Tuesday, May 28, 2019

एक समीक्षा

जनता से प्रश्न पूछते आलेख- आखिर क्यों? कब तक?

                                                                              डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी

‘‘श्रमिक संगठनों की भूमिका संदेहास्पद हो जाने के कारण आज यहां हजारों घर के चूल्हे ठण्डे होते जा रहे हैं। जनोपयोगी संसाधन दिन पर दिन महंगे होते जा रहे हैं, हमारी संसद मौन है। आने वाले समय में बेकारी, बेरोजगारी बढ़ने के लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं, फिर भी हम सभी मौन हैं, आखिर क्यों? कब तक?’’ संदर्भित पंक्तियाँ कवि, लेखक, पत्रकार, जुझारू कर्मयोगी व बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाॅ. भरत मिश्र प्राची के निबंध संग्रह ‘सत्ता संघर्ष’ के निबंध- ‘विपक्ष की भूमिका नगण्य होती जा रही है’ के अंतिम अनुच्छेद की हैं। उक्त पंक्तियाँ ही व्यवस्था के प्रति डाॅ. प्राची जी के असंतोष को मुखर करने के लिए काफी हैं। श्री प्राची जी को लगता है कि संसद मौन है। निःसन्देह प्राची जी की पीड़ा प्रासंगिक है। संसद में सासंदों को जिस काम के लिए चुनकर भेजा जाता है, वह काम तो होता ही नहीं है। संसद में शोर-शराबा होता है, आरोप-प्रत्यारोप होते हैं, गाली-गलोज भी होती हैं, कभी-कभी मारपीट की नौबत भी आ जाती है; किंतु जनता के मुद्दों पर, संसद में आये प्रस्तावों पर कोई सार्थक बहस नहीं होती। अधिकांश कानून व प्रस्ताव समय की कमी के कारण बिना बहस के ही पारित हो जाते हैं। हम सभी मौन हैं। हमारे सभी के अपने-अपने स्वार्थ हैं, हमारे सभी के अपने-अपने भय हैं। अतः हम भी सब कुछ देखकर भी नजरअंदाज करते हैं या हम हताश हो गए हैं कि हमारे कुछ बोलने या न बोलने से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। श्री प्राचीजी का प्रश्न आखिर कब तक? का उत्तर शायद जनता देने लगी है। लोकसभा के चुनावों में भी पंचायत चुनावों की तरह बंपर मतदान इस बात का प्रतीक है कि जनता अपने तरीके से बोल रही है। उच्च न्यायालयों में जन हित से जुड़ी याचिकाओं की संख्या भी इस प्रश्न का उत्तर दे रही है, आखिर कब तक? हम चुप रहेंगे। बहुत हो चुका।
       30 अप्रेल 2019 को विद्यालय के ग्रीष्मकालीन अवकाश प्रारंभ होने वाले थे। मेरे विद्यालय का पुस्तकालय भी बंद होने वाला था। प्रतिवर्ष की तरह ग्रीष्मकाल के दो माह में अध्ययन के लिए कुछ पुस्तकें निकालकर रखने के उद्देश्य से पुस्तकालय में पुस्तक चयन कर रहा था। इसी क्रम में डाॅ. प्राची जी की पुस्तक ‘सत्ता-संघर्ष पर नजर पड़ी। प्राची जी के नाम के आकर्षण से ही तुरंत पुस्तक उठा ली। डाॅ प्राची जी से उनकी पत्रिका कंचनलता के माध्यम से, मेरा परिचय मेरे विद्यार्थी जीवन, जब मैंने लेखन का प्रारंभ ही किया था से है। डाॅ. प्राची जी को अपना मित्र तो नहीं कह सकता, क्योंकि वे मुझसे काफी बड़े हैं। मैंने उनसे समय-समय पर मार्गदर्शन प्राप्त किया है। अतः उन्हें में अपने मार्गदर्शक ही कह सकता हूँ। मैं प्रत्यक्ष रूप से आज तक उनसे नहीं मिला, किंतु लेखन के माध्यम से काफी लंबे समय से जानता हूँ। पुस्तक ‘सत्ता-संघर्ष’ से उन्हें और भी अधिक जानने का मौका मिला। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मेरा विचार बन रहा था कि प्राची जी कांग्रेसी हैं किंतु पुस्तक के अंतिम निबंध ‘प्रजातंत्र में राजतंत्र की उभरती छाया’ तक स्पष्ट हो गया कि सच्चा लेखक व पत्रकार किसी राजनैतिक विचारधारा का गुलाम नहीं होता। डाॅ. प्राची जी कैसे हो सकते हैं, ‘नेहरूवादी संस्कृति से गांधीवादी संस्कृति के पैमाने में सिमटे परिवारवाद की कांग्रेसी लहर तो बिहार में लालू-राबड़ी के बीच चल रही सरकार के बीच जनता दल की पतवार, हरियाणा में देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चैटाला सरकार के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता चोटाला परिवार, चैधरी चरण सिंह के बाद सत्ता की गेंद सम्भाले अजीतसिंह जैसे आज देश के अनेक नाम हैं, जहाँ परिवारवाद तेजी से फल-फूल रहा है’ परिवार वाद पर चोट करते समय डाॅ. प्राची की कलम ने किसी के प्रति कोई नरमी नहीं बरती।
      ‘सत्ता-संघर्ष’ नाम से भले ही यह प्रकट होता हो कि पुस्तक में सत्ता के लिए किये जाने वाले षड्यंत्रों को उजागर किया गया होगा किंतु पुस्तक वास्तव में एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें विभिन्न रंगों के फूलों को सजाया गया है। लेखक के पारंपरिक विचार प्रवाह को भी गिनती में लें, तो पुस्तक में कुल 41 आलेख हैं। नाम के अनुरूप अधिकांश आलेख राजनीति अर्थात सत्ता के इर्द-गिर्द विषयों पर ही लिखे गए हैं। इसके बावजूद ‘शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षार्थी में बढ़ती दूरी’, ‘शिक्षा आपके द्वारा फिर भी अंधकार’ जैसे आलेखों को सम्मिलित कर विविधता भी प्रस्तुत की है। वास्तविकता तो यही है कि डाॅ. प्राची सभी आलेखों में ही हमें एक शिक्षक के रूप में शिक्षा देते, प्रेरणा देते, प्रश्न पूछते और मार्गदर्शन देते नजर आते हैं।
             पुस्तक सत्ता-संघर्ष केवल सत्ता तक ही सीमित नहीं है। इसमें देश की समस्याओं को बखूबी उकेरा गया  है। यही नहीं आर्थिक उदारवाद, बाजारवाद, विनिवेशन, निजीकरण जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हुए जनता पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर लेखक की पीड़ा लगभग प्रत्येक निबंध में महसूस की जा सकती है। लेखक उदारीकरण के कारण घरेलू उद्योगों को होने वाले नुकसान को लेकर ही नहीं, श्रमिकों को लेकर भी चिंतित हैं। लेखक ने युद्ध की विभीषिका पर भी अपने विचार व्यक्त किए है। लेखक के अनुसार युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। आतंकवाद के कारणों का पता लगाकर उनके निराकरण से ही आतंकवाद को समाप्त किया जा सकता है। डाॅ. प्राची जी की पुस्तक सत्ता-संघर्ष के साथ-साथ सत्ता के लिए संघर्षरत पाटियों को मार्गदर्शन भी प्रदान करती है। उनके विचार में भाजपा और कांग्रेस में कोई मूलभूत अंतर नहीं है।
       सत्ता-संघर्ष में इतने विषय समाहित हैं कि उन सबकी गणना करवाना भी इस संक्षिप्त समीक्षा में संभव नहीं है। कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय, सराहनीय व अनुकरणीय है। सामान्यतः आलेख पाठकों को बांध सकने में सफल नहीं हो पाते किंतु लेखक ने छोटे-छोटे आलेख प्रस्तुत कर पाठक को बोर होने से बचा लिया है। कविता की अपेक्षा गद्य में पाठकों को बांधे रखना मुश्किल काम होता है। लेखक के पास किंतु और परंतु भी नहीं होते कि उसे तुकबंदी या लय मिलाने के लिए ऐसा करना पड़ा या छंद की मात्रा पूरी करने के लिए शब्द के साथ खेलना पड़ा। भारतीय मनीषी आचार्य वामन का मत है, ‘गद्यं कवीनां निकषं वदंति।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, गद्य कवियों या लेखको की कसौटी है तो निबंध गद्य की भी कसौटी है। मेरे विचार में डाॅ. प्राची जी के निबंध इस कसौटी पर एकदम सही उतरते हैं।

