछ लोगों ने साहित्य से मलाई भी उडाई है किन्तु वे अपवाद हैं और साहित्य की राजनीति करने वाले रहै हैं. सामान्य सहित्यकार के लिये यह संभव नहीं है. वर्तमान समय मैं हिन्दी के कवियों से तो छापने के भी रुपये मांगे जा रहै हैं, पुरस्कार बेचे जा रहै हैं, ऐसी स्थिति में विचारणीय है कि अलग आजीविका का साधन रखकर ही इस मार्ग पर बढा जाय ताकि हमको रोटी के लिये दान या भीख के लिये हाथ न फ़ैलाना पढे.

Sunday, June 22, 2008

मेरी चाहत का जनाजा

मुक्तक
मेरी चाहत का जनाजा

मेरी चाहत का क्या जनाजा निकाला है तुमने,
मेरी गलतियों का अहसास कराया है तुमने,
मैंने तुम्हें अपना मानने का भ्रम पाला था जो,
गलत था, खुबसूरती से आभास कराया है तुमने ।


तुम्हारे सोने,जागने,बतियाने का साक्षी होता था मैं,
तुम्हारे पढ़ने,पढ़ाने, हरषाने का चिन्तन करता था मैं,
न समझा, न जाना, न पहचाना,इसमें मेरा क्या दोष?
तेरे हित में प्रबंधन हर-पल किया करता था मैं।



मैं आया था सीख देने,सीख लेकर जा रहा हूँ ,
निज नियम,सिद्धांत,कार्यविधि गलत पा रहा हूँ,
तुम्हारी दृष्टि में, निर्दयी था,छुटकारा तुमको देकर,
पथ में विछी हों कलियां, दुआएं देता जा रहा हूँ।


तुमको छोटा,ना समझ,नादान समझ बैठा था मैं,
न थी इच्छा-शक्ति, सामर्थ्य,विवेक,जो मान बैठा था मैं,
चाहा था स्वच्छन्दता से जीना,बाधक बन बैठा था मैं,
हो सके तो माफ करना,गलतियां जो कर बैठा था मैं।


अनिश्चित, दुर्गम, नीरस यात्रा, दुआएं, देता जा रहा हूँ मैं।
अविरल,अनविरत,निर्भय बढ़ो,कामना करता जा रहा हूँ मैं।
अबाधित,अकण्टक,अभयता,असीमितता हो, विकास पथ पर,
चिर प्राप्त्याशा,फलागम हो तुझे,तू रह सुखी, जा रहा हूँ मैं।


चहुँ ओर सुख की छाया, सरस हो तुम्हारा जीवन,
कुसुम पूरित हो पथ,पल-पल पाओ पराग संजीवन।
कण्टक,कष्ट,कठिनाई,मिल जायं मुझे,तुम्हें बहारें,
जन्नत और स्वर्ग मिलें,इस भू पर ही तुम्हें आजीवन।

