संसार में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि कोई भी व्यक्ति अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं है। अधिकांश व्यक्ति असंतुष्टि के साथ जीते हैं। हमारे आसपास की सभी व्यवस्थाएं हमें अधूरी या अपूर्ण लगती हैं। हम कितने भी अज्ञानी या ज्ञानवान हों, हमें लगता है कि संसार में बहुत कुछ सही नहीं चल रहा है। इसे बदलने की आवश्यकता है। हमें अपने मित्रों में बुराई नजर आती हैं, उनके कार्य व व्यवहार में सुधार करने की अनेक संभावनाएं नजर आती है। परिवार में अनेक खामियां नजर आती हैं और प्रतीत होता है कि यदि मैं घर का मुखिया होता तो ऐसा करता। मैं गाँव का प्रधान होता तो ऐसा करता, मैं राज्य का मुखिया होता तो ऐसा करता या मैं देश का प्रधानमंत्री होता तो ऐसा करता। हमें सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में अनेकों खामियां नजर आती हैं। अधिकांश व्यक्तियों के पास ढेरों सुझाव होते हैं, वे अपने सुझावों को दूसरों के लिए उपयोगी समझते हैं और चाहते हैं कि लोग उनके उन विचारों और सुझावों पर काम करें; जिन पर स्वयं उन्होंने कोई काम नहीं किया है।
असंतुष्टि के भी दो पहलू होते हैं। असंतुष्टि ही उद्यमिता को जन्म देती है। असंतुष्टि ही कार्य करने के लिए प्रेरित कर विकास का आधार बनती है तो दूसरी ओर असंतुष्टि ही निराशा से अवसाद व अपराध की ओर कदम बढ़ाती हैं। कई बार व्यक्ति असंतुष्टि से उपजे अवसाद के कारण आत्महत्या तक कर लेता है। वस्तुतः यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि वह असंतुष्टि को किस प्रकार लेता है। असंतुष्टि विकास का आधार बनती है। यदि हम वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हो गये तो विकास कैसे करेंगे? प्रसिद्ध गजलकार दुष्यन्त कुमार की भाषा में-
न हो कमीज तो पैरों से पेट ढक लेंगे।
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।।
वास्तविक रूप से विकास के पथ के लिए संतुष्ट हो जाने की प्रवृत्ति किसी भी प्रकार से उचित नहीं कही जा सकती। असंतुष्टि से ही संतुष्टि प्राप्त करने के लिए विकास पथ मिलता है। व्यक्ति असंतुष्टि से संतुष्टि प्राप्त करने के लिए ही जीवन भर कर्मो में लीन रहता है।
असंतुष्टि का दूसरा पहलू निराशा से अवसाद की ओर ले जाकर आत्महत्या तक का सफर है। इससे निजात पाने के लिए भारतीय आध्यात्म दर्शन अचूक औषधि है। जब व्यक्ति अपनी स्थिति को भाग्य मानकर स्वीकार कर लेता है, तब असंतुष्टि का स्वयं ही शमन हो जाता है। मलूकदास का मंत्र अवसाद से बचने का सबसे अच्छा साधन है-
अजगर करे न चाकरी, पक्षी करे न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
इस प्रवृत्ति को स्वीकार कर लेने से किसी प्रकार की असंतुष्टि का प्रश्न ही नहीं उठता। व्यक्ति जैसा भी है, जहाँ भी है, वहीं संतुष्टि प्राप्त कर लेता है। ऐसी स्थिति में विकास के पथ की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विकास के पथिक को तो दुष्यन्त कुमार के संदेश पर ही आगे बढ़ना होगा-
कौन कहता है आसमां में छेद नहीं हो सकता?
