Monday, June 29, 2009

नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा

ये गणतंत्र हमारा


युगो-युगो तक अमर रहे , ये गणतंत्र हमारा।

नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा।।

यह भारत देश हमारा।।

वीरों ने दी थीं कुर्बानी ,बहनों ने थी राखी बाधीं।

माताओं ने आरती उतारीं,भाग्यशाली थीं,नहीं बिचारी।

था सुभाष भी भाई मेरे, माता का एक दुलारा।

नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा।।

यह भारत देश हमारा।।

पहना था केसरिया बाना,जनमानस था हुआ दिवाना।

खून से लिखता था परवाना,राष्ट्रप्रेमी का रण का गाना।

इन्कलाब की बोली से था, गूँजा भारत सारा।

नव-पल क्षण ही प्रगति करे,यह प्राणों से है प्यारा।।

यह भारत देश हमारा।।

हमको है, कर्तव्य निभाना,स्वत्व नहीं, है राष्ट्र बढ़ाना।

सार्थक हो गणतंत्र मनाना,हमको ही है, पथ दिखलाना।

क्लान्त हुए जन मानस ने है, फिर से हमें पुकारा।

नव-पल क्षण ही प्रगति करे ,यह प्राणों से है प्यारा।।

यह भारत देश हमारा।।

Sunday, June 21, 2009

कोई बेटा नहीं तजता अपने ही बाप को.

पितृ-दिवस पर विशेष

काश!

बेटा समझ पाता,

उस वात्सल्यमयी डांट को,

माली की तरह की जाने वाली कांट-छांट को।

काश!

बेटा समझ पाता,

बाप की रोक-टोक को,

अपनी लुका-छिपी और नोंक-झोंक को।

काश!

बेटा समझ पाता,

प्रताड़ना के नेह को,

नाराज़ होकर नहीं तजता गेह को।

काश!

बेटा समझ पाता,

अंशी किस तरह सींच रहा अंश को,

भूलकर भी न करता, भावनाओं के ध्वंस को।

काश!

बेटा समझ पाता,

उन गालियों के अम्बार को,

दामन में भर लेता, स्नेह के भंडार को।

काश!बेटा समझ पाता,

कांटे चुनती छांह को,

कभी नहीं, जाता झटक कर बांह को।

काश!

बेटा समझ पाता,

बाप के उर के ताप को,

कोई बेटा नहीं तजता अपने ही बाप को.

पिता बनकर समझ आया

पिता को कितना था रूलाया?
पिता बनकर समझ आया।

क्रोध मेरा,
उन्होंने झेला,
जेब में न था,
एक धेला,
माँगों का था,
बस झमेला
जब मैंने
आँसू बहाया,
दिल मैंने,
कितना दुखाया?
पिता बनकर समझ आया।

अभाव,
उन्होंने,
खुद थे झेले,
मुझको दिखाये,
फिर भी मेले,
मेरी मुस्कराहट की खातिर,
अपने दु:ख थे,
उन्होंने ठेले।
उनको,
कितना था रूलाया?
पिता बनकर समझ आया।

रोया, रूठा, भाग छूटा,
फिर भी
उन्होंने,
न,
तनिक कूटा,
ढूढ़कर वापस ले आये
आँसू पौंछ,
माँ से मिलाये,
खाया न कुछ भी,
बिना खिलाये।
जिद कर,
कितना सताया?
पिता बनकर समझ आया।

पढ़े, लिखें,
आगे बढ़े हम
कर्म उत्तम,
करते रहे हम,
चाह थी बस,
उनकी इतनी,
पूरी कर पाये हैं कितनी?
मारा क्यों था?
मुझमें जूता।
मारकर क्यों था मनाया?
पिता बनकर समझ आया।

भले ही घर से निकालूँ,
भले ही उनको मार डालूँ,
समझेंगे नहीं,
फिर भी पराया,
कहेंगे नहीं,
मुझको सताया।
कितना था ऊधम मचाया?
पिता बनकर समझ आया।

चाहते हैं मुझको कितना?
काश!
तब मैं समझ पाता,
दिल नहीं,
उनका दु:खाता।
ऋण नहीं है,
जो चुकाऊँ,
रकम दे पीछा छुड़ाऊँ।
मेरा नहीं कुछ,
जो दे पाऊँ,
चरणों में खुद को चढ़ाऊँ।
मैंने केवल गान गाया,
पिता बनकर समझ आया।