Wednesday, June 18, 2008

लालच का फल

मुकुंदपुर एक छोटा सा गांव था। गांव में ठाकुर रहते थे। अत: मुकुन्दपुर ´´ठाकुरों का नगला इस नाम से भी जाना जाता था। गांव के सभी लोग खेती का काम करते थे। गांव के किसानों की स्थिति सम्पन्न नहीं तो अच्छी थी यह तो कही ही सकते है। इसी गांव के पुरोहित पण्डित जी बगल के गांव में रहते थे। मुकुन्दरपुर में एक छोटा सा परिवार था जिसमें केवल दो सदस्य थे। स्वयं ठाकुर रामसिंह एवं उनकी नई नवेली पत्नी रामदेई। घर के सभी काम काज को निपटाकर वह दरवाजे पर आ बैठी थी। बेचारी करती भी क्या ? ठाकुर रामकिसं भोर पांच बजे ही खेत पर निकल जाता था। ठकुराइन को दोपहर बारह बजे खाना खेत पर पहुंचाना होता। सुबह का कलेवा पहुंचाने के लिए ठाकुर मना ही कर गया थ। ठाकुर ठकुराइन को बहुत स्नेह करते थे। खेत दूर था। अत: उसे बार-बार परेशान करना उचित न था।सुबह सुबह पण्डित जी घोड़ी पर सवार गांव में आ गये, जरूर अगले गांव में जा रहे होगें। पण्डित जी को प्रणाम कर घोड़ी से उतर कर विराजने का आग्रह किया। पण्डित जी रस पानी पीकर ही आगे बढ़ो, पण्डित ने ठकुराइन के स्नेह अभरे आग्रह को ठुकराना उचित न समझा। पण्डित जी ने घोड़ी दरवाजे पर बांधी तब तक ठकुराइन पण्डित जी के लिए आंगन में चारपाई डालकर घोड़ी के आगे घास डल चुकी थी। गांव के सीधे-सादे लोग पण्डित जी के साथ-साथ पण्डित जी की घोड़ी को भी पूज्य समझते थे। पानी-वानी पिलाय के व कुशल-क्षेम पूछने के बाद ठकुराइन बोली महाराज, ``आप तो भूत, भविष्य, वर्तमान सब जानते हो, सो कृपा करिके हमारे दिन देख कर यह बताओें कि हमारे उनके और मेरे दिन कैसे चल रहे है। पण्डित जी ने पहले तो थोड़ी सी ना नूकर करी। लेकिन जब ठकुराइन ने पण्डित जी के चरणों में सवा पांच रूप्ये रख दिये तो पंचाग निकाल कर दिन बताने लगें।पण्डित जी बोले, ´´ठकुराइन और तो सब ठीक है, किन्तु आज को दिन तेरे लिये ठीक नहीं। शनि और राहू को योग है पिटाई होइवे की सम्भावना अधिक है। बेचारी ठकुराइन घबड़ा गई। वह आज तक ठाकुर के यहां बडे़ ही प्रेम पूर्वक रह रही थी। वह घबड़ा कर पण्डित जी के चरण पकड़कर बोली।´´महाराज जब आपने इतनी कृपा करी कि हमारे घर पर पधारे और दिन बतायें। आप तो बहुत ही विद्वान है। याको कोई न कोई उपाय भी अवष्य होइगो। कृपा करिके उपाय बताओं। पण्डित जी महाराज पहले तो कुछ चिन्तित हुए किन्तु अचानक उनकी आंखों मे चमक आ गई। आज के दिन के लिए किसी ने पण्डित को निमन्त्रण भी नहीं दिया था। अत: उन्होंने सोेचा आज का निमन्त्रण पक्का कर लिया जाय।पण्डित जी गम्भीर होते हये बोले, ``ठकुराइन शनि को प्रकोप कठिन है इस से बचने को उपाय तो है। लेकिन तू कर नहीं पायेगी।ठकुराइन कुछ आष्वस्त होकर बोली `` महाराज बताओं तो सही ऐसो कौन सौ उपाय है, जाय मैं करि नाय सकूं।``पण्डित जी बोले ठकुराइन `` आज की तिथि में अगर काऊ विद्वान ब्राह्मणको भोजन करा दे तो तेरे ऊपर से शनि को प्रकोप टल सके। अब मैनें तौकू उपाय बताय दियो, अब मैं चलू हु¡।ठकुराइन ने तुरन्त पण्डित जी के पैर पकड़ लिये `` महाराज ये कोई कठिन काम नाय¡, हमा तुम्हारे जिजमान है। यह तो आप जानो कि हम आपके सिवा और काहू कूं नाय बुलावें। यह तो आप देख ही रहे हो कि घर से ठाकुर साहब है नाय। आपको बुलाइवे कौन जावेगा। कृपा करिके दस मिनट ठहरो। दूध गर्म हो रहयो है वामे चावल डाल के खीर बनाऊ¡। कढ़ाई में घी देकर पूड़ी निकालू¡।पहले तो पण्डित जी राजी न हुए किन्तु जब ठकुराइन ने अधिक आग्रह कि तो उसकी मजबूरी को समझकर बोले, अच्छा मैं यहा¡ बैठो हु¡, तू जल्दी कर सब्जी बनाइयो मत, नहीं तो देर लगेगी। खीर में चीनी अधिक डाल दियो। मैं वाई ते पूड़ी खइ लुंगो। पण्डित जी को चारपाई पर बिठाकर पण्डित जी के लिए ठकुराइन रसोई बनाने लगी। दूध गर्म था चावल डाल दिये, खीर बनने में कोई देर नहीं लगी। आटा भी बना हुआ था तुरन्त पूड़ी भी बनाली। थाली लगाते समय चीनी डालने में ठकुराइन ने कंजूसी की, व पण्डित जी को भोजन कराने बिठा कर पड़ोस से सब्जी लेने चली गई।