Wednesday, June 28, 2017

"दहेज के बिना शादी के संकल्प का परिणाम"-३

मनोज के पास छोटा बच्चा था, जिसका पालन-पोषण करना उसका उत्तरदायित्व था। बच्चा प्रारंभ में अपने दादा-दादी के पास था किंतु आगे की पढ़ाई के सिलसिले में मनोज को वह अपने साथ लाना ही था। अपने बच्चे के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का अहसास करके मनोज अपने बच्चे को आगे की पढ़ाई के लिए अपने पास ले आया। बच्चा उस समय लगभग पाँच-छह वर्ष का रहा होगा। मनोज सुबह सारे काम-धाम निपटाकर व बच्चे को स्कूल भेजकर अपने कार्यस्थल के लिए इस इरादे से जाता कि बच्चे के स्कूल से आने से पूर्व वह अपने क्वाटर पर पहुँच जायेगा, किंतु ऐसा हो नहीं पाता। मनोज अपने कार्यस्थल से आने में थोड़ा लेट हो जाता तो घर पर बच्चा भूखा बैठा रहता। एक पिता के लिए इससे अधिक दुःखद क्या हो सकता है कि उसका बेटा उसके इन्तजार में भूखा बैठा है। यही नहीं मनोज ने अपने माता-पिता को साथ रखकर सेवा करने का सपना भी बचपन से ही देखा था। वह सपना भी पूरा होता नहीं दिख रहा था। जब अपने और बेटे के लिए ही खाना बनाने व घरेलू कामों को करने में समस्या थी तो माता-पिता को साथ रखना तो असंभव ही था। आजीविका कमाने के साथ-साथ घर को सभालना कितना कठिन काम है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव मनोज को हो रहा था। मनोज पहले से ही इस विचार का था कि घर सभालना एक पूर्णकालिक कार्य है और इसे पूर्णरूप से समर्पित रूप से ही किया जाना चाहिए। उसका स्पष्ट विचार था कि गृहिणी के महत्वपूर्ण कार्य को अनदेखा कर उसे बाहर जाकर काम करने की अपेक्षा करना, उसके साथ अन्याय करना है। घर का काम सभालते और बच्चे की देखभाल करते हुए उसे एक गृहिणी के कार्य का महत्व वास्तविक रूप से समझ आ रहा था। उसे कई लोगों ने दुबारा शादी करने का सुझाव भी दिया। लोगों का तर्क था कि सभी समान नहीं होते। घर सभालने वाली अच्छी महिला भी पत्नी के रूप में मिल सकती है, जो बच्चे की भी देखभाल अच्छे ढंग से करेगी। मनोज को भी लगने लगा था कि अकेले रहकर पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना लगभग असंभव कार्य है। अतः उसने शादी करने का विचार बना ही लिया।

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