Thursday, December 3, 2020

दोहा सह्स्त्रावली के कुछ दोहे

 अवसर आवत हाथ में, सभी उठावें लाभ।

अपना कह कर लूटते, लेते हैं परिलाभ॥1012

 

प्रेम और समर्पण कर, इक दूजे को मात।

बेचत या फ़िर ठगत हैं, इक दूजे का गात॥1013

 

झूठ और बस झूठ ही, बोलत हैं कुछ लोग।

बिना स्वार्थ भी बोलते, झूठ लगाते भोग॥1014

 

 

ना कोई साथी रहा, ना कोई है मीत।

जो भी मिलता प्रेम से, अन्दर से भयभीत॥1015

 

लोग दिखावत प्रेम है, गात प्रेम के गीत।

जितने आते पास हैं, हम उतने भयभीत॥1016

 

जीत-हार सब व्यर्थ हैं, ना है धन की चाह।

कोई अपना है नहीं, सभी चलत निज राह॥1017

 

इक दूजे को वचन दे, थाम लिया था हाथ।

छल, कपट और झूठ ने, झुका दिया है माथ॥1018

 

प्रेम समर्पण नाम ले, रंग-रंग के भाव।

धोखा दे छल कपट से, दिखा दिए फ़िर ताव॥1019

 

हमने तो चाहा नहीं, यूं नारी का साथ।

छल, कपट और झूठ से, पकड़ा काटा हाथ॥1020

 

नर नारी को चाहता, सब कुछ देता बार।

माया में फ़ंस कर मिटे, नारी से ना पार॥1021

 

प्रेम नहीं सम्पत्ति है, नहीं हो सके लूट।

प्रेमी जन में लोभ ना, नहीं पड़त है फ़ूट॥1022

 

प्रेम चाह सबको रही, नहीं हो सकी लूट।

जो भी इसको लूटता, प्रेम जात है रूठ॥1023

 

प्रेम होत सौदा नहीं, ना कोई है आन।

गलती पग-पग होत है, क्षण-क्षण पकड़ें कान॥1024