पण्डित जी को कम मीठी खीर अच्छी न लगी। वह ठकुराइन को मन ही मन गाली देने लगे। फिर यह सोचकर ठकुराइन नेजिस बर्तन में से चीनी डाली थी वह रसोई में ही रखा है। उसमें से उठकर चीनी डालने में कोई हानि नहीं पंडित जी अपने स्थान से खड़े होकर रसोई में गये। रसोई में एक जैसे दो बर्तन थे एक में तो चीनी थी एक में नमक, पण्डित जी ने नमक को ही चीन समझा और मन भरक चीनी डाली।पण्डित जी ने जब पुन: आकर भोजन प्रारम्भ किया तो खीर मु¡ह में भी रखी जाये। पण्डित जी चक्कर में पड़ गये। आधी छोड़ एक कू धायें, दोनौ में एक भी ना पाये। अब क्या किया जाय ? यह खीर नहीं खाई जा रही है। अत: पण्डित जी ने खी को फेंकने का निर्णय लिया। फेंकने की भी समस्या पण्डित जी खीर फेंकने का स्थान देखने लगे। ठाकुर के आंगन में एक कुआ था। पण्डित जी ने तुरन्त सोचा क्यों न यह खीर कूए में डाल दी जाय। पण्डित जी ने खड़े होकर कूएं में खीर डालने का काम किया कि खीरके साथ पण्डित जी के हाथ से थाली भी छूटकर कूंए में जा गिरी।क्या किया जाय ? ठकुराइन आ गई तो चक्कर पड़ जोगा यह सोचकर पण्डित जी ने थाली निकालने के लिए कूए में उतरने की योजना बनाई। पण्डित जी ने रस्सी कूए के पास बांधी व उसे पकड़ कर कूए में उतरने लगे। रस्सी काफी पुरानी थी पण्डित जी का दुभाZग्य पण्डित जी के नीचे पहूंचने से पहले ही रस्सी टूट गयी खैर भगवान का शुक्र था पण्डित जी को कोई चोट नहीं आयी।ठकुराइन को पड़ोस से सब्जी लाने में देर हो गई, जब ठकुराइन सब्जी लेकर वापिस आई तो वहां पण्डित जी को न देख सन्न रह गयी। ठकुराइन पण्डित जी को इधर-उधर देखने लगी। घोड़ी अभी तक दरवाजे पर खड़ी घास खा रही थी अत: पण्डित जी के जाने का तो सवाल ही नहीं था, वह बैचेनी से इधर-उधर देखने लगी ठकुराइन की नजर अचानक कूऐ की तरफ गई तो पण्डित जी के जूते एवं बंधी हुई रस्सी दिखाई दी। पण्डित जी को कूऐ में आवाज लगाई तो पण्डित जी बोले, `` ठकुराइन कोई रस्सी लेके पहले मोकू निकाल लें, बाद में बात बताऊ¡गो।ठकुराइन ने घर में से नई रस्सी निकाली व रस्सी पकड़ कर कूएं की मेढ़ पर खड़ी को गई। पण्डित जी को कूएं से निकलने की जल्दी थी उन्होंने यह ध्यान नहीं दिया कि ठकुराइन ने रस्सी बांधी है या नहीं। पण्डित ने जैसे ही रस्सी पकड़ी ठकुराइन झुक कर तो खड़ी ही थी झटके के साथ कूएं में जा गिरी। किन्तु इतनी भगवान की कृपा थी कि अब भी ठकुराइन या पण्डित जी के कहीं चोट नहीं आयी थी।ठकुराइन व पण्डित जी दोनों को कूए में काफी समय हो गया दोपहर का एक बज चुका था। खेत पर ठाकुर रामसिंह ठकुराइन का इन्तजार करते-करते परेशान हो गया तो अपने बैलों को पेड़ से बांध पैना (बैलों को छांकने वाला) लेकर अपने घर आया। दोपहर का समय था। ठाकुर का मुंह गुस्से से लाल हो रहा था। किन्तु दरवाजे पर पण्डित जी की घोड़ी को देखकर कुछ आश्वस्त हुआ। कोई बात नहीं पण्डित जी आ गये है। इसी कारण से से ठकुराइन खेत पर न आ सकी। ठाकुर पण्डित जी का बहुत आदर करता था रामसिंह घर में घुसा तो दखा दरवाजा खुला पड़ा है किन्तु ठकुराइन व पण्डित जी कहीं दिखाई नहीं दे रहे। वह रसोई में गया तो खीर पूड़ी बनीं रखी है। ठाकुर रामसिंह अब झल्लाता हुआ ठकुराइन को खोजने लगा।क्ाफी देर बात रामसिंह की नजर कूएं पर गई। उसने रस्सी लटी देखकर आश्चर्य से कूएं में देखा। ठकुराइन व पण्डित जी को कूएं में देखकर ठाकुर के गुस्से का ठिकाना न रहा। पूरा घर छोड़कर इनहें रंग-रेलिया¡मनाने के लिये कुआ मिला। पण्डित जी इतने नीच होगें आज से पहले उसने कभी सोचा भी न था। वह गुस्से में हाथ में पैना लेकर ही कूएं में कूद पड़ा। ठाकुरो का गुस्सा तो प्रसिद्ध होता है। उसने गुस्से में पण्डित ही व ठकुराइन को लहूलुहान कर दिया। इसके पश्चात ठाकुर ने जैसे तैसे उन दोंनो को कूए से बाहर निकाला।बहर निकालने के पश्चात बोला, ´´पंण्डित जी महाराज अब बताओ का बात भई हती।``पण्डित जी ने कहा, ´´ भइया ठकुराइन को पिटवे को योग हो। मैंने लालच किया बाकी सजा मिली, लेकिन अब बात कू मत पूछौ।ठाकुर रामसिंह बोला, ´´ पण्डित जी महाराज बात तो बतानी ही पड़ेगी। बिना बात बतायें जाने नाय दु¡गो। पण्डित जी ने सारा किस्सा सुनाया और बोले ठाकुर अगर ठकुराइन ने खीर में चीनी डालवे में लालच नाय¡ किया होतो या मैंने लालच न कियो हा तो काउकी पिटाई नाये होती। लालच का फल बुरा होता है।

