Friday, November 28, 2008

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मै सभी पाठको का जो स्वागत करता हु जो हमारा ब्लॉग पढ़ते है और संतोष गौड़ का आभारी हु जिन्होंने मुझे अपने ब्लॉग में सहयोगी बनाया

Tuesday, November 25, 2008

राजस्थान की वीर-नारियाँ -चतुर्थ भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।


राजस्थान की वीर-नारियाँ -चतुर्थ भाग

पद्मिनी :- महारानी पद्मिनी चित्तौड़ के रावल रतनसिंह की पत्नी थी। पद्मिनी इतनी सुन्दर थी कि काव्य में उसे उपमान के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जब पद्मिनी की सुन्दरता के बारे में सुना तो वह उसे प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा। उसने अपनी इच्छापूर्ति के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण भी किया, किन्तु जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने रावल रतनसिंह को सन्देश भेजा कि यदि उसे पद्मिनी को केवल दिखा दिया जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।
चित्तौड़ को विनाश से बचाने के लिए खिलजी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। सुल्तान किले में बुलाया गया और उसे पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखाया गया। उसे चाहकर भी पद्मिनी प्रत्यक्ष देखने को नहीं मिली। रावल रतनसिंह जब खिलजी को औपचारिकता वश छोड़ने के लिए गए तो वहा¡ उन्हें कैद कर लिया गया और सुल्तान के द्वारा रतनसिंह को छोड़ने के लिए पद्मिनी को साथ ले जाने की शर्त रखी।
सुल्तान की चाल का जबाब भी चाल से दिया गया। रानी ने दिलेरी के साथ सुल्तान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह सुल्तान के साथ जाने को तैयार है किन्तु वह अपने साथ अपनी दासियों को भी ले जाना चाहती है। सुल्तान को इससे क्या आपत्ति हो सकती थी। योजनानुसार पालकिया¡ तैयार की गयीं। प्रत्येक पालकी में एक वीर योद्धा शस्त्रों सहित बैठ गया। पालकी उठाने के लिए भी कहारों के रूप में छ: सशस्त्र योद्धाओं का चयन किया गया। गोरा के नेतृत्व में पालकिया¡ सुल्तान के डेरे पर पहु¡ची। गोरा ने सुल्तान से कहा कि रानी अन्तिम बार अपने पति से मिलना चाहतीं हैं।
सुल्तान की अनुमति के बाद पालकिया¡ रतनसिंह के खेमें में पह¡ची और वहा¡ पहु¡चते ही पालकियों में छिपे योद्धाओं ने राव रतनसिंह को मुक्त करा कर किले में भेज दिया। मुगल सैनिक उन्हें नहीं रोक पाये। निराश होकर सुल्तान दिल्ली लौट गया किन्तु उसने कुछ समय बाद पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण किया जिसमें राजपूतों को पीले वस्त्र पहनकर मरने-मारने के संकल्प के साथ किले से निकलना पड़ा।
पद्मिनी के नेतृत्व में महिलाओं ने अपना बलिदान करके अपनी पवित्रता व चित्तौड़ के आत्मसम्मान की रक्षा की और सिद्ध कर दिया कि भारतीय नारिया¡ सुन्दरता में ही नहीं, वीरता और बलिदान में भी आगे हैं; उन्हें शक्ति के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं ।
रानी कर्मवती - राणा सांगा खानवा के युद्ध में घायल होकर अधिक समय तक जीवित न रह सके। उनकी मृत्यु के बाद विक्रमादित्य को गद्दी पर बिठाया गया किन्तु वे अयोग्य शासक सिद्ध हुए, उनकी कमजोरी का फायदा उठाने के लिए गुजरात के शासक बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया।
विक्रमादित्य ने बहादुरशाह से सन्धि कर ली। राणा सांगा की पत्नी वीरांगना कर्मवती को यह सन्धि अपमान के रूप में लगी। उसने मेवाड़ के सामन्तों व सैनिकों को इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित किया। सभी ने रानी के सामने मातृभूमि की रक्षा में मर मिटने का संकल्प लिया। बहादुर शाह ने जब सन्धि तोड़ते हुए चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण किया तो कर्मवती की प्रेरणा से उत्साहित राजपूत सेना ने शत्रु-सेना का डटकर मुकाबला किया।
बहादुर शाह की विशाल सेना को रोक पाना संभव न रहा तो रानी ने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि शत्रु हमारे जीवित रहते हुए किले में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। रानी ने स्वयं सेना का नेतृत्व किया। रानी ने हुमायू¡ की सहायता प्राप्त करने के लिए उसे राखी भी भेजी। हुमायू¡ राखी का सम्मान करते हुए चित्तौड़ के लिए सेना के साथ रवाना भी हो गया किन्तु वह समय पर चित्तौड़ न पहु¡च सका। रानी कर्मवती ने दुर्ग के द्वार खोलकर मातृभूमि की के लिए युद्ध करते हुए रानी ने प्राण न्यौछावर कर दिए।
हाड़ी रानी :- सलूम्बर के युवा सामन्त चुण्डावत की नवविवाहिता पत्नी का नाम हाड़ी रानी था। मेवाड़ में महाराणा राजसिंह का शासन था। महाराणा राजसिंह का विवाह चारूमती (रूपमती) के साथ होने जा रहा था, उसी समय औरंगजेब ने अपनी सेना लेकर आक्रमण कर दिया।
विवाह होने तक मुगल सेना को आगे बढ़ने से रोकना आवश्यक था। औरंगजेब की सेना को रोकने का दायित्व नव विवाहित राव चुण्डावत ने स्वीकार किया। महाराणा ने चुण्डावत से कहा - `आपका कल ही तो विवाह हुआ है, आप युद्ध में न जाए¡।´ चुण्डावत सरदार ने उत्तर दिया, ``महाराणा! राजपूतों के लिए युद्ध भी विवाह के समान ही है। युद्ध में मौत का वरण किया जाता है। युद्ध में भाग लेना ही राजपूतों का धर्म है।´´
चुण्डावत सरदार महाराणा की आज्ञा प्राप्त कर अपनी हवेली पहु¡चे और रानी को दरबार में हुई बात के बारे मेें जानकारी दी। अपने वीर पति की वीरता से रोमांचित रानी प्रसन्न हो उठी, उसने सोचा मेरा जीवन धन्य हो गया, जो मुझे ऐसे वीर पति मिले। मैं आदशZ क्षत्राणी धर्म का पालन करू¡गी। हाड़ी रानी ने अपने हाथों से अपने पति को अस्त्र-शस्त्र धारण कराये, टीका लगाया और आरती उतार कर युद्ध क्षेत्र के लिए विदा किया।
चुण्डावत सरदार ने सेना के साथ युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया किन्तु जाते समय उन्हें अपनी नव-विवाहिता पत्नी की याद सताने लगी। उन्होंने अपने एक सेवक से कहा, ``जाओ! रानी से सैनाणी (निशानी) लेकर आओ।´´ सेवक ने हवेली में जाकर सरदार का संदेश सुनाया। रानी ने सोचा युद्ध क्षेत्र में भी उन्हें मेरी याद सतायेगी तो वे कमजोर पड़ जायेंगे, युद्ध कैसे कर पायेंगे। मैं उनके कर्तव्य में बाधक क्यों बनू¡? यह सोचकर हाड़ी रानी ने सेवक के हाथ से तलवार लेकर सेवक को अपना सिर ले जाने का आदेश देते हुए तलवार से अपना सिर काट डाला। सेवक रानी का कटा सिर अपनी थाली में लेकर, सरदार के पास पहु¡चा। रानी का बलिदान देखकर चुण्डावत की भुजाए¡ फड़क उठी। उत्साहित सरदार तलवार लेकर शत्रु-दल पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए ।
स्रोत: वीर बालिकाए¡, गीताप्रेस gorakhapur; सामाजिक विज्ञान (पर्यावरण अध्ययन-1) कक्षा- 4, राजस्थान राज्य पाठयपुस्तक मण्डल, जयपुर; स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी-िशवतोष दास, ´पोस्ट बॉक्स नं.11 कुचामन शहर -341508 राजस्थान

राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।



राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग



राजकुमारी रत्नावती :- जैसलमेर-नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने गये थे। जैसलमेर-किले की रक्षा उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंप दी थी। इसी दौरान दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने घेर लिया, जिसका सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुगल सेना ने घेरा डाल लिया किन्तु राजकुमारी रत्नावती इससे घबरायी नहीं और सैनिक वेश में घोड़े पर बैठी किले के बुर्जों व अन्य स्थानों पर घूम-घूम कर सेना का संचालन करती रही।

रत्नावती की फुर्ती, जागरूकता व कौशल के कारण मुगल सेना चाहकर भी आक्रमण न कर सकी और उसे अपने बहुत से वीर खोकर पीछे हटना पड़ा। जब मुगल सैनिकों ने देखा कि किले को तोड़ा नहीं जा सकता, तब एक दिन बहुत-से सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती ने रणनीतिक कौशल का प्रयोग करते हुए पहले तो अपने सैनिक हटा लिए और उन्हें चढ़ने दिया, वे जब दीवार पर चढ़ आये तब उसने उनके ऊपर पत्थर बरसाने व गरम तेल डालने की आज्ञा दे दी, इससे शत्रु का वह दल नष्ट हो गया।

एक दिन एक मुगल सैनिक छिपकर रात में किले पर चढ़ने लगा किन्तु राजकुमारी रत्नावती की नजरों से बचना संभव न था। उस सैनिक ने पहले तो यह कहकर धोखा देना चाहा, ``मैं तुम्हारे पिता का संदेश लाया हू¡।´ किंतु रत्नावती धोखे में आने वाली नहीं थी, उसने उस शत्रु-सैनिक को बाणों से बींध दिया।

मुगल सेनापति मलिक काफूर ने यह सोचकर कि वीरता से जैसलमेर का किला जीतना कठिन है। उसने बूढ़े द्वारपाल को सोने की ईंटें दीं और कहा कि वह रात को किले का फाटक खोल दे। द्वारपाल ने रत्नावती को यह बात बतला दी। रत्नावती ने द्वारपाल को रात में किले का फाटक खोलने के लिए कह दिया।

आधी रात को मलिक काफूर सौ सैनिकों के साथ किले के फाटक पर आया। बूढ़े द्वारपाल ने रत्नावती के निर्देशानुसार फाटक खोलकर उन्हें अन्दर घुसा लिया और फाटक बन्द करके उन्हें रास्ता दिखाता हुआ आगे ले चला। थोड़ी दूर आगे जाकर वह किसी गुप्त मार्ग से गायब हो गया। मलिक काफूर व उसके सैनिक हैरान रह गये। किले के बुर्ज पर खड़ी राजकुमारी को हंसते देखकर वे समझ गये कि उन्हें कैद कर लिया गया है।

सेनापति के पकड़े जाने पर मुगल सेना ने किले को घेर लिया। किले के भीतर का अन्न समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास करने लगे। रत्नावती भूख से दुर्बल होकर पीली पड़ गयी किन्तु ऐसे संकट में भी उसने राज-धर्म का पालन किया। अपने यहाँ कैद शत्रुओं को पीड़ा नहीं दी। रत्नावती अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी अन्न देती थी, किंतु मुगल बंदियों को दो मुट्ठी अन्न रोज दिया जाता था।

अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर किले में सेनापति कैद है और किले को जीतने की आशा नहीं है तो उसने महारावल रत्नसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा। राजकुमारी ने एक दिन देखा मुगल सेना अपने तम्बू-डेरे उखाड़ रही है और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं। मलिक काफूर जब किले से छोड़ा गया तो उसने कहा-`राजकुमारी साधारण लड़की नहीं, वे वीरांगना तो हैं ही, देवी भी हैं। उन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। वे तो पूजा करने योग्य हैं।´

