Tuesday, July 29, 2008

समानता का नारा,लगता बड़ा प्यारा

आओ सभी नर और नारी

समानता का नारा,

लगता बहुत प्यारा,

उठते जो प्रश्न,

करते सभी किनारा।

समानता : एक कृत्रिम शब्द,यथार्थ में,

दिखती नहीं समानता

किसी भी पदार्थ में।

यहां तक कि एक ही व्यक्ति के,

दो अंगों में भी नहीं होती समानता,

हर स्थान पर है असमानता,

यह असमानता जरूरी है,

क्योंकि यही करती सृष्टि को पूरी है।

सभी एक-दूसरे के बिन अधूरे हैं।

आपस में मिलकर ही होते सब पूरे हैं।

विभिन्न असमानतायें मिलकर ही,

पूर्णता की ओर ले जाती हैं।

समानता एक यक्ष प्रश्न?

जिसका उत्तर,

कब खोज पाया युधिष्ठर?

केवल है प्रश्न, नही है उत्तर

आओ सभी नर और नारी

मिलकर ही शायद,

पडें प्रश्नों पर भारी।
क्या दो नर, या दो नारी,

आपस में समान होते हैं?

क्या दो जुड़वा भी,

एक जैसे महान होते हैं ?

क्षमता, दक्षता या निष्ठा में,

अन्य किसी भी विशेषता में।

क्या नहीं समेटे होते?

कोई न कोई असमानता?

प्रश्न है फिर हम क्यों?

आग और पानी पर समानता थोप रहे हैं।

चांद और सूरज को एक ही,

तराजू में तोल रहे हैं।

समानता के नाम पर,

प्रकृति के सृजन में,

क्यों छुरा भोंक रहे हैं?

एक-दूसरे के पूरक,

प्राकृतिक मित्र नर-नारी में,

समानता के नाम पर,

जगाकर प्रतिस्पर्धा,

क्यों बना इनको जौंक रहे हैं?

क्यों नर को लगने लगी नारी- एक वैश्या?

क्यों नारी को लगने लगा नर- जंगली और भेिड़या?

केवल है प्रश्न, नही है उत्तर,

आओ सभी नर और नारी,

मिलकर ही शायद,

पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों नारी भ्रूण को,

कोख में ही नष्ट किया जा रहा है?

क्यों मानवता को मिटाया जा रहा है?

क्यों लक्ष्मी को ही किया जा रहा है?

पैतृक सम्पत्ति से वंचित!

वंचित करके दी जाती रही हैं :

जो छोटी-छोटी भेंटें।

दहेज के नाम पर गरियाकर,

उनसे भी वंचित किये जाने का,

रचा जा रहा है 'षड्यंत्र?

केवल है प्रश्न, नही है उत्तर,

आओ सभी नर और नारी,

मिलकर ही शायद,

पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों देखते हैं सदैव,

पुरुष ही हो बड़ा,शिक्षा, शक्ति,

सामर्थ्य ही नहीं,उम्र में भी।

क्यों शिक्षा से वंचित,

किया जाता रहा है- सरस्वती को ही,

क्यों शक्ति से वंचित किया जाता रहा है:

साक्षात शक्ति रूपा नारी को ही।

क्यों धन, शिक्षा,स्वास्थ्य, शक्ति से वंचित करके?

पिता कर देता है दान :

एक वस्तु की तरह!

या फिर बेच देता है :

दामाद रूपी ग्राहक को!

और कल्पना करता है कि,

उसकी दान की हुई

या बेची हुई पुत्री,

पूजी जायेगी दूसरे घर में?

विवाद की स्थिति में,

हो जायेगी निर्वाह-व्यय की हकदार?

क्यों ? क्या है इसके पीछे तर्क?

पति रूपी नर के लिए?

क्या शादी करना है अपराध?

जो एक पुरूष,केवल एक परंपरा के निर्वाह मात्र से,

कुछ पल/दिन/माह/वर्ष के साथ से,

ही पा जाता है पति का तमगा

और विवाद की स्थिति में,

मजबूर किया जाता है-

जीवन भर निर्वाह भत्ता देने को।

दोनों हों शिक्षित,

दोनों हों समर्थ,

दोनों का अधिकार,

अपनी-अपनी पैतृक व

अपनी कमाई गयी, सम्पत्ति में।

दोनों हों समान तो क्यों कोई,

किसी पर निर्वाह व्यय के लिए,

क्यो बने भार!क्या है इसका आधार ?

