Sunday, October 31, 2021

तब रोज ही मनती दीवाली

 दीवाली 

     


जब साथ में होती घरवाली,

तब रोज ही मनती दीवाली।


जब पास में अपने होती है।

वह सपने नए नित बोती है।

हमें जीवंत बनाए रखने को,

वह अपने आपको खोती है।

जब प्रेम में होती मतवाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


जादू उसके कर में है।

खुशी छिपी हर वर में है।

समस्याओं से घिरी हुई,

पर समाधान भी सर में है।

दूध की देती जब प्याली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


कभी नहीं रहती खाली।

कभी तवा, कभी थाली।

संतुष्ट नहीं कभी होती,

पर नहीं कभी देती गाली।

जब हमें सजाती बन माली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


फूल नहीं, वह फुलवारी।

कभी नहीं वह है हारी।

समर्पण और त्याग की देवी,

हर पल लगे हमें प्यारी।

जब सजा के लाती है थाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


साक्षात लक्ष्मी, नहीं है मूरत।

दुनिया में सबसे खुबसूरत।

साथ में जब वह होती है,

नहीं किसी की हमें जरूरत।

जब आती है छोटी साली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


जीवन मधु है वही पिलाती।

मरते हुए भी हमें जिलाती।

हमने भले ही हो ठुकराया,

नहीं कभी भी वह ठुकराती।

जब उसके चेहरे पर लाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


सखी, सहेली, वह आली।

कष्टों के हित है काली।

चाह नहीं, चाहत नहीं,

मुस्कान उसकी, सजी थाली।

अधर नयन हों, रस प्याली।

साक्षात, वही, है दीवाली।


जब साथ में होती घरवाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।




Monday, October 25, 2021

इक दूजे के हित ही बने हैं

 नर हो  या फिर नारी है


इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।

संघर्ष में ना समय नष्ट कर, प्रेम से खिली फुलवारी है।

इक-दूजे के दिल में समाओ।

इक-दूजे पर प्रेम लुटाओ।

इक-दूजे बिन रह नहीं सकते,

इक होकर के भेद मिटाओ।

हाथ थाम दोनों, साथ चलो जब, देखे दुनिया सारी है।

इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।।

अलग अलग क्यों रहे अधूरे।

मिलकर दोनों हो जाओ पूरे,

इक-दूजे के विपरीत चलकर,

हो जाओगे, तुम दोनों  घूरे।

प्रेम में कोई माँग न होती, प्रेम के बनो न व्यापारी है।

इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।

प्रेम खेल मिल साथ में खेलो।

कष्टों को मिलकर के ठेलो।

दुनिया जो कहती है कह ले,

साथ में रह वियोग ना झेलो।

साथ-साथ चल कर्म करो, सजाओ जीवन क्यारी है।

इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।


Sunday, October 17, 2021

ईश्वर भक्तों से कुत्ता भक्तों तक की महान परंपरा


वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर भक्तों की चर्चा जोर-शोर से हो रही है। कुछ अज्ञानी लोग भक्त शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में भी करते हैं। भक्ति योग को सभी योगों में श्रेष्ठतम् माना गया है। भक्त परंपरा अनादि काल से रही है। वह चाहे ईश्वर भक्ति के रूप में रही हो या देशभक्ति के रूप में, राज भक्तों से भी इतिहास भरा पड़ा है। समय समय पर राजभक्ति को ही देशभक्ति की भी संज्ञा दी जाती रही है। देशभक्ति से राजभक्ति, राजभक्ति से कुर्सीभक्ति से होते हुए व्यक्ति भक्ति ही नहीं कुछ भक्त लोग तो कुत्ता भक्ति में भी महानता सिद्ध करते हैं। भक्तों की महानता की यह श्रृंखला अनादि काल से जारी है और अनादि काल तक अक्षुण्य रहेगी। इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इसे अक्षुण्य रहना भी चाहिए क्योंकि भ्रष्टाचार की महान परंपरा भी भक्त परंपरा के आधार पर ही फलती-फूलती है।

भक्तों की महान परंपरा सभी धमों में मिलती है। सनातन धर्म कहलाने वाले हिंदू धर्म में भक्ति मार्ग, भक्ति साहित्य, भक्ति आंदोलन, भक्त कवियों और संतो की भरमार है तो सूफी भक्त परंपरा के साथ नवीनतम् धर्म इस्लाम भी पीछे नहीं है। पितृ भक्ति में राम, और भ्रातृ-भक्ति में लक्ष्मण और भरत के सानी मिलना मुश्किल है तो राजभक्त के रूप में विभीषण का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने राज्य की खातिर अपने ही कुटुंब से किनारा कर लिया। कुर्सी भक्तों में कंस का नाम ले सकते हैं, जिसने कुर्सी की खातिर अपने पिता को बंदी बनाया, यह परंपरा मुगल काल से लेकर अभी तक जारी है। वर्तमान में भी पिता को हटाकर कुर्सी पर बैठने की परंपरा जारी है। अंग्रजों ने भी इस महान परंपरा के फलने-फूलने की पूरी व्यवस्था की। भारत में मैकाले महोदय द्वारा स्थापित शिक्षा प्रणाली अभी तक इस भक्त परंपरा को जिंदा रखे हुए है। तभी तो राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-

