वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर भक्तों की चर्चा जोर-शोर से हो रही है। कुछ अज्ञानी लोग भक्त शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में भी करते हैं। भक्ति योग को सभी योगों में श्रेष्ठतम् माना गया है। भक्त परंपरा अनादि काल से रही है। वह चाहे ईश्वर भक्ति के रूप में रही हो या देशभक्ति के रूप में, राज भक्तों से भी इतिहास भरा पड़ा है। समय समय पर राजभक्ति को ही देशभक्ति की भी संज्ञा दी जाती रही है। देशभक्ति से राजभक्ति, राजभक्ति से कुर्सीभक्ति से होते हुए व्यक्ति भक्ति ही नहीं कुछ भक्त लोग तो कुत्ता भक्ति में भी महानता सिद्ध करते हैं। भक्तों की महानता की यह श्रृंखला अनादि काल से जारी है और अनादि काल तक अक्षुण्य रहेगी। इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इसे अक्षुण्य रहना भी चाहिए क्योंकि भ्रष्टाचार की महान परंपरा भी भक्त परंपरा के आधार पर ही फलती-फूलती है।
भक्तों की महान परंपरा सभी धमों में मिलती है। सनातन धर्म कहलाने वाले हिंदू धर्म में भक्ति मार्ग, भक्ति साहित्य, भक्ति आंदोलन, भक्त कवियों और संतो की भरमार है तो सूफी भक्त परंपरा के साथ नवीनतम् धर्म इस्लाम भी पीछे नहीं है। पितृ भक्ति में राम, और भ्रातृ-भक्ति में लक्ष्मण और भरत के सानी मिलना मुश्किल है तो राजभक्त के रूप में विभीषण का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने राज्य की खातिर अपने ही कुटुंब से किनारा कर लिया। कुर्सी भक्तों में कंस का नाम ले सकते हैं, जिसने कुर्सी की खातिर अपने पिता को बंदी बनाया, यह परंपरा मुगल काल से लेकर अभी तक जारी है। वर्तमान में भी पिता को हटाकर कुर्सी पर बैठने की परंपरा जारी है। अंग्रजों ने भी इस महान परंपरा के फलने-फूलने की पूरी व्यवस्था की। भारत में मैकाले महोदय द्वारा स्थापित शिक्षा प्रणाली अभी तक इस भक्त परंपरा को जिंदा रखे हुए है। तभी तो राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
आधुनिक शिक्षा अगर तुम, प्राप्त भी कुछ कर सको।
तो लाभ क्या बस क्लर्क बन, पेट अपना भर सको।
सिर झुका लिखते रहा सुन, अफसरों की गालियाँ,
दो सकेगीं रात को दो रोटियाँ, घर वालियाँ।
वही भक्त पैदा करने वाली शिक्षा व्यवस्था कुछ सामयिक संशोधनों के साथ बदस्तूर जारी है। कहने को तो हम नयी शिक्षा नीति लागू करने का बार-बार प्रयास करते हैं किंतु अंग्रेजी की भक्त परंपरा हिंदी थोपी जाने का हवाला देकर सारी राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों को धता बता देती है।
जब भक्त की बात करते हैं तो कुछ लोग अंधभक्त कहकर खिल्ली उड़ाने का काम करते हैं किंतु लेखक इस बात का सख्त विरोधी है। भक्ति के क्षेत्र में कहावत है कि गुरू और इष्ट के अवगुणों को नहीं देखा जाता। गुरू के अवगुण देखने पर महापाप लगता है। वह भक्त ही क्या जो अंधा न हो। आँखों, कानों और दिमाग का प्रयोग करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्ति तो स्वार्थ आधारित दिल का सौदा है। सूरदास अंधे होने के कारण ही भक्त बन सके। तुलसी ने दास्य भाव को अंगीकार कर लिया और भक्तों में नाम लिखाया। तभी तो तुलसी के हवाले से कहा जाता है-
कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा।
अर्थात इस मशीनी युग में केवल नाम की भक्ति करके ही हमारे स्वार्थ सिद्ध हो सकते हैं। वह स्वार्थ भले ही काम करने के झंझट से मुक्ति का हो या कुर्सी से चिपके रहने का या येन केन प्रकारेण धन लिप्सा को पूरा करने का। दास परंपरा के मलूकदास ने तो स्पष्ट लिखा है-
अजगर करे न चाकरी, पंक्षी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
कहने का आशय यह है कि भक्तों को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। वे काम में नहीं नाम की भक्ति में विश्वास रखते हैं। उनका स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए वह कुत्ते की भक्ति से भी पीछे नहीं रहेंगे। यह भक्त परंपरा ही है जो भ्रष्टाचारी व्यवस्था का संरक्षण करती है।
भक्त परंपरा पर लिखने का आशय पाठक गण यह न निकालें कि लेखक भी कोई महान भक्त है। लेखक न कभी भक्त था, न भक्त है और न ही, भक्त बनने का कोई इरादा रखता है। इन भक्तों, राजभक्तों, कुर्सीभक्तों व कुत्ताभक्तोें की अक्षुण्य परंपरा में लेखक कोई योगदान देना नहीं चाहता। लेखक न तो इस परंपरा को को पुष्ट करना चाहता है और न ही इसको समाप्त करने में कोई रूचि रखता है। लेखक ने अपने पिता से बचपन में ही सुना था, ‘कुत्ता पाले, सो कुत्ता और कुत्ता मारे सो कुत्ता।’ अतः लेखक भक्तों को दूर से ही साक्षात दण्डवत करने में विश्वास रखता है। उनकी महानता पर किसी प्रकार का प्रश्नचिह्न लगाए बिना अपने कर्म पथ पर बढ़ते रहने में विश्वास रखता है।
भारत में भक्त परंपरा कितनी पुष्ट है इसकी पुष्टि के लिए इसी प्रकार के भजन भी प्रचलित हैं। लेखक आश्चर्यचकित रह गया, जब सुना ‘‘राम से बड़ा राम का नाम।’’ जबकि इसको होना चाहिए था, ‘‘राम से बड़ा राम का काम।’’ प्रसिद्ध दार्शनिक कांट के अनुसार नैतिक मूल्यों का आधार कर्तव्य के लिए कर्तव्य( doctrine of duty for duty's sake ) होना चाहिए अर्थात कर्तव्य महत्वपूर्ण है कर्तव्य किसी उद्देश्य से किया जा रहा है या किस स्वार्थ के लिए किया जा रहा है, वह नैतिक मूल्य को गिरा देता है। विश्व प्रसिद्ध प्रबंधन गुरू श्री कृष्ण ने भी अपने प्रबंधन ग्रंथ गीता में लिखा है-
‘कर्मण्येवाधिकारेस्तु मा फलेशु कदाचन’
अर्थात हमें अपने कर्तव्य पालन पर ही ध्यान देना है। उससे प्राप्त होने वाले फल पर ध्यान केन्द्रित करके अपने जीवन मूल्यों का पतन नहीं करना है। किंतु ईश्वर भक्तों से लेकर कुत्ता भक्तों की इस महान परंपरा को श्री कृष्ण भी कहाँ तोड़ पाए? भक्त परंपरा में कृष्ण भक्तों की एक नई परंपरा सुदामा और गोपियों की और जुड़ गई। गोपियाँ तो भक्त परंपरा में इतनी महान थीं कि उन्होंने उद्धव को भी भक्त बना डाला। नारियाँ तो भक्ति परंपरा की पराकाष्ठा रहीं हैं। सती प्रथा भक्ति का शिखर कही जा सकती है, जिसको नारियों के बलिदान पर ही तथाकथित भक्तों ने स्थापित किया।