केवल है प्रश्न, नही है उत्तर,

आओ सभी नर और नारी,

मिलकर ही शायद,

पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों चरित्र की परिभाषा,

सीमित है शारीरिक सम्बन्धों तक,

क्यों झूठ, कपट, छल, धूर्तता,रिश्वतखोरी,

देशद्रोह, लाटरी, जुआऔर मदिरापान,

चरित्र का निर्धारण करते समय,

विचारणीय नहीं होते,

क्या पति-पत्नी द्वारा,

एक-दूसरे पर बलात्कार नहीं होते?

क्यों `वैश्या´ शब्द प्रयुक्त होता है -

केवल स्त्री के लिए,

जबकि पुरुष के बिना ,स्त्री

कुछ कर ही नहीं सकती,

प्राकृतिक व्यवस्था है,

स्त्री शारीरिक सम्बन्धों में,

एक सहयोगी होती है, प्रेरक होती है,

किन्तु निष्क्रिय पार्टनर मानी जाती है,

वह नहीं कर सकती, पुरुष के साथ,

भौतिक रूप से बलात्कार,

फिर भी वही क्यों दोषी है,

वही क्यों `वैश्या´ है?

उसके पास जाने वाले,

उसको वहां तक पहुंचाने वाले,

वैश्या की श्रेणी में क्यों नहीं आते?

केवल है प्रश्न, नही है उत्तर

आओ सभी नर और नारी

मिलकर ही शायद,

पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों नारी को ही सहारे की,

मानी जाती है जरूरत,

जबकि पुरुष है हर पल :

नारी पर आश्रित,

नहीं आ सकता,

जमीन पर नारी के बिना,

नहीं जी सकता,

नारी-दुग्ध के बिना,

चाहिए नारी का स्नेह, दुलार,

प्रेम,मार्गदर्शन व प्रेरणा कदम-कदम पर

नहीं चल सकता,

नारी के बिना,

एक कदम भी,

नहीं सो सकता मां की लौरी,

पत्नी की हमसौरी के बिना,

एक क्षण को भी,

मां के अभाव में धाय,

पत्नी के अभाव में या फिर वियोग में प्रेमिका,

वह भले ही बाजारू हो या वास्तविक,

नारी ही साथी बनती है।

फिर नर-नारी में समानता की,

प्रतिस्पर्धा क्यों चलती है?

केवल है प्रश्न, नही है उत्तर

आओं सभी नर और नारी

मिलकर ही शायद,

पड़े प्रश्नों पर भारी।

Monday, July 28, 2008

प्रेम क्या है?क्षणिक व्यापार,मौज-मस्ती मनाने का?

करोगे काम?


प्रेम क्या है?

एक पथ,

ईश्वर तक पहुचंने का?


प्रेम क्या है?

एक सच,

जीवन जीने का?


प्रेम क्या है?

एक नाटक,

दूसरों को फुसलाने का?


प्रेम क्या है?

एक तरकीब,

छिपे राज उगलवाने का?


प्रेम क्या है?

क्षणिक व्यापार,

मौज-मस्ती मनाने का?


प्रेम क्या है?

एक मजबूर सम्बन्ध

साथ-साथ रहने का?


प्रेम क्या है?

करोगे काम?

राष्ट्रप्रेमी को समझाने का?