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
असंतुष्ट होकर विकास के पथिक बहुत कुछ करना चाहते हैं। वे क्रांतिकारी परिवर्तन के राही होते हैं। केवल भौतिक विकास ही नहीं सामाजिक क्षेत्र, राजनीतिक क्षेत्र सहित सभी क्षेत्रों में परिवर्तन का बिगुल बजाने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे लोग चाहते हैं कि सभी कुछ रातों रात बदल जाय और सब कुछ उनकी इच्छानुसार चले। किशोरावस्था और युवावस्था में परिवर्तन करने के असीम सपने होते हैं। पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन करने का आह्वान करने वाले व्यक्तियों की फौज आपको अपने आसपास पर्याप्त मात्रा में मिल जायेगी। परिवर्तन के ऐसे यौद्धाओं की बहुलता है, जो संपूर्ण समाज को अपने अव्यावहारिक सिद्धांतों के अनुसार बदलने की कामना करते हैं किंतु अपने आपको उन सिद्धांतों के अनुकूल नहीं समझते। कहने का मतलब वे दुनिया को बदलना चाहते हैं किंतु स्वयं अपने आप को बदलने को तैयार नहीं होते। दूसरों से ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं किंतु स्वयं अपने आपको उस मार्ग पर चलने में असमर्थ पाते हैं। मुझे हँसी आती है, अरे भाई! जो सिद्धांत आप दूसरों को बता रहे हो; पहले उसको अपने व्यवहार में लाकर उसकी सत्यता और व्यावहारिकता तो सिद्ध करो। तभी तो दूसरे लोग आपकी बातों को सुनने को तैयार होंगे।
ऐसा नहीं है कि सभी लोग दूसरों से ही परिवर्तन करने की अपेक्षा करते हैं। आपको ऐसे उत्साही व्यक्तियों के भी दर्शन हो जायेंगे जो घर फूँक तमाशा देखने को भी तैयार रहते हैं। वे सोचते हैं कि वे जो चाहे कर सकते हैं। वे संपूर्ण दुनिया को बदलकर एक आदर्श व सुंदर दुनिया में परिवर्तित कर सकते हैं। किंतु यह यथार्थ से कोसों दूर है। संसार में कोई किसी को भी बदल नहीं सकता। हम केवल अपने आपको बदल सकते हैं। हम अपने आपको ईमानदार बना सकते है किंतु दूसरे को नहीं। ईमानदारी अपने अंदर से विकसित होती है कोई भी बाहरी शक्ति किसी को ईमानदार नहीं बना सकती। हम दूसरों को तो क्या अपने विद्यार्थियों और अपनी संतानों को ईमानदार नहीं बना पाते। दुनिया को बदलने की तो बात ही क्या है? वास्तव में दुनिया को बदलना किसी भी व्यक्ति के वश की बात नहीं। व्यक्ति बदल सकता है किंतु सृष्टि नहीं। अतः हमें परिवर्तन करने के दंभ से बचना होगा। दुनिया को बदलने के दंभ में हम अपने आपको बदल सकने के अवसर को भी गंवा सकते हैं।
राजस्थान में सेवाकाल के दौरान एक साथी शिक्षक श्री गजेंद्र जोशी एक कहानी सुनाया करते थे। वह यथार्थ का चित्रण करती है। जोशी जी के अनुसार - एक राजा अपने सेनापति और महामंत्री के साथ भ्रमण पर निकले। भ्रमण करते हुए राजा को एक स्थान बड़ा मनोरम लगा। राजा को ख्याल आया कि इस स्थान पर एक तालाब का निर्माण किया जाय जिसमें दूध भरा हो तो कितना अद्भुत दृश्य होगा! उसने सोचा, एक सुन्दर तालाब का निर्माण करके अपने राज्य के सभी ग्वालों को कहा जाय कि वे भोर की वेला में एक बार दूध तालाब में डालें। राज्य में इतने ग्वाले हैं कि तालाब दूध से भर जायेगा जो संपूर्ण दूनिया में अनुपम होगा। राजा ने अपना विचार महामंत्री व सेनापति के सामने रखा। सेनापति को तो आज्ञापालन की शिक्षा मिली थी। उसे क्या बोलना था। महामंत्री ने हाथ जोड़कर विनती की, ‘महाराज! तालाब बनाने का विचार अत्युत्तम है किंतु महाराज तालाब दूध का नहीं, पानी का होता है।’ राजा ने महामंत्री की तरफ कड़ाई से देखते हुए कहा, ‘नहीं, महामंत्री। हमारे राज्य का तालाब अनूठा होगा। हमने निर्णय ले लिया है। राजाज्ञा का पालन सुनिश्चित करिये।’
