महिला सशक्तिकरण की पोल खोलता पायल का यह खत
अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त जोधपुर निवासी 26 वर्षीय पायल के खत से आपको समाज की असली तस्वीर दिखाई देगी, जिसे दैनिक भास्कर ने बुधवार, 25 जुलाई 2008 को मधुरिमा परिशिष्ट में आवरण कथा के रूप में प्रस्तुत किया है। मैं दैनिक भास्कर का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए, हूबहू, इसे साभार इंटरनेट पर प्रस्तुत कर रहा हूं।
यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है बल्कि सत्य से लबरेज एक मर्मस्पर्शी कथा है। ये दास्तां है हमारे देश की हर लड़की की, जो शादी योग्य हो चली है। पायल की कहानी केवल उसकी कहानी नहीं है बल्कि देश की लड़कियों की कहानी भी है।
मैं अपनी बात कहना शुरू करती हूं, जब मैं कालेज में थी, तब हमारी अपनी जिन्दगी होती थी। मैं, मेरे दोस्त और बहुत सारी मस्ती............ कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई फिक्र नहीं। बस दिन भर मौज-मस्ती करना और अपने सपनों के बारे में बात करना ........... उस वक्त हर बात को लेकर बहुत उत्सुकता होती थी। हर नई चीज हम सीखना चाहते थे। उन दिनों सबके अपने-अपने सपने थे। सबसे हसीन सपना था शादी का सपना........सबके अलग-अलग सपने, ज्यादा कुछ मालुम नहीं था, बस अपनी बड़ी दीदियों को देखते थे। जब उनकी शादी होती थी तो उन्हें मिलने वाले नए कपड़े, गहने ये अट्रेक्ट करते थे। वे जब ससुराल से आतीं थीं, तो उनका जो स्वागत होता था, वो सब बहुत अच्छा लगता था। हमस ब यही सोचते थे कि जब हमारी शादी होगी, तो हमें भी इसी तरह से इन सबका प्यार मिलेगा यानि कुल मिलाकर सपनों की दुनियां सब कुछ ऐसे ही चल रहा था, जब तक कि हम लोगों का पोस्टग्रेजुएशन नहीं हो हुआ। फिर धीरे-धीरे हम लोगों का सच्चाई से सामना हुआ। आहिस्ता-आहिस्ता शादी को लेकर देखे गए, हमारे सपने एक कड़वी सच्चाई में तब्दील हो गए। पढ़ाई पूरी होने के बाद जब मैं घर में रहने लगी, तो शुरू-शुरू में तो सबकुछ ठीक रहा, फिर जब रिश्ते आने लगे तो कुछ परिवर्तन सा महसूस किया। पता चला कि शादी के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है `आपका रंग´। लड़की का गौरा होना उसके सारे दोषों को छुपा देता है और रंग सांवला हो या काला तो कोई भी गुण मायने नहीं रखता। एक परिचिता ने मेरे लिए कहा था, `मैं सेकंड क्लास में भी सेकंड ग्रेड की लड़की हूं´ ये वाक्य पहला था, जिसने मुझे बुरी तरह से हिलाकर रख दिया था। इसलिए तो इसे कभी मैं भूल नहीं पाती पर यह तो सिर्फ शुरूआत थी। उसके बाद रिश्ते आने का सिलसिला जारी रहा तो आज लगता था कि शादी मेरी है, जिंदगी मेरी है, तो मेरी सोच मेरी पसंद-नापसंद ही सब कुछ होगी।
ऐसा एक बार हुआ भी था। बैंगलोर का रिश्ता था, अच्छी जानी-मानी फैमिली थी, लड़के ने एम.बी.ए. किया हुआ था। वे लोग मेरी फोटो मा¡ग रहे थे। जब हमने लड़के की फोटो मा¡गी, तो लड़के का जबाब देखिए, ``मैं कोई लड़की हू¡ क्या, जो अपनी फोटो दू¡? मेरी फोटो से क्या फर्क पड़ता है?´ मैंने कह दिया कि जिस लड़के की सोच ऐसी है, उसने एमण्बीण्एण् किया हो मैं मान ही नहीं सकती।
फिर समय गुजरने लगा और मेरी उम्र बढ़ने लगी। ये सारी बातें मेरे अन्दर चिड़चिड़ाहट भरने लगीं। पहली बार बात देखने दिखाने पर पहु¡ची। परिवार बहुत अच्छा था, लड़का दिखने में एवरेज था। उसके भी कई रिश्ते सिर्फ उसके लुक्स की वजह से नहीं हुए थे। कहने का अर्थ यह है कि वह भुगत-भोगी था। वो लोग जब मुझे देखने आये, सब बढ़िया था। जिन चाची ने रिश्ता बताया था, उन्होंने उनको हा¡ में जबाब दे दिया था, पर हमें कोई उत्तर नहीं दिया। फिर थोड़े दिन बाद पता चला कि उन्होंने रिश्ता जयपुर में तय कर दिया है। कारण था- जब वे लोग देखने आने वाले थे, तब मैंने सिर्फ ये कहा था, `मैं लड़के से एक बार मिलना चाहती हू¡, ऐसा न हो कि आप लोग बिना मुझे दिखाये हा¡ कह दें।´ मेरे पापा भी यही चाहते थे पर इस बात ने इतना बड़ा रूप ले लिया। घर में सब लोगों ने पापा को इतनी भली-बुरी सुनाई, `क्या हम पर विश्वास नहीं है? क्या जो तुम करोगे वो ठीक होगा..............? पायल में इतनी अक्ल है क्या? वो क्या देखेगी´ और न जाने कितनी ही बातें कहीं। मुझे नहीं मालुम था कि मुझे इतना भी हक नहीं कि मैं लड़के को देख सकू¡। जब उन लोगों ने ही मना कर दिया तो सारी बात खत्म हो गई। अब समाज के लोगों ने मुझे ताने मारने शुरू कर दिये। कई लोगों के तो घर पर फोन आए, `बधाई हो लड़की की सगाई कर दी और हमें बताया भी नहीं।´ मुझ से कहा गया `उन लोगों ने मना कर दिया और तेरे चेहरे पर कोई फर्क ही नहीं दिख रहा? यानि ि कवे मुझसे कहना चाह रहे थे कि मुझे रोना चाहिए क्योंकि मेरा रिश्ता नहीं हुआ।
अब बताती हू¡ जब कोई देखने आता है, तो क्या होता है- हम लड़की वाले हैं, तो सारे इन्तजाम परफैक्ट होने ही चाहिए। इसके अलावा सबकी सलाह यह पहनना, ऐसे बैठना, ऐसे बात करना, ज्यादा मत बोलना वगैरह। मतलब गलती को कोई गुंजाइश नहीं, उस वक्त हम एक कठपुतली होते है ............... । कहना होगा कि हमसे तो निचले तबके की लड़किया¡ अच्छी, जिन्हें न तो पढ़ाया जाता है, न उनमें सोचने समझने की शक्ति होती है। कम से कम उन्हें इन सब बातों का कोई असर नहीं होता। यहा¡ तो खुद की सोच रहते हुए भी ऐसे ही रहना पड़ता है जैसे हमारा कोई अस्तित्व ही न हो। हमारी कोई पहचान ही नहीं है। हमारा कोई वजूद ही नहीं है। भले ही हमारे देख में महिला सशक्तिकरण का नगाड़ा पीटा जाता है पर सच्चे मायने में स्त्री को वो दर्जा हासिल है, जो उसे मिलना चाहिए?
अभी मेरे साथ एक वाकया हुआ था। लड़के के पापा ने पूछा शादी के बाद जॉब करना चाहोगी? मैंने कहा, `हा¡, यदि मौका मिला तो।´ इस पर लड़के की मा¡ ने कहा जरूरी है क्या जॉब करना? मैंने कहा, `नहीं´। फिर दुबारा लड़के के पिता ने पूछा फ्यूचन प्लानिंग कया है? क्या सोचा है आगे?´ आपको नहीं लगता यहा¡ पर यह सवाल बेमानी था। अब बताइए मैं क्या जबाब देती? उन लोगों के जाने के बाद मेरे ताऊजी ने कहा, `तुमने उत्तर क्यों नहीं दिया?´ क्या जबाब देती क्या वाकई एक लड़की की एक सोच होती है? अपना कोई फ्यूचर होता है? शादी से पहले सब बातें पापा, भाई या मा¡ तय करते हैं, हमें निर्णय लेने की भी इजाजत नहीं होती। हम तो सिर्फ वहा¡ फैसला लेते हैं जहा¡ ये तय करना होता है कि आज क्या पहनना है? कौन से रंग का नेल पेंट लगाना है, हेयर कट कौन सा होगा, बस। बाकी सारे बड़े निर्णय बड़ ही लेते हैं और शादी के बाद पति ................ फ़िर बाद में बच्चे।
हमें तो प्यार करने की भी इजाजत नहीं होती। क्यों हमेशा परिवार की इज्जत का बोझ लड़की के सिर पर ही होता है? यदि वह अपना मनपसन्द जीवन साथी चुन ले, तो खानदान की इज्जत पर दाग लग जाता है। जब लड़का अपने माता-पिता को घर से निकालकर बाहर खड़ा कर दे, तब परिवार की इज्जत नहीं जाती?
और मिठाई कब खिला रही हो? ............... ये वाक्य जब भी घर से बाहर निकलो, 4-5 बार सुनाई देना तो मामूली बात है, ये लोगों के ताने देने का तरीका है। अब तो इतनी ज्यादा आदत हो गई है ये सुनने की कि कभी-कभी तो मै जबाब दे देती हू¡, `हमारे हाथ में नहीं मिठाई खिलाना, नहीं तो कब के खिला चुके होते ..... ?
ऐसा हर लड़की के साथ होता है- मेरी कई सहेलिया¡ हैं, उनसे जब भी बात होती है, कहती हैं, `अब तो जल्दी से जो किस्मत का फैसला है, जो जाए।´ लड़कियों को फिब्तया¡ कसने या शोषण का िशकार होने से नहीं बक्शा जाता, लेकिन बात जीवन साथी की आए, तो तमाम मापदण्ड सामने रख दिए जाते हैं। सच तो यह है कि स्त्रिया¡ महज देह हैं, जिनका हर पल, हर मोड़ पर शोषण किया जाता है। हमको तो घरवालों के शोषण का भी िशकार होना पड़ता है- लड़कियों की भेड़-बकरियों की तरह नुमाइश लगाकर।
isi moltol se bachne ke liye maine prem vivah kiya..inse kahiye ye bhi yahi karen kisi achchhe aur sushil ladke ko apna jiwan sathi chune..bhale hi uski aarthik sthiti jyada sudridh na ho.
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