Wednesday, December 30, 2009
नव वर्ष हो हमें मुबारक, बन जायें हम सच्चे साधक।
Thursday, October 15, 2009
ब्लॉग एक्शन डे
Tuesday, October 13, 2009
देखो तो तुम डरा अंधेरा सरपट भागा,
ज्ञान का दीप
गली-गली आंगन-आंगन में
ज्ञान का दीप जलाएं पावन
करें रोशनी रंग बिरंगी
भारत हो जाये शतरंगी
सबका हृदय लुभाये भारत
विश्व गुरू कहलाये भारत
देखो तो तुम डरा अंधेरा सरपट भागा,
देश हमारा इसने त्यागा
ज्ञान उजाला कैसा होगा
सूर्य चन्द्र के जैसा होगा
हरसेगा जन-गण का मन
हृदय बनेगा निर्मल पावन
दीपोत्सव आया मन-भावन।
Sunday, October 11, 2009
शादी क्यों ? लड़के शादी से पहले विचार करें!
१- कन्या भ्रूण हत्या मानवता के लिए अभिशाप है, इसे रोकने मे हम असफ़ल रहे है। यह केवल महिलाओं के लिए ही अन्यायपूर्ण नहीं है वरन सम्पूर्ण समाज के अस्तित्व के लिए ही घातक है। महिलाओं की कमी के कारण निम्न-मध्यम वर्ग शादी न हो सकनें की परेशानियों से अधिक जूझ रहा है। दहेज़ प्रतिष्ठा का विषय होने के कारण यह वर्ग लड़की पक्ष से गुप्त सौदा करता है कि वे लोग दिखाने के लिए दहेज़ दें। सम्पूर्ण खर्च लड़के वाले करते हैं किंतु दहेज़ का नाटक किया जाता है। कई बार तो शादी करने की एवज में अच्छी-खाशी रकम वसूल ली जाती है।
२- पैतृक संपत्ति में लड़की के अधिकार को क़ानून भले ही बन गया हो किंतु देश के बहुत बड़े भू-भाग में यह व्यवहार में नही है अर्थात पिता के यहाँ की संपत्ति में से भाग लड़की को नहीं मिलाता।
३-दहेज़ लड़किओं की कमी के कारण लगभग समाप्त हो चुका है। जहाँ शादी हो जाना ही बहुत बड़ी बात हो, वहां दहेज़ की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती।
४-दहेज़ निषेध संबन्धी कानूनों के कड़े प्रावधान पारिवारिक मतभेदों में धमकाने के लिए प्रयुक्त किए जाने लगे हैं। धमकाने तक ही नहीं, अलगाव की स्थिति आने पर धन वसूल करने के लिए कानूनों का प्रयोग किया जाने लगा है। देखने में यह भी आ रहा है कि सभी परम्परों को तोड़कर होने वाले प्रेम विवाह करने वाली लड़की भी कुछ समय बाद दहेज़ के आरोप लगा देती है।
५-विचार करने की बात है कि-
क- लडकी पैतृक संपत्ति में से हिस्सा लेकर नहीं आती।
ख- दहेज़ गैर कानूनी और अव्यवहारिक है। दहेज़ के रूप में भी कुछ नही लिया जाता।
ग- अभी भी लड़कियों को लड़कों की तुलना में कम पढाया जाता है।
घ- अभी भी महिलाये सज-धजकर घर मे रहकर मालिकिन बनना ही पसंद करती हैं। परिवार में किसी के नियंत्रण में रहना नही चाहती। विवाद होने पर घर के सभी सदस्यों को फ़साने व अपने लिए ही नहीं अपने भाई-बहनों तक के लिए रकम वसूल करने की इच्छा रखती हैं और कई बार ऐसा ही होता है।
जब वह अपनी पैतृक सम्पत्ति मे से कुछ नही लाई, दहेज़ की तो बात ही ख़त्म हो गयी , उसने परिवार के दायित्वों के निर्वहन में भी रूचि नही ली। बिना किसी योगदान के वह केवल शादी की रस्म के निर्वहन करने से ही पति नाम के प्राणी से आजीवन वसूल करने की हकदार हो गयी क्या यह लड़के पर अत्याचार नहीं है? शादी करना यदि लड़के के लिए अपराध है तो क्यों न अकेले रहने पर विचार किया जाय? वर्तमान वातावरण ऐसा ही बन रहा है कि भविष्य मे लड़के शादियों से बचने लगेंगे जो समाज के अस्तित्व के लिए घातक हो सकता है।
