Thursday, June 29, 2017

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम"-४

मनोज को परंपराओं पर अधिक विश्वास नहीं था। सामाजिक कुप्रथाओं का विरोध करना तो वह अपना कर्तव्य ही समझता था। विद्यार्थी जीवन में ही उसने निर्णय किया था कि न तो वह अपनी शादी में दहेज लेगा और न ऐसी शादियों में भाग लेगा, जिनमें दहेज का लेन-देन हो रहा हो एवं जिसमें दुल्हन को पर्दा करने के लिए मजबूर किया जाने वाला हो। संसार में कितने संकल्प होते हैं और कितने टूटते हैं। वर्तमान समय में व्यक्ति अपने संकल्पों और वचनों के पालन के प्रति गंभीर नहीं रहते। ऐसा लगता है कि संकल्प व वचन केवल तोड़ने के लिए ही लिए जाते है। लोगों को धोखा देने के लिए ही लिए जाते हैं किंतु मनोज ऐसे व्यक्तियों में से नहीें था। उसने जो संकल्प कर लिया, वह कर लिया। उसके जीवन का अनिवार्य अंग बन गया। इसी कारण वह अपने मित्रों और सगे सम्बन्धियों की शादियों में ही नहीं, अपने भाई व बहनों की शादियों में भी सम्मिलित नहीं हो पाया था। ऐसी स्थिति में पारंपरिक रूप से शादी होना संभव ही नहीं था। अतः उसने तकनीकी का लाभ लेते हुए बेबसाइटों पर अपने प्रोफाइल बनाये।
मनोज के जीवन का दर्शन था कि हम जब भी कुछ छिपाते हैं वहाँ ही गलत होते हैं। जीवन पारदर्शी होना चाहिए जिसमें किसी से कुछ छिपाने की आवश्यकता नही पड़े। उसके विचार में पति-पत्नी तो एक इकाई होते हैं, तभी तो एक प्राण दो देह कहे जाते हैं। पत्नी अद्र्धांगिनी कही जाती है। इसका आशय भी यही है कि पत्नी के बिना पुरूष अधूरा है। ऐसे संबन्ध में कुछ भी छिपाने को नहीं हो सकता। दोनों का कुछ भी अलग-अलग नहीं हो सकता। दोनों के पास जो भी होता है, सम्मिलित होता है। जीवन का कोई भी पहलू अलग-अलग नहीं हो सकता। अतः किसी से कुछ भी छिपाने का कोई मतलब नहीं है।  कुछ भी छिपाना, धोखा देना होता है। धोखा देने वाले पति-पत्नी कैसे? वे तो एक -दूसरे को ठगने वाले ठग हुए। झूठ, छल, कपट व धोखा पति-पत्नी तो क्या किसी भी सकारात्मक संबन्ध का सृजन नहीं कर सकते। मनोज के लिए यह असंभव था कि कोई नारी उससे झूठ बोले और उसकी पत्नी बनकर रहे। अतः उसने वेबसाइट पर सब कुछ स्पष्ट लिख देने का निर्णय लिया। यही नहीं शादी के लिए आने वाले प्रस्ताव में स्वयं महिला से बात करके सब कुछ बता देने का उसका संकल्प था। 