जवाहर नवोदय विद्यालय, महेंद्रगंज, दक्षिण पश्चिम गारो पहाड़ियाँ, मेघालय-794106

Monday, May 20, 2019

गर्व करने की बात

  मुंह छिपाने की नौबत क्यों?

                                   
सर्व प्रथम में अपनी फेवरेट लेखिका श्रीमती मृदुला सिन्हा से माफी मांगता हूँ कि मैंने उनके लिखे हुए विषय पर लिखने का दुस्साहस किया। महिला लेखिकाओं में अमृता प्रीतम के बाद मृदुला सिन्हा मेरी चहेती(फेवरेट) लेखिका हैं। इन दोनों का लिखा हुआ, जहाँ भी मिल जाता है। पढ़ने के लोभ को नियंत्रित नहीं कर पाता या यूँ कहूँ कि नियंत्रित करना ही नहीं चाहता। अमृता प्रीतम के लेखन में कहीं भी झूठ या छिपाव नहीं है। उन्होंने जो लिखा है, वह जिया है। लिखना और, और करना और, वाला दोगलापन उनमें नहीं है। वे केवल आदर्श की बात नहीं करतीं, व्यवहार में जो है, सो है। यथार्थ लिखती रही हैं। दूसरी ओर मृदुला सिंहा पारिवारिक चिंतन पर बहुत अच्छा लिखती हैं। इनके लेखन का कायल में इनकी एक ही पंक्ति से हो गया था, जब राजस्थान पत्रिका में कभी पढ़ा था, ‘परिवार समानता के लिए फीता लेकर माप-तौल करने से नहीं चलते।’ यथार्थ यही है। परिवार और समाज कानूनों से नहीं चलते परिवार और समाज का आधार तो भावनात्मक संबंध होते हैं कानून नहीं।
इन दिनों मृदुला जी की पुस्तक, ‘मात्र देह नहीं हैं औरत’ पढ़ रहा हूँ। यद्यपि उनका लिखा हुआ एक-एक शब्द परिवार और समाज के लिए ही नहीं व्यक्ति के लिए भी उपयोगी है। तथापि पुस्तक में से जो भी मुझे अंदर तक प्रभावित करता है, उसे दूसरों के साथ बांटने का प्रयास करता हूँ। आखिर मृदुला जी जिस संस्कृति को विकसित होते देखना चाहती हैं, वह मिल जुलकर रहना ही तो सिखाती है। अतः जो अच्छा लगता है, उसे अपने ब्लाॅग पर भी प्रस्तुत कर देता हूँ। किंतु इस आलेख का आधार वे पंक्तियाँ बनीं, जो मुझे अच्छी नहीं लगीं। जी हाँ! पहली बार है, जो मुझे श्रीमती मृदुला सिंहा का लिखा हुआ कुछ पसंद नहीं आया। उसको भी अपनों के साथ बांटना चाह रहा हूँ।
मृदुला जी की उक्त पुस्तक के आलेख, ‘ मुंह छुपाने की नोबत क्यों?’ की पंक्तियाँ, ‘‘‘ सही माने में ये लड़कियां तो हमारे समाज पर कलंक हैं। तालाब के स्वच्छ जल में विचरण करती असंख्य बड़ी-छोटी मछलियों के बीच चंद सड़ी मछलियां हैं। सुगधिंत पके आमों की टोकरियों में एक सड़ा आम है। लाखों युवतियों द्वारा जीवन जगत में किए जा रहे जीवन जगत में किए जा रहे निरंतर संघर्ष पर धब्बा हैं।’’ मेरे विचार में सही नहीं है। हालांकि इतनी बड़ी लेखिका के लेखन पर प्रश्न चिह्न लगाने की मेरी औकात नहीं है किंतु किसी भी विषय पर अपने विचार प्रकट करने का प्रयास तो कर ही सकता हूँ। इसका बुरा शायद वे भी नहीं मानेंगी। कोई भी व्यक्ति कभी भी कलंक नहीं हो सकता। व्यक्ति कोई गलती कर सकता है। व्यक्ति द्वारा किया गया कोई कृत्य परिवार और/या समाज के मानकों के हिसाब से अनुचित हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह व्यक्ति समाज के लिए कलंक हो गया। व्यक्ति जीवन में लगातार कर्म करता ही रहता है। उनमें से कुछ कर्म समाज के लिए अच्छे होते हैं और समाज उन पर गर्व करता है। व्यक्ति को पुरस्कृत करता है। कुछ कर्म समाज के मानकों के हिसाब से अनुचित हो सकते हैं। इसके लिए परिवार और समाज में निंदा या प्रताड़ना ही नहीं कभी-कभी तो सजा की भी व्यवस्था होती है। किंतु ये प्रशंसा या निंदा कर्मों की होती है। व्यक्ति को कभी भी कलंक जैसे शब्द से नहीं नवाजा जाना चाहिए। हमें स्मरण रखना होगा कि कभी-कभी गलती से हमारे पैर कीचड़ में पड़ जाते हैं, तो हम अपने पैरों को नहीं काट फेंकते। हम साफ पानी से कीचड़ को साफ करते हैं और फिर आगे की ओर चल पड़ते हैं।
