Sunday, June 28, 2020

घर से बाहर, निकली नारी, अर्थव्यवस्था सभाल रही है।

जग में सबको पाल रही है


                      डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी


घर से बाहर, निकली नारी, अर्थव्यवस्था सभाल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।
गृह प्रबंधन की कला है आती।
कुशल प्रबंधन, जहाँ भी जाती।
सेनाओं का नेतृत्व कर रही,
स्वयं जगी, जग को है, जगाती।
बेटी, बहिन, पत्नी, माता बन, नारी नर की ढाल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।
क्रोध में आकर, दण्ड भी देती।
सहलाकर, पीड़ा, हर लेती।
स्नेह, प्रेम, वात्सल्य लुटाती,
दिन में, रात में, सुख ये देती।
अन्तर्विरोध, घर-घर में होते, प्रेम से पिरोती माल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।
छल, कपट और झूठ भी बोले।
आँखों से ही सबको तोले।
घर, बाहर, तूफान हो कितना?
सब सभालती, हौले-हौले।
तृण-तृण से है नीड़ बनाती, सुख का बुनती जाल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।


Saturday, June 27, 2020

एकान्त और अकेलापन

एक समय था,
जब मैं चाहता था,
एकान्त।

तब कुछ पढ़ने की,
कुछ बनने की,
किसी को पढ़ाकर,
कुछ बनाने की,
तीव्र इच्छा,
मुझे एकान्त के लिए,
मजबूर करती थी।

एक समय था,
जब साथी को चाह थी,
मेरे साथ की,
बेटे को चाह थी,
हर पल, हर क्षण,
हर दिन, हर राह,
मेरे साथ की,
मुझसे दुलार की।

और मैं,
उन्हें आगे बढ़ाने,
उन्हें कुछ सिखाने,
अपना करियर बनाने,
के चक्कर में,
अपने आपको भूल गया!
पता ही नहीं चला,
कब अपनी राह भूला,
और ठहर गया।

और आज
जब साथी साथ मिलने का,
इंतजार करते-करते,
प्रतीक्षा से थककर,
आगे बढ़ गया।
दूसरे शब्दों में कहूँ,
साथ अलग हो गया।

और आज
हर पल, हर क्षण
हर राह,
साथ चाहने वाला बेटा,
साथ रहना भूलकर,
एकान्त के पथ पर,
बढ़ गया।
एकान्तवासी बन गया।

और आज
मैं एकान्त से भी,
ठुकराया गया,
अकेला रह गया।
एकांत और अकेलेपन
का अंतर समझ आ गया।
अनुभव से
कुछ ज्ञानवर्धन हो गया।

Tuesday, June 23, 2020

हर युग में, मैं छली गई हूँ

प्रेम से कहकर प्यारी हूँ

                       डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी


काली, दुर्गा, सरस्वती नहीं हूँ, मैं साधारण सी नारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।
जिम्मेदारी, मुझ पर डालीं।
काम सौंप दिया, कह घरवाली।
अधिकार सब, रखे पुरूष ने,
कर्तव्यों की, थमा दी, प्याली।
संस्कृति का भी भार बहुत है, थामो तुम, मैं हारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।
पूजा मुझको, नहीं, चाहिए।
थोड़ा सा, सम्मान चाहिए।
मन की कहे, मन की सुने,
ऐसा पति का प्यार चाहिए।
संस्कार, नैतिकता, लज्जा, थामो तुम, मैं मारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।
परमेश्वर नहीं, पति चाहिए।
स्वर्ग नहीं, कुछ हँसी चाहिए।
निर्णयों में, भागीदारी दे,
नर की ऐसी, मति चाहिए।
प्रेम, विश्वास, सम्मान मिले बस, फिर देखो, मैं थारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।

Sunday, June 21, 2020

घरवाली

भोर ही नहीं, रजनी में भी


                      डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी


समय, काम की, सीमा न कोई, नहीं, वेतन की माँग उठी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
सबसे पहले, जग जाती है।
शुभ हो दिन, मंगल गाती है।
साथ-सफाई का चक्र है चलता,
बार-बार कह, नहलाती है।
गृहलक्ष्मी, सबको है देती, चाह न कुछ भी, स्वयं लुटी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
समय की नहीं, कोई सीमा है।
घर ही तो, इसका बीमा है।
अन्दर बाहर काम कर रही,
कभी तेज, कभी धीमा है।
स्वयं भले ही नहीं पढ़ पाई, संतान की शिक्षा हेतु पिटी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
संघर्षो में भी नहीं बुझी है।
सजती-संवरती, कितनी हंसी है?
काम काज सबके निपटाकर,
बिस्तर में भी, पति की खुशी है।
घर में ही नहीं, दफ्तर में भी, शालीनता कभी न मिटी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।

Thursday, June 4, 2020

संग साथ की, इच्छा थी, पर,

कोई भी साथ निभा न सकी


                                        डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी



संग साथ की, इच्छा थी, पर, कोई भी साथ निभा न सकी।
नहीं, चाह थी, रूप रंग की, मन की प्यास, बुझा न सकी।।
सीधे-सच्चे पथ पर चलना।
नहीं चाहिए, कोई छलना।
सब कह ले, सब कुछ सुन ले,
बाहों में उसके, चाहूँ मचलना।
प्रेम राह, मिल चलना चाहा, कोई भी, राह दिखा न सकी।
संग साथ की, इच्छा थी, पर, कोई भी साथ निभा न सकी।।
कामना रहित, प्रेम हो जिसका।
नहीं, किसी से, वैर हो उसका।
बुजुर्गो के प्रति, सेवा भाव हो,
हित जो चाहे, सदैव ही सबका।
अंग-अंग, सौन्दर्य भले ही, कर्मो से, मुझे लुभा न सकी।
संग साथ की, इच्छा थी, पर, कोई भी साथ निभा न सकी।
नारीत्व दिखा, अन्दर ना पाया।
झूठे ही, प्रेम का, गाना गाया।
छलना, छल का भेद, खुला जब,
पता चला, बस था, भरमाया।
कमनीय कामिनी की, झूठी अदायें, पथ से मुझे डिगा न सकीं।
संग साथ की, इच्छा थी, पर, कोई भी साथ निभा न सकी।