आधुनिक शिक्षा अगर तुम, प्राप्त भी कुछ कर सको।

तो लाभ क्या बस क्लर्क बन, पेट अपना भर सको।

सिर झुका लिखते रहा सुन, अफसरों की गालियाँ,

दो सकेगीं रात को दो रोटियाँ, घर वालियाँ।

वही भक्त पैदा करने वाली शिक्षा व्यवस्था कुछ सामयिक संशोधनों के साथ बदस्तूर जारी है। कहने को तो हम नयी शिक्षा नीति लागू करने का बार-बार प्रयास करते हैं किंतु अंग्रेजी की भक्त परंपरा हिंदी थोपी जाने का हवाला देकर सारी राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों को धता बता देती है।

जब भक्त की बात करते हैं तो कुछ लोग अंधभक्त कहकर खिल्ली उड़ाने का काम करते हैं किंतु लेखक इस बात का सख्त विरोधी है। भक्ति के क्षेत्र में कहावत है कि गुरू और इष्ट के अवगुणों को नहीं देखा जाता। गुरू के अवगुण देखने पर महापाप लगता है। वह भक्त ही क्या जो अंधा न हो। आँखों, कानों और दिमाग का प्रयोग करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्ति तो स्वार्थ आधारित दिल का सौदा है। सूरदास अंधे होने के कारण ही भक्त बन सके। तुलसी ने दास्य भाव को अंगीकार कर लिया और भक्तों में नाम लिखाया। तभी तो तुलसी के हवाले से कहा जाता है-

कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा।

अर्थात इस मशीनी युग में केवल नाम की भक्ति करके ही हमारे स्वार्थ सिद्ध हो सकते हैं। वह स्वार्थ भले ही काम करने के झंझट से मुक्ति का हो या कुर्सी से चिपके रहने का या येन केन प्रकारेण धन लिप्सा को पूरा करने का। दास परंपरा के मलूकदास ने तो स्पष्ट लिखा है-

अजगर करे न चाकरी, पंक्षी करे न काम।

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

कहने का आशय यह है कि भक्तों को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। वे काम में नहीं नाम की भक्ति में विश्वास रखते हैं। उनका स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए वह कुत्ते की भक्ति से भी पीछे नहीं रहेंगे। यह भक्त परंपरा ही है जो भ्रष्टाचारी व्यवस्था का संरक्षण करती है।

भक्त परंपरा पर लिखने का आशय पाठक गण यह न निकालें कि लेखक भी कोई महान भक्त है। लेखक न कभी भक्त था, न भक्त है और न ही, भक्त बनने का कोई इरादा रखता है। इन भक्तों, राजभक्तों, कुर्सीभक्तों व कुत्ताभक्तोें की अक्षुण्य परंपरा में लेखक कोई योगदान देना नहीं चाहता। लेखक न तो इस परंपरा को को पुष्ट करना चाहता है और न ही इसको समाप्त करने में कोई रूचि रखता है। लेखक ने अपने पिता से बचपन में ही सुना था, ‘कुत्ता पाले, सो कुत्ता और कुत्ता मारे सो कुत्ता।’ अतः लेखक भक्तों को दूर से ही साक्षात दण्डवत करने में विश्वास रखता है। उनकी महानता पर किसी प्रकार का प्रश्नचिह्न लगाए बिना अपने कर्म पथ पर बढ़ते रहने में विश्वास रखता है। 

भारत में भक्त परंपरा कितनी पुष्ट है इसकी पुष्टि के लिए इसी प्रकार के भजन भी प्रचलित हैं। लेखक आश्चर्यचकित रह गया, जब सुना ‘‘राम से बड़ा राम का नाम।’’ जबकि इसको होना चाहिए था, ‘‘राम से बड़ा राम का काम।’’ प्रसिद्ध दार्शनिक कांट के अनुसार नैतिक मूल्यों का आधार कर्तव्य के लिए कर्तव्य( doctrine of duty for duty's sake ) होना चाहिए अर्थात कर्तव्य महत्वपूर्ण है कर्तव्य किसी उद्देश्य से किया जा रहा है या किस स्वार्थ के लिए किया जा रहा है, वह नैतिक मूल्य को गिरा देता है। विश्व प्रसिद्ध प्रबंधन गुरू श्री कृष्ण ने भी अपने प्रबंधन ग्रंथ गीता में लिखा है-

