Tuesday, June 24, 2008

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

प्रेम नहीं कर पाओगी

वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की नहीं सुन पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

पढ़ने-लिखने भर से कोई,श्रेष्ठ नहीं बन जाता है।

आत्मसात कर करे आचरण,वो ही कुछ कर पाता है।

हमने सब कुछ कह डाला है, तुम भी क्या कुछ कह पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

तुम्हे पाने की चाह नहीं थी, स्वार्थ भरी यह राह नहीं थी।

तुम्हारी खुशियों की खातिर ही, हमने तुम्हारी बा¡ह गही थी।

जाते हुए यह दुख है , केवल तन्हा कैसे रह पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

काश तुम्हें खुशियां दे पाते, प्रेम तुम्हारे से मिलवाते।

तुमको जीवन रस मिल जाता,शायद हम भी खुश रह पाते।

सोचा था तुम बनोगी साथी, लेकिन तुम ना बन पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

2 comments:

  1. वणिक बुद्धि हावी है तुम पर
    दिल की ना सुन पाओगी !
    चाहे जितना पढ़ लिख लो,
    पर प्रेम नहीं कर पाओगी !

    प्यार के गुस्से का इज़हार, एक मासूम दिल की तकलीफ और तड़प के साथ उलाहना, मासूमियत का उदाहरण इन पंक्तियों से अच्छा और क्या हो सकता है ? मासूम कवि की विवशता पर यह गीत पढ़कर अनायास ही हँसी आ जाती है ! इसे ईमानदारी से प्रकाशित करने के लिए बधाई !

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  2. kafi achha likha hai....dekh kar lagta hai....aise log humesha anpad rahte hain.....bas duniya ke liye pade likhe ho jate hain.....aaj ki shiksha ka bhautik vatavaran bhi islke liye kafi had tak doshi hai.......

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