Thursday, June 18, 2009

जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे

जगमग-जगमग

जगमग-जगमग दीप जलेंगे, ऐसा दिन हम लायेंगे।

जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे।।

कहीं न कोई क्षुधित रहेगा, कहीं न कोई तृषित रहे।

अतृप्त आत्मा रहेगी जब तक, सूर्य-चन्द्र भी ग्रसित रहें।

हर बाला शिक्षालय जाये , ऐसा अलख जगायेंगे।

जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे।।

मादा भ्रूण अस्तित्व मिटे तो, कैसे सुखी रह पायेगा नर।

दहेज प्रथा न मिटेगी जब तक, कैसे योग्य मिल पायेगा वर।

नारी नहीं सतायी जाये, हर नर को समझायेंगे।

जितने चेहरे मुरझाये हैं, वे सारे खिल जायेंगे।।

सु-शिक्षित हर बच्चा होगा, वस्त्र विहीन न कोई रहे।

हर सिर को आवास मिलेगा, अन्न विहीन न कोई रहे।

पूरीं हों सबकीं आकाँक्षा , सबको गले लगायेंगे।

जितने चेहरे मुरझाये हैं , वे सारे खिल जायेंगे।।

Wednesday, June 17, 2009

रहे न कोई भूखा यहाँ पर कोई वस्त्र विहीन न हो।

भारत भव्य बनाना है।

सहने पड़े कष्ट कितने भी, आगे बढ़ते जाना है।

हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।

रहे न कोई भूखा यहाँ पर कोई वस्त्र विहीन न हो।

शोषित पीड़ित रहे न कोई, कोई व्यक्ति दीन न हो।

कण्टक पूरित मारग अपना, अविचल चलते जाना है।

हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।

शास्त्र-शस्त्र दोनों ही को हम, खुशी-खुशी अपनायेंगे।

शस्त्र तो रक्षा के हित केवल , विश्व को पाठ पढ़ायेंगे।

पश्चिम से साँस्कृतिक युद्ध है, युवकों को समझाना है।

हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।

सदियों से संस्कृति चादर में कुछ धब्बे जो ठहर गये।

अमृत भरे घड़े अपने थे इन्हीं के कारण जहर भये।

विवेक त्याग के साबुन से अब चादर को चमकाना है।

हम दिन चार रहें न रहें, पर भारत भव्य बनाना है।।

देवासुर संग्राम तो भाई ,युग-युग से होता आया है।

नैतिकता जिसने अपनाई यश उसने ही पाया है।

भारत माँ की आज्ञा से अब कदम से कदम मिलना है।

हम दिन चार रहें न रहें,पर भारत भव्य बनाना है।।

Wednesday, June 10, 2009

खड़े हैं कब से चौराहे पर, नजारा ही बदल गया।

मुक्तक पढें होकर मुक्त

खड़े हैं कब से चौराहे पर, नजारा ही बदल गया।

करते-करते इन्तजार, जमाना ही बदल गया।

परीक्षा लोगी कब तक? हमारे इस जीवट की,

आ जाओ एक बार, तुम्हारा हुलिया ही बदल गया।


न देखा तुमने मुड़ के, हम दीदार न कर सके।

चाहा था हमने तुमको, तुम इन्कार न कर सके।

तुम नहीं हो हमारी अमानत, स्वीकार है हमें,

नादान हैं तुम्हें छोड़कर, प्यार ना कर सके।


हमारे दिल में है क्या हम इजहार ना कर सके।

तुम बैठे हमारे सामने, हम दीदार ना कर सके।

ठोकरें ही थीं पथ में, हम थे उसी गम में,

चाहकर भी हम तुमसे, इकरार ना कर सके।


बीत गये वे दिन रावी का बह गया वह पानी।

गुलिश्ता उजड़ गया, छाई है यहाँ वीरानी।

क्या करेगी आकर ? हे तितली! संभल जा,

नहीं है यहाँ राजा, न बन सकेगी तू रानी।


दर पर खड़े तुम्हारे हम घण्टी ना बजायेंगे।

तुमको खुश करने को, ना अपने को सजायेंगे।

इकरार और इंकार सब छोड़ते हैं तुम पर,

तुम्हारे गम में डूबे, नहीं अपने को बचायेंगे।


चाहा था तुमको हमने , करते रहे तुम्हें प्यार।

बीती हैं वर्षों देखो, नहीं कर सके हम दीदार।

कहा था तुमने ही, पत्थर भी हैं दुआ देते,

राष्ट्रप्रेमी बना पत्थर? आ के, कर जाओ इजहार।


नहीं थी आरजू फिर भी, तुम्हें दिल में बसाया।

दिल में हमारे बैठकर, हमें ही सताया।

तुम्हारी मुस्कराहट पर जीवन है निछावर,

काँटो में फूल खिले, जब भी तुमने मुस्काया।

Tuesday, June 9, 2009

अगले चौराहे से तुमको मुड़ के जाना।।

प्रेम है लुटाना


तुम पर नजर है,नहीं है निशाना।

मुझको अभी है बहुत दूर जाना।।


चाहा था तुझको बहुत हमने माना।

गा नहीं सकेंगे,केवल तेरा गाना।।


पथ का पथिक हूँ,नित ही चलते जाना।

राही हो तुम भी नहीं घर बसाना।।


लाये थे न कुछ भी नहीं हमको पाना।

हर मुस्कान पर, हमें, प्रेम है लुटाना।।


दे नहीं सके तो, नहीं तुमसे पाना।

लुटा देंगे सब कुछ,नहीं कुछ जुटाना।।


चलो तुम भी, आगे बहुत कुछ है पाना।

अगले चौराहे से तुमको मुड़ के जाना।।

जीवन-प्रश्न का उत्तर,

चाहता हूँ

चाहता हूँ मैं,

तुमसे बातें करना

लेकिन क्या?

बतला सकोगी?


चाहता हूँ मैं,

हो एक मुलाकात

लेकिन कब?

बतला सकोगी?


चाहता हूँ मैं,

साथ लेकर चलना

लेकिन किस पथ पर?

चलकर दिखला सकोगी?


चाहता हूँ मैं,

लड़ना-झगड़ना,

लेकिन किसके साथ?

समझा सकोगी?


चाहता हूँ मैं,

कंटकों पर चलना,

लेकिन क्यों?

समझा सकोगी?


चाहता हूँ मैं,

जीवन-प्रश्न का उत्तर,

बनेगा कौन?

बनकर दिखला सकोगी?

Monday, June 8, 2009

करोगे काम?

करोगे काम?

प्रेम क्या है?

एक पथ,

ईश्वर तक पहुँचने का।


प्रेम क्या है?

एक सच,

जीवन जीने का।


प्रेम क्या है?

एक नाटक,

दूसरों को फुसलाने का।


प्रेम क्या है?

एक तरकीब,

छिपे राज उगलवाने का।


प्रेम क्या है?

क्षणिक व्यापार,

मौज-मस्ती मनाने का।


प्रेम क्या है?

एक मजबूर सम्बन्धन,

साथ-साथ रहने का।

प्रेम क्या है?

करोगे काम?

राष्ट्रप्रेमी को समझाने का।

Saturday, June 6, 2009

प्रेमी को प्रेमिका से पत्र लिखवाइये,

उपदेश नीति और धर्म अगर चाहो,

विदुर रचित नीति शास्त्र मँगवाइये,

जोश रोश वीरता की आश लेके प्यारे,

वीर शिवाजी की जीवनी पढ़ जाइये।


देखना संयोग और वियोग तो,

प्रेमी को प्रेमिका से पत्र लिखवाइये,

प्रेम की पीर को बिना भोगे जानो तुम,

घनानन्द काव्यरस डुबकी लगाइये।

यूपी की राजनीति समझना यदि चाहो,

माया-मुलायम के भक्त बन जाइये,

आरक्षण राजनीति समझने हेतु यारो,

पासवान-लालू-सिब्बल के पीछे लग जाइये।

Tuesday, June 2, 2009

वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की कैसे सुन पाओगी?

प्रेम नहीं कर पाओगी


वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की कैसे सुन पाओगी?

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

पढ़ने-लिखने भर से कोई, श्रेष्ठ नहीं बन जाता है।

आत्मसात कर करे आचरण,वो ही कुछ कर पाता है।

हमने सब कुछ कह डाला है, तुम भी क्या कुछ कह पाओगी?

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

तुम्हे पाने की चाह नहीं थी,स्वार्थ भरी यह राह नहीं थी।

तुम्हारी खुशियों की खातिर ही,हमने तुम्हारी बाँह गही थी।

जाते हुए यह दुख है केवल तन्हा कैसे रह पाओगी?

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

काश तुम्हें खुशियां दे पाते, प्रेम तुम्हारे से मिलवाते।

तुमको जीवन रस मिल जाता,शायद हम भी खुश रह पाते।

सोचा था तुम बनोगी साथी, लेकिन तुम ना बन पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।