Monday, May 13, 2019

पुस्तक समीक्षा


 जनता से प्रश्न पूछते आलेख-

                                             आखिर क्यों? कब तक?


                                    
‘‘श्रमिक संगठनों की भूमिका संदेहास्पद हो जाने के कारण आज यहां हजारों घर के चूल्हे ठण्डे होते जा रहे हैं। जनोपयोगी संसाधन दिन पर दिन महंगे होते जा रहे हैं, हमारी संसद मौन है। आने वाले समय में बेकारी, बेरोजगारी बढ़ने के लक्षण साफ-साफ दिख रहे हैं, फिर भी हम सभी मौन हैं, आखिर क्यों? कब तक?’’ संदर्भित पंक्तियाँ कवि, लेखक, पत्रकार, जुझारू कर्मयोगी व बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाॅ. भरत मिश्र प्राची के निबंध संग्रह ‘सत्ता संघर्ष’ के निबंध- ‘विपक्ष की भूमिका नगण्य होती जा रही है’ के अंतिम अनुच्छेद की हैं। उक्त पंक्तियाँ ही व्यवस्था के प्रति डाॅ. प्राची जी के असंतोष को मुखर करने के लिए काफी हैं। श्री प्राची जी को लगता है कि संसद मौन है। निःसन्देह प्राची जी की पीड़ा प्रासंगिक है। संसद में सासंदों को जिस काम के लिए चुनकर भेजा जाता है, वह काम तो होता ही नहीं है। संसद में शोर-शराबा होता है, आरोप-प्रत्यारोप होते हैं, गाली-गलोज भी होती हैं, कभी-कभी मारपीट की नौबत भी आ जाती है; किंतु जनता के मुद्दों पर, संसद में आये प्रस्तावों पर कोई सार्थक बहस नहीं होती। अधिकांश कानून व प्रस्ताव समय की कमी के कारण बिना बहस के ही पारित हो जाते हैं। हम सभी मौन हैं। हमारे सभी के अपने-अपने स्वार्थ हैं, हमारे सभी के अपने-अपने भय हैं। अतः हम भी सब कुछ देखकर भी नजरअंदाज करते हैं या हम हताश हो गए हैं कि हमारे कुछ बोलने या न बोलने से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। श्री प्राचीजी का प्रश्न आखिर कब तक? का उत्तर शायद जनता देने लगी है। लोकसभा के चुनावों में भी पंचायत चुनावों की तरह बंपर मतदान इस बात का प्रतीक है कि जनता अपने तरीके से बोल रही है। उच्च न्यायालयों में जन हित से जुड़ी याचिकाओं की संख्या भी इस प्रश्न का उत्तर दे रही है, आखिर कब तक? हम चुप रहेंगे। बहुत हो चुका।
      30 अप्रेल 2019 को विद्यालय के ग्रीष्मकालीन अवकाश प्रारंभ होने वाले थे। मेरे विद्यालय का पुस्तकालय भी बंद होने वाला था। प्रतिवर्ष की तरह ग्रीष्मकाल के दो माह में अध्ययन के लिए कुछ पुस्तकें निकालकर रखने के उद्देश्य से पुस्तकालय में पुस्तक चयन कर रहा था। इसी क्रम में डाॅ. प्राची जी की पुस्तक ‘सत्ता-संघर्ष पर नजर पड़ी। प्राची जी के नाम के आकर्षण से ही तुरंत पुस्तक उठा ली। डाॅ प्राची जी से उनकी पत्रिका कंचनलता के माध्यम से, मेरा परिचय मेरे विद्यार्थी जीवन, जब मैंने लेखन का प्रारंभ ही किया था से है। डाॅ. प्राची जी को अपना मित्र तो नहीं कह सकता, क्योंकि वे मुझसे काफी बड़े हैं। मैंने उनसे समय-समय पर मार्गदर्शन प्राप्त किया है। अतः उन्हें में अपने मार्गदर्शक ही कह सकता हूँ। मैं प्रत्यक्ष रूप से आज तक उनसे नहीं मिला, किंतु लेखन के माध्यम से काफी लंबे समय से जानता हूँ। पुस्तक ‘सत्ता-संघर्ष’ से उन्हें और भी अधिक जानने का मौका मिला। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मेरा विचार बन रहा था कि प्राची जी कांग्रेसी हैं किंतु पुस्तक के अंतिम निबंध ‘प्रजातंत्र में राजतंत्र की उभरती छाया’ तक स्पष्ट हो गया कि सच्चा लेखक व पत्रकार किसी राजनैतिक विचारधारा का गुलाम नहीं होता। डाॅ. प्राची जी कैसे हो सकते हैं, ‘नेहरूवादी संस्कृति से गांधीवादी संस्कृति के पैमाने में सिमटे परिवारवाद की कांग्रेसी लहर तो बिहार में लालू-राबड़ी के बीच चल रही सरकार के बीच जनता दल की पतवार, हरियाणा में देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चैटाला सरकार के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता चोटाला परिवार, चैधरी चरण सिंह के बाद सत्ता की गेंद सम्भाले अजीतसिंह जैसे आज देश के अनेक नाम हैं, जहाँ परिवारवाद तेजी से फल-फूल रहा है’ परिवार वाद पर चोट करते समय डाॅ. प्राची की कलम ने किसी के प्रति कोई नरमी नहीं बरती।
                ‘सत्ता-संघर्ष’ नाम से भले ही यह प्रकट होता हो कि पुस्तक में सत्ता के लिए किये जाने वाले षड्यंत्रों को उजागर किया गया होगा किंतु पुस्तक वास्तव में एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें विभिन्न रंगों के फूलों को सजाया गया है। लेखक के पारंपरिक विचार प्रवाह को भी गिनती में लें, तो पुस्तक में कुल 41 आलेख हैं। नाम के अनुरूप अधिकांश आलेख राजनीति अर्थात सत्ता के इर्द-गिर्द विषयों पर ही लिखे गए हैं। इसके बावजूद ‘शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षार्थी में बढ़ती दूरी’, ‘शिक्षा आपके द्वारा फिर भी अंधकार’ जैसे आलेखों को सम्मिलित कर विविधता भी प्रस्तुत की है। वास्तविकता तो यही है कि डाॅ. प्राची सभी आलेखों में ही हमें एक शिक्षक के रूप में शिक्षा देते, प्रेरणा देते, प्रश्न पूछते और मार्गदर्शन देते नजर आते हैं।