विद्युल्लता :- विद्युल्लता चित्तौड़ के एक सरदार की कन्या थी जिसकी सगाई समरसिंह नाम के राजपूत सरदार के साथ हो गयी थी। दोनों के विवाह की तैयारी चल रहीं थी कि चित्तौड़ पर अलाउद्दीन ने आक्रमण कर दिया। समरसिंह को अपने देश की रक्षा के लिए युद्ध में जाना पड़ा। विद्युल्लता एकान्त में रहती व अपने पति का चिन्तन किया करती।

एक दिन चांदनी रात में समरसिंह विद्युल्लता के घर आया और अकेले में उससे मिलकर बोला` `मुझे लगता है कि अब थोड़े दिनों में ही चित्तौड़ मुगलों के हाथ में चला जायगा। मुसलमान सैनिक बहुत अधिक हैं, अत: राजपूतों को हारना ही पड़ेगा। अत: मेरी इच्छा है कि हम-तुम कहीं दूर भाग चलें।´

विद्युल्लता गरज उठी-`तुम सोचते हो, मैं तुम्हारे जैसे कायर से विवाह करूंगी ? कोई राजपूत-कुमारी युद्ध के भगोड़े पर थूकना भी न चाहेगी। तुम्हें मेरा हाथ पकड़ना है तो युद्ध में जाकर अपनी वीरता दिखाओ। युद्ध में मारे गये तो सती होकर स्वर्ग में, मैं तुमसे मिलूंगी ।´ विद्युल्लता समरसिंह को फटकार कर अपने घर चली गयी।

समरसिंह निराश होकर लौट पड़ा। वह अलाउद्दीन की सेना से डर गया था। वह विद्युल्लता की सुन्दरता पर मोहित था। अत: मरने से डर लगता था। उसने सोचा युद्ध समाप्त होने पर विद्युल्लता उसे मिल सकती है। वह शत्रुओं से मिल गया।

जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीत लिया समरसिंह मुगल सैनिकों के साथ विद्युल्लता से मिलने चला। विद्युल्लता ने समरसिंह को मुगल सैनिकों के साथ आते देखा तो वह समझ गयी कि यह देशद्रोही है। पास पहुंचकर समरिंसंह ने विद्युल्लता का हाथ पकड़ना चाहा, किंतु वह पीछे हट गयी और डांटकर बोली-`अधम देशद्रोही! मेरे शरीर को स्पर्श कर मुझे अपवित्र मत कर। शत्रुओं से मिलकर मेरे पास आते हुए तुझे लज्जा नहीं आयी? जा, कहीं चुल्लू भर पानी में डूब मर। विश्वासघाती कायरों के लिए यहाँ स्थान नहीं है।´

समरसिंह विजय के घमण्ड में था। वह विद्युल्लता को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन विद्युल्लता ने अपनी कटार खींच ली और अपनी छाती में दे मारी और दिव्य लोक को प्रस्थान किया। समरसिंह के हाथ लगा केवल उसका प्राणहीन शरीर और देश से विश्वासघात करने का कलंक। इस प्रकार स्वाभिमानी वीरांगना ने देशद्रोही को पति स्वीकार कर ऐश्वर्य भोगने की अपेक्षा मृत्यु का वरण करना उचित समझा।

वीरांगना कृष्णा :- मेवाड़ महाराजा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा अत्यन्त सुन्दरी थी। जयपुर और जोधपुर के नरेशों ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। मेवाड़ महाराणा ने सब बातों पर विचार करके जोधपुर नरेश के यहाँ कृष्णा की सगाई भेजी। जयपुर नरेश इस बात से चिढ़ गये और चित्तौड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे।

जोधपुर-नरेश इस बात को कैसे सहन करते कि उनके साथ सगाई करने के कारण चित्तौड़ पर आक्रमण हो। अत: जयपुर और जोधपुर राज्यों के बीच युद्ध ठन गया। जयपुर नरेश जोधपुर को हराने में सफल रहे। अब उन्होंने मेवाड़-नरेश के पास सन्देश भेजा कि अपनी पुत्री का विवाह वे उनसे कर दें।

मेवाड़ के महाराणा ने उत्तर दिया- `मेरी पुत्री कोई भेड़-बकरी नहीं है कि लाठी चलाने वालों में जो जीते, वह घेर ले जाय। मैं उसके भले-बुरे का विचार करके ही उसका विवाह करूंगा। ´

जयपुर-नरेश ने मेवाड़ के पास पड़ाव डाल दिया और कहला भेजा-`कृष्णा अब मेवाड़ में नहीं रह सकती। या तो उसे मेरी रानी बनकर रहना होगा या मेरे सामने से उसकी लाश ही निकलेगी।´ मेवाड़ की छोटी सेना जयपुर-नरेश का युद्ध में सामना नहीं कर सकती थी, किन्तु धमकी पर पुत्री को देना तो देश के पराजय से भी बड़ा अपमान था। अन्त में महाराणा भीमसिंह ने जयपुर नरेश की बात पकड़ ली- `कृष्णा की लाश ही निकलेगी।´

राजमहल में हा-हाकार मच गया। कृष्णा ने जब यह सुना तो वह ऐसी प्रसन्न हुई, जैसे उसे कोई बहुत बड़ा उपहार मिल गया हो। उसने अपनी माँ को समझाया- `माँ! आप क्षत्राणी होकर रोती हो? अपने देश के सम्मान के लिए मर जाने से अच्छी बात क्या हो सकती है? माँ! तुम्हीं तो बार-बार कहा करती थीं कि देश के लिए मर जाने वाला धन्य है। देवता भी उसकी पूजा करते हैं।´

अपने पिता महाराणा से उस वीर बालिका ने कहा-`पिताजी! आप राजपूत हैं, पुरुष हैं और फिर भी रोते हैं? चित्तौड़ के सम्मान की रक्षा के लिए तो मैं सौ-सौ बार मरने के लिए तैयार हूँ । मुझे विष का प्याला दीजिये।´