Thursday, September 17, 2009
पापा जी भी दीप जलाएं।
बच्चो फिर से आई दिवाली
सबने अपनी ज्योति जला ली
पण्डित हरिजन हो या माली
सभी मनाते हैं दीवाली।
आओ हम सब दीप जलाएं
अन्धकार को दूर भगाएं
ईर्ष्या-द्वेष और भेद मिटाएं
आओ सब मिल दीप जलाएं।
हँसते रहे औरों को हँसा के
खुशियों के सूचक हैं धमाके
मिठाई खा और चकरी चला के,
नन्हे -नन्हे दीप जला के।
हम सब दीपावली मनाएं
स्वयं पढ़े औरों को पढ़ाएं
राष्ट्र को उन्नत शिखर चढ़ाएं
कर्मशील सब ही बन जाएं।
ठण्डा मौसम आया सुहाना
रजाई में बैठ पढ़े रोजाना
मच्छर जी अब नहीं सताएं
दीपावली के दीप जलाएं।
ज्यों-ज्यों आवें परींक्षा पास
महनत करते रहे न उदास
श्रेणी अच्छी जब हम लाएं
पापा जी भी दीप जलाएं।
Thursday, July 9, 2009
देश उठाना है ऊँचा तो नैतिकता को दूर भगाओ
आओ भाई झाँकी कर लें , पावन हिन्दुस्तान की।
पावन हिन्दुस्तान की , अपने देश महान की।।
इधर हिमालय की सोभा है, सागर उधर है जलराशि।
चन्दन की सुगन्ध आती है ,देखो रजपूतानी मॉटी।
जो स्वर्ग से नीचे उतर रही , पाप काट दे गंगा जी।
इसीलिए तो डरते नहीं है , पाप करने में भारतवासी।
भ्रष्टाचार , रिश्वत लेने में , नहीं हिचकता नेता।
ईश्वर भी भार उतारन को , अवतार यहीं पर लेता।
सन्त मारकर, शान्तिकामना करते आज जहाँन की।
रिश्वत ही पहचान बन गयी ,अपने देश महान की।
आओ भाई झाँकी कर लें , पावन हिन्दुस्तान की।
पावन हिन्दुस्तान की , अपने देश महान की ।।
तीन लोक से मथुरा न्यारी , ऐसा हमने सुन पाया है।
ऐसा ही कई एक नमूना , यहाँ दिखन में आया है।
भाई बहन भी करते मिलते, चर्चा प्रेमालाप की।
सब देशों से महिमा कम क्या? ऊपर लिखे आलाप की।
संस्कार संस्कृति सर्वोच्च है, वेद हमें बतलाते हैं।
बेटे को कर एक किनारे , शान्तनु वधू ले आते हैं।
मन से मन क्या मिलें? उर में क्षुधा है काम पिपासा की।
इतिहास चरित्रवानों का, फिर क्यूँ चिन्ता चरित्र महान की।
आओ भाई झाँकी कर लें , पावन हिन्दुस्तान की।
पावन हिन्दुस्तान की , अपने देश महान की।।
गुणवान, विद्यावानों से श्रेष्ठ, सभी बतलाते हैं।
शान्ति और दयालुता की ओर हमें पहुँचाते हैं।
काम करना हराम है नेता जी से शिक्षा पाओ।
देश उठाना है ऊँचा तो नैतिकता को दूर भगाओ।
निज स्वार्थो को पूरा करके ,भले ही जेल में जाओ।
थोड़े दिन की पिकनिक समझो,साफ बरी हो जाओ।
पाक से आओ दोस्ती करलें, शान्ति हमारे काम की।
आतंकवादियों को भेंट चढ़ाते, सेना और अवाम की।
आओ भाई झाँकी कर लें , पावन हिन्दुस्तान की।
पावन हिन्दुस्तान की , अपने देश महान की।।
Wednesday, July 8, 2009
सिसकत छोड़ी मीत गये
कली
कभी कली थी अल्हड़पन में,
बढ़ी जवानी के मधुवन में।
चार चाँद थे लग रहे तन में,
निकल जिधर जाये मधुवन में।
भ्रमरों से घिर जायें छन में,
मादकता छाये हर मन में।
अलि वे दिन तो बीत गये,
भ्रमर रसिक कब मीत भये।
अंग -अंग अब पीत भये,
प्रेम भरे नहीं गीत रहे।
सिसकत छोड़ी मीत गये,
रिश्ते नहीं पुनीत रहे।
अलि! वे अलि अब गये कहाँ ?
नव कली जहाँ वो होंग वहाँ।
यही रीति पालता जहाँ,
पूर्णेच्छा कर टालता जहाँ।
अलि आएं वो सुगन्ध कहाँ ?
पीने को मकरन्द कहाँ ?