मृदुला जी ने उक्त आलेख ‘मुह छुपाने की नोबत क्यों?’लड़कियों के देह व्यापार में या सेक्स संबंधों में फंसने को लेकर लिखा है। संदर्भित पंक्तियाँ भी देह व्यापार में धकेली हुई या जा रहीं या शौकीन लड़कियों के लिए प्रयोग की हैं। यहाँ पर स्मरण रखना होगा कि कोई भी व्यापार केवल विक्रेता से नहीं चलता। विक्रेता को ग्राहकों की भी आवश्यकता पड़ती है। यदि ये लड़कियाँ देह व्यापार में फंस गई हैं और मुंह दिखाने के काबिल नहीं हैं तो उनके ग्राहकों को भी इसी श्रेणी में आना चाहिए। वैसे इतिहास में कोई भी काल ऐसा नहीं मिलेगा, जब देह व्यापार की उपस्थिति न मिलती हो। यह एक अनिवार्य बुराई है। चंद रूपयों या उपहारों के लालच में सामान्य घरों में भी इस प्रकार के संबंध बनाने की बातें सुनी जाती रहती हैं। इस प्रकार की घटनाओं को पूर्णतः रोका जाना संभव ही नहीं है। संक्षिप्त रूप से विचार करें तो बहुत कम महिलाएं होंगी जो स्वच्छा से इस पेशे में उतरती होंगी। कुछ को जबरदस्ती इस पेशे में धकेल दिया जाता है। 
समाज व सरकार को यह भी विचार करना चाहिए कि जिस बुराई को समाप्त नहीं किया जा सकता। उसको नियंत्रित करने के लिए क्यों न उसका नियमितीकरण कर दिया जाय? क्यों न कानून बनाकर उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाय? क्यों न इस कार्य को भी एक पेशा घोषित कर दिया जाय? इस संबन्ध में मेरा कोई निश्चित स्थिर मत नहीं है किंतु जिसको आदि काल से ही रोका जाना संभव नहीं हुआ है। वह अब कैसे होगा? हमारी स्वर्ग की कल्पना में भी अप्सराओं का अस्तित्व है तो जन्नत की कल्पना भी हूरों से ही प्रारंभ होती है। अब तो वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर कोई भी बालिग स्त्री पुरूष किसी के साथ भी रह सकता है। लिव इन रिलेशनशिप को भी लगभग कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया गया है। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर सभी प्रकार की छूटें दी जा रही हैं। ऐसी स्थिति में कानूनन इस प्रकार के कृत्यों को रोका जाना संभव नहीं है। अच्छा यही होगा कि इस प्रकार के पेशे में लगे महिला पुरूषों को कानूनी संरक्षण प्रदान करते हुए उन्हें स्वास्थ्य संबंधी न्यूनतम सुविधाएं सुनिश्चित की जायं। वे भी अपनी हीन भावना से निकल कर एक सम्मानित जीवन की अनुभूति कर सकें।
              वर्तमान समय में देखने में आ रहा है कि केवल रेड लाइट ऐरिया में ही यह कार्य नहीं हो रहा। हमारे-आपके आसपास भी इस प्रकार के लोग हैं जो इन कार्यो में लिप्त पाये जाते हैं। वर्तमान समय में वैश्या शब्द का स्थान काॅलगर्ल लेने लगी हैं। इनमें से कुछ तो मजबूरी में इस काम में प्रवेश करती हैं। समाचारों के अनुसार कुछ को ब्लेकमेल करके उनके ही बाॅयफ्रेण्ड इस दलदल में धकेल देते हैं। इसका मूल कारण चकाचैंध और ग्लेमर की जिंदगी की ओर आकर्षण भी है। वर्तमान में नयी पीढ़ी रातोंरात धनी हो जाना चाहती है। एक गरीब परिवार के लड़के-लड़कियों को स्मार्टफोन क्यों चाहिए? मेरी समझ में नहीं आता। टी.वी., लेपटाॅप ओर स्मार्टफोन परिवार व समाज को कमजोर कर रहे हैं। लालच, आकर्षण और गरीब व मध्यम वर्ग में बढ़ती विलासिता की प्रवृत्ति लड़कियों को इस जाल में आसानी से फंसा देती है। इंटरनेट पर पढ़े गये एक समाचार के अनुसार एक व्यक्ति अपने मनोंरंजन के लिए बाजार से अपने फोन में कुछ पोर्न फिल्में डलवाकर लाया था। जब उसने घर में आकर देखा तो एक फिल्म में तो उसकी अपनी पत्नी ही थी। ऐसी घटनाओं के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।
मृदुला जी के अनुसार, ‘‘दरअसल, मां-बाप बच्चियों और समाज पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते। अपनी बेटियों को संस्कारित करना, उन्हें अंगुली पकड़कर सही राह पर चलाना अभिभावक का दायित्व है। इतनी-भर स्वतंत्रता उन्हें जरूर मिलनी चाहिए कि वे अपने जीवन के बारे में स्वयं निर्णय लें। परंतु उन निर्णयों में मां-बाप और शिक्षक की सहायक या परामर्शदाता की भूमिका रहनी ही चाहिए।’’ निश्चित रूप से लड़के या लड़कियाँ बुरी संगत या बुरी आदतों में फंस रहे हैं तो उसके लिए परिवार भी नहीं परिवार ही जिम्मेदार है। आज लोगों के पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है। लोग टीवी, कम्प्यूटर, लेपटाॅप और स्मार्ट फोन पर इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उनके बच्चे जब उनसे बात करना चाहते हैं, तब वे अपने बच्चों को समय ही नहीं देते। बच्चे भी फिर अपना समय अलग गतिविधियों में लगाने लगते हैं तो हमारे पास पछताने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता। अतः हमें भटकी हुई लड़कियों या लड़कों के लिए कंलक शब्द न प्रयोग करके इस प्रकार की व्यवस्था पर विचार करना होगा कि वे अपनी भटकन से बाहर निकल कर पुनः सामान्य राह पर आ सकें। उन्हें कलंकित कह कर तो हम उन्हें आत्महत्या या विद्रोह की ओर धकेल रहे होते हैं। हमें उनमें आत्मविश्वास और साहस जगाने की आवश्यकता है कि वे न केवल उस दलदल से बाहर निकल सकें वरन् यह स्वीकार भी कर सकें कि हम इसमें फंस गर्यी थीं या फंस गये थे किंतु अपने प्रयासों के बल पर हम उससे बाहर आने में सफल रहे और हमें अपने आप पर गर्व है कि हम अपने प्रयासों में सफल रहे। अपनी गलतियों को स्वीकार करके उनसे बाहर निकलना बहुत बड़े साहस का काम है और यह शर्म की नहीं गर्व करने की बात होनी चाहिए। तभी सुधार प्रक्रिया आगे बढ़ सकेगी।
हमें सेक्स अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों को कलंक कहने की प्रवृत्ति से बचना होगा। इसी प्रवृत्ति के कारण पीड़िताएं आत्कहत्या कर लेती हैं। हमें व्यक्ति, परिवार और समाज की सोच को बदलना होगा। हमें समझना होगा कि पीड़िता या पीड़ित कलंक नही है। दोषी तो अपराधी है, पीड़ित को कलंक नहीं कहा जाना चाहिए। लड़कियां इस दलदल में फंस भी गई हैं, तो भी वे दोषी नहीं हैं, व्यवस्था  ही दोषी है, परिवार और समाज दोषी है। यदि कोई बलात्कार से पीड़ित या इस धंधे में धकेल दी गई युवती आत्महत्या करती है तो उसका दोष हम सभी पर है, जो इस प्रकार का वातावरण बना दिया है कि वे अपने आपको कलंक समझने लगती हैं। इस व्यवस्था मंे सुधार की आवश्यकता है। जिन्होनंे गलती की है या जो फंस गये हैं और उससे बाहर निकलना चाहते हैं तो ऐसा वातावरण बनना चाहिए कि गलती को सुधार लेना गर्व करने वाली बात है। मुंह छुपाने वाली बात नहीं।                
                    