Wednesday, June 28, 2017

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम"-३

मनोज के पास छोटा बच्चा था, जिसका पालन-पोषण करना उसका उत्तरदायित्व था। बच्चा प्रारंभ में अपने दादा-दादी के पास था किंतु आगे की पढ़ाई के सिलसिले में मनोज को वह अपने साथ लाना ही था। अपने बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का अहसास करके मनोज अपने बच्चे को आगे की पढ़ाई के लिए अपने पास ले आया। बच्चा उस समय लगभग पाँच-छह वर्ष का रहा होगा। मनोज सुबह सारे काम-धाम निपटाकर व बच्चे को स्कूल भेजकर अपने कार्यस्थल के लिए इस इरादे से जाता कि बच्चे के स्कूल से आने से पूर्व वह अपने क्वाटर पर पहुँच जायेगा, किंतु ऐसा हो नहीं पाता। मनोज अपने कार्यस्थल से आने में थोड़ा लेट हो जाता तो घर पर बच्चा भूखा बैठा रहता। एक पिता के लिए इससे अधिक दुःखद क्या हो सकता है कि उसका बेटा उसके इन्तजार में भूखा बैठा है। यही नहीं मनोज ने अपने माता-पिता को साथ रखकर सेवा करने का सपना भी बचपन से ही देखा था। वह सपना भी पूरा होता नहीं दिख रहा था। जब अपने और बेटे के लिए ही खाना बनाने व घरेलू कामों को करने में समस्या थी तो माता-पिता को साथ रखना तो असंभव ही था। आजीविका कमाने के साथ-साथ घर को सभालना कितना कठिन काम है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव मनोज को हो रहा था। मनोज पहले से ही इस विचार का था कि घर सभालना एक पूर्णकालिक कार्य है और इसे पूर्णरूप से समर्पित रूप से ही किया जाना चाहिए। उसका स्पष्ट विचार था कि गृहिणी के महत्वपूर्ण कार्य को अनदेखा कर उसे बाहर जाकर काम करने की अपेक्षा करना, उसके साथ अन्याय करना है। घर का काम सभालते और बच्चे की देखभाल करते हुए उसे एक गृहिणी के कार्य का महत्व वास्तविक रूप से समझ आ रहा था। उसे कई लोगों ने दुबारा शादी करने का सुझाव भी दिया। लोगों का तर्क था कि सभी समान नहीं होते। घर सभालने वाली अच्छी महिला भी पत्नी के रूप में मिल सकती है, जो बच्चे की भी देखभाल अच्छे ढंग से करेगी। मनोज को भी लगने लगा था कि अकेले रहकर पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना लगभग असंभव कार्य है। अतः उसने शादी करने का विचार बना ही लिया।

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम-२"

शादी के बाद मनोज ने उसको पढ़ने को मजबूर किया। दसवीं, बारहवीं कराते-कराते ही मनोज को स्पष्ट होने लगा था कि उसने गलती कर दी है। दया और करूणा के आधार पर किसी से शादी नहीं की जा सकती। शादी के लिए गंभीरता पूर्वक समान स्तर, भावों व विचार मिलने पर विचार करने की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिदिन होने वाली कलह के प्रभाव से बचाने के लिए उसे डेढ़ वर्ष के बच्चे को अपने माँ-बाप के पास छोड़ना पड़ा। खैर तीन-चार वर्ष साथ रहते हुए मनोज को स्पष्ट हो गया कि  पति-पत्नी के रूप में सम्बन्धों का निर्वाह संभव नहीं है। मनोज नहीं चाहता था कि जिस स्त्री के साथ पति-पत्नी के रूप में जीवन निर्वाह के बारे में सोचा था, उससे अलग होते हुए दुश्मन बना जाय। वह स्पष्ट रूप से सोचता था कि पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमें खाते हैं, यदि वे साथ न रह पाये ंतो एक-दूसरे के दुश्मन क्यों बने? क्यों न समझदारी का परिचय देते हुए बिना किसी पर अदालत में मुकदमेबाजी करते हुए आपसी सहमति से अलग हो जायँ। वह कल्पना नहीं कर पाता था कि एक-दूसरे के साथ नहीं रह पाये तो एक-दूसरे के खून के प्यासे कैसे हो जाते हैं? एक-दूसरे को जेल में भिजवाने के बारे में कैसे सोच सकते है? ऐसा केवल वही सोच सकता है जो केवल हिंसक प्रवृत्तियों को अपने अन्दर छिपाये है। सज्जनता और दुष्टता की यहीं से पहचान होती है। जिसने कभी एक क्षण को भी किसी को प्यार किया है, वह उसके खून का प्यासा कैसे हो सकता है? वह उसको किसी भी प्रकार की हानि पहँुचाने या जेल भिजवाने के षडयंत्र कैसे रच सकता है? दूसरे को परेशान करने के लिए ही कोई कार्य करना, जिसे आपने कभी प्रेम का इजहार किया हो, वह कैसा प्यार? इस विचार को अपनी भूत-पूर्व पत्नी को समझाने में मनोज को लगभग पाँच-छह वर्ष लगे। इस दौरान उसकी पत्नी भी एम.ए. कर चुकी थी। बात उसके भी समझ में आ गयी और दोनों ने आपसी बातचीत के द्वारा अलग हो जाने का फैसला किया और तलाक ले लिया।