कृष्णा को विष का प्याला दिया गया, जिसे वह गटागट पी गई। जब कृष्णा की लाश निकली उस बलिदानी बालिका के लिए जयपुर-नरेश ने भी हाथ जोड़कर सिर झुका दिया और उनकी आंखों से भी आंसू टपकने लगे।

वीर बाला चम्पा :- महाराणा प्रताप परिस्थितियों के कारण वन-वन भटक रहे थे किन्तु उन्होंने मुगलों के सामने झुकना मंजूर नहीं किया। महाराणा को बच्चों के साथ दिन रात पैदल चलना पड़ता था। बहुधा बच्चों को उपवास करना पड़ता था। तीन-तीन, चार-चार दिन जंगली बेर व घास की रोटियों पर निकल जाते। कई बार ऐसा अवसर भी आता कि घास की रोटियां भी बनाते-बनाते छोड़कर भागने को विवश होना पड़ता।

महाराणा की पुत्री चम्पा ग्यारह वर्ष की थी। चम्पा एक दिन अपने चार-वर्षीय भाई के साथ नदी किनारे खेल रही थी। कुमार को भूख लगी थी। वह रोटी मांगते हुए रोने लगा। उस चार वर्ष के बच्चे में समझ कहां थी कि उसके माता-पिता के पास अपने युवराज के लिए रोटी का टुकड़ा भी नहीं है। चम्पा ने अपने भाई को कहानी सुनाकर व फूलों की माला पहनाकर बहला दिया। राजकुमार भूखा ही सो गया।

चम्पा जब अपने छोटे भाई को गोद में लेकर माता के पास सुलाने आई तो महाराणा को चिन्ता में डूबे हुए देखकर बोली, ``पिताजी! आप चिन्तित क्यों हैं?´´ `बेटी! हमारे यहां एक अतिथि पधारे हैं। आज ऐसा भी दिन आ गया है कि चित्तौड़ के राणा के यहां से अतिथि भूखा चला जाय।´ महाराणा ने उत्तर दिया।

चम्पा बोली, `पिताजी! आप चिन्ता न करें! हमारे यहां से अतिथि भूखा नहीं जायेगा। आपने मुझे कल जो दो रोटियां दी थीं, वे मैंने भाई के लिए बचा कर रखीं थीं, वह सो गया है। मुझे भूख नहीं है। आप उन रोटियों को अतिथि को दे दीजिये।´ पत्थर के नीचे दबाकर रखी घास की रोटियां पत्थर हटाकर चम्पा ले आई। थोड़ी सी चटनी के साथ वे रोटियां अतिथि को दे दी गयीं। अतिथि रोटी खाकर चला गया।

महाराणा बेटी के त्याग को देखकर द्रवित हो उठे, उनसे अपने बच्चों का कष्ट देखा नहीं गया। उस दिन उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र लिख दिया। ग्यारह-वर्षीय सुकुमार बालिका चम्पा दो-चार दिन में तो घास की रोटी पाती थी और उसे भी बचाकर रख लिया करती थी। अपने भाग की रोटी वह अपने भाई को थोड़ी-थोड़ी करके खिला देती थी। भूख के मारे वह स्वयं दुर्बल व कृश-काय हो गई थी। उस दिन अतिथि को रोटियां देने के बाद वह मूर्छित भी हो गयी।

महाराणा ने उसे गोद में उठाते हुए रोकर कहा- `मेरी बेटी! अब मैं तुझे और कष्ट नहीं दूंगा। मैंने अकबर को पत्र लिख दिया है।´ यह सुनकर चम्पा मूर्छा में भी चौक पड़ी, बोली, `पिताजी! आप यह क्या कहते हैं? हमें मरने से बचाने के लिए आप अकबर के दास बनेंगे? पिताजी! हम सब क्या कभी मरेंगे नहीं? पिताजी! देश को नीचा मत दिखाइये! देश और जाति की गौरव-रक्षा के लिए लाखों लोगों का मर जाना भी उत्तम है। पिताजी! आपको मेरी शपथ है, आप अकबर की अधीनता कभी स्वीकार न करें।´ बेचारी चम्पा महाराणा की गोद में ही सदा के लिए चुप हो गयी।

कहा जाता है जब अकबर के दरबार में महाराणा का पत्र पहुंचा तो पत्र देखकर पृथ्वीराजजी ने पत्र की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए महाराणा को पत्र लिखा और उसे पढ़कर महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने का विचार त्याग दिया। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि बालिका चम्पा ने अपने बलिदान से ही महाराणा को दृढ़ता देकर हिंदुकुल गौरव की रक्षा की।

Monday, November 24, 2008

राजस्थान की वीर-नारियाँ -द्वितीय भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा ।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।।


राजस्थान की वीर-नारियाँ -द्वितीय भाग

कृषक कन्या हम्मीर माता :- कृषक कन्या हम्मीर माता जब अपने खेतों की रखवाली पर थी, उसने देखा कि चित्तौड़ के महाराणा लक्ष्मणसिंह के सबसे बड़े कुमार अरिसिंहजी अपने साथियों के साथ घोड़ा दौड़ाये एक जंगली सूअर का पीछा करते हुए चले आ रहे हैं। सूअर डरकर उसी के बाजरे के खेत में घुस गया। कन्या अपने मचान से उतरी और घोड़ों के सामने खड़ी हो गयी। बड़ी ही विनम्रता के साथ बोली, `राजकुमार! आपलोग मेरे खेत में घोड़ों को ले जायेंगे तो मेरी खेती नष्ट हो जायेगी। आप यहाँ रुकें, मैं सूअर को मारकर ला देती हू¡।´

राजकुमार आश्चर्य से देखते रह गये। उन्होंने सोचा यह लड़की नि:शस्त्र सूअर को कैसे मारकर लायेगी? उस लड़की ने बाजरे के एक पेड़ को उखाड़कर तेज किया और खेत में निर्भय होकर घुस गयी। थोड़ी ही देर में उसने सूअर को मारकर राजकुमार के सामने ला पटका। राजकुमार का काफिला लौटकर पड़ाव पर आ गया। जब वे लोग स्नान कर रहे थे, तब एक पत्थर आकर उनके एक घोड़े के पैर में लगा, जिससे घोड़े का पैर टूट गया। वह पत्थर उसी कृषक-कन्या ने अपने मचान से पक्षियों को उड़ाने के लिए फेंका था। राजकुमार के घोड़े की दशा देखकर वह दौड़कर आई और क्षमा मा¡गने लगी।