Tuesday, June 17, 2008

सरकारी कर्मचारी

सरकारी कर्मचारी

रिश्वत लेते कर्मचारी को,

अधिकारी ने पकडा

पहले तो जा जकड़ा,

फिर चिल्लाकर कहा

बेईमान रिश्वत लेता है,

हमको कुछ नहीं देता है,

कार्ड लिया झटक

लिखने लगे रपट

पहले नाम और पता लिखाया

तारीख तीस थी तीस हजार पकडाया

अधिकारी थोडा सकुचाया,

थोड़ा मुस्काया बोला,

पहले क्यों नहीं बताया?

बेकार में इतना सताया

राष्ट्रप्रेमी राष्ट्रकार्य करो,

हिचकिचाना नहीं,

सरकारी आदमी होकर,

सरकार से सकुचाना नहीं।

Sunday, June 15, 2008

अपराधियों का निर्माण अपराधियों का निर्माण

अपराधियों का निर्माण

आज जग्गू धीरे-2 सीधा चला जा रहा था, वह गा¡व छोड़कर कल भागा था। कल से लगातार चलते-चलते थक गया है। गर्मियों के दिन हैं, नंगे पैर हैं पानी के कहीं दशZन नहीं है आ¡खों में निद्रा है या बेहोशी पता नहीं। कुल मिलाकर जग्गू को आज सान्त्वना है वह जानता है कि वह आज जिस रास्ते पर जा रहा है। उसके माध्यम से वह अपनी बहन के हत्यारों से एक न एक दिन बदला अवश्य ले लेगा।उसे इन्तजार है उस दिन का जब चम्बल की घाटी में नये डाकू जग्गू का नाम गू¡जेगा। जब जग्गू चार वषZ का था तो उसके माता पिता उसे एक शरीफ, सज्जन एवं प्रतििष्ठत (जिसकी समाज में इज्जत हो) आदमी बनाना चाहते थे। मा¡ बाप के आशीZवाद एवं अपने परिश्रम से जग्गू शहर का माना हुआ डाक्टर बन गया। आज उसके पास बड़ी दूर-2 से मरीज आया करते थे। मा¡ बाप के सामने ही जग्गू ने घर की स्थिति सभा¡ल ली थी। जग्गू के माता पिता एवं स्वयं जग्गू भी प्रसन्न था। जिस दिन जग्गू के माता पिता का स्वर्गवास हुआ था जग्गू फूट-फूटकर रो पड़ा था। माता-पिता द्वारा दिये गये प्यार को जग्गू कैसे भुला सकता था। जग्गू के एक छोटी सी बहन थी। जग्गू उसे बहुत प्यार करता था, वह उसकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने को तत्पर रहता था। जग्गू प्यार में अपनी बहन को पिंकी कहकर पुकारा करता था। वैसे उसकी पूरा नाम प्रेमलता था। जग्गू ने पिंकी को कालेज में दाखिल कर दिया था। वह प्रतिदिन सुबह साढ़े नौ बजे पिंकी को कालेज छोड़ने एवं साढ़े तीन बजे वापस लेने उसके पश्चात ही वह क्लीनिक पर पहु¡चता। वह पिंकी को किसी भी प्रकार कष्ट नहीं होने देता। पिंकी अपने भाई को भाई ही नहीं पिता के समान मानती थी। वह उसका अत्यन्त आदर करती थी। उसे अपनी बहन से ही प्यार नहीं था उससे भी अधिक अपने कर्तव्य से प्यार था। वह एक अच्छे व समाज सेवी डॉक्टर के कर्तव्यों को भली प्रकार जानता व पालन करता था। वह प्रत्येक मरीज की देखभाल इतनी तन्मयता के साथ करता कि उस समय वह अपने को भी भूल जाता। वह जानता था कि डॉक्टर का कर्तव्य होता है मरीज की जी जान से सेवा करें भले ही मरीज उसका दुश्मन ही क्यों न हो। इसी कर्तव्यनिष्ठा के कारण जग्गू आज सम्पूर्ण शहर में मशहूर था। एक प्रतििष्ठत डॉक्टर होने के नाते जग्गू का सम्र्पक अक्सर बड़े-2 अधिकारियों से होता रहता था। जग्गू अपने कर्तव्य पालन में व्यस्त रहता उसे अधिकारियों से कोई लगाव नहीं था। वह स्वयं कर्तव्य पालन करता था उसी प्रकार चाहता था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन करे। इस वषZ जग्गू के यहा¡ नये जिलाधिकारी ट्रान्सफर होकर आये। जहा¡ तक अनुभव था पुराने जिलाधिकारी के समय जिला प्रशासन व्यवस्थित रूप से चलता था। नये जिलाधिकारी के आते ही प्रशासन का स्तर गिरने लगा था। जग्गू को सुनने को मिलता कि फल¡ा स्थान पर ``निर्दोष राहगीर को पुलिस ने पीटा।´´ या फला¡ स्थान पर कुछ लोगों ने अबोध बालिका के साथ बलात्कार किया-----फला¡ स्थान पर-----। जग्गू ऐसे समाचार सुनकर या पढ़कर दु:खी होता लेकिन वह क्या कर सकता था। पुलिस ने प्रत्येक दुकानदार से मासिक चौथ वसूलना प्रारम्भ कर दिया था। कोई दुकानदार पुलिस द्वारा वसूली का विरोध करता तो पुलिस उसे थाने पकड़कर ले जाती और झूठे मुकदमे मड़ देती। बेचारे निर्दोष नागरिकों की परेशानिया¡ बढ़ती जा रहीं थी। एक दिन जग्गू अपने चिकित्सालय से पिंकी को लेने कालेज जा रहा था कि रास्ते में गाड़ी खराब हो गयी और वह पिंकी को लेने देर से पह¡चा । वह कालेज के गेट पर पहु¡चा ही था कि उसने पिंकी की चिल्लाने