Saturday, January 21, 2017

परिवर्तन की स्वीकारोक्ति ही संतुष्टि का आधार

                                                                                    /डॉ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह कहावत अक्सर कही सुनी जाती है। परिवर्तन ही वह शक्ति है, जो प्रकृति के प्रत्येक अंग को नवीनता प्रदान करती है। परिवर्तन ही उत्साह व अभिप्रेरण की शक्ति है। परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही प्रत्येक प्राचीन वस्तु नष्ट होकर नवीन को जन्म देती है। प्रत्येक नवीन वस्तु व प्राणी समय के साथ परिवर्तित होकर पुराना होना ही है। नवीनता से पुरातनता निकलती है तो पुरातनता ही नवीनता को जन्म देती है। प्रत्येक वस्तु व प्राणी नवीनता व प्राचीनता के इस चक्र से गुजरते रहते हैं और सृष्टि का यह पहिया इसी प्रकार चलता रहता है। वास्तव में परिवर्तन के फलस्वरूप ही संसार स्थायित्व ग्रहण करता है। यदि मृत्यु न हो तो जीवन एक भार बन जाय, यदि जन्म न हो तो नवीनता का सृजन कैसे होगा? वस्तुतः परिवर्तन ही नवीनता व पुरातनता के साथ मिलकर संसार को आनंददायक बनाते हुए हुए स्थायित्व प्रदान करता है।
आप किसी वन क्षेत्र में जाइए तो देखेंगे कि संपूर्ण बन क्षेत्र में छाटे-मोटे परिवर्तन तो होते रहते हैं किंतु वह लगभग स्थायित्व लिए हुए है। नवीनता और प्राचीनता का सुन्दर संगम देखने को मिलेगा। छोटे-पौधे बड़े होते हुए प्राचीनता की और बढ़ रहे होते हैं तो प्राचीन नवीन पौधों के लिए स्थान रिक्त करने को तैयारी करते देखे जाते हैं। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप  आप किसी देखे हुए वन क्षेत्र में पचास वर्ष बाद भी जायेंगे तो आपको सब कुछ पूर्व की भाँति ही मिलेगा, बशर्ते मानवीय हस्तक्षेप के कारण आमूलचूल बदलाव न किया गया हो।
आपके दादा-दादी वृद्ध हो रहे हैं। वे बार बार ईश्वर के पास जाने की बात करते दिखाई देते हैं। वास्तव में उनके स्थान को आपके माता-पिता भरने की स्थिति में होते हैं। आप अपने माता-पिता के स्थान को लेने की तैयार हो रहे होते हैं। आनुवांशिकता के कारण आपके दादाजी व आपके पिताजी में बहुत सी समानताएँ भी देखी जाती हैं। शारीरिक कद काठी देखकर कहा जाता है कि फलां व्यक्ति तो हूबहू अपने बाप की तरह है। पारिवारिक संस्कार व परंपरायें भी समानता को सुनिश्चित करने में अपना योगदान देती हैं। आपको आध्यात्मिक क्षेत्र में संसार को क्षणभंगुर कहते हुए मिल जायेंगे, किंतु यह सत्य नहीं है। संसार क्षण भंगुर नहीं वरन स्थाई है। क्षण-क्षण परिवर्तन भले ही होता हो किंतु संसार इसी परिवर्तन के फलस्वरूप अपने मूलरूप में बना रहता है।
इस स्थाई परिवर्तन को स्वीकार करके ही हम आनन्ददायक जीवन बिताते हुए संतुष्ट रह सकते हैं। हम जो है और जहाँ हैं वही और वहीं नहीं रह सकते। हमारे ऊपर समय का प्रभाव हो रहा है। हम प्रगति करें या अवनति दोनों ही परिवर्तन के अंग हैं। परिवर्तन तो समय चक्र का भाग है। हम इसे रोक नहीं सकते किंतु अपने नियंत्रणाधीन कर्मो को दिशा देकर प्रगति या अवनति को निर्धारित कर सकते हैं। हमें किसी पद या स्थान से चिपकने की प्रवृत्ति को त्याग कर अपनी दूसरी पीढ़ी के लिए स्थान खाली करते हुए आगे बढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसी स्वीकारोक्ति और तैयारी में सुख, आनंद और संतुष्टि का आधार है।