Sunday, July 27, 2008

हमसे दिल न लगाना तुम दिल के टुकड़े हो जायें।

मुस्कान लुटाएं
हम राह के पक्षी है,जाने किधर को उड़ जायें।
हमसे दिल न लगाना तुम दिल के टुकड़े हो जायें।
अपरिचित दोंनो परिचित हो गये
रंगरीले ख्वावों में खो गये
बिताने को मिलकर के ,
प्रेम भरे गाने कुछ गायें।
हम राह के पक्षी है,जाने किधर को उड़ जायें।
हमसे दिल न लगाना तुम दिल के टुकड़े हो जायें।
हम राही से एक हो गये
दिल दोंनो मिल सुखी हो गये
अगले चौराहे से ही तो
अलग-अलग रस्ते हो जायें।
हम राह के पक्षी है,जाने किधर को उड़ जायें।
हमसे दिल न लगाना तुम दिल के टुकड़े हो जायें।
पथ बदले और पथिक भी बदले,
दुनियां के सब प्राणी बदले
अपनी-अपनी राहों पर
सबको मुस्कान लुटायें।
हम राह के पक्षी है,जाने किधर को उड़ जायें।
हमसे दिल न लगाना तुम दिल के टुकड़े हो जायें।

Wednesday, July 23, 2008

महिला सशक्तिकरण की पोल खोलता पायल का यह खत

महिला सशक्तिकरण की पोल खोलता पायल का यह खत
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त जोधपुर निवासी 26 वर्षीय पायल के खत से आपको समाज की असली तस्वीर दिखाई देगी, जिसे दैनिक भास्कर ने बुधवार, 25 जुलाई 2008 को मधुरिमा परिशिष्ट में आवरण कथा के रूप में प्रस्तुत किया है। मैं दैनिक भास्कर का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए, हूबहू, इसे साभार इंटरनेट पर प्रस्तुत कर रहा हूं।
यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है बल्कि सत्य से लबरेज एक मर्मस्पर्शी कथा है। ये दास्तां है हमारे देश की हर लड़की की, जो शादी योग्य हो चली है। पायल की कहानी केवल उसकी कहानी नहीं है बल्कि देश की लड़कियों की कहानी भी है।
मैं अपनी बात कहना शुरू करती हूं, जब मैं कालेज में थी, तब हमारी अपनी जिन्दगी होती थी। मैं, मेरे दोस्त और बहुत सारी मस्ती............ कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई फिक्र नहीं। बस दिन भर मौज-मस्ती करना और अपने सपनों के बारे में बात करना ........... उस वक्त हर बात को लेकर बहुत उत्सुकता होती थी। हर नई चीज हम सीखना चाहते थे। उन दिनों सबके अपने-अपने सपने थे। सबसे हसीन सपना था शादी का सपना........सबके अलग-अलग सपने, ज्यादा कुछ मालुम नहीं था, बस अपनी बड़ी दीदियों को देखते थे। जब उनकी शादी होती थी तो उन्हें मिलने वाले नए कपड़े, गहने ये अट्रेक्ट करते थे। वे जब ससुराल से आतीं थीं, तो उनका जो स्वागत होता था, वो सब बहुत अच्छा लगता था। हमस ब यही सोचते थे कि जब हमारी शादी होगी, तो हमें भी इसी तरह से इन सबका प्यार मिलेगा यानि कुल मिलाकर सपनों की दुनियां सब कुछ ऐसे ही चल रहा था, जब तक कि हम लोगों का पोस्टग्रेजुएशन नहीं हो हुआ। फिर धीरे-धीरे हम लोगों का सच्चाई से सामना हुआ। आहिस्ता-आहिस्ता शादी को लेकर देखे गए, हमारे सपने एक कड़वी सच्चाई में तब्दील हो गए। पढ़ाई पूरी होने के बाद जब मैं घर में रहने लगी, तो शुरू-शुरू में तो सबकुछ ठीक रहा, फिर जब रिश्ते आने लगे तो कुछ परिवर्तन सा महसूस किया। पता चला कि शादी के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है `आपका रंग´। लड़की का गौरा होना उसके सारे दोषों को छुपा देता है और रंग सांवला हो या काला तो कोई भी गुण मायने नहीं रखता। एक परिचिता ने मेरे लिए कहा था, `मैं सेकंड क्लास में भी सेकंड ग्रेड की लड़की हूं´ ये वाक्य पहला था, जिसने मुझे बुरी तरह से हिलाकर रख दिया था। इसलिए तो इसे कभी मैं भूल नहीं पाती पर यह तो सिर्फ शुरूआत थी। उसके बाद रिश्ते आने का सिलसिला जारी रहा तो आज लगता था कि शादी मेरी है, जिंदगी मेरी है, तो मेरी सोच मेरी पसंद-नापसंद ही सब कुछ होगी।