की आवाज सुनी वह चौंका उसने सामने ही एक युवक, पिंकी को जबरन अपनी गाड़ी में बिठाने का प्रयास कर रहा था उसके साथ चार गुण्डे और थे। जग्गू का चेहरा क्रोध से लाल पड़ गया वह अपनी गाड़ी खड़ी करके उस युवक के पास पहु¡चा ही था कि युवक के साथियों ने जग्गू को पकड़ लिया और धक्का मारकर एक तरफ गिरा दिया। वह बदमाश जग्गू की बहन को आ¡खों के सामने ही उठाकर ले गये जग्गू रोक न सका। जग्गू पागल सा हो गया वह क्या करे समझ में नहीं आ रहा था। उसे उठने सोचने व निर्णय पर पह¡चने में लगभग आधा घण्टा लगा, वह गाड़ी स्टार्ट कर के थाने की ओर चल दिया। थाना कालेज से एक किलोमीटर दूर था कि उसे गड्ढे में अस्त व्यस्त कपड़ों में पिंकी दिखायी पड़ी वह मानो पागल हो गया था गाड़ी रोककर उसे देखता ही रहा तब तक पिंकी आकर उससे लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी। उन पा¡च गुण्डों ने पिंकी के साथ बलात्कार किया था। वह चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी भैया अब तुम कुछ नहीं कर सकते थाने न जाओ वह एक बड़े पुलिस अधिकारी का पुत्र है। किन्तु जग्गू कानून को इतना गिरा हुआ न समझता था वह पिंकी को साथ लेकर थाने पहु¡चा। उसने लाख मिन्नत की थानेदार की किन्तु थालेदार ने रिपोर्ट न लिखी। उसे थाने से धमकाकर भगा दिया। जग्गू समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। एक ऐसा भाई जिसकी बहन के साथ बलात्कार हुआ हो आखिर चुप कैसे बैठ सकता था। जग्गू को उच्चाधिकारियों से कुछ आशा थी इसलिये जिलाधिकारी एवं पुलिस अधीक्षक के पास िशकायत भेजी किन्तु वहा¡ से भी एण् डीण् के सिवा कुछ प्राप्त नहीं हुआ। जब जग्गू को िशकायत भेजे महीने बीत गये तो उसनेे वकील के माध्यम से मुकदमा चलाने का विचार किया व एक अच्छे वकील को फीस देकर नोटिस दिया। नोटिस पर आखिर कोई न कोई प्रतिक्रिया होनी ही थी। प्रतिक्रिया स्वरूप एक दिन जग्गू के घर पर चार सिपाही आ धमके दरवाजे पर डण्डे पीटे। जग्गू बाहर निकला तो बोले,``चल तुझे सीण् आईण् साहब ने बुलाया हे और प्रकार हो गया जग्गू के साथ मारपीट व धमकी देने का सिलसिला। अब तो जग्गू थाने पर बुलाया जाता मार-पीट कर धमकाया जाता व समझाया जाता कि वह मुकदमा वापस ले ले। मुकदमा वापस ले ले वरना हम तुझे दस्यु विरोधी अधिनियम में जेल भेज देगेंं। तेरा घर चौपट हो जायेगा किन्तु मुकदमा वापस लेने को राजी नहीं हुआ। उसे न्याय मिलने की आशा जो थी। जब जग्गू ने मुकदमा वापस लिया तो एक दिन थानेदार साहब आये और जग्गू को थाने में ले जाकर हवालात में बन्द कर दिया और सलाखों पर डन्डा मारकर विजय पूूर्ण कुटिल मुस्कान में बोले,``हमने बड़े-2 बदमाश ठीक किये हैं।´´ जग्गू किन्तु ``लातों के देव बातों से नहीं मानते।´´ रात्रि को थाने में जग्गू की खूब पिटायी की गयी और सुबह 6 बजे उसे छोड़ दिया। सुबह जग्गू घर पहु¡चा। दरवाजा अन्दर से बन्द था जग्गू ने कई आवाज लगाई व दरवाजे को पीटा किन्तु जब अन्दर से कोई प्रतिक्रिया न हुई तो अनापेक्षित आश¡का से जग्गू के चेहरे पर हवाइया¡ उड़ने लगी। पड़ोसियों की सहायता से दरवाजा तोड़ा गया। दरवाजा टूटने पर जब जग्गू बेड रूम में पहु¡चा तो वहा¡ का दृश्य देखा तो जग्गू के काटो तो खून नहीं पिकीं अस्त व्यस्त हालत में पड़ी थी उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी पास में पिकीं के हाथ का लिखा हुआ पत्र पड़ा था जिसमें लिखा था-प्रिय भैया , अब में इस संसार से परेशान हो चुकी हू¡। एक ऐसी दुनिया में जा रही हू¡ जहा¡ स्त्री को केवल उपभोग की वस्तु नहीं समझा जाता। तुम्हारे जाने के बाद वही लड़का आया था जिसने पूर्व में मेरी इज्जत लूटी थी। आज भी मेरे साथ मु¡ह काला किया और यह कहकर चला गया कि कह देना अपने भैया से लड़े मुकदमा और लड़े। भैया कानून अन्धा है तुम अब मेरी मृत्यु का समाचार भी पुलिस को न देना। तुम्हारी अभागिन पिकीं जग्गू ने पत्र पढ़ा। पत्र पढ़ते-2 उसका चेहरा कठोर हो चुका था। इस कानून से विश्वास उठ चुका था। जग्गू पिकीं की लाश को उसी हालत में छोड़कर भागा जा रहा था। भागा जा रहा था और उसके पैर चम्बल की खािड़योंं की तरफ बढ़ रहे थे।

Friday, June 13, 2008

समानता का नारा- वास्तविक समस्या?