‘कर्मण्येवाधिकारेस्तु मा फलेशु कदाचन’

अर्थात हमें अपने कर्तव्य पालन पर ही ध्यान देना है। उससे प्राप्त होने वाले फल पर ध्यान केन्द्रित करके अपने जीवन मूल्यों का पतन नहीं करना है। किंतु ईश्वर भक्तों से लेकर कुत्ता भक्तों की इस महान परंपरा को श्री कृष्ण भी कहाँ तोड़ पाए? भक्त परंपरा में कृष्ण भक्तों की एक नई परंपरा सुदामा और गोपियों की और जुड़ गई। गोपियाँ तो भक्त परंपरा में इतनी महान थीं कि उन्होंने उद्धव को भी भक्त बना डाला। नारियाँ तो भक्ति परंपरा की पराकाष्ठा रहीं हैं। सती प्रथा भक्ति का शिखर कही जा सकती है, जिसको नारियों के बलिदान पर ही तथाकथित भक्तों ने स्थापित किया। 



Saturday, October 16, 2021

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो

 मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ


परिस्थितियों की दासी बनीं तुम, मैं तो पथ पर खड़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

समय बहुत अब बीत गया है।

यौवन बीता, मन रीत रहा है।

तुमने भले ही भुला दिया हो,

कर प्रतीक्षा, मन मीत रहा है।

तुम संबन्धों की बेल में जकड़ीं, मैं प्रेम की सूली चढ़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

यादों में तुम नित आती हो।

सद्य स्नाता, अब भी भाती हो।

अंग-अंग सौन्दर्य टपकता,

स्वर में ज्यों कोयल गाती हो।

वियोग वेदना कितनी भी दे लो, तुम्हारे प्रेम से गढ़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

मैंने तो केवल प्रेम किया है।

दूर से भी,  साथ जिया है।

तुम्हारे लिए मैं तड़प रहा हूँ,

तुमको भी तो, मिला न पिया है।

एक बार आ, दर्शन दो प्रिय, प्रेम के पथ पर पड़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

अधरों की मुस्कराहट देखूँ।

सौन्दर्य से मैं, आँखें सेकूँ।

एक बार आ गले लगा लो,

तुम्हारे लिए मैं खुद को बेकूँ।

अन्दर लेकर देखो तो प्रिय, तुम्हारे प्रेम से बड़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

Thursday, October 7, 2021

जीवन मधुर संगीत भी है

जीवन

यहां हार भी है, यहां जीत भी है।

जीवन मधुर संगीत भी है।।

अपनों का संग है,जीने की उमंग है।

इंद्रधनुष सम खुशियों का रंग है।।

खुशहाली भी है, और लाचारी भी।

छाई है जीवन में, महामारी भी।।

खुशियों के,गमों के,सभी प्रकार के रंग है।

जीवन अपने आप में, एक मीठी जंग है।।

कोरोना के इस रण में, हम सभी अस्त्र है।

धैर्य और आत्मविश्वास, हमारे शस्त्र है।।

बुलंद र हौसला, जंग में कर प्रहार।

न देख उस पार, जीत हो या हार।।

जीत की न खुशी, न हो अफसोस हार का।

जीवन एक सबक है , मौका है सुधार का।।

जीवन एक सीख है,जीवन गुरु है।

अंतके बाद ही तो कुछ नया शुरू है।

                       

                                                                                                                                                                                                                    आदित्य चंद्र साहा, मेघालय

 

 

Sunday, October 3, 2021

तुम्हारे अधरों से हँसता में

 तुम मेरे नयनों से रोती हो


मैं तो केवल सींच रहा हूँ, प्रेरणा तुम ही बोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।

भले ही तुम मेरे पास नहीं हो।

पल नहीं कोई आस  नहीं हो।

जीवन में कभी मिल न सकोगी,

करती क्या परिहास  नहीं हो?

जो भी, जहाँ भी कर्म में करता, यादों में तुम ही रोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।

तुम्हें उर में सजाये जीता हूँ।

नित .स्वप्न सुधा, मैं पीता हूँ।

तुम्हारे बिना, नही कोई जीवन,

ना मालूम, मैं, क्यों जीता हूँ?

नयनों में अब भी स्वप्न बसे, निहार रहा मैं, तुम सोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।

मिलन वायदा, तुमने किया था।

वायदे में, मैंने, स्वप्न जिया था।

आओगी तुम, प्रतीक्षा है अब भी,

याद करें, जो, सुधा पिया था।

जग से मुझको, कुछ चाहिए, मेरे मन की तुम मोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।