Showing posts with label संपत्ति का ब¡टवारा. Show all posts
Showing posts with label संपत्ति का ब¡टवारा. Show all posts

Thursday, June 26, 2008

दहेज नहीं, अधिकार चाहिए।जीवन भर का प्यार चाहिए।।

दहेज नहीं, अधिकार चाहिए

दहेज एक विलक्षण शब्द है। इसके उन्मूलन के लिए विभिन्न कार्यक्रम व आन्दोलन संस्थाओं द्वारा चलाये जाते हैं तो सरकारों द्वारा विभिन्न कानून बनाये जाते हैं। संस्थाओं व सरकारों द्वारा औपचारिक रूप से किए गए समस्त प्रयासों के विपरीत व्यक्तियों द्वारा अधिकतम दहेज प्राप्त करने या देने पर ही जोर दिया जाता है। यद्यपि कुछ अपवाद भी मिल सकते हैं तथापि दहेज का विरोध करना एक फैशन है और अधिकतम् दहेज प्राप्त करना या देना खान्दान की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है। दहेज देते समय हम दहेज मा¡गने वालों को गरिया भी सकते हैं, किन्तु दहेज प्राप्त करना हमारे लिए किसी भी प्रकार से अनुचित नहीं होता। दहेज एक ऐसी परंपरा है जिसका जितना ज्याादा विरोध किया जाता है, यह उतना ही अधिक प्रसार पाती है। वास्तव में दहेज एक शब्द नहीं शब्द-युग्म है, `दान-दहेज´। दान-दहेज इस बात को इंगित करता है कि पिता के द्वारा बेटी को दान के रूप में दहेज दिया जाता है। मूल रूप से विवाह को कन्यादान कहा जाता रहा है। दान के साथ दक्षिणा के रूप में पिता श्रद्धानुसार धन दिया जाता है। इस प्रकार दान-दहेज की अवधारणा पूर्ण होती है। दान-दहेज की अवधारणा के मूल में है बेटी को पिता द्वारा अपने घर का सदस्य न मानना, उसे पराया धन कहना। कन्या दान इसी बात को इंगित करता है कि बेटी वस्तु है और उसे दान करके पिता पुण्य का अधिकारी है। यह अवधारणा नारी को व्यक्ति के रूप में स्वीकार ही नहीं करती। बेटी को भाइयों के समकक्ष परिवार का सदस्य संपत्ति में उत्तराधिकारी ही नहीं मानती। दहेज को समाप्त करने की बात पर जितना जोर दिया जाता है, उतना संपत्ति में अधिकार देने की बात पर नहीं। दान-दहेज की आड़ में अभी तक नारी को उसके संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जाता रहा है, दहेज को संपत्ति का अधिकार दिए बिना समाप्त करना, उसके साथ घोर अन्याय करना है। नारी को संपत्ति में अधिकार देने के बाद कुछ शतािब्दयों में दहेज स्वयं ही समाप्त हो जायेगा।

प्राचीन काल से ही धर्म की आड़ लेकर नारियों को छला जाता रहा है और उसी का एक रूप है दान-दहेज। अब हम समझने लगे हैं कि बेटी भी बेटे की तरह पिता की ही नहीं, संयुक्त परिवार की संपत्ति में भी बराबर की अधिकारी हैं, इसलिए दान-दहेज की अवधारणा ही समाप्त हो जाती है। लेकिन अभी तक सरकारों ने कानून बनाए हैं, उन्हें व्यक्तियों ने अंगीकार नहीं किया है। दहेज को गालिया¡ तो देते हैं, किन्तु दहेज बंद करके पिता की संपित्त में बेटी के अधिकार को मान्यता नहीं दे रहे। कानून भले ही बन गया हो किन्तु कितने लोग बेटी को उसका हिस्सा देने को तैयार हैं? कितनी बेटिया¡ इसकी हिम्मत जुटा पा रहीं हैं कि वे भाई से अपने अधिकार की मा¡ग कर सकें? कितने भाई बहन को उसका हिस्सा देकर उसके साथ प्रेम और सौहार्द्र से जीवन भर व्यवहार करने को तैयार हैं? कोई बहन बिना कानूनी कार्यवाही के पिता की संपत्ति में हिस्सा प्राप्त नहीं कर सकती और कानूनी कार्यवाही के बाद भाई कह देते हैं कि अब उससे हमारा कोई रिश्ता नहीं। ऐसा ब¡टवारे के बाद भाइयों में तो नहीं होता कि आपस में उनका कोई रिश्ता ही न रहे फिर बहन के साथ सामान्य ब¡टवारा क्यों नहीं स्वीकार किया जा सकता? बेटी का पिता की संपत्ति में अधिकार देने से दान-दहेज स्वयं ही समाप्त हो जायेगा। किसी कानूनी, संस्थागत या जनान्दोलन की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

जब बेटी पिता की संपत्ति में अपना अधिकार प्राप्त करके विवाह करे तो पति के साथ उसकी संपत्ति में बराबर की अधिकारी भी होगी। वर्तमान स्थिति में उसे निर्वाह व्यय के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं, जबकि निर्वाह व्यय देने की बात ही कहा¡ आती है? वह अपने पति के साथ समस्त संपत्ति में परिवार के एक सदस्य के रूप् में अधिकारी होनी चाहिए। बेटे-बेटियों को मा¡-बाप द्वारा भेदभाव रहित प्यार-दुलार मिले, उनका पालन-पोषण भेदभाव रहित वातावरण में हो, िशक्षा के अवसर देकर दोनों को ही विकास के अवसर मिलें और समय आने पर दोनों को ही पारिवारिक सदस्य होने के नाते पारिवारिक सम्पत्ति में भाग मिले। शादी के बाद परिस्थितियों को देखकर पति-पत्नी निर्धारित करें कि स्थाई रूप से उन्हें पत्नी या पति के पैतृक स्थान किस स्थान पर रहना है। नर-नारी की प्राकृतिक भिन्नताओं के बाबजूद अपनी-अपनी प्रकृति, आवश्यकताओं व क्षमताओं के अनुरूप उन्हें अपने-अपने कौशल के विकास के अवसर मिलें ताकि वे समाज के लिए अच्छे से अच्छा कर पायें। समान क्षमताओं व अधिकारों से सम्पन्न स्त्री-पुरूष पति-पत्नी के रूप में मिलेंगे तो उनमें अधिक सामंजस्य व प्रेम होगा और हम एक आदर्श समाज की और बढ़ सकेंगे। सभी के लिए अवसर मिलने पर समानता के संघर्ष से भी बचा जा सकेगा, जो किसी भी दृिष्ट से समाज के लिए उपयोगी नहीं है। समान अवसरों की अवको व्यवहार में लागू कर देने से दहेज अपने आप समाप्त हो जायेगा। दहेज और संपत्ति का ब¡टवारा दोनों को साथ-साथ लेकर चलना होगा। संपत्ति में अधिकार के साथ-साथ मायके व ससुराल दोनों ही स्थानों पर परिवार के सदस्य के रूप में मान्यता देनी होगी। आज की नारी की यही मा¡ग है:-

दहेज नहीं, अधिकार चाहिए।

जीवन भर का प्यार चाहिए।।