Tuesday, June 27, 2017

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम"-१

दहेज रहित शादी का संकल्प


                             /डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी



मनोज विद्यार्थी जीवन से ही सिद्धांतों के आधार पर जीवन जीने का प्रयास करता रहा था। उसका विचार था कि व्यक्ति को दिखावे का जीवन नहीं जीना चाहिए। प्रदर्शन व दिखावे की प्रवृत्ति ही तनाव को जन्म देती है। व्यक्ति जो कहता है वही करे, जो करता है वही बोले और जैसा है, वैसा दिखे तो उसे तनाव का सामना नहीं करना पड़ेगा। पारदर्शिता व्यक्ति की पवित्रता की सबसे अच्छी व सच्ची कसौटी है। विद्यार्थी जीवन में दहेज के विरोध में अपने मित्रों के साथ विचार-विमर्श होता था। मनोज पर्दा प्रथा के भी खिलाफ था। इसी क्रम में दहेज विरोधी मोर्चा बनाने का भी प्रयास किया था। इसी वैचारिक मन्थन के दौरान अपने एक सहपाठी के साथ ऐसी शादियों में न जाने का संकल्प किया था, जिनमें दहेज का लेन-देन होने की संभावना है या दुल्हन को पर्दा प्रथा पालन करने के लिए मजबूर किए जाने की संभावना है। सामाजिक संगठन में काम करते हुए प्रारंभ में शादी न करने का भी विचार था। समय के साथ काम करने के सिलसिले में जब दूर प्रदेश में था। वहीं एक अनपढ़, विजातीय, विधवा महिला से मुलाकात हुई जो जीवन से निराश हो चुकी थी और एक आश्रम में रह रही थी। मनोज ने उसे  पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए प्रोत्साहित किया। इस कार्य में स्वयं आर्थिक सहयोग देने का भी प्रस्ताव किया। मनोज ने उस महिला से कहा था कि वह उसे वह सभी सुविधाएं देने का प्रयास करेगा जो पढ़ने के लिए अपनी बहन को देने का प्रयास करता है  उस महिला को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह इस उम्र पर पढ़ सकती है और कोई व्यक्ति इस प्रकार लम्बे समय तक आर्थिक सहयोग करता रहेगा। वह महिला असुरक्षा की भावना से घिरी हुई थी। अतः उस महिला ने मनोज के सामने शादी का प्रस्ताव रखा जिसे दया और करूणा जैसी भावनाओं के वशीभूत मनोज ने बिना उचित-अनुचित का विचार किए स्वीकार कर लिया।

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम"

मित्रो! दहेज को लेकर विद्यालयों में अध्ययन के दौरान बड़ा ही भयावना 

चित्र प्रस्तुत किया जाता है। यही नहीं सामाजिक संस्थाओं द्वारा, पत्र-

पत्रिकाओं द्वारा बड़ें ही भावपूर्ण ढंग से दहेज के विरोध में अनेक प्रकार से

 भाषण/आलेख प्रस्तुत किए जाते हैं। किंतु व्यवहार में दहेज के बिना कोई

 विवाह नहीं देखा जाता। परंपरा के नाम पर लड़के व लड़के वालों को किस 

तरह दहेज लेने के लिए मजबूर किया जाता है, बिना दहेज शादी होने पर 

महिला की गलतियों को छिपाने के लिए किस प्रकार दहेज एक्ट के तहत 

झूठे मुकदमे दर्ज कराकर लड़के व लड़के के परिवार वालों को किस प्रकार 

प्रताड़ित किया जाता है। इस प्रकार के समाचार आये दिन पत्र-पत्रिकाओं 

में छपते रहते हैं। इसी पृष्ठभूमि पर आधारित एक लम्बी कहानी 

धारावाहिक रूप में यहाँ प्रस्तुत की जा रही है-

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम"