                  पुस्तक सत्ता-संघर्ष केवल सत्ता तक ही सीमित नहीं है। इसमें देश की समस्याओं को बखूबी उकेरा गया  है। यही नहीं आर्थिक उदारवाद, बाजारवाद, विनिवेशन, निजीकरण जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हुए जनता पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को लेकर लेखक की पीड़ा लगभग प्रत्येक निबंध में महसूस की जा सकती है। लेखक उदारीकरण के कारण घरेलू उद्योगों को होने वाले नुकसान को लेकर ही नहीं, श्रमिकों को लेकर भी चिंतित हैं। लेखक ने युद्ध की विभीषिका पर भी अपने विचार व्यक्त किए है। लेखक के अनुसार युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। आतंकवाद के कारणों का पता लगाकर उनके निराकरण से ही आतंकवाद को समाप्त किया जा सकता है। डाॅ. प्राची जी की पुस्तक सत्ता-संघर्ष के साथ-साथ सत्ता के लिए संघर्षरत पाटियों को मार्गदर्शन भी प्रदान करती है। उनके विचार में भाजपा और कांग्रेस में कोई मूलभूत अंतर नहीं है।
      सत्ता-संघर्ष में इतने विषय समाहित हैं कि उन सबकी गणना करवाना भी इस संक्षिप्त समीक्षा में संभव नहीं है। कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय, सराहनीय व अनुकरणीय है। सामान्यतः आलेख पाठकों को बांध सकने में सफल नहीं हो पाते किंतु लेखक ने छोटे-छोटे आलेख प्रस्तुत कर पाठक को बोर होने से बचा लिया है। कविता की अपेक्षा गद्य में पाठकों को बांधे रखना मुश्किल काम होता है। लेखक के पास किंतु और परंतु भी नहीं होते कि उसे तुकबंदी या लय मिलाने के लिए ऐसा करना पड़ा या छंद की मात्रा पूरी करने के लिए शब्द के साथ खेलना पड़ा। भारतीय मनीषी आचार्य वामन का मत है, ‘गद्यं कवीनां निकषं वदंति।’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, गद्य कवियों या लेखको की कसौटी है तो निबंध गद्य की भी कसौटी है। मेरे विचार में डाॅ. प्राची जी के निबंध इस कसौटी पर एकदम सही उतरते हैं।

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