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Sunday, May 19, 2019

स्वतंत्रता

‘‘ दरअसल, मां-बाप बच्चियों और समाज पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते। अपनी बेटियों को संस्कारित करना, उन्हें अंगुली पकड़कर सही राह पर चलाना अभिभावक का दायित्व है। इतनी-भर स्वतंत्रता उन्हें जरूर मिलनी चाहिए कि वे अपने जीवन के बारे में स्वयं निर्णय लें। परंतु उन निर्णयों में मां-बाप और शिक्षक की सहायक या परामर्शदाता की भूमिका रहनी ही चाहिए।’’
‘‘ सही माने में ये लड़कियां तो हमारे समाज पर कलंक हैं। तालाब के स्वच्छ जल में विचरण करती असंख्य बड़ी-छोटी मछलियों के बीच चंद सड़ी मछलियां हैं। सुगधिंत पके आमों की टोकरियों में एक सड़ा आम है। लाखों युवतियों द्वारा जीवन जगत में किए जा रहे जीवन जगत में किए जा रहे निरंतर संघर्ष पर धब्बा हैं।’’
                                              मृदुला सिन्हा के         निबंध मुंह छुपाने की नोबत क्यों? से

Thursday, May 16, 2019

एक फजूल दौड़

 विरोधाभासों की जिंदगी





स्त्री को पूजनीया मानने वाले समाज ने स्त्री के लिए बहुत सारी विसंगतियां खड़ी कर रखी हैं। विरोधाभासों की जिंदगी जी रहे हैं हम। एक ओर स्त्री पूजनीया है, तो दूसरी ओर सबसे अधिक अत्याचार और उत्पीड़न की भागीदार! मनो उसे देवी बनाना है या दासी, हमने इसका निर्णय ही नहीं किया है या सदियों से पुरुष की दासता भुगतती नारी स्वयं अपनी पहचान नहीं कर पा रही है। जो अपनी शक्ति पहचानती है, वह सारे बंधन तोड़कर पुरुष से आगे निकलने की होड़ में एक फजूल दौड़ में उलझ गयी हैं। इस दौड़ में उन्होंने अपने शरीर और मन के तकाजे और माँगों को भी ताक पर रख दिया है। इस दौड़ में उन्हें न माँ बनने की सुध है, न बच्चो की देखभाल से प्राप्त आनंद की सुध। उनका बस चले तो बराबरी की दौड़ में वे पुरुष को ही माँ बनने के लिए बाध्य करें। ऐसा करते हुए इन्हें यह स्मरण नहीं कि प्रकृति प्रदत्त यही एक विशेष गुण है, जो उसे पुरुष से विशेष बनाता है। मातृत्व उसे आनंद भी देता है और सीधे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के साथ खड़ी कर देता है।
                                                                 मातृत्व का अधिकार- मृदुला सिन्हा से साभार

Wednesday, May 15, 2019

दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम-४१

परिवार और रिश्तेदारों द्वारा दिये गये धन की सूची


नाम                                         वजन                             अनुमानित कीमत

दो सोने के सैट                        6 तोला                              1,68000/-रूपये
आठ सोने की चूड़ी                  4 तोला                               1,12000/-रूपये
दो अँगूठी सोने की                  2 तोला                                 56000/-रूपये
दो सोने की चैन                      2 तोला                                56000/-रूपये
दो जोड़ी चाँदी की पायल        200 ग्राम                             10000/-रूपये
कपड़े, साड़ी सूट आदि                                                     1,00000/-रूपये

उक्त काल्पनिक वस्तुओं के अतिरिक्त न्यायालय से अन्य अनेक दावे भी किये गये थे।

5. उपार्जनों से हानि की बाबत दावा की गयी रकम                             4,00000/- रूपये
6. चिकित्सकीय खर्चो की वावत एकमुश्त राशि                                 3,00000/-रूपये
7. आवेदिका के नियंत्रण में से हटायी गयी सम्पत्ति के नाश
, नुकसान एवं हटाये जाने के कारण हुई हानि के वावत                            60000/-रूपये
8. शारीरिक व मानसिक उपहति हेतु प्रतिपूर्ति की रकम
जिसके निशान शरीर पर होने का दावा भी किया गया था                          8,00000/-रूपये
9. गृहस्थी के खर्चा भरण-पोषण कपड़ा आदि हेतु प्रति माह                   60000/-रूपये मासिक
10. मुकदमें की पैरवी एवं वकील अधिवक्ता हेतु 
रकम प्रतिमाह की दर से                                                                         20000/-रूपये मासिक
11. इसके अतिरिक्त मानसिक, भावनात्मक, मानसिक, भावनात्मक
व सामाजिक संताप और कष्ट की क्षतिपूर्ति हेतु एकमुश्त                          5,00000/-रूपये 

मनोज कोर्ट में दायर याचिका की प्रति को बार-बार पढ़कर यही आश्चर्य करता कि लोगों का लालच कितना बड़ा हो सकता है। मनोज के साथ इस प्रकार का झूठा मुकदमा हाने से पूर्व वह विश्वास नहीं कर पाता था कि ऐसे दो व्यक्ति जिन्होंने एक साथ जीने मरने की कसम खायी हो। एक साथ नहीं भी रह पाये तो एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमे बाजी और मरने मारने को उतारू कैसे हो सकते है? खैर जो हुआ, अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह भी अच्छा ही हो रहा है। जो होगा वह भी अच्छा ही होगा के सूत्र पर विश्वास करने वाला मनोज। अपने खिलाफ कोर्ट में दायर याचिका की प्रति को बार-बार पढ़कर आश्चर्य करता कि कोई औरत इस प्रकार बेसिर-पैर की बातें लिखकर झूठे आरोप लगाकर एक व्यक्ति पर मुकदमा दायर करती है और उस पर भी उसका कहना यह कि वह उसका पति है और उसके साथ रहना चाहती है। कानून के विद्यार्थी के रूप में मनोज ने वे सभी धाराएँ पढ़ रखी थीं, जिनका प्रयोग उसके खिलाॅफ किया गया था। विद्यार्थी के रूप में कानून की सभी धाराएँ उसको महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए बनाई हुई प्रतीत होती थीं किंतु वास्तविकता तो इसके विपरीत ही थी। अपने प्रेमी को धोखा देकर, कपटपूर्वक शादी रचाकर कुछ मिनटों के नाटक में ही किसी अच्छे-खासे कमाने वाले व्यक्ति को पति के रूप में अपना पालतू गुलाम बनाने का सुन्दर प्रयास किया गया था। केवल उस शातिर औरत ने ही षडयंत्र नहीं रचा था, इस कार्य में उसके भाई का भी पूरा सहयोग था। शातिर दिमाग वाली महिलाएँ किस प्रकार कानून का दुरूपयोग करके अपनी कमाई का रास्ता निकाल सकती हैं? मनोज को इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा था।
  