वास्तविक समस्या ?

वर्तमान समय में नारी समस्या ,नारी सशक्तीकरण,नारी कल्याण, नारी अत्याचार, नारी मुक्ति आदि विषय किसी भी मीडिया संगठन के लिये आकषZक, मनोहारी, आदशZवादी ,सहज उपलब्ध ,सर्वस्वीकृत व अपने आप को आधुनिक प्रगतिशील सिद्ध करने में सहायक विषय हैं। इन विषयों पर प्रकािशत आलेखों, विभिन्न चर्चाओं व प्रसारित कार्यक्रमों से ऐसा आभास होता है कि भारत में अचाानक नारी पर अत्याचार बढ़ गये हैं। यदि कहीं ऐसा है भी तो उसके लिए केवल पुरूष को उत्तरदायी ठहराना उसके साथ अन्याय करना है। आधुनिक स्वच्छन्दता ही इसके लिए उत्तरदायी है। जन्म से लेकर शादी तक बेटी को दुलार से पालने वाला, बेटी की सुरक्षा व संरक्षा में अपनी जान की बाजी लगाने वाला, बेटी की िशक्षा व शादी के लिए कोल्हू के बैल की तरह काम करके व पेट काटकर धन इकट्ठा करने वाला, जीवन-पर्यन्त बेटी की इच्छा व परंपरा के अनुरूप विभिन्न उपहार पहु¡चाने वाला पिता भी एक पुरूष ही है। जबकि जन्म से पूर्व बेटा की कामना करने वाली,गर्भस्थ भ्रूण की जा¡च व नष्ट करवाने को मजबूर करने वाली या स्वीकार करने वाली ,पालन-पोषण के समय बेटा-बेटी में भेद करने वाली , शादी के बाद बहू को ताने देने वाली भी एक महिला ही होती है क्योंकि कोई भी परिवार हो घर पर नियंत्रण स्त्री का ही होता है। इसीलिए तो वह गृहिणी कहलाती है। पुरूष बेटी को दुलारता है, बहन की राखी के लिए सब कुछ न्यौछावर करता है ,पत्नी की सलाह के अनुसार चलता है तथा माता की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझता है। अपवादों को छोड़ दें तो पुरूष स्त्री पर अत्याचार कर ही नहीं सकता क्योंकि वह नारी के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। वह जो भी करता है किसी स्त्री की सलाह, पे्ररणा, आज्ञा या जिद पर ही करता है। वह तो एक कठपुतली की तरह नारी के इशारों पर ना¡चता है। युगो-युगों से यही होता आया है और यही होता रहेगा। नारी के नयनों के एक संकेत पर अपनी जान की बाजी लगाने वाला पुरुष किस प्रकार नारी पर अत्याचार कर सकता है ? विशेष कर भारत के सन्दर्भ में, जहा¡ स्त्री के बारे में कहा जाता रहा है कि जहा¡ नारी की पूजा होती है वहा¡ देवता वास करते हैं। यही कारण है कि विदेशी नारियां भी भारतीय पुरूष से शादी करने की अभिलाषा रखतीं हैं। हो सकता है कि इस उक्ति का आज के सन्दर्भ में विशेष महत्व न हो किन्तु नारी के बिना नर का एक कदम भी चलना संभव नहीं। हो सकता है कुछ परिवारों में नारी को तात्कालिक रूप से निर्णयों में भागीदारी नहीं मिलती हो किन्तु अपवादों की कमी नहीं होती। यदि अपवादों को ही देखा जाय तो ऐसे पुरूष भी मिल जायेंगे जिनकी जिन्दगी को नारी ने तबाह कर दिया है और उसे चैन से जीने नहीं देतीं। कहने का आशय यह नहीं है कि नारी पर किसी भी प्रकार के अत्याचार नहीं हो रहे, वास्तविकता यह है कि अत्याचार तो हर जगह हर क्षण देखने को मिल जायेंगे। किन्तु अत्याचारों के लिए हमारे यहा¡ की व्यवस्था व युगों-युगों से स्थापित अंधविश्वास, कुछ गलत धारणाए¡ व कुप्रथाए¡ हैं। अगर कहीं महिला पर अत्याचार भी होता है तो महिला की सहायता करने आने वाला भी पुरूष ही होता है। मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि नारी पर किसी भी प्रकार का अत्याचार या अन्याय नहीं हो रहा है या सुधार की आवश्यकता नहीं है। सुधार की आवश्यकता तो सदैव रहती ही है।अत्याचार एवं अन्याय से केवल नारी ही पीिड़त नहीं बल्कि पुरूष भी अत्याचार झेलते हैं।किसी भी समस्या पर विचार करते समय हमें पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होना चाहिए।नर या नारी दोनों में से किसी के प्रति पक्षपात न रखते हुए ,स्वतंत्र व खुले दिमाग से विचार करके ही हम किसी उचित निष्कषZ पर पहु¡च सकते हैं।