राजकुमार बोले, `तुम्हारी शक्ति देखकर मैं आश्चर्य मैं पड़ गया हू¡। मुझे दु:ख है कि तुम्हें देने योग्य कोई पुरस्कार इस समय मेरे पास नहीं है।´

कृषक-कन्या ने विनम्रता से कहा, ``अपनी गरीब प्रजा पर कृपा रखें, यही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरस्कार है।´´ इतना कहकर वह चली गई। संयोग से जब राजकुमार व उनके साथी सायंकाल घोड़ों पर बैठे जा रहे थे, तब उन्होंने देखा, वही लड़की सिर पर दूध की मटकी रखे दोनों हाथों से दो भैंसों की रस्सियाँ पकड़े जा रही है। राजकुमार के एक साथी ने विनोद में उसकी मटकी गिराने के लिए जैसे ही अपना घोड़ा आगे बढ़ाया। उस लड़की ने उसका इरादा समझ लिया और अपने हाथ में पकड़ी भैंस की रस्सी को इस प्रकार फेंका कि उस रस्सी में उस सवार के घोड़े का पैर उलझ गया और घोड़े सहित वह भूमि पर आ गिरा।

निर्भय बालिका के साहस पर राजकुमार अरिसिंह मोहित हो गये, उन्होंने पता लगा लिया कि यह एक क्षत्रिय कन्या है। स्वयं राजकुमार ने उसके पिता के पास जाकर विवाह की इच्छा प्रकट की और वह साहसी वीर बालिका एक दिन चित्तौड़ की महारानी बनी जिसने प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दिया।


पन्नाधाय :- पन्नाधाय के नाम को कौन नहीं जानता? वे राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। राणा सांगा के पुत्र उदयसिंह को मा¡ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना धाय मा¡ कहलाई। पन्ना का पुत्र व राजकुमार साथ-साथ बड़े हुए। उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला अत: उसे पुत्र ही मानती थी।

दासी पुत्र बनवीर चित्तौड़ का शासक बनना चाहता था। उसने एक-एक कर राणा के वंशजों को मार डाला। एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या कर, बनवीर उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई।

पन्ना राजवंश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महलों से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उसके पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उदयसिंह के बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंक की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।

पन्ना अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। धन्य है स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आ¡खों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
वीरांगना कालीबाई :- वीरांगनाओं के इतिहास में केवल राजपूतनियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई है। यहाँ तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पड़ने पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चा¡द लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियाँ सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रहीं हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामो में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का।

स्वाधीनता आन्दोलन चल रहा था। वनवासी अंचल को गुलामी का अँधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राज्य सत्ता कमजोर होगी।

राजा ने अपने क्षेत्र के वनवासी अंचल में सभी विद्यालय बन्द करने का आदेश दिया। नानाभाई डूंगरपुर जिले के वनवासियों के मध्य शिक्षा के प्रसार के काम में लगे थे। वे गांव-गांव जाकर वनवासियों को शिक्षा का महत्व समझाते व पाठशालायें खोलते। डूंगरपुर के महाराज लक्ष्मण सिंह ने क्षेत्र के 25 वर्ष पुराने छात्रावास को बन्द करवाने के बाद नानाभाई के पास आदेश भिजवाया कि वे अपनी पाठशालायें बन्द करें। लेकिन नानाभाई नहीं माने।

अवज्ञा से क्षुब्ध मजिस्ट्रेट 19 जून 1947 को पाठशाला पहुंचे , जहाँ नानाभाई का घर भी था। उस समय नानाभाई अन्य अध्यापक सेंगाभाई से बातचीत कर रहे थे। मजिस्ट्रेट ने उन्हें बुलाया और धमकाते हुए आज्ञा दी कि पाठशाला बन्द करके चाबी उन्हें दें।

पाठशाला बन्द करना नानाभाई को स्वीकार नहीं था। अत: नानाभाई व उनके साथी अध्यापकों को पीटा जाने लगा। मजिस्ट्रेट उन्हें पीटते हुए अपने शिविर तक ले जाने लगा। इतने में ही एक नन्ही बालिका जो उसी समय घास काट कर लाई थी, चिल्लाते हुए ट्रक के पीछे दौड़ी, ``अरे, तुम लोग मेरे मास्टरजी को क्यों ले जा रहे हो? छाड़ दो! इन्हें छोड़ दो!

हाथ में हंसियां, पाँव में बिजली और मुख से कातर पुकार करती वह बच्ची न बन्दूकों से घबराई और न पुलिस की डरावनी धमकियों से। उसे तो बस अपने मास्टरजी दिखाई दे रहे थे। बालिका को देखकर वनवासी भी उत्साहित हो उठे और पीछे दौड़े। यह देखकर पुलिस अधिकारी ने बौखलाकर बन्दूक तानकर कहा, ``ऐ लड़की, वापस जा, नहीं तो गोली मार दू¡गा।´´

लड़की ने उसकी बात को अनुसुना कर ट्रक के पीछे दौड़ते हुए वह रस्सी काट दी, जिससे बांधकर नानाभाठ व सेंगाभाई को घसीटा जा रहा था। पुलिस की बन्दूक गरजी और बालिका की जान ले ली। कालीबाई के मरते ही वनवासियों ने क्रोधोन्मत्त हो मारू बाजा बजाना शुरु कर दिया और पुलिस की बन्दूकों की परवाह न करते हुए उन्हें मारने के दौड़े। गोलियों से कई अन्य भील महिलायें भी घायल हुईं। अपनी दुर्गति का अन्दाजा लगा, पुलिस व मजिस्ट्रेट जीप में भाग निकले।

