Tuesday, November 25, 2008

राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।



राजस्थान की वीर- नारियाँ-तृतीय भाग



राजकुमारी रत्नावती :- जैसलमेर-नरेश महारावल रत्नसिंह अपने किले से बाहर राज्य के शत्रुओं का दमन करने गये थे। जैसलमेर-किले की रक्षा उन्होंने अपनी पुत्री रत्नावती को सौंप दी थी। इसी दौरान दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने घेर लिया, जिसका सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुगल सेना ने घेरा डाल लिया किन्तु राजकुमारी रत्नावती इससे घबरायी नहीं और सैनिक वेश में घोड़े पर बैठी किले के बुर्जों व अन्य स्थानों पर घूम-घूम कर सेना का संचालन करती रही।

रत्नावती की फुर्ती, जागरूकता व कौशल के कारण मुगल सेना चाहकर भी आक्रमण न कर सकी और उसे अपने बहुत से वीर खोकर पीछे हटना पड़ा। जब मुगल सैनिकों ने देखा कि किले को तोड़ा नहीं जा सकता, तब एक दिन बहुत-से सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती ने रणनीतिक कौशल का प्रयोग करते हुए पहले तो अपने सैनिक हटा लिए और उन्हें चढ़ने दिया, वे जब दीवार पर चढ़ आये तब उसने उनके ऊपर पत्थर बरसाने व गरम तेल डालने की आज्ञा दे दी, इससे शत्रु का वह दल नष्ट हो गया।

एक दिन एक मुगल सैनिक छिपकर रात में किले पर चढ़ने लगा किन्तु राजकुमारी रत्नावती की नजरों से बचना संभव न था। उस सैनिक ने पहले तो यह कहकर धोखा देना चाहा, ``मैं तुम्हारे पिता का संदेश लाया हू¡।´ किंतु रत्नावती धोखे में आने वाली नहीं थी, उसने उस शत्रु-सैनिक को बाणों से बींध दिया।

मुगल सेनापति मलिक काफूर ने यह सोचकर कि वीरता से जैसलमेर का किला जीतना कठिन है। उसने बूढ़े द्वारपाल को सोने की ईंटें दीं और कहा कि वह रात को किले का फाटक खोल दे। द्वारपाल ने रत्नावती को यह बात बतला दी। रत्नावती ने द्वारपाल को रात में किले का फाटक खोलने के लिए कह दिया।

आधी रात को मलिक काफूर सौ सैनिकों के साथ किले के फाटक पर आया। बूढ़े द्वारपाल ने रत्नावती के निर्देशानुसार फाटक खोलकर उन्हें अन्दर घुसा लिया और फाटक बन्द करके उन्हें रास्ता दिखाता हुआ आगे ले चला। थोड़ी दूर आगे जाकर वह किसी गुप्त मार्ग से गायब हो गया। मलिक काफूर व उसके सैनिक हैरान रह गये। किले के बुर्ज पर खड़ी राजकुमारी को हंसते देखकर वे समझ गये कि उन्हें कैद कर लिया गया है।

सेनापति के पकड़े जाने पर मुगल सेना ने किले को घेर लिया। किले के भीतर का अन्न समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास करने लगे। रत्नावती भूख से दुर्बल होकर पीली पड़ गयी किन्तु ऐसे संकट में भी उसने राज-धर्म का पालन किया। अपने यहाँ कैद शत्रुओं को पीड़ा नहीं दी। रत्नावती अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी अन्न देती थी, किंतु मुगल बंदियों को दो मुट्ठी अन्न रोज दिया जाता था।

अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर किले में सेनापति कैद है और किले को जीतने की आशा नहीं है तो उसने महारावल रत्नसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा। राजकुमारी ने एक दिन देखा मुगल सेना अपने तम्बू-डेरे उखाड़ रही है और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं। मलिक काफूर जब किले से छोड़ा गया तो उसने कहा-`राजकुमारी साधारण लड़की नहीं, वे वीरांगना तो हैं ही, देवी भी हैं। उन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। वे तो पूजा करने योग्य हैं।´

विद्युल्लता :- विद्युल्लता चित्तौड़ के एक सरदार की कन्या थी जिसकी सगाई समरसिंह नाम के राजपूत सरदार के साथ हो गयी थी। दोनों के विवाह की तैयारी चल रहीं थी कि चित्तौड़ पर अलाउद्दीन ने आक्रमण कर दिया। समरसिंह को अपने देश की रक्षा के लिए युद्ध में जाना पड़ा। विद्युल्लता एकान्त में रहती व अपने पति का चिन्तन किया करती।