अपनी परंपराओं को गलत सिद्ध करके ही हम अपने को सुधारक सिद्ध करना चाहें तो यह भी उचित नहीं। हमें किसी भी परंपरा,अवधारणा,मान्यता व स्थापित मानदण्डो का विरोध केवल विरोध के लिए नहीं करना चाहिए। परंपराओं व संस्कृति की श्रेष्ठता व उदात्ता से किसी समाज के चरित्र का विकास व उसके नागरिकों के जीवन का निर्माण होता है। अत: हमें विचार करना चाहिए कि समाज में विभिन्न प्रकार की नयी-नयी समस्याओं के उदय का कारण हमारे द्वारा संस्कृति का विकृत किया जाना तो नहीं है। हमें विचार करना चाहिए कि समाज केिन्द्रत विचारधारा स्वार्थकेिन्द्रत क्यों होती जा रही है ? बढ़ते हुए बलात्कारों ,अपहरणों ,दहेज हत्याओं व भ्रूण हत्याओं का कारण सांस्कृतिक पतन,मानसिक विकृति व हमारी संकीर्णता तो नहीं है? नर या नारी किसी एक को इसके लिए जिम्मेदार ठहराकर हम केवल बौिद्धक विलासिता की पूर्ति ही कर रहे होते हैं। हमारी कथनी व करनी में कितनी समानता है स्वयं अपने अन्दर झा¡ककर देखने की आवश्यकता है। वास्तविक समस्या का समाधान अवधारणाओं, मान्यताओं व वास्तविकता को समझे बिना संभव नहीं है। वर्तमान समय में हमने ऐसा वातावरण बना दिया है जैसे कि नर-नारी एक दूसरे के दुश्मन हों। नर-नारी को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया है। प्राकृतिक रूप से ही एक-दूसरे के पूरक, प्राकृतिक मित्र व प्राकृतिक सहचर होने के बाबजूद यह धारणा बना लेना कि पुरूष महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है या महिलाओं पर अत्याचार करता है, किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। आज नारी पुरूष समानता की बात करके, नारी अधिकारों की बात करके नर और नारी को एक दूसरे का प्रतियोगी बना दिया है। परिवार, समाज व राष्ट्र समानता के लिए तराजू रखकर बैठने से नहीं चलते। सभी की मूलभूत आवश्यकताएं पूर्ण हों,सभी को िशक्षा मिलें,सभी को विकास के अवसर मिलें तथा सभी को गौरव पूर्ण मानव जीवन मिले, प्रयास इसके लिए किये जाने की आवश्यकता है। कभी भी किसी को एक दूसरे के समान नहीं बनाया जा सकता। प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति का अपना महत्व होता है। किसी को किसी के स्थान पर प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। नर और नारी की समानता की तो बात ही दूर की बात है दो नारिया¡ भी समान नहीं होतीं। प्रकृति से ही प्रत्येक वस्तु,पदार्थ व प्राणी की भूमिका निर्धारित हैं। उनकी भूमिकाओं में किसी भी प्रकार का परिवर्तन व छेड़छाड़ विनाश को आमिन्त्रत करना है। हम प्रकृति से छेड़छाड़ करके ही पर्यावरण को इतना प्रदूषित करते जा रहे हैं कि एक दिन जिन्दा रहना ही समस्या बन जाने वाला है। यदि हम इसी प्रकार चलते रहे तो पृथ्वी से जीवन समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार नर और नारी की भी भूमिकाए¡ प्रकृति ने निर्धारित कर दी हैं। हम उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते और करेंगे तो उसके कुपरिणाम भी भोगने पड़ेंगे। समस्या प्रकृति प्रदत्त भूमिकाओं में परिवर्तन करके और बढ़ाई जा रही है। आज स्थिति यह है कि युगों-युगों से नारी जिस मातृत्व के कारण अपने आप को गौरवािन्वत महसूस करती रही है। वात्सल्य की जो नदी उसके उर के सागर में बहती है, आज उसी को गाली दी जा रही है। वात्सल्य,ममता व प्रेम लुटाने में कितने आनन्द की अनुभूति होती है इसे एक नारी ही बता सकती है। आज कहा जा रहा है कि नारी बच्चे पैदा करने वाली मशीन नहीं है। ये किसने कहा कि नारी मशीन है। एक जीता-जागता व्यक्तित्व एक मशीन कैसे हो सकता है। मशीन बनाने के प्रयत्न तो आज हो रहे हैं। आज नारी को ही नहीं पुरूष को भी एक मशीन बनाया जा रहा है। जिस समानता की बात की जा रही है वह समानता मशीन व उपकरणों में ही खोजी जा सकती है और आज मानव को संवेदनहीन प्राणी ही बना दिया है। केवल स्त्री को ही नहीं पुरूष को भी एक मशीन बना दिया गया है। इस समानता के नारे ने ही आज परिवार जैसी आधारभूत संस्था पर ही संकट खड़ा कर दिया है। स्त्री के रूप में परिवार का जो आधारभूत स्तम्भ था केवल वही नहीं पुरूष भी भौतिकता को अधिक महत्व दिये जाने के कारण धन कमाने की मशीन ही बन गया है। पति-पत्नी,माता-पिता,बाप-बेटा,भाई-बहन,बाप-बेटी तक के रिश्तों में कुछ नहीं रह गया है। इसके लिए हमारी गलत धारणाए¡,भौतिकता की अंधी दौड़,प्रकृति के विरूद्ध समानता का नारा जिम्मेदार है। जब परिवार का आधारभूत स्तम्भ नारी भी धन कमाने की मशीन बन गई तो परिवार का अस्तित्व कहा¡ रहेगा इसका तात्कालिक परिणाम तो यही आ रहा है कि हमारे बुजुगोZं के लिए ओल्डएज होम बनाने पड़ रहे हैं। यदि बहुत शीघ्र ही हमने इन गलत अवघारणाओं, मान्यताओं, कुप्रथाओं, भौतिकता की अंधी दौड़ तथा प्रकृति विरूद्ध समानता के राग से मुक्त नहीं हुए तो क्या होगा? कल्पना करना कितना कठिन है? कहा नहीं जा सकता।