Wednesday, June 21, 2017

परिवर्तन का दभ - २

राजस्थान में सेवाकाल के दौरान एक साथी शिक्षक श्री गजेंद्र जोशी एक कहानी सुनाया करते थे। वह यथार्थ का चित्रण करती है। जोशी जी के अनुसार - एक राजा अपने सेनापति और महामंत्री के साथ भ्रमण पर निकले। भ्रमण करते हुए राजा को एक स्थान बड़ा मनोरम लगा। राजा को ख्याल आया कि इस स्थान पर एक तालाब का निर्माण किया जाय जिसमें दूध भरा हो तो कितना अद्भुत दृश्य होगा! उसने सोचा, एक सुन्दर तालाब का निर्माण करके अपने राज्य के सभी ग्वालों को कहा जाय कि वे भोर की वेला में एक बार दूध तालाब में डालें। राज्य में इतने ग्वाले हैं कि तालाब दूध से भर जायेगा जो संपूर्ण दूनिया में अनुपम होगा। राजा ने अपना विचार महामंत्री सेनापति के सामने रखा। सेनापति को तो आज्ञापालन की शिक्षा मिली थी। उसे क्या बोलना था। महामंत्री ने हाथ जोड़कर विनती की, ‘महाराज! तालाब बनाने का विचार अत्युत्तम है किंतु महाराज तालाब दूध का नहीं, पानी का होता है। राजा ने महामंत्री की तरफ कड़ाई से देखते हुए कहा, ‘नहीं, महामंत्री। हमारे राज्य का तालाब अनूठा होगा। हमने निर्णय ले लिया है। राजाज्ञा का पालन सुनिश्चित करिये।
राजकोश से पर्याप्त धन जारी करते हुए बड़े ही सुन्दर तालाब का निर्माण कराया गया। संध्याकाल में पूरे राज्य में मुनादी करवा दी गई जिसके अनुसार राज्य के सभी ग्वालों को आदेश दिया गया कि प्रातःकाल भोर होने से पूर्व सभी ग्वाले अपना-अपना दूध तालाब में भर दें। दूसरे दिन भोर होने से पूर्व ही एक ग्वाला आया। उसने सोचा सभी तो दूध डालेंगे ही, यदि मैं दूध के स्थान पर पानी डाल दूँ तो क्या फर्क पड़ेगा और क्या किसी को पता चलेगा? इसी प्रकार सभी ग्वाले आये और सभी ने उसमें चुपके से पानी डाल दिया।
सुबह राजा अपने महामंत्री और सेनापति के साथ तालाब का निरीक्षण करने निकले। तालाब को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गये और आग बबूला हो उठे। तालाब एकदम साफ और स्वच्छ निर्मल जल से लबालब था। राजा संपूर्ण ग्वाला समाज को दण्डित करने की घोषणा करने वाले ही थे कि महामंत्री हाथ जोड़कर खड़े हो गये और बोले, दुहाई है अन्नदाता की। मैंने पूर्व में भी प्रार्थना की थी कि तालाब तो पानी का ही होता है। महाराज प्रकृति के विरुद्ध व्यवस्थाएँ नहीं चलाई जा सकती। राजा समझ गया और मुस्कराकर रह गया।