ऐसा एक बार हुआ भी था। बैंगलोर का रिश्ता था, अच्छी जानी-मानी फैमिली थी, लड़के ने एम.बी.ए. किया हुआ था। वे लोग मेरी फोटो मा¡ग रहे थे। जब हमने लड़के की फोटो मा¡गी, तो लड़के का जबाब देखिए, ``मैं कोई लड़की हू¡ क्या, जो अपनी फोटो दू¡? मेरी फोटो से क्या फर्क पड़ता है?´ मैंने कह दिया कि जिस लड़के की सोच ऐसी है, उसने एमण्बीण्एण् किया हो मैं मान ही नहीं सकती।
फिर समय गुजरने लगा और मेरी उम्र बढ़ने लगी। ये सारी बातें मेरे अन्दर चिड़चिड़ाहट भरने लगीं। पहली बार बात देखने दिखाने पर पहु¡ची। परिवार बहुत अच्छा था, लड़का दिखने में एवरेज था। उसके भी कई रिश्ते सिर्फ उसके लुक्स की वजह से नहीं हुए थे। कहने का अर्थ यह है कि वह भुगत-भोगी था। वो लोग जब मुझे देखने आये, सब बढ़िया था। जिन चाची ने रिश्ता बताया था, उन्होंने उनको हा¡ में जबाब दे दिया था, पर हमें कोई उत्तर नहीं दिया। फिर थोड़े दिन बाद पता चला कि उन्होंने रिश्ता जयपुर में तय कर दिया है। कारण था- जब वे लोग देखने आने वाले थे, तब मैंने सिर्फ ये कहा था, `मैं लड़के से एक बार मिलना चाहती हू¡, ऐसा न हो कि आप लोग बिना मुझे दिखाये हा¡ कह दें।´ मेरे पापा भी यही चाहते थे पर इस बात ने इतना बड़ा रूप ले लिया। घर में सब लोगों ने पापा को इतनी भली-बुरी सुनाई, `क्या हम पर विश्वास नहीं है? क्या जो तुम करोगे वो ठीक होगा..............? पायल में इतनी अक्ल है क्या? वो क्या देखेगी´ और न जाने कितनी ही बातें कहीं। मुझे नहीं मालुम था कि मुझे इतना भी हक नहीं कि मैं लड़के को देख सकू¡। जब उन लोगों ने ही मना कर दिया तो सारी बात खत्म हो गई। अब समाज के लोगों ने मुझे ताने मारने शुरू कर दिये। कई लोगों के तो घर पर फोन आए, `बधाई हो लड़की की सगाई कर दी और हमें बताया भी नहीं।´ मुझ से कहा गया `उन लोगों ने मना कर दिया और तेरे चेहरे पर कोई फर्क ही नहीं दिख रहा? यानि ि कवे मुझसे कहना चाह रहे थे कि मुझे रोना चाहिए क्योंकि मेरा रिश्ता नहीं हुआ।
अब बताती हू¡ जब कोई देखने आता है, तो क्या होता है- हम लड़की वाले हैं, तो सारे इन्तजाम परफैक्ट होने ही चाहिए। इसके अलावा सबकी सलाह यह पहनना, ऐसे बैठना, ऐसे बात करना, ज्यादा मत बोलना वगैरह। मतलब गलती को कोई गुंजाइश नहीं, उस वक्त हम एक कठपुतली होते है ............... । कहना होगा कि हमसे तो निचले तबके की लड़किया¡ अच्छी, जिन्हें न तो पढ़ाया जाता है, न उनमें सोचने समझने की शक्ति होती है। कम से कम उन्हें इन सब बातों का कोई असर नहीं होता। यहा¡ तो खुद की सोच रहते हुए भी ऐसे ही रहना पड़ता है जैसे हमारा कोई अस्तित्व ही न हो। हमारी कोई पहचान ही नहीं है। हमारा कोई वजूद ही नहीं है। भले ही हमारे देख में महिला सशक्तिकरण का नगाड़ा पीटा जाता है पर सच्चे मायने में स्त्री को वो दर्जा हासिल है, जो उसे मिलना चाहिए?