अरी! नव कलि को बतलाना होगा ,
नव गीत उसे ही गाना होगा।
भ्रमरों से घिर जाना होगा,
कैसे ? उनसे बच पाना होगा।
मन चंचल समझाना होगा,
फिर नहीं बसन्त का आना होगा।
अरी घबड़ा मत वो दिन नहीं रहे,
ये भी न रहें सब कोई कहे।
जीवन परिवर्तन कष्ट सहे ,
समर्पण कर कुछ भी न लहे।
तन- मन-धन सब वही महे,
आदर्शों का सार यहे।
Monday, July 6, 2009
यदि तुम हो तैयार, चलने को यार
नहीं है
मुझे विश्वास
हो चुका
हताश
आश्वासन
वचन वायदों से।
नहीं है
लगाव
पंरपराओं
प्रथाओं
कायदों से।
नहीं है
मुझे डर
जीवन-मरण
यश-अपयश
नुकसान-फायदों से।
यदि
तुम हो तैयार
चलने को यार
सब कुछ त्यागकर
दुनियाँ से भागकर
महत्वाकांक्षाएं मारकर
धन,पद,प्रतिष्ठा के
बंधनो से मुक्त होकर
अपना पवित्र
निस्वार्थ
निश्चल प्रेम
समर्पित करने को।
Sunday, July 5, 2009
मैं फिर, मानवता का संदेश सुनाने आया हूँ.....
मैं फिर, मानवता का संदेश सुनाने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
भारतीय हम संस्कृति अपनी, युगों-युगों तक अमर रहे।
दूधों की नदियां बहती थी,पानी को हम तरस रहे ।
घर-घर में तुलसी का पौधा बाग लगाना भूल गये।
पेड़ो को थे देव मानते उन्हें बचाना भूल गये।
विकास कर रहे किस कीमत पर यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
अतिथि सेवा करने वाले पड़ासियों को भूल गये।
भूखे मरते भाई हमारे,स्व-धर्म निभाना भूल गये।
गाँव छोड़कर शहर में आये,माँ-बापों को भूल गये।
अधिकारों को भोग रहे नित कर्तव्यों को भूल गये।
कर्म छोड़कर सुविधा भोगी यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
वसुधा थी परिवार हमारा,लगाते आज तुम प्रान्त का नारा!
देशभक्ति का खुला पिटारा, भाई-भाई का हत्यारा।
इन्तजार में जब थी कारा, जननायक का रूप है धारा।
समस्याओं से किया किनारा, बॉस से मिलकर हड़पा सारा।
नर-सेवा नारायण सेवा, याद दिलाने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
गैरों को था गले लगाया, अपनों को भी अब ठुकराया ?
जाति-पाँति में पड़कर हमने झगड़ो को ही नित्य बढ़ाया।
लम्बा किया संघर्ष जिन्होंने देश की खातिर शीश चढ़ाया।
क्षुद्र स्वार्थ की खातिर हमने, पूर्वजों को आज भुलाया।
हाथी के पाँव में, सबका पाँव, यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
Wednesday, July 1, 2009
सभी समस्याओं का समाधान
समाधान
सभी समस्याओं का समाधान,
आचरण में लायें, जो देते व्याख्यान,
नैतिकता, धर्म औरसदाचरण का,
एक है जन्तर,
हमारी कथनी और करनी में,
रहे न अन्तर।
जो करते औरों से अपेक्षा,
स्वयं न करें उसकी उपेक्षा,
निज आचरण में ढालें,
स्वयं सत्य के मार्ग पर चलें,
तब दूसरों को डालें।
जो जनता को सीख देत,
अपनी खाट भीतरी लेत,
ऐसे पाखण्डियों की करो उपेक्षा,
पहले दें वे स्वयं ही परीक्षा,
तत्पश्चात औरों को दीक्षा,
इसे बना लें आन,
सबका हो कल्यान,
यही है समाधान।
Monday, June 29, 2009
नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा
ये गणतंत्र हमारा
युगो-युगो तक अमर रहे , ये गणतंत्र हमारा।
नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा।।
यह भारत देश हमारा।।
वीरों ने दी थीं कुर्बानी ,बहनों ने थी राखी बाधीं।
माताओं ने आरती उतारीं,भाग्यशाली थीं,नहीं बिचारी।
था सुभाष भी भाई मेरे, माता का एक दुलारा।
नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा।।
यह भारत देश हमारा।।
पहना था केसरिया बाना,जनमानस था हुआ दिवाना।
खून से लिखता था परवाना,राष्ट्रप्रेमी का रण का गाना।
इन्कलाब की बोली से था, गूँजा भारत सारा।
नव-पल क्षण ही प्रगति करे,यह प्राणों से है प्यारा।।
यह भारत देश हमारा।।
हमको है, कर्तव्य निभाना,स्वत्व नहीं, है राष्ट्र बढ़ाना।
सार्थक हो गणतंत्र मनाना,हमको ही है, पथ दिखलाना।
क्लान्त हुए जन मानस ने है, फिर से हमें पुकारा।
नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा।।
यह भारत देश हमारा।।
Sunday, June 21, 2009
कोई बेटा नहीं तजता अपने ही बाप को.