घायलों को तीस मील दूर अस्पताल में इलाज के लिए ले जाया गया। कालीबाई के साथ घायल हुईं अन्य भील महिलायें नवलीबाई, मोगीबाई, होमलीबाई तथा अध्यापक सेंगाभाई बच गये। वे स्वतंत्रता के बाद भी भीलों के मध्य काम करते रहे, किन्तु नानाभाई को नहीं बचाया जा सका और वीर बाला कालीबाई भी नानाभाई का अनुशरण करते हुए चिर-निद्रा में लीन हो गई। डू¡गरपुर में नानाभाई व कालीबाई की स्मृति में उद्यान बनाया गया है और उनकी मूर्तिया भी स्थापित की गईं हैं।

राजस्थान की वीर-नारियां :- प्रथम भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।
सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।

राजस्थान की वीर-नारियां :- प्रथम भाग


भारत एक विकासोन्मुखी देश है। यहाँ के निवासी केवल भौतिक ही नहीं अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक विकास की ओर भी जागरूक रहते हैं। हम केवल धन की बात नहीं करते, हमारी संस्कृति व परंपरा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की बात करती है। हमारे यहाँ शरीर ही नहीं आत्मिक शक्ति के विकास पर पर्याप्त दिया जाता है। आत्मा के स्तर पर सभी प्राणियों को एक ही स्तर पर माना जाता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है तथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास करके पूर्णता अर्थात परमात्मा तक पहुँचने के प्रयत्न करके अपने आप को परमात्मा से एकाकार कर सकता है। धर्म, संप्रदाय, जाति या लिंग के आधार पर विकास में कोई अन्तर नहीं होता। नर हो या नारी सभी को उनकी प्रकृति के अनुसार विकास के समान अवसर उपलब्ध होते हैं। परमात्मा के साथ संबन्ध स्थापित करने का मार्ग केवल पूजा-पाठ से होकर ही नहीं जाता, हमारी मान्यता है कि व्यक्ति किसी भी मार्ग से परमात्मा के पास पहुँच सकता है। हमारे यहाँ पूजा को ही नहीं, युद्ध को भी स्वर्ग का साधन माना गया है। भारत भूमि को वीर प्रसू कहा जाता है।
केवल संसार से विराग अर्थात संन्यास ही धर्म का मार्ग नहीं है, युद्ध भी धर्म का का मार्ग है। देश व समाज के लिए युद्ध करते हुए प्राण उत्सर्ग करने वाले भी वीरगति को प्राप्त होते हैं। गीता में भी भगवान कृष्ण भक्ति योग, ज्ञान योग व कर्म योग का उपदेश देते हुए अर्जुन को युद्ध के लिए ही तैयार करते हैं। वस्तुत: सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है। इस संग्राम को जो देश व समाज के हित में लड़ते हैं वे इस लोक में ही नहीं परलोक में भी श्रेष्ठ स्थान पाते हैं। ऐसा भारतीय दर्शन का मानना है। वीरता भी धर्म का एक आवश्यक अंग है। वीरता के पथ को अंगीकार करने वाले वीर व वीरांगनाओं की भारत में कमी नहीं रही है।
केवल राजपूतों या राज-परिवारों तक ही वीरता सीमित नहीं होती। आवश्यकता पड़ने पर भारत के किसान भी हल को ही औजार बनाकर आगे आते हैं। हाथों को चूढ़ियों से सजाने वाली भारतीय नारी भी वीरता में कभी पीछे नहीं रही हैं। नारियों ने आवश्यकतानुसार घर को सभांलकर जहाँ पुरूष को शक्तिशाली बनाया है, वहीं आवश्यकतानुसार स्वयं आगे बढ़कर भी दुष्टों को धूल चटाई है। अभिमानियों का अभिमान भंग किया है।
यद्यपि संपूर्ण भारत भूमि ही नर-नारियों की वीरता की कहानी कहती है, तथापि राजस्थान की माटी में बहादुरी व साहस कूट-कूट कर भरा है। यहाँ की नारियों की बात करें तो ये भारत की वीरांगनाओं में विशेष स्थान रखती हैं। वैदिक युग से लेकर मुगल काल तक ही नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी राजस्थान की वीरांगनाओं का योगदान स्तुत्य रहा है। राजस्थान में ऐसी वीरांगनाओं का इतिहास मिलता है जिनके शौर्य और बलिदान की गाथाएँ दन्तकथा बनकर आज भी घर-घर में सुनी जाती हैं। यहाँ माताएं पालने में ही शिशुओं को देशभक्ति की लोरियां सुनाती रही हैं। अपने पति व भाइयों को खुशी-खुशी न केवल लड़ने के लिए युद्ध के लिए टीका लगाकर विदा करती रही हैं वरन् उनके कमजोर पड़ने पर उन्हें धिक्कारा व दुत्कारा भी है। यही नहीं वे युद्धक्षेत्र में उनकी याद करके कमजोर न पड़े इस उद्देश्य से अपना बलिदान भी दिया है। समय-समय पर मातृभूमि की रक्षा के लिए राजस्थान की नारियां बलिदान देने से पीछे नहीं हटी हैं। राजस्थान की नारियों में त्याग व बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है। अपने परिवार के लिए प्रेम व वात्सल्य की बर्षा करने वाली नारी अपनी व अपने परिवार की आन व शान की रक्षा की खातिर दुर्गा व चण्डी का रूप भी धारण करती है। इस प्रकार के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
राजस्थान की रानी पद्मिनी जहाँ काव्य में सौन्दर्य का प्रतिमान बनकर सामने आती हैं। वही जौहर व्रत के साथ वीरांगना रूप भी देखने को मिलता है। उनके पति युद्ध क्षेत्र में नि:श्चिंत होकर मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध कर सकें, इस उद्देश्य के लिए जीवित ही चिता की भेंट चढ़ जाना, युद्ध क्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने से भी अधिक दुष्कर कार्य है। राजकुमारी रत्नावती ने किस प्रकार किले की रक्षा में शत्रु से लोहा लिया और बन्दी सैनिकों के प्रति भी राजधर्म निभाया वर्तमान में बड़े-बड़े तथाकथित देशभक्तों के लिए दा¡तों तले उंगली दबाने वाली बात हो सकती है। वागदत्ता विद्युल्लता द्वारा अपने होने वाले देशद्रोही पति के स्पर्श से बचने के लिए अपने प्राणों का ही बलिदान दे देना, आज के भोगवादी युग में केवल किवदंती लगता है। कुछ आधुनिकाएं इसे मूर्खता भी कह सकती हैं किन्तु इससे उनके बलिदान का मूल्य कम नहीं हो जाता। राज्य के सम्मान के लिए जहर पीने वाली कृष्णा ही नहीं, महाराणा प्रताप को उनके धर्म पर दृढ़ करने वाली बालिका चम्पा के बलिदान वर्तमान भटकती हुई पीढ़ी के लिए आदर्श होने चाहिए। रानी कर्मवती और हाड़ी रानी जैसी राजपुतानियाँ ही नहीं सामान्य वनवासी बालिका कालीबाई व पन्नाधाय जैसी नारियां भी बलिदान देने से पीछे नहीं रहीं। अपनी वीरता व शक्ति के बल पर ही एक सामान्य कृषक कन्या प्रसिद्ध राणा हम्मीर को जन्म दे सकी।

Wednesday, November 19, 2008

यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।

यहाँ वही है हंसता दिखता
स्वार्थ ही हमको नित्य रुलाता, स्वार्थ ही नित तड़फाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
तू कांटो को फूल समझ ले,
आग को ही तू कूल समझ ले
भूल हुई जो सुधर न सकती,
खुशियाँ अपनी धूल समझ ले।
जो भी बनता साथी यहा¡ पर, रस लेकर उड़ जाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
हँसने वाले बहुत मिलेंगे
चन्द क्षणो को साथ चलेंगे
सुख-सुविधा जब तक दे पाये
तेरे साथ में चलते रहेगें।
जिसको तेरी चाहत होती, उसको नहीं तू भाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।
मृत्यु मित्र है, आनी ही है,
प्रेम से गले लगानी ही है
स्वार्थ-दहेज की आकांक्ष क्यों?
मृत्यु-प्रेयसी पानी ही है।
दुनिया में जो प्रेम ढूढ़ता, अश्रु वही छलकाता है।
यहाँ वही है हंसता दिखता, नित रोकर जो गाता है।।

Friday, November 14, 2008

और देखते ही देखते हिन्दी पखवाड़े में हिन्दी समाप्त हो गई

वह केन्द्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अन्तर्गत स्वायत्तशासी निकाय द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय में हिन्दी का अध्यापक था। उसका कसूर यह था कि वह न केवल स्वयं ईमानदार था वरन अपने अधिकारियों के अनियमित कृत्यों में सहयोग भी नहीं देता था। उसके प्राचार्य व उच्चाधिकारियों ने कई बार उसे समझाने का प्रयास भी किया था कि उसकी नौकरी ईमानदारी पर नहीं, अधिकारियों की आज्ञाओं की अनुपालनाओं पर निर्भर है।
ईमानदारी व खुद्दारी के कारण उसकी नौकरी का प्राबेशन भी चार वष में पूरा हो सका था, उसके बाबजूद वह सुधरने का नाम ही नहीं ले रहा था। सम्पूर्ण भारत को एक मानने के कारण वह स्थानांतरण के लिए भी कोिशश नहीं करता था। संस्था द्वारा कम से कम स्थानान्तरण की नीति के कारण प्राचार्य महोदय द्वारा उसके स्थानांतरण के लिए किए गये प्रयास भी सफल नहीं हो सकते थे। अत: प्राचार्य महोदय ने विद्यालय से हिन्दी को ही समाप्त करने की योजना बनाई।
प्राचार्य महोदय ने हिन्दी के विकल्प के रूप में कम्प्यूटर विज्ञान प्रारंभ की व सभी छात्रों को प्रोत्साहित किया कि वे हिन्दी छोड़कर कम्प्यूटर साइन्स जो कि एक आधुनिक विषय है और उनके कैरियर के लिए महत्वपूर्ण है , लें । प्राचार्य महोदय के बार-बार समझाने के बाबजूद कुछ छात्र/छात्रा, विशेष कर कला वर्ग के छात्रों को कम्प्यूटर में कठिनाई महसूस हुई और वे हिन्दी में टिके रहे। इस प्रकार प्राचार्य महोदय का हिन्दी हटाओ अभियान का प्रथम चरण असफल रहा।
प्राचार्य महोदय बड़े ही ध्ौर्यवान, मधुरभाषी, नियोजन व प्रबंधन में पटु थे। उन्होंने अपने प्रयत्नों को विराम नहीं दिया। विद्यालय में 14 सितम्बर से 28 सितम्बर तक केन्द्रीय व संभागीय कार्यालय के निर्देशों के अनुरूप हिन्दी पखवाड़ा मनाया जा रहा था। उसी दौरान प्राचार्य महोदय ने एक बार पुन: शारीरिक िशक्षा व कला के िशक्षकों को विश्वास में लिया व उनके सहयोग से छात्र/छात्राओं की काउंसलिंग की तथा उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि हिन्दी की अपेक्षा शारीरिक िशक्षा व कला उनके कैरियर के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। जो छात्र उनकी बात से सहमत नहीं हुए उन्हें कहा गया कि क्योंकि यहा¡ हिन्दी के छात्रों की संख्या कम हो गयी है। अत: यदि वे हिन्दी लेते हैं तो उन्हें दूसरे विद्यालय में भेज दिया जायेगा या वे अपना स्थानान्तरण प्रमाण पत्र लेकर किसी दूसरे विद्यालय में जाकर पढ़ सकते हैं। छात्र-छात्राए¡ उनके अप्रत्यक्ष दबाब में आ गए क्योंकि वे न तो स्थानान्तरण प्रमाण पत्र लेकर किसी अन्य विद्यालय में जाना चाहते थे और न ही प्रवासी छात्र के रूप में उसी संस्था के किसी अन्य विद्यालय में जाना चाहते थे।
प्राचार्य महोदय ने बार-बार छात्रों को यह भी कहा कि वे उन पर कोई दबाब नहीं डाल रहे हैं, वे केवल उनके भविष्य को ध्यान में रखते हुए सलाह दे रहे हैं। इस प्रकार प्राचार्य महोदय बिना किसी प्रकार का अनियमित कार्य किये ही अपने उद्देश्य में सफल हो गये और देखते ही देखते हिन्दी पखवाड़े में हिन्दी समाप्त हो गई।
हिन्दी के अध्यापक महोदय उनकी इसी कार्यशैली के प्रशंसक व वैयक्तिक रूप से प्राचार्य महोदय की प्रशासनिक क्षमता के दीवाने थे।

