जग में सबको पाल रही है
डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
घर से बाहर, निकली नारी, अर्थव्यवस्था सभाल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।
गृह प्रबंधन की कला है आती।
कुशल प्रबंधन, जहाँ भी जाती।
सेनाओं का नेतृत्व कर रही,
स्वयं जगी, जग को है, जगाती।
बेटी, बहिन, पत्नी, माता बन, नारी नर की ढाल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।
क्रोध में आकर, दण्ड भी देती।
सहलाकर, पीड़ा, हर लेती।
स्नेह, प्रेम, वात्सल्य लुटाती,
दिन में, रात में, सुख ये देती।
अन्तर्विरोध, घर-घर में होते, प्रेम से पिरोती माल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।
छल, कपट और झूठ भी बोले।
आँखों से ही सबको तोले।
घर, बाहर, तूफान हो कितना?
सब सभालती, हौले-हौले।
तृण-तृण से है नीड़ बनाती, सुख का बुनती जाल रही है।
घर के सदस्यों तक नहीं सीमित, जग में सबको पाल रही है।।