पितृ-दिवस पर विशेष
काश!
बेटा समझ पाता,
उस वात्सल्यमयी डांट को,
माली की तरह की जाने वाली कांट-छांट को।
काश!
बेटा समझ पाता,
बाप की रोक-टोक को,
अपनी लुका-छिपी और नोंक-झोंक को।
काश!
बेटा समझ पाता,
प्रताड़ना के नेह को,
नाराज़ होकर नहीं तजता गेह को।
काश!
बेटा समझ पाता,
अंशी किस तरह सींच रहा अंश को,
भूलकर भी न करता, भावनाओं के ध्वंस को।
काश!
बेटा समझ पाता,
उन गालियों के अम्बार को,
दामन में भर लेता, स्नेह के भंडार को।
काश!बेटा समझ पाता,
कांटे चुनती छांह को,
कभी नहीं, जाता झटक कर बांह को।
काश!
बेटा समझ पाता,
बाप के उर के ताप को,
कोई बेटा नहीं तजता अपने ही बाप को.
पिता बनकर समझ आया
पिता बनकर समझ आया।
क्रोध मेरा,
उन्होंने झेला,
जेब में न था,
एक धेला,
माँगों का था,
बस झमेला
जब मैंने
आँसू बहाया,
दिल मैंने,
कितना दुखाया?
पिता बनकर समझ आया।
अभाव,
उन्होंने,
खुद थे झेले,
मुझको दिखाये,
फिर भी मेले,
मेरी मुस्कराहट की खातिर,
अपने दु:ख थे,
उन्होंने ठेले।
उनको,
कितना था रूलाया?
पिता बनकर समझ आया।
रोया, रूठा, भाग छूटा,
फिर भी
उन्होंने,
न,
तनिक कूटा,
ढूढ़कर वापस ले आये
आँसू पौंछ,
माँ से मिलाये,
खाया न कुछ भी,
बिना खिलाये।
जिद कर,
कितना सताया?
पिता बनकर समझ आया।
पढ़े, लिखें,
आगे बढ़े हम
कर्म उत्तम,
करते रहे हम,
चाह थी बस,
उनकी इतनी,
पूरी कर पाये हैं कितनी?
मारा क्यों था?
मुझमें जूता।
मारकर क्यों था मनाया?
पिता बनकर समझ आया।
भले ही घर से निकालूँ,
भले ही उनको मार डालूँ,
समझेंगे नहीं,
फिर भी पराया,
कहेंगे नहीं,
मुझको सताया।
कितना था ऊधम मचाया?
पिता बनकर समझ आया।
चाहते हैं मुझको कितना?
काश!
तब मैं समझ पाता,
दिल नहीं,
उनका दु:खाता।
ऋण नहीं है,
जो चुकाऊँ,
रकम दे पीछा छुड़ाऊँ।
मेरा नहीं कुछ,
जो दे पाऊँ,
चरणों में खुद को चढ़ाऊँ।
मैंने केवल गान गाया,
पिता बनकर समझ आया।
Thursday, June 18, 2009
जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे
जगमग-जगमग
जगमग-जगमग दीप जलेंगे, ऐसा दिन हम लायेंगे।
जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे।।
कहीं न कोई क्षुधित रहेगा, कहीं न कोई तृषित रहे।
अतृप्त आत्मा रहेगी जब तक, सूर्य-चन्द्र भी ग्रसित रहें।
हर बाला शिक्षालय जाये , ऐसा अलख जगायेंगे।
जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे।।
मादा भ्रूण अस्तित्व मिटे तो, कैसे सुखी रह पायेगा नर।
दहेज प्रथा न मिटेगी जब तक, कैसे योग्य मिल पायेगा वर।
नारी नहीं सतायी जाये, हर नर को समझायेंगे।
जितने चेहरे मुरझाये हैं, वे सारे खिल जायेंगे।।
सु-शिक्षित हर बच्चा होगा, वस्त्र विहीन न कोई रहे।
हर सिर को आवास मिलेगा, अन्न विहीन न कोई रहे।
पूरीं हों सबकीं आकाँक्षा , सबको गले लगायेंगे।
जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे।।
Wednesday, June 17, 2009
रहे न कोई भूखा यहाँ पर कोई वस्त्र विहीन न हो।
भारत भव्य बनाना है।
सहने पड़े कष्ट कितने भी, आगे बढ़ते जाना है।
हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।
रहे न कोई भूखा यहाँ पर कोई वस्त्र विहीन न हो।
शोषित पीड़ित रहे न कोई, कोई व्यक्ति दीन न हो।