Monday, May 13, 2019

पुस्तक समीक्षा


 जनता से प्रश्न पूछते आलेख-

                                             आखिर क्यों? कब तक?


                                    
‘‘श्रमिक संगठनों की भूमिका संदेहास्पद हो जाने के कारण आज यहां हजारों घर के चूल्हे ठण्डे होते जा रहे हैं। जनोपयोगी संसाधन दिन पर दिन महंगे होते जा रहे हैं, हमारी संसद मौन है। आने वाले समय में बेकारी, बेरोजगारी बढ़ने के लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं, फिर भी हम सभी मौन हैं, आखिर क्यों? कब तक?’’ संदर्भित पंक्तियाँ कवि, लेखक, पत्रकार, जुझारू कर्मयोगी व बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाॅ. भरत मिश्र प्राची के निबंध संग्रह ‘सत्ता संघर्ष’ के निबंध- ‘विपक्ष की भूमिका नगण्य होती जा रही है’ के अंतिम अनुच्छेद की हैं। उक्त पंक्तियाँ ही व्यवस्था के प्रति डाॅ. प्राची जी के असंतोष को मुखर करने के लिए काफी हैं। श्री प्राची जी को लगता है कि संसद मौन है। निःसन्देह प्राची जी की पीड़ा प्रासंगिक है। संसद में सासंदों को जिस काम के लिए चुनकर भेजा जाता है, वह काम तो होता ही नहीं है। संसद में शोर-शराबा होता है, आरोप-प्रत्यारोप होते हैं, गाली-गलोज भी होती हैं, कभी-कभी मारपीट की नौबत भी आ जाती है; किंतु जनता के मुद्दों पर, संसद में आये प्रस्तावों पर कोई सार्थक बहस नहीं होती। अधिकांश कानून व प्रस्ताव समय की कमी के कारण बिना बहस के ही पारित हो जाते हैं। हम सभी मौन हैं। हमारे सभी के अपने-अपने स्वार्थ हैं, हमारे सभी के अपने-अपने भय हैं। अतः हम भी सब कुछ देखकर भी नजरअंदाज करते हैं या हम हताश हो गए हैं कि हमारे कुछ बोलने या न बोलने से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। श्री प्राचीजी का प्रश्न आखिर कब तक? का उत्तर शायद जनता देने लगी है। लोकसभा के चुनावों में भी पंचायत चुनावों की तरह बंपर मतदान इस बात का प्रतीक है कि जनता अपने तरीके से बोल रही है। उच्च न्यायालयों में जन हित से जुड़ी याचिकाओं की संख्या भी इस प्रश्न का उत्तर दे रही है, आखिर कब तक? हम चुप रहेंगे। बहुत हो चुका।
      30 अप्रेल 2019 को विद्यालय के ग्रीष्मकालीन अवकाश प्रारंभ होने वाले थे। मेरे विद्यालय का पुस्तकालय भी बंद होने वाला था। प्रतिवर्ष की तरह ग्रीष्मकाल के दो माह में अध्ययन के लिए कुछ पुस्तकें निकालकर रखने के उद्देश्य से पुस्तकालय में पुस्तक चयन कर रहा था। इसी क्रम में डाॅ. प्राची जी की पुस्तक ‘सत्ता-संघर्ष पर नजर पड़ी। प्राची जी के नाम के आकर्षण से ही तुरंत पुस्तक उठा ली। डाॅ प्राची जी से उनकी पत्रिका कंचनलता के माध्यम से, मेरा परिचय मेरे विद्यार्थी जीवन, जब मैंने लेखन का प्रारंभ ही किया था से है। डाॅ. प्राची जी को अपना मित्र तो नहीं कह सकता, क्योंकि वे मुझसे काफी बड़े हैं। मैंने उनसे समय-समय पर मार्गदर्शन प्राप्त किया है। अतः उन्हें में अपने मार्गदर्शक ही कह सकता हूँ। मैं प्रत्यक्ष रूप से आज तक उनसे नहीं मिला, किंतु लेखन के माध्यम से काफी लंबे समय से जानता हूँ। पुस्तक ‘सत्ता-संघर्ष’ से उन्हें और भी अधिक जानने का मौका मिला। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मेरा विचार बन रहा था कि प्राची जी कांग्रेसी हैं किंतु पुस्तक के अंतिम निबंध ‘प्रजातंत्र में राजतंत्र की उभरती छाया’ तक स्पष्ट हो गया कि सच्चा लेखक व पत्रकार किसी राजनैतिक विचारधारा का गुलाम नहीं होता। डाॅ. प्राची जी कैसे हो सकते हैं, ‘नेहरूवादी संस्कृति से गांधीवादी संस्कृति के पैमाने में सिमटे परिवारवाद की कांग्रेसी लहर तो बिहार में लालू-राबड़ी के बीच चल रही सरकार के बीच जनता दल की पतवार, हरियाणा में देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चैटाला सरकार के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता चोटाला परिवार, चैधरी चरण सिंह के बाद सत्ता की गेंद सम्भाले अजीतसिंह जैसे आज देश के अनेक नाम हैं, जहाँ परिवारवाद तेजी से फल-फूल रहा है’ परिवार वाद पर चोट करते समय डाॅ. प्राची की कलम ने किसी के प्रति कोई नरमी नहीं बरती।
                ‘सत्ता-संघर्ष’ नाम से भले ही यह प्रकट होता हो कि पुस्तक में सत्ता के लिए किये जाने वाले षड्यंत्रों को उजागर किया गया होगा किंतु पुस्तक वास्तव में एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें विभिन्न रंगों के फूलों को सजाया गया है। लेखक के पारंपरिक विचार प्रवाह को भी गिनती में लें, तो पुस्तक में कुल 41 आलेख हैं। नाम के अनुरूप अधिकांश आलेख राजनीति अर्थात सत्ता के इर्द-गिर्द विषयों पर ही लिखे गए हैं। इसके बावजूद ‘शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षार्थी में बढ़ती दूरी’, ‘शिक्षा आपके द्वारा फिर भी अंधकार’ जैसे आलेखों को सम्मिलित कर विविधता भी प्रस्तुत की है। वास्तविकता तो यही है कि डाॅ. प्राची सभी आलेखों में ही हमें एक शिक्षक के रूप में शिक्षा देते, प्रेरणा देते, प्रश्न पूछते और मार्गदर्शन देते नजर आते हैं।

                  पुस्तक सत्ता-संघर्ष केवल सत्ता तक ही सीमित नहीं है। इसमें देश की समस्याओं को बखूबी उकेरा गया  है। यही नहीं आर्थिक उदारवाद, बाजारवाद, विनिवेशन, निजीकरण जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हुए जनता पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर लेखक की पीड़ा लगभग प्रत्येक निबंध में महसूस की जा सकती है। लेखक उदारीकरण के कारण घरेलू उद्योगों को होने वाले नुकसान को लेकर ही नहीं, श्रमिकों को लेकर भी चिंतित हैं। लेखक ने युद्ध की विभीषिका पर भी अपने विचार व्यक्त किए है। लेखक के अनुसार युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। आतंकवाद के कारणों का पता लगाकर उनके निराकरण से ही आतंकवाद को समाप्त किया जा सकता है। डाॅ. प्राची जी की पुस्तक सत्ता-संघर्ष के साथ-साथ सत्ता के लिए संघर्षरत पाटियों को मार्गदर्शन भी प्रदान करती है। उनके विचार में भाजपा और कांग्रेस में कोई मूलभूत अंतर नहीं है।
      सत्ता-संघर्ष में इतने विषय समाहित हैं कि उन सबकी गणना करवाना भी इस संक्षिप्त समीक्षा में संभव नहीं है। कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय, सराहनीय व अनुकरणीय है। सामान्यतः आलेख पाठकों को बांध सकने में सफल नहीं हो पाते किंतु लेखक ने छोटे-छोटे आलेख प्रस्तुत कर पाठक को बोर होने से बचा लिया है। कविता की अपेक्षा गद्य में पाठकों को बांधे रखना मुश्किल काम होता है। लेखक के पास किंतु और परंतु भी नहीं होते कि उसे तुकबंदी या लय मिलाने के लिए ऐसा करना पड़ा या छंद की मात्रा पूरी करने के लिए शब्द के साथ खेलना पड़ा। भारतीय मनीषी आचार्य वामन का मत है, ‘गद्यं कवीनां निकषं वदंति।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, गद्य कवियों या लेखको की कसौटी है तो निबंध गद्य की भी कसौटी है। मेरे विचार में डाॅ. प्राची जी के निबंध इस कसौटी पर एकदम सही उतरते हैं।