यह बड़ी ही शिक्षाप्रद कहानी है। परिवर्तन के कितने भी प्रयास किये जायँ किंतु दुनिया नहीं बदल सकती। दुनिया में सभी रंग हैं। यह विविध रंगों से परिपूर्ण है। इसमें सभी गुण है तो सभी अवगुण भी हैं। दुनिया तो क्या संसार में कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसमें कोई अवगुण निकाला जा सके और ही ऐसा व्यक्ति मिलेगा जिसमें कोई गुण हो। दुनिया में ईमानदारी भी है और बेईमानी भी; सत्य है और असत्य भी; सदाचार भी है और दुराचार भी; सज्जनता भी है और दुष्टता भी। दुनिया विविधता पूर्ण रंग बिरंगी है जिसमें सभी रंग हैं और सदैव रहेंगे। किसी भी रंग को नष्ट करना संभव नहीं। हाँ! मात्रा को कम या अधिक किया जा सकता है। हम अपने लिए रंगों का चुनाव कर सकते हैं किंतु अन्य रंगों को दुनिया से समाप्त नहीं कर सकते।
जब हमारा राजनीतिक नेतृत्व अपराधमुक्त शासन देने की बात करता है तो वह असंभव बात कह रहा होता है। किसी भी स्थिति में अपराध को समाप्त नहीं किया जा सकता। हाँ! अपराध को कम किया जा सकता है। शासन की लापरवाही और कानून व्यवस्था की लापरवाही से अपराध बढ़ सकते हैं और अधिक सक्रिय और सावधान रहकर अपराध कम किये जा सकते हैं। किंतु अपराधों को सिरे से समाप्त करना संभव नहीं। यह प्रकृति के खिलाफ है। प्रकृति में से किसी भी रंग को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार भ्रष्टाचार मुक्त शासन का दंभ भी खोखला ही साबित होगा। भ्रष्टाचार को समाप्त करना भी असंभव है। हाँ! श्रेष्ठ कानून व्यवस्था और चुस्त दुरुस्त प्रशासन की सहायता से भ्रष्टाचार कम किया जा सकता है। कोई व्यक्ति कितना भी सक्षम हो, वह अपने आप को ईमानदार बना सकता है किंतु अन्य सभी लोगों को ईमानदार नहीं बना सकता। हो सकता है कि कुछ लोग मजबूरी में ईमानदार होने का दिखावा करें किंतु अवसर पाते ही वे अपने पुराने रंग में वापस जाते हैं। अतः परिवर्तन के प्रयास करना अच्छी बात है किंतु दूसरों को बदलने का दंभ पालना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। राम, कृष्ण, ईसा और मुहम्मद पैगम्बर जैसे महापुरूष संसार से बुराइयों को जड़ से नहीं मिटा सके। उन्होंने अपने प्रयास किए उनके तात्कालिक परिणाम भी निकले। उनके कार्यो के लिए ही हम आज भी उन्हें याद करते हैं। किंतु बुराइयों का उन्मूलन तो हुआ और संभव है। हाँ! बुराइयों पर नियंत्रण के लिए अविरल प्रयास करते रहने की आवश्यकता है। वे प्रयास सदैव किए जाते रहेंगे। अच्छाई और बुराई का संघर्ष सदैव चलता रहा है, अभी भी चल रहा है और सदैव चलता रहेगा। हमें केवल अपने पक्ष का निर्धारण करना है। हिंदु धर्म ग्रन्थों में इसे देव और असुरों का संघर्ष कहा गया है तो अन्य धर्म ग्रन्थों में भी विभिन्न नामों से सम्मिलित किया गया है।

*जवाहर नवोदय विद्यालय, महेन्द्रगंज, साउथ वेस्ट गारो हिल्स-794106 (मेघालय)
चलवार्ता 09996388169    -मेलः santoshgaurrashtrapremi@gmail.com,