कण्टक पूरित मारग अपना, अविचल चलते जाना है।
हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।
शास्त्र-शस्त्र दोनों ही को हम, खुशी-खुशी अपनायेंगे।
शस्त्र तो रक्षा के हित केवल , विश्व को पाठ पढ़ायेंगे।
पश्चिम से साँस्कृतिक युद्ध है, युवकों को समझाना है।
हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।
सदियों से संस्कृति चादर में कुछ धब्बे जो ठहर गये।
अमृत भरे घड़े अपने थे इन्हीं के कारण जहर भये।
विवेक त्याग के साबुन से अब चादर को चमकाना है।
हम दिन चार रहें न रहें, पर भारत भव्य बनाना है।।
देवासुर संग्राम तो भाई ,युग-युग से होता आया है।
नैतिकता जिसने अपनाई यश उसने ही पाया है।
भारत माँ की आज्ञा से अब कदम से कदम मिलना है।
हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।
Wednesday, June 10, 2009
खड़े हैं कब से चौराहे पर, नजारा ही बदल गया।
मुक्तक पढें होकर मुक्त
खड़े हैं कब से चौराहे पर, नजारा ही बदल गया।
करते-करते इन्तजार, जमाना ही बदल गया।
परीक्षा लोगी कब तक? हमारे इस जीवट की,
आ जाओ एक बार, तुम्हारा हुलिया ही बदल गया।
न देखा तुमने मुड़ के, हम दीदार न कर सके।
चाहा था हमने तुमको, तुम इन्कार न कर सके।
तुम नहीं हो हमारी अमानत, स्वीकार है हमें,
नादान हैं तुम्हें छोड़कर, प्यार ना कर सके।
हमारे दिल में है क्या हम इजहार ना कर सके।
तुम बैठे हमारे सामने, हम दीदार ना कर सके।
ठोकरें ही थीं पथ में, हम थे उसी गम में,
चाहकर भी हम तुमसे, इकरार ना कर सके।
बीत गये वे दिन रावी का बह गया वह पानी।
गुलिश्ता उजड़ गया, छाई है यहाँ वीरानी।
क्या करेगी आकर ? हे तितली! संभल जा,
नहीं है यहाँ राजा, न बन सकेगी तू रानी।
दर पर खड़े तुम्हारे हम घण्टी ना बजायेंगे।
तुमको खुश करने को, ना अपने को सजायेंगे।
इकरार और इंकार सब छोड़ते हैं तुम पर,
तुम्हारे गम में डूबे, नहीं अपने को बचायेंगे।
चाहा था तुमको हमने , करते रहे तुम्हें प्यार।
बीती हैं वर्षों देखो, नहीं कर सके हम दीदार।
कहा था तुमने ही, पत्थर भी हैं दुआ देते,
राष्ट्रप्रेमी बना पत्थर? आ के, कर जाओ इजहार।
नहीं थी आरजू फिर भी, तुम्हें दिल में बसाया।
दिल में हमारे बैठकर, हमें ही सताया।
तुम्हारी मुस्कराहट पर जीवन है निछावर,
काँटो में फूल खिले, जब भी तुमने मुस्काया।
Tuesday, June 9, 2009
अगले चौराहे से तुमको मुड़ के जाना।।
प्रेम है लुटाना
तुम पर नजर है,नहीं है निशाना।
मुझको अभी है बहुत दूर जाना।।
चाहा था तुझको बहुत हमने माना।
गा नहीं सकेंगे,केवल तेरा गाना।।
पथ का पथिक हूँ,नित ही चलते जाना।
राही हो तुम भी नहीं घर बसाना।।
लाये थे न कुछ भी नहीं हमको पाना।
हर मुस्कान पर, हमें, प्रेम है लुटाना।।
दे नहीं सके तो, नहीं तुमसे पाना।
लुटा देंगे सब कुछ,नहीं कुछ जुटाना।।
चलो तुम भी, आगे बहुत कुछ है पाना।
अगले चौराहे से तुमको मुड़ के जाना।।
जीवन-प्रश्न का उत्तर,
चाहता हूँ
चाहता हूँ मैं,
तुमसे बातें करना
लेकिन क्या?
बतला सकोगी?
चाहता हूँ मैं,
हो एक मुलाकात
लेकिन कब?
बतला सकोगी?
चाहता हूँ मैं,
साथ लेकर चलना
लेकिन किस पथ पर?
चलकर दिखला सकोगी?
चाहता हूँ मैं,
लड़ना-झगड़ना,
लेकिन किसके साथ?
समझा सकोगी?
चाहता हूँ मैं,
कंटकों पर चलना,
लेकिन क्यों?
समझा सकोगी?
चाहता हूँ मैं,
जीवन-प्रश्न का उत्तर,
बनेगा कौन?
बनकर दिखला सकोगी?
Monday, June 8, 2009
करोगे काम?
करोगे काम?
प्रेम क्या है?
एक पथ,
ईश्वर तक पहुँचने का।
प्रेम क्या है?
एक सच,
जीवन जीने का।
प्रेम क्या है?
एक नाटक,
दूसरों को फुसलाने का।
प्रेम क्या है?
एक तरकीब,
छिपे राज उगलवाने का।
प्रेम क्या है?
क्षणिक व्यापार,
मौज-मस्ती मनाने का।
प्रेम क्या है?
एक मजबूर सम्बन्धन,
साथ-साथ रहने का।
प्रेम क्या है?
करोगे काम?
राष्ट्रप्रेमी को समझाने का।
Saturday, June 6, 2009
प्रेमी को प्रेमिका से पत्र लिखवाइये,
उपदेश नीति और धर्म अगर चाहो,
विदुर रचित नीति शास्त्र मँगवाइये,
जोश रोश वीरता की आश लेके प्यारे,
वीर शिवाजी की जीवनी पढ़ जाइये।
देखना संयोग और वियोग तो,
प्रेमी को प्रेमिका से पत्र लिखवाइये,
प्रेम की पीर को बिना भोगे जानो तुम,
घनानन्द काव्यरस डुबकी लगाइये।
यूपी की राजनीति समझना यदि चाहो,
माया-मुलायम के भक्त बन जाइये,
आरक्षण राजनीति समझने हेतु यारो,
पासवान-लालू-सिब्बल के पीछे लग जाइये।
Tuesday, June 2, 2009
वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की कैसे सुन पाओगी?
प्रेम नहीं कर पाओगी
वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की कैसे सुन पाओगी?
चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।
पढ़ने-लिखने भर से कोई, श्रेष्ठ नहीं बन जाता है।
आत्मसात कर करे आचरण,वो ही कुछ कर पाता है।
हमने सब कुछ कह डाला है, तुम भी क्या कुछ कह पाओगी?
चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।
तुम्हे पाने की चाह नहीं थी,स्वार्थ भरी यह राह नहीं थी।
तुम्हारी खुशियों की खातिर ही,हमने तुम्हारी बाँह गही थी।
जाते हुए यह दुख है केवल तन्हा कैसे रह पाओगी?
चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।
काश तुम्हें खुशियां दे पाते, प्रेम तुम्हारे से मिलवाते।
तुमको जीवन रस मिल जाता,शायद हम भी खुश रह पाते।
सोचा था तुम बनोगी साथी, लेकिन तुम ना बन पाओगी।
चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।
Saturday, May 30, 2009
आदर्श छात्र
Monday, May 11, 2009
तुम नर की स्पंदन हो
तुम नर की स्पंदन हो
तुम ही देवी, तुम्हीं मानवी,
तुम नर की स्पंदन हो।
प्रेम और माधुर्य की मूरत,
नर-नीर तुम चंदन हो।।
ज्ञान-शक्ति और धन की देवी
सेवा कर, बनती हो सेवी
उदारता ही कमजोरी बन रही,
देवी से, बन गई तुम, बेबी।
ज्ञान-शक्ति ले बढ़ो आज,
हम करते अभिनन्दन हो।
तुम ही देवी, तुम्हीं मानवी,
तुम नर की स्पंदन हो।।
किसमे हिम्मत तुम्हें रोक ले?
प्रेम ही है बस, तुम्हें टोक ले।
प्रतिक्रिया वश पथ न भटकना,
नर पीछे है, उसे न झटकना।
खुश रहकर ही, खुशियाँ बाँटों,
रहे न जग में क्रंदन हो।
तुम ही देवी, तुम्हीं मानवी,
तुम नर की स्पंदन हो।।
भ्रूण हत्या में क्यों शामिल होतीं?
कटवाती क्यों? अपनी बोटी!
स्वयं खड़ी हो, करो न अपेक्षा,
नर को तुम ही दोगी शिक्षा।
नर-नारी मिल आगे बढ़ेंगे,
राष्ट्रप्रेमी करे वन्दन हो।
तुम ही देवी, तुम्हीं मानवी,
तुम नर की स्पंदन हो।।
Saturday, April 11, 2009
देह अलिखित किताब है,
अलिखित किताब
देह अलिखित किताब है,
पढ़ना इसको भी जरूरी है।
बुद्धिजीवी क्यों निन्दा करते,
उनकी क्या मजबूरी है?