Monday, June 9, 2008

माया-मुलायम के भक्त

भक्त बन जाइये

उपदेश नीति और धर्म अगर चाहो,
विदुर रचित नीति शास्त्र म¡गवाइये,
जोश रोष वीरता की आश लेके प्यारे,
वीर शिवाजी की जीवनी पढ़ जाइये।

देखना संयोग और वियोग तो,
प्रेमी को प्रेमिका से पत्र लिखवाइये,
प्रेम की पीर को बिना भोगे जानो तुम,
घनानन्द काव्यरस डुबकी लगाइये।

यूपी की राजनीति समझना यदि चाहो,
माया-मुलायम के भक्त बन जाइये,
आरक्षण राजनीति समझने हेतु यारो,
राजस्थान में आज-कल भ्रमण कर जाइये।

Wednesday, June 4, 2008

अभागी देवी

अभागी देवी
आज जगदेव पूरी तरह निराश हो गया था। उसने मुकदमों के सारे कागजातों को फाड़कर हीटर पर डाल दिया। उसके धैर्य का बांध टूट चुका था। उसकी पत्नी रमा अन्दर बैठी रो रही थी। अभी मुश्किल से पांच वर्ष ही तो हुए होंगे शशी की शादी को। शशी रमा के एकमात्र पुत्री थी। उसके एक भाई था दिलीप, वह शशी से छोटा था। शशी को अपने माता एवं पिता का अपार प्यार मिला था। शशी के पिता ने शशी की शशी की शादी पर क्या नहीं दिया था ? शशी की शादी में अपना सारा धन खर्च कर दिया था। अपनी पुत्री की खुशी के लिये। वे यह नहीं जानते थे कि दहेज दहेज की भूख कभी शान्त नहीं होती। शशी जब पहली बार ससुराल से आयी तभी उसे कोई प्रसन्न नहीं देख पाया इसका एकमात्र कारण था शशी की उपेक्षा। ससुराल से दस हजार रूपये की मांग की गयी थी। जगदेव ने शशी की खुशी का ख्याल रखकर कर्ज लेकर ससुराल की मांग पूरी की तथा उसे ससुराल विदा किया। किन्तु ससुराल में उसे फिर भी प्यार नहीं मिला । छह महीने बाद शशी के हाथ द्वारा लिखा पत्र आया कि यहाँ पर मुझे बहुत परेशान किया जा रहा है। मुझ से यह पत्र जबरदस्ती लिखवाया जा रहा है कि मै मोटर साइकिल की मांग करूँ । इसके बाद पांच पत्र और आये तरह-तरह की धमकियां भरे। और छठंवा पत्र आया था शशी के पति द्वारा लिखित जिसमें शशी की मौत की सूचना दी थी। सूचना शशी की लाश जलाने के बाद दी गयी थी। बताया गया था कि उसने फांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली। जगदेव ने वहाँ जाकर सारा वाकया जानना चाहा तो पड़ोसियों ने बताया कि शशी ने बहुत शोर मचाया था किन्तु उन्हें उसके पास तक शशी के ससुर ने नहीं जाने दिया था। मामला स्पष्ट आत्महत्या का न होकर हत्या का था। किन्तु कोई गवाह तैयार नहीं था। जगदेव ने पूरे चार साल तक मुकदमा लड़ा किन्तु न्याय नहीं मिला। आज उसका धैर्य टूट चुका था। उसके हृदय से एक ही बात निकल रही थी कि क्यों ? जन्म लेती है भारत में अभागी देवी ! क्यों यहाँ के देवताओं में समझ नहीं आता? देवियों के बिना इनका अस्तित्व संभव ही नहीं है। क्यों देवियों को उनकी पैतृक सम्पत्ति में अधिकार नही दिया जाता ताकि उनको किसी दान-दहेज की आवश्यकता ही न रहे और उन्हें किसी को दान में दिये जाने वाली वस्तु न बनना पड़े।

Sunday, June 1, 2008

मन्दिर वहीं बनायेगी

मन्दिर

चुनाव का समय,

निकट आया

परिषद को राम नाम भाया

कुछ भी हो

वह राम नाम जाप करायेगी

वोट बैंक बढ़ायेगी

राष्ट्र रहे न रहे

मन्दिर वहीं बनायेगी।