Friday, July 23, 2010

पहली बार एक चुटकला

टिंकू ( टेलीफ़ोन पर हेडमास्टर से) -

टिंकू आज बीमार है. वह स्कूल नहीं आयेगा.

अध्यापक-आप कौन बोल रहे हैं?

टिंकू-मैं मेरा पापा बोल रहा हूँ.

Monday, July 5, 2010

ताकि कोई जनक आकर, उसे जमीन से निकाल न सके।

क्यों लिखूं?




पढ़ना-लिखना साक्षर होने की पहचान है,


शिक्षित होने की नहीं।


साक्षर शिक्षित हो, यह आवश्यक नहीं,


निरक्षर अशिक्षित हो, यह अनिवार्य नहीं।


उच्च-डिग्रीधारी भी अशिक्षित मिल जाते हैं,


तो आज भी कबीर जगह-जगह पाये जाते हैं।


हम जानते हैं, उन्हें लिखना नहीं आता था,


और न ही कभी लिखने की कोशिश की।


वे नहीं जानते थे, पत्र-पत्रिका और ब्लॉग।






मैं लिखना जानता हूं और लिखता हूं।


लेकिन क्यों?


शायद इस भ्रम में कि


कविता, कथा और आलेख आदि


मेरे लेखन से बदल जायेगी दुनियां


ब्लॉगिंग करके कर लिया बहुत बड़ा काम


और सभी करेंगे मेरा अनुकरण


इस झूंठे अहम् में कब तक जीता रहूंगा मैं?






रचे जाते रहे हैं,


महाकाव्य, शास्त्र, पुराण और ग्रन्थ,


युगों-युगों से।


पढ़े व पढ़ाये ही नहीं,


रटे व रटाये भी जाते रहे हैं।


यही नहीं, हम करते रहते हैं, उनकी पूजा


और मन्दिर, मस्जिद और चर्चो में पारायण।






किन्तु परिवर्तन न हो सका आज तक,


सूपर्णखा की नाक आज भी काटी जा रही है


`ऑनर किलिंग´ के नाम पर भरी पंचायत में ही


मारा जा रहा है, सूपर्णखा को ही नहीं, उसके प्रेमियों को भी।


सीता की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं आया है,


जमीन में दफनाई गई, जनक द्वारा निकाली गई,


शादी के बाद पति के साथ वनवास,


राज्यारोहण के बाद, पति के द्वारा वनवास


आखिर पृथ्वी से निकली थी, पृथ्वी में समाई


हम करते रहते हैं, पूजा किन्तु आज सीता,


गर्भ में ही जाती हैं गिराई।


विज्ञान का कमाल है, पढ़ने-लिखने का चमत्कार है


भ्रूण में ही जानकर, नष्ट कर सकते हैं,


जन्म देकर दफनाने की मजबूरी नहीं,


ताकि कोई जनक आकर, उसे जमीन से निकाल न सके।






प्रेमचन्द का होरी और गोबर,


आज भी वहीं है, महंगाई की मार से


आत्महत्या करने को मजबूर है।


रावण और कंस को बनाकर खलनायक,


लिखते रहें ग्रन्थ, कमाते रहें नाम और यश


जलाते रहें रावणों के असंख्यों पुतले हर वर्ष,


किन्तु राज आज भी रावण कर रहा है,


पुतलों के दहन का आयोजन भी वह स्वयं कर रहा है,


ताकि लोग पुतले को जलता देख मान ले रावण का अन्त,


और उसे पहचान न सके और अक्षुण्य रहे उसकी सत्ता


उसकी इच्छा के विरूद्ध हिलता नहीं पत्ता,


राष्ट्र को आतंक व रिश्वत से चूना लगाने वाला ही


आज जगह-जगह तिरंगा फहरा रहा है


और जन-गण-मन बूंदी के दो लड्डू खाकर खुश है


ताली बजा रहा है।






क्यों लिखूं?


मेरी समझ नहीं आता।


युगों-युगों के लेखन से भरे हैं ग्रन्थागार,


सीताओं के अपहरण, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या का ग्राफ,


निरन्तर ऊपर चढ़कर रावण और कंस के अस्तित्व को,


प्रमाणित कर रहा है।


दहेज के विरूद्ध लिखने वाला,


दहेज हत्या कर रहा है।


हनुमान विकास की चमक में फ़ंस,


चेटिंग और ब्लोगिंग कर रहा है.


क्यों लिखूं?


लिखने की बजाय यदि,


बचा सकूं, एक सीता को अपहरण होने से,


बचा सकूं एक गीता को भ्रूण में नष्ट होने से,


सूपर्णखां को बचा सकूं ऑनर किलिंग से,


दहेज-हत्या रोक सकूं, सिर्फ एक ही,


शिक्षित कर सकूं एक बच्चा और


लगा सकूं एक पौधा,


तो क्या कविता लिखने और छपने से


बेहतर नहीं होगा.


नहीं मिलेगीं, ब्लॉग पर टिप्पणी,


नहीं आयेगा पत्र-पत्रिकाओं में नाम।


किन्तु आत्म सन्तुष्टि भी कोई चीज होती है।