नारी का भी गान यही है,
उसको देह ही समझा जाता।
अध्यात्म भी कहता है वश,
क्षण-भंगुर है इसका नाता।
देह ही तो है देवालय,
अनुभूति इसकी अधूरी है।
बुद्धिजीवी क्यों निन्दा करते?
उनकी क्या मजबूरी है।।
देह बिना अस्तित्व नहीं है,
आत्मा ही बस तत्व नहीं है।
आत्मा इसी में विकसित होती,
देह बिना मनुष्यत्व नहीं है।
देह ही तो साधन है वह,
हर साधना होती पूरी है।
बुद्धिजीवी क्यों निन्दा करते?
उनकी क्या मजबूरी है।।
नर-नारी की विशिष्टता को,
स्वीकार हमें करना होगा।
नारी के सौन्दर्य बोध का,
सम्मान हमें करना होगा।
नर भी नहीं जी सकता है,
नारी ही नहीं अधूरी है।
बुद्धिजीवी क्यों निन्दा करते?
उनकी क्या मजबूरी है।।
आतंक, विद्रोह, हिंसा पर,
नियन्त्रण यदि करना चाहो,
जन्मजात प्रबन्धक नारी,
बागडोर उसको पकड़ाओ।
सभी धर्मो में जितने पद है,
नारी की कमान जरूरी है।
बुद्धिजीवी क्यों निन्दा करते?
उनकी क्या मजबूरी है।।
Thursday, March 19, 2009
नव विक्रम संवत २०६६ की शुभकामनाये
सभी मित्रों को
नव विक्रम संवत २०६६ की शुभकामनाये
नव विक्रम संवत
शुभमय मधुमय मंगलमय हो,निज हृदय कामना करता हूँ।
नव-विक्रम संवत का पल-पल,मैं तुम्हें समर्पित करता हूँ।
निज ज्योति से दीप जलाते रहो,कुरुचि में सुरुचि जगाते रहो।
इस संवत की भी पुकार यही,तुम ज्ञान की गंगा बहाते रहो।
कुरुचि मिटे हर मन की,सुरुचि जगे जन-जन की।
पूरी हो अभिलाश हमारी ।आत्म-तृप्ति हो तन-मन की।
मधु, स्नेह, दया, उदारता,हृदय बस जाये समरसता।
नव सौभाग्य आदित्य उदित हो,नव संवत सबको मित्र मुदित हो।
नव संवत हो मंगलमय
नव संवत मंगलमय, हर दिन खुशहाली लाए।
तन-मन रहे प्रफुल्लित ,समृद्धि परिवार में आए।
उर हो शुभ -भावों से पूरित,मन-मयूर तुम्हारा नाँचे,
हरे-भरे आँगन में तुमरे, सौन-चिरैय्या गीत सुनाए।
नव संवत शुभ हो
2066 से हमें आस, आतंक का प्रसार रूके।
विवके हो जाग्रत सभी का, नहीं आनन्द प्रचार रूके।
संकीर्णताएँ मिटें सभी, बन्धुत्व न झुके कभी,
चहुँ ओर हो विजय, सत्य न कभी झुके।
शुभ हो आपको परिवार, राष्ट्र , विश्व को।
नव-संवत का हर पल, शुभ हो गुरू शिष्य को।
कथनी-करनी एक हो, मार्ग हमारा नेक हो,
उर-बुद्धि हों सन्तुलित, पायें सभी लक्ष्य को।
Wednesday, March 4, 2009
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
यदि चाहो आतंक मिटाना
एक राह से नहीं रूकेगा, हर-राह पर चलना होगा।
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
आतंक नहीं है, नई चीज,युगों-युगों से चलता आया।
प्रति-पल जगकर आगे बढ़,सुरक्षित अपना देश बनाया।
आतंक-रावण हावी है फिर, युवा-राम को जगना होगा।
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
बम का ही आतंक नहीं है,शोषण भी आतंक मचाता।
नारी भी आतंकित होती,जबरन नर, रंगरेली मनाता।
द्रोपदी चीर-हरण हो रहा, श्याम को फिर से आना होगा।
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
व्यवस्था, अव्यवस्था कर रही,प्रशासन ही नाकारा हो रहा।
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबकर,अधिकारी है जेब भर रहा।
भ्रष्टाचार मिटाकर जड़ से, प्रशासन को सुधरना होगा।
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
जनतंत्र को भीड़तंत्र कर,राजनीति आतंक कर रही।
हिन्दी-मराठी झगड़ा करके,देश को ये, कमजोर कर रही।
जनता को अब जगकर खुद ही, नेताओं को कसना होगा।
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
अपनी रक्षा सुदृढ़ करके,पड़ोसियों को कसना होगा।