एक दिन चांदनी रात में समरसिंह विद्युल्लता के घर आया और अकेले में उससे मिलकर बोला` `मुझे लगता है कि अब थोड़े दिनों में ही चित्तौड़ मुगलों के हाथ में चला जायगा। मुसलमान सैनिक बहुत अधिक हैं, अत: राजपूतों को हारना ही पड़ेगा। अत: मेरी इच्छा है कि हम-तुम कहीं दूर भाग चलें।´

विद्युल्लता गरज उठी-`तुम सोचते हो, मैं तुम्हारे जैसे कायर से विवाह करूंगी ? कोई राजपूत-कुमारी युद्ध के भगोड़े पर थूकना भी न चाहेगी। तुम्हें मेरा हाथ पकड़ना है तो युद्ध में जाकर अपनी वीरता दिखाओ। युद्ध में मारे गये तो सती होकर स्वर्ग में, मैं तुमसे मिलूंगी ।´ विद्युल्लता समरसिंह को फटकार कर अपने घर चली गयी।

समरसिंह निराश होकर लौट पड़ा। वह अलाउद्दीन की सेना से डर गया था। वह विद्युल्लता की सुन्दरता पर मोहित था। अत: मरने से डर लगता था। उसने सोचा युद्ध समाप्त होने पर विद्युल्लता उसे मिल सकती है। वह शत्रुओं से मिल गया।

जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीत लिया समरसिंह मुगल सैनिकों के साथ विद्युल्लता से मिलने चला। विद्युल्लता ने समरसिंह को मुगल सैनिकों के साथ आते देखा तो वह समझ गयी कि यह देशद्रोही है। पास पहुंचकर समरिंसंह ने विद्युल्लता का हाथ पकड़ना चाहा, किंतु वह पीछे हट गयी और डांटकर बोली-`अधम देशद्रोही! मेरे शरीर को स्पर्श कर मुझे अपवित्र मत कर। शत्रुओं से मिलकर मेरे पास आते हुए तुझे लज्जा नहीं आयी? जा, कहीं चुल्लू भर पानी में डूब मर। विश्वासघाती कायरों के लिए यहाँ स्थान नहीं है।´

समरसिंह विजय के घमण्ड में था। वह विद्युल्लता को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन विद्युल्लता ने अपनी कटार खींच ली और अपनी छाती में दे मारी और दिव्य लोक को प्रस्थान किया। समरसिंह के हाथ लगा केवल उसका प्राणहीन शरीर और देश से विश्वासघात करने का कलंक। इस प्रकार स्वाभिमानी वीरांगना ने देशद्रोही को पति स्वीकार कर ऐश्वर्य भोगने की अपेक्षा मृत्यु का वरण करना उचित समझा।

वीरांगना कृष्णा :- मेवाड़ महाराजा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा अत्यन्त सुन्दरी थी। जयपुर और जोधपुर के नरेशों ने उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी। मेवाड़ महाराणा ने सब बातों पर विचार करके जोधपुर नरेश के यहाँ कृष्णा की सगाई भेजी। जयपुर नरेश इस बात से चिढ़ गये और चित्तौड़ पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे।

जोधपुर-नरेश इस बात को कैसे सहन करते कि उनके साथ सगाई करने के कारण चित्तौड़ पर आक्रमण हो। अत: जयपुर और जोधपुर राज्यों के बीच युद्ध ठन गया। जयपुर नरेश जोधपुर को हराने में सफल रहे। अब उन्होंने मेवाड़-नरेश के पास सन्देश भेजा कि अपनी पुत्री का विवाह वे उनसे कर दें।

मेवाड़ के महाराणा ने उत्तर दिया- `मेरी पुत्री कोई भेड़-बकरी नहीं है कि लाठी चलाने वालों में जो जीते, वह घेर ले जाय। मैं उसके भले-बुरे का विचार करके ही उसका विवाह करूंगा। ´

जयपुर-नरेश ने मेवाड़ के पास पड़ाव डाल दिया और कहला भेजा-`कृष्णा अब मेवाड़ में नहीं रह सकती। या तो उसे मेरी रानी बनकर रहना होