Tuesday, June 2, 2009

वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की कैसे सुन पाओगी?

प्रेम नहीं कर पाओगी


वणिक बुद्धि हावी है तुम पर, दिल की कैसे सुन पाओगी?

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

पढ़ने-लिखने भर से कोई, श्रेष्ठ नहीं बन जाता है।

आत्मसात कर करे आचरण,वो ही कुछ कर पाता है।

हमने सब कुछ कह डाला है, तुम भी क्या कुछ कह पाओगी?

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

तुम्हे पाने की चाह नहीं थी,स्वार्थ भरी यह राह नहीं थी।

तुम्हारी खुशियों की खातिर ही,हमने तुम्हारी बाँह गही थी।

जाते हुए यह दुख है केवल तन्हा कैसे रह पाओगी?

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

काश तुम्हें खुशियां दे पाते, प्रेम तुम्हारे से मिलवाते।

तुमको जीवन रस मिल जाता,शायद हम भी खुश रह पाते।

सोचा था तुम बनोगी साथी, लेकिन तुम ना बन पाओगी।

चाहे जितना पढ़-लिख लो, प्रेम नहीं कर पाओगी।।

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