राष्ट्रभाव हर हृदय जगाकर,जन-जन जाग्रत करना होगा।
प्रेम-रंग में रंगकर सबको, अपनत्व का भाव जगाना होगा।
यदि चाहो आतंक मिटाना, मिलकर आगे बढ़ना होगा।।
Tuesday, February 24, 2009
निबंध संग्रह "चिंता छोडो सुख से नाता जोड़ों" प्रकाशित
`चिन्ता छोड़ो सुख से नाता जोड़ो´ निबंध संग्रह
प्रकाशन वर्ष : 2009 पृष्ठ : 144 मूल्य 150
प्रकाशक : उद्योग नगर प्रकाशन, 695, न्यूकोट गांव, जी।टी.रोड, गाजियाबाद-२०१००१
यह संग्रह प्रकाशन क्रम में चौथी पुस्तक है। इससे पूर्व तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह में कुल 22 निबंध संग्रहीत हैं। लेखन मेरा व्यवसाय नहीं है और न ही शौक है। जीवन में जो वास्तविकताएँ आती हैं, जो संघर्ष करने पड़ते हैं, जो करता हूँ उसी को लिखा है। कथनी-करनी में एकता व पारदर्शिता मैं जीवन व साहित्य के लिए अनिवार्य मानता हूँ। अत: जो भोगा है, वही लिखा है।
अपनी बात
`मौत से जिजीविषा तक´, `बता देंगे जमाने को´ व `समर्पण´ काव्य संग्रहों के बाद प्रस्तुत है आपके हाथों में मेरा प्रथम निबंध संग्रह `चिन्ता छोड़ो-सुख से नाता जोड़ो´। मैं साहित्य सेवा या देशसेवा का अहम् नहीं पालता। साहित्य-सेवा, देश-सेवा या समाज सुधार ऐसी निरर्थक अवधारणा हैं कि व्यक्ति झूँठे अहम् में जीता है। वास्तव में समाज में कोई सुधार नहीं हो सकता। समाज को सुधरने की आवश्यकता भी नहीं है, सुधरने की आवश्यकता है व्यक्ति को। हम अपने आप को सुधार लें यही बहुत बड़ी बात है। जब से मानव जीवन का इतिहास मिलता है, अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है, जिन्हें हमनें अवतार, पैगम्बर, कामिल-पीर, ईश्वर-पुत्र या ईश्वर का नाम दिया है। उन्होंने समाज में अथक प्रयास किए किन्तु समस्याएँ कभी भी समाप्त नहीं हुईं और न ही समाप्त होंगी।
स्रष्टि विविधता पूर्ण है। इसमें न्याय-अन्याय, सत्य-असत्य, ईमानदारी-बेईमानी, सभी कुछ रहने वाला है। न तो अन्याय को मिटाया जा सकता और न ही न्याय को मिटाया जाना संभव है। सत्य भी रहेगा और असत्य भी, हाँ, हमारी जागरूकता के आधार पर देश व काल के क्रम में मात्रा भिन्न-भिन्न हो सकती है। हम समाज को नहीं बदल सकते, जीवन रूपी खेल में अपना पाला चुन सकते हैं। हमें स्वयं के लिए तय कर लेना चाहिए कि सत्य के साथ रहना है या असत्य के।
अपनी रचनाओं के माध्यम से मैं किसी भी प्रकार के परिवर्तन की अपेक्षा नहीं रखता। एक समय था कि मेरी धारणा बनी थी कि साहित्य से कोई परिवर्तन होता नहीं दिखता और मैंने रचना लिखना ही बन्द कर दिया था। अयोध्या संवाद के संपादक श्री शरद शर्मा द्वारा रचनाओं की माँग करने से यह कार्य पुन: प्रारंभ हो गया।
वास्तविकता यह है कि मैं सृजन कार्य धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष के लिए नहीं करता। यश के लिए भी काम करना मैं उपयुक्त नहीं मानता। हाँ, अपनी निजी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करके आत्मिक शान्ति का अनुभव होता है। उसी क्रम में प्रस्तुत हैं मेरा प्रथम निबंध संग्रह - `चिन्ता छोड़ो-सुख से नाता जोड़ों´।
इस पुस्तक को इस रूप में लाने में जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान दिया है उन सभी का आभारी हूँ। श्रीमती सरोज शर्मा (टी।जी.टी.हिन्दी, कुचामन) का वर्तनी सुधार के लिए तथा श्री सुरेश जागिड़ `उदय´ कैथल का मैं विशेष आभारी हूँ जिन्होंने अपने बहुमूल्य सुझावों द्वारा इसके कलेवर में सुधार सुझाये।
दिनांक 3।10।2008 संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी