Sunday, November 2, 2008

`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।

हिन्द-युग्म बेबसाइट के नियंत्रक व हिन्दी सेवी श्री शैलेश भारतवासी ने मेरी आगामी पुस्तक ``चिन्ता छोड़ो - सुख से नाता जोड़ो´´ को अपना अमूल्य समय निकालकर पढ़ा और अपने विचारों को लिपिबद्ध करके मेरे पास तक पहुँचाया, इसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । श्री शैलेश जी ने मेरी तुलना आम आदमी से की है, मुझे प्रसन्नता हुई। मैं आम आदमी ही बना रहना चाहता हूँ । मुझे विशिष्ट बनने की आकांक्षा नहीं है। भारतवासी जी ने मेरी तुलना में कर्ण, गीता प्रेस, व आस्था व संस्कार जैसे टीवी चैनलों को प्रयोग किया है। यह मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के लिए कुछ ज्यादा ही हो गया है। कर्ण, गीता प्रेस, आस्था व संस्कार के सामने मेरा लेखन कहाँ ठहरता है। उसके बाबजूद मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए अपने अमूल्य सुझाव भी दिए है। भारतवासी जी की टिप्पणी को हूबहू देने का प्रयास कर रहा हूँ ।


`चिंता छोड़ो- सुख से नाता जोड़ो´ पर एक टिप्पणी।


एक आम आदमी बेतरतीब पहनता है, बेतरतीब खाता है, बेतरतीब चलता है और बेतरतीब बोलता है। या यूँ कह लीजिए कि आम आदमी एक ऐसा घोड़ा है जिसकी लगाम अमूमन मुक्त रहती है। दुनिया भी अजीबोगरीब तरीके से व्यवस्थित है, तथा चारों ओर केवल अव्यवस्थित व्यवस्था दिखती है।

संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी एक ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें परिधि में बंधना नहीं आता। लेखनी को ढीला छोड़ देते हैं, बातों को अपनी मर्जी से मोड़ते हैं, किसी पैरोकार में नहीं बंधते । मीमांसा लिखते-लिखते वे प्रवचन करने लग जाते हैं, उपदेश देने लग जाते हैं। सुनी-सुनाई बातें दोहराने लगते हैं। पाठकों को सुखी रहने के साधन और माध्यम बतलाते हैं, मगर कब ये खुद दुनिया भर की चिंताओं और आशंकाओं से घिर जाते हैं, ये पाठक को भी पता नहीं चलता।

जिस प्रकार एक आम आदमी सफर शुरू करते ही मंजिल पर पहुचने की जल्दी करता है, उसी तरह संतोष भी अपनी बातों को त्वरित गति से स्थापित करने की जल्दी में दिखते हैं। कई-कई जगह तो जबरदस्ती करते हुए भी जान पड़ते हैं।

यह निबंध संग्रह भी एक आम निबंध संग्रह की तरह रसहीन है। न तो इसमें रोचक तत्वों का समावेश है और न ही भौचक तत्वों का। एक आम जिंदगी की बेमेल बातों की टोकरी खोल दी है संतोष ने। निबंध लेखन के खेल को संतोष नये खिलवाड़ की तरह खेलते हैं। जीतने की जल्दी में रहते हैं हमेशा।

लेखक के मन में बातों का अम्बार है, जिसे वो महादानी कर्ण की तरह लुटाता है। औषधि की तरह नहीं बल्कि मूल्यहीन चीजों की तरह लेखन की गलियों में बहा देना चाहता है। इसलिए कभी ये बाबा बन जाते हैं, कभी कवि तो कभी समाज-सुधारक। शुरू के दो-तीन निबंधों के बाद पाठक परेशान होने लगता है, यह किताब पहाड़ लगने लगती है और वो भी काफी ऊ¡ची। एक संघर्षशील और धैर्यवान पाठक जब सभी घाटियों को पार करके शीर्ष पर पहुचता है तो खुद को काफी ठगा-ठगा महसूस करता है। गोल-मटोल बातों का ढेर और कूड़ा उसके मस्तिष्क में जमा हो जाता है, जिसे वो जल्द न प्रयोग होने वाले कोनों में डालना चाहता है।

इस निबंध संग्रह को पढ़कर या तो गीता प्रेस, गोरखपुर से छपने वाली तमाम प्रेरणा दायक पुस्तकों की याद आती है या टीवी पर उपलब्ध आस्था और संस्कार जैसे चैनलों की। ऐसी किताबें और चैनल्स जिस तरह आज की पीढ़ी और उसकी भाषा के साथ तारतम्य नहीं बिठा पातीं, उसी तरह संतोष की लेखनी भी एन्टीक लगती है।
लेखक के पास बहुत सी बातें हैं, जिन्हें ये एक-एक करके ही कहें तो पाठक-सुलभ और ग्राह्य होंगी। मनन करे कि एक सामान्य व्यक्ति इन बातों से कितनी जल्दी या देर में सहमत होगा। बातों को विषय केंद्रित करे। अनावश्यक बातों का संपादन करे। निबंध लिखते रहने का अभ्यास करे। छपने की जल्दी न करे। सर्वप्रथम खुद को एक फिल्टर बनाये। लेखक में संभावनाए¡ हैं, बस वो दोहन करना सीख ले।

०६-०७-२००८ शैलेश भारतवासी

नई दिल्ली नियंत्रक, हिन्द-युग्म

www.hindyugm.com

1 comment:

  1. सहमत हूँ आपसे!

    आम आदमी ही बेतरतीब होता है , या ज्यादा मुफीद रहेगा यदि यह कहा जाए की बेतार्तीब्पन ही खास को आम बनाते दिखाई पड़ती है.

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