राजकोश से पर्याप्त धन जारी करते हुए बड़े ही सुन्दर तालाब का निर्माण कराया गया। संध्याकाल में पूरे राज्य में मुनादी करवा दी गई जिसके अनुसार राज्य के सभी ग्वालों को आदेश दिया गया कि प्रातःकाल भोर होने से पूर्व सभी ग्वाले अपना-अपना दूध तालाब में भर दें। दूसरे दिन भोर होने से पूर्व ही एक ग्वाला आया। उसने सोचा सभी तो दूध डालेंगे ही, यदि मैं दूध के स्थान पर पानी डाल दूँ तो क्या फर्क पड़ेगा और क्या किसी को पता चलेगा? इसी प्रकार सभी ग्वाले आये और सभी ने उसमें चुपके से पानी डाल दिया।
सुबह राजा अपने महामंत्री और सेनापति के साथ तालाब का निरीक्षण करने निकले। तालाब को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गये और आग बबूला हो उठे। तालाब एकदम साफ और स्वच्छ निर्मल जल से लबालब था। राजा संपूर्ण ग्वाला समाज को दण्डित करने की घोषणा करने वाले ही थे कि महामंत्री हाथ जोड़कर खड़े हो गये और बोले, दुहाई है अन्नदाता की। मैंने पूर्व में भी प्रार्थना की थी कि तालाब तो पानी का ही होता है। महाराज प्रकृति के विरुद्ध व्यवस्थाएँ नहीं चलाई जा सकती। राजा समझ गया और मुस्कराकर रह गया।
यह बड़ी ही शिक्षाप्रद कहानी है। परिवर्तन के कितने भी प्रयास किये जायँ किंतु दुनिया नहीं बदल सकती। दुनिया में सभी रंग हैं। यह विविध रंगों से परिपूर्ण है। इसमें सभी गुण है तो सभी अवगुण भी हैं। दुनिया तो क्या संसार में कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जिसमें कोई अवगुण न निकाला जा सके और न ही ऐसा व्यक्ति मिलेगा जिसमें कोई गुण न हो। दुनिया में ईमानदारी भी है और बेईमानी भी; सत्य है और असत्य भी; सदाचार भी है और दुराचार भी; सज्जनता भी है और दुष्टता भी। दुनिया विविधता पूर्ण रंग बिरंगी है जिसमें सभी रंग हैं और सदैव रहेंगे। किसी भी रंग को नष्ट करना संभव नहीं। हाँ! मात्रा को कम या अधिक किया जा सकता है। हम अपने लिए रंगों का चुनाव कर सकते हैं किंतु अन्य रंगों को दुनिया से समाप्त नहीं कर सकते।
जब हमारा राजनीतिक नेतृत्व अपराधमुक्त शासन देने की बात करता है तो वह असंभव बात कह रहा होता है। किसी भी स्थिति में अपराध को समाप्त नहीं किया जा सकता। हाँ! अपराध को कम किया जा सकता है। शासन की लापरवाही और कानून व्यवस्था की लापरवाही से अपराध बढ़ सकते हैं और अधिक सक्रिय और सावधान रहकर अपराध कम किये जा सकते हैं। किंतु अपराधों को सिरे से समाप्त करना संभव नहीं। यह प्रकृति के खिलाफ है। प्रकृति में से किसी भी रंग को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार भ्रष्टाचार मुक्त शासन का दंभ भी खोखला ही साबित होगा। भ्रष्टाचार को समाप्त करना भी असंभव है। हाँ! श्रेष्ठ कानून व्यवस्था और चुस्त दुरुस्त प्रशासन की सहायता से भ्रष्टाचार कम किया जा सकता है। कोई व्यक्ति कितना भी सक्षम हो, वह अपने आप को ईमानदार बना सकता है किंतु अन्य सभी लोगों को ईमानदार नहीं बना सकता। हो सकता है कि कुछ लोग मजबूरी में ईमानदार होने का दिखावा करें किंतु अवसर पाते ही वे अपने पुराने रंग में वापस आ जाते हैं। अतः परिवर्तन के प्रयास करना अच्छी बात है किंतु दूसरों को बदलने का दंभ पालना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। राम, कृष्ण, ईसा और मुहम्मद पैगम्बर जैसे महापुरूष संसार से बुराइयों को जड़ से नहीं मिटा सके। उन्होंने अपने प्रयास किए उनके तात्कालिक परिणाम भी निकले। उनके कार्यो के लिए ही हम आज भी उन्हें याद करते हैं। किंतु बुराइयों का उन्मूलन न तो हुआ और न संभव है। हाँ! बुराइयों पर नियंत्रण के लिए अविरल प्रयास करते रहने की आवश्यकता है। वे प्रयास सदैव किए जाते रहेंगे। अच्छाई और बुराई का संघर्ष सदैव चलता रहा है, अभी भी चल रहा है और सदैव चलता रहेगा। हमें केवल अपने पक्ष का निर्धारण करना है। हिंदु धर्म ग्रन्थों में इसे देव और असुरों का संघर्ष कहा गया है तो अन्य धर्म ग्रन्थों में भी विभिन्न नामों से सम्मिलित किया गया है।