Sunday, November 2, 2008

`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।

हिन्द-युग्म बेबसाइट के नियंत्रक व हिन्दी सेवी श्री शैलेश भारतवासी ने मेरी आगामी पुस्तक ``चिन्ता छोड़ो - सुख से नाता जोड़ो´´ को अपना अमूल्य समय निकालकर पढ़ा और अपने विचारों को लिपिबद्ध करके मेरे पास तक पहुँचाया, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । श्री शैलेश जी ने मेरी तुलना आम आदमी से की है, मुझे प्रसन्नता हुई। मैं आम आदमी ही बना रहना चाहता हूँ । मुझे विशिष्ट बनने की आकांक्षा नहीं है। भारतवासी जी ने मेरी तुलना में कर्ण, गीता प्रेस, व आस्था व संस्कार जैसे टीवी चैनलों को प्रयोग किया है। यह मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के लिए कुछ ज्यादा ही हो गया है। कर्ण, गीता प्रेस, आस्था व संस्कार के सामने मेरा लेखन कहाँ ठहरता है। उसके बाबजूद मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए अपने अमूल्य सुझाव भी दिए है। भारतवासी जी की टिप्पणी को हूबहू देने का प्रयास कर रहा हूँ ।


`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।


एक आम आदमी बेतरतीब पहनता है, बेतरतीब खाता है, बेतरतीब चलता है और बेतरतीब बोलता है। या यूँ कह लीजिए कि आम आदमी एक ऐसा घोड़ा है जिसकी लगाम अमूमन मुक्त रहती है। दुनिया भी अजीबोगरीब तरीके से व्यवस्थित है, तथा चारों ओर केवल अव्यवस्थित व्यवस्था दिखती है।

संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी एक ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें परिधि में बंधना नहीं आता। लेखनी को ढीला छोड़ देते हैं, बातों को अपनी मर्जी से मोड़ते हैं, किसी पैरोकार में नहीं बंधते । मीमांसा लिखते-लिखते वे प्रवचन करने लग जाते हैं, उपदेश देने लग जाते हैं। सुनी-सुनाई बातें दोहराने लगते हैं। पाठकों को सुखी रहने के साधन और माध्यम बतलाते हैं, मगर कब ये खुद दुनिया भर की चिंताओं और आशंकाओं से घिर जाते हैं, ये पाठक को भी पता नहीं चलता।

जिस प्रकार एक आम आदमी सफर शुरू करते ही मंजिल पर पहुचने की जल्दी करता है, उसी तरह संतोष भी अपनी बातों को त्वरित गति से स्थापित करने की जल्दी में दिखते हैं। कई-कई जगह तो जबरदस्ती करते हुए भी जान पड़ते हैं।

यह निबंध संग्रह भी एक आम निबंध संग्रह की तरह रसहीन है। न तो इसमें रोचक तत्वों का समावेश है और न ही भौचक तत्वों का। एक आम जिंदगी की बेमेल बातों की टोकरी खोल दी है संतोष ने। निबंध लेखन के खेल को संतोष नये खिलवाड़ की तरह खेलते हैं। जीतने की जल्दी में रहते हैं हमेशा।

लेखक के मन में बातों का अम्बार है, जिसे वो महादानी कर्ण की तरह लुटाता है। औषधि की तरह नहीं बल्कि मूल्यहीन चीजों की तरह लेखन की गलियों में बहा देना चाहता है। इसलिए कभी ये बाबा बन जाते हैं, कभी कवि तो कभी समाज-सुधारक। शुरू के दो-तीन निबंधों के बाद पाठक परेशान होने लगता है, यह किताब पहाड़ लगने लगती है और वो भी काफी ऊ¡ची। एक संघर्षशील और धैर्यवान पाठक जब सभी घाटियों को पार करके शीर्ष पर पहुचता है तो खुद को काफी ठगा-ठगा महसूस करता है। गोल-मटोल बातों का ढेर और कूड़ा उसके मस्तिष्क में जमा हो जाता है, जिसे वो जल्द न प्रयोग होने वाले कोनों में डालना चाहता है।

इस निबंध संग्रह को पढ़कर या तो गीता प्रेस, गोरखपुर से छपने वाली तमाम प्रेरणा दायक पुस्तकों की याद आती है या टीवी पर उपलब्ध आस्था और संस्कार जैसे चैनलों की। ऐसी किताबें और चैनल्स जिस तरह आज की पीढ़ी और उसकी भाषा के साथ तारतम्य नहीं बिठा पातीं, उसी तरह संतोष की लेखनी भी एन्टीक लगती है।
लेखक के पास बहुत सी बातें हैं, जिन्हें ये एक-एक करके ही कहें तो पाठक-सुलभ और ग्राह्य होंगी। मनन करे कि एक सामान्य व्यक्ति इन बातों से कितनी जल्दी या देर में सहमत होगा। बातों को विषय केंद्रित करे। अनावश्यक बातों का संपादन करे। निबंध लिखते रहने का अभ्यास करे। छपने की जल्दी न करे। सर्वप्रथम खुद को एक फिल्टर बनाये। लेखक में संभावनाए¡ हैं, बस वो दोहन करना सीख ले।

०६-०७-२००८ शैलेश भारतवासी

नई दिल्ली नियंत्रक, हिन्द-युग्म

www.hindyugm.com