अभी मेरे साथ एक वाकया हुआ था। लड़के के पापा ने पूछा शादी के बाद जॉब करना चाहोगी? मैंने कहा, `हा¡, यदि मौका मिला तो।´ इस पर लड़के की मा¡ ने कहा जरूरी है क्या जॉब करना? मैंने कहा, `नहीं´। फिर दुबारा लड़के के पिता ने पूछा फ्यूचन प्लानिंग कया है? क्या सोचा है आगे?´ आपको नहीं लगता यहा¡ पर यह सवाल बेमानी था। अब बताइए मैं क्या जबाब देती? उन लोगों के जाने के बाद मेरे ताऊजी ने कहा, `तुमने उत्तर क्यों नहीं दिया?´ क्या जबाब देती क्या वाकई एक लड़की की एक सोच होती है? अपना कोई फ्यूचर होता है? शादी से पहले सब बातें पापा, भाई या मा¡ तय करते हैं, हमें निर्णय लेने की भी इजाजत नहीं होती। हम तो सिर्फ वहा¡ फैसला लेते हैं जहा¡ ये तय करना होता है कि आज क्या पहनना है? कौन से रंग का नेल पेंट लगाना है, हेयर कट कौन सा होगा, बस। बाकी सारे बड़े निर्णय बड़ ही लेते हैं और शादी के बाद पति ................ फ़िर बाद में बच्चे।
हमें तो प्यार करने की भी इजाजत नहीं होती। क्यों हमेशा परिवार की इज्जत का बोझ लड़की के सिर पर ही होता है? यदि वह अपना मनपसन्द जीवन साथी चुन ले, तो खानदान की इज्जत पर दाग लग जाता है। जब लड़का अपने माता-पिता को घर से निकालकर बाहर खड़ा कर दे, तब परिवार की इज्जत नहीं जाती?
और मिठाई कब खिला रही हो? ............... ये वाक्य जब भी घर से बाहर निकलो, 4-5 बार सुनाई देना तो मामूली बात है, ये लोगों के ताने देने का तरीका है। अब तो इतनी ज्यादा आदत हो गई है ये सुनने की कि कभी-कभी तो मै जबाब दे देती हू¡, `हमारे हाथ में नहीं मिठाई खिलाना, नहीं तो कब के खिला चुके होते ..... ?
ऐसा हर लड़की के साथ होता है- मेरी कई सहेलिया¡ हैं, उनसे जब भी बात होती है, कहती हैं, `अब तो जल्दी से जो किस्मत का फैसला है, जो जाए।´ लड़कियों को फिब्तया¡ कसने या शोषण का िशकार होने से नहीं बक्शा जाता, लेकिन बात जीवन साथी की आए, तो तमाम मापदण्ड सामने रख दिए जाते हैं। सच तो यह है कि स्त्रिया¡ महज देह हैं, जिनका हर पल, हर मोड़ पर शोषण किया जाता है। हमको तो घरवालों के शोषण का भी िशकार होना पड़ता है- लड़कियों की भेड़-बकरियों की तरह नुमाइश लगाकर।

Sunday, July 20, 2008

जो जातिवाद की नफरत की आग में देश को में झोंकते

प्रस्तुत है डाक्टर एस के मित्तल द्वारा प्रेषित रचना समय की पुकार
समय की पुकार


समय की पुकार आज की दरकार
जाग दोस्त सुन भारत माता की पुकार


जो दंगा करते हैं
जो नर संहार करते है
जो जातिवाद की नफरत की आग में देश को में झोंकते
राम- रहीम -इसा - गुरु -गाँधी -बाबा की बात करते है

इन आस्तीन के सांपो से
सावधान ख़बरदार होशियार
मेरे देश वासिओं कसलो कमर,
होजाओ त्यार

इन पापिओं को सबक सिखाना होगा
हर हथियार काम में ला इन्हें उडाना होगा


देर बहुत हो जायेगी
मानवता कराहयेगी
जब देश ही ना रहा
तो नींद कहाँ से आएगी
आज की ताजा ख़बर ...............
कश्मीर जल रहा है
काबूल आतंकियों से थर्रा रहा है

गुलाम इस्तीफ़ा दे दिल्ली चल रहा है
मनमोहन टोकियो में बुश से चोंचे लड़ा रहा है
वाम हका बका मुलायम अवसर ताक रहा है
महंगाई का नाग डस रहा किसान जहर खा रहा है
भारतमाँ का मुकट खतरे में है केन्द्र थर्रा रहा है

समय की पुकारआज की दरकार
जाग दोस्त सुन भारत माता की पुकार

Monday, July 14, 2008

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है

जो भी तुमको प्यारा है


तुमने तन ही दिया भले हो, हमने मन भी बारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

नहीं किसी से ईर्ष्या हमको

नहीं बाधंना चाहें तुमको।

हमें भले ही ना मिल पाया,

जीवन-रस मिल जाये तुमको।

हिमगिरि तब था भाया हमको, अब सागर का किनारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

नेत्रों से जल, कभी न निकसे

ह्रदय-कुमुद रहे हरदम विकसे।

अधरों पर मुस्कान रहे नित,

आप नहीं, अब हम ही सिसके।

स्वार्थों की मारी मति ने ही तो, प्रेम से छीना सहारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

मृग-मरीचिका है अब अपनी,

मरूथल में है माला जपनी।

अपनी जान जहां में खोई,

नहीं किसी की जान हड़पनी।

विस्तृत जग आमिन्त्रत करता, याद तुम्हारी कारा है।

हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।

क्षिति जल पावक गगन समीरा

तुम बिन कैसे भये अधीरा ?

अवशोषण नासूर बना अब,

कौन लगाये इसको चीरा?

धरा ही नहीं, आसमान भी, देखो हमने फाड़ा है।

जिसने सबको हरा दिया है, वह खुद से ही हारा है।।

जल भी, हमने नहीं बख्शा,

वायु भी फ़ैलाये गमछा।

पावक को भी बांधा नर ने,

कब तक इसका चलेगा चमचा।

प्रकृति के आड़ोलन ने ही, भय का झण्डा गाड़ा है।

जिसने सबको हरा दिया है, वह खुद से ही हारा है।।

Thursday, July 10, 2008

धर्म के नाम पर, कब तक?

कब तक?



धर्म के नाम पर,

कब तक?

सती होंगी ललनाए¡

जीवन-भर

त्रासदी सहेंगीबाल-विधवाए¡।


धर्म के नाम पर,

कब तक?

संलेखना/संथारा के द्वारा

आत्महत्याए¡

होती रहेंगी।

पढ़ने की उम्र में,

अबोध बालक/बालिकाए¡,

दीक्षा लेकर,

साधु और साध्वी बनती रहेंगी।



यश-अपयश,

लोक-परलोक के नाम पर

कब तक?

गृहस्थ जीवन को

हीन बताया जाता रहेगा।


धर्म के नाम पर,

कब तक?

शाहबानो, गुडिया ,

इमराना, लतीफ़ुन्निसा,

तलाशती रहेंगी अपना वजूद।



बाल-दीक्षित समताओं को,

शादी रचाने के लिए

कब तक?

करने होंगे

चमत्कारों के दिखावे।


धर्म में हो आस्था,

स्वेच्छया हो उसका पालन,

स्वेच्छा से बनें साधु और संन्यासी,

समाज के हित में।

न हो कोई मजबूरी,

न हो कोई दबाब,

जब चाहे,

कर सकें वापसी,

गृहस्थ जीवन में।


कब तक?

मिल पायेगी

स्वतन्त्रता

पूजा की

आराधना की!

आस्था की!

और सबसे आगे बढकर,

जीवन जीने की!

Sunday, July 6, 2008

माँ

अबला-सबला,
हँसना-रोना,
सोना-जागना,
उसको होता हर्ष,
सन्तान का उत्कर्ष।

सरल,विनीत और विनम्र,
सन्तान का सब कुछ क्षम्य,
हृदय है अगम्य,
हो जाये भ्रष्ट,
सन्तान हो ना नष्ट।

व्यष्टि-समष्टि,
सारी ये सृष्टि,
भले ही जायें,
सिद्धियां अष्ट,
सन्तान न पाये कष्ट.