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Saturday, June 17, 2017

परिवर्तन का दंभ - १

असंतुष्टि का दूसरा पहलू निराशा से अवसाद की ओर ले जाकर आत्महत्या तक का सफर है। इससे निजात पाने के लिए भारतीय आध्यात्म दर्शन अचूक औषधि है। जब व्यक्ति अपनी स्थिति को भाग्य मानकर स्वीकार कर लेता है, तब असंतुष्टि का स्वयं ही शमन हो जाता है। मलूकदास का मंत्र अवसाद से बचने का सबसे अच्छा साधन है-
अजगर करे चाकरी, पक्षी करे काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
इस प्रवृत्ति को स्वीकार कर लेने से किसी प्रकार की असंतुष्टि का प्रश्न ही नहीं उठता। व्यक्ति जैसा भी है, जहाँ भी है, वहीं संतुष्टि प्राप्त कर लेता है। ऐसी स्थिति में विकास के पथ की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विकास के पथिक को तो दुष्यन्त कुमार के संदेश पर ही आगे बढ़ना होगा-
कौन कहता है आसमां में छेद नहीं हो सकता?
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
असंतुष्ट होकर विकास के पथिक बहुत कुछ करना चाहते हैं। वे क्रांतिकारी परिवर्तन के राही होते हैं। केवल भौतिक विकास ही नहीं सामाजिक क्षेत्र, राजनीतिक क्षेत्र सहित सभी क्षेत्रों में परिवर्तन का बिगुल बजाने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे लोग चाहते हैं कि सभी कुछ रातों रात बदल जाय और सब कुछ उनकी इच्छानुसार चले। किशोरावस्था और युवावस्था में परिवर्तन करने के असीम सपने होते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन करने का आह्वान करने वाले व्यक्तियों की फौज आपको अपने आसपास पर्याप्त मात्रा में मिल जायेगी। परिवर्तन के ऐसे यौद्धाओं की बहुलता है, जो संपूर्ण समाज को अपने अव्यावहारिक सिद्धांतों के अनुसार बदलने की कामना करते हैं किंतु अपने आपको उन सिद्धांतों के अनुकूल नहीं समझते। कहने का मतलब वे दुनिया को बदलना चाहते हैं किंतु स्वयं अपने आप को बदलने को तैयार नहीं होते। दूसरों से ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं किंतु स्वयं अपने आपको उस मार्ग पर चलने में असमर्थ पाते हैं। मुझे हँसी आती है, अरे भाई! जो सिद्धांत आप दूसरों को बता रहे हो; पहले उसको अपने व्यवहार में लाकर उसकी सत्यता और व्यावहारिकता तो सिद्ध करो। तभी तो दूसरे लोग आपकी बातों को सुनने को तैयार होंगे।

ऐसा नहीं है कि सभी लोग दूसरों से ही परिवर्तन करने की अपेक्षा करते हैं। आपको ऐसे उत्साही व्यक्तियों के भी दर्शन हो जायेंगे जो घर फूँक तमाशा देखने को भी तैयार रहते हैं। वे सोचते हैं कि वे जो चाहे कर सकते हैं। वे संपूर्ण दुनिया को बदलकर एक आदर्श सुंदर दुनिया में परिवर्तित कर सकते हैं। किंतु यह यथार्थ से कोसों दूर है। संसार में कोई किसी को भी बदल नहीं सकता। हम केवल अपने आपको बदल सकते हैं। हम अपने आपको ईमानदार बना सकते है किंतु दूसरे को नहीं। ईमानदारी अपने अंदर से विकसित होती है कोई भी बाहरी शक्ति किसी को ईमानदार नहीं बना सकती। हम दूसरों को तो क्या अपने विद्यार्थियों और अपनी संतानों को ईमानदार नहीं बना पाते। दुनिया को बदलने की तो बात ही क्या है? वास्तव में दुनिया को बदलना किसी भी व्यक्ति के वश की बात नहीं। व्यक्ति बदल सकता है किंतु सृष्टि नहीं। अतः हमें परिवर्तन करने के दंभ से बचना होगा। दुनिया को बदलने के दंभ में हम अपने आपको बदल सकने के अवसर को भी गंवा सकते हैं।
----------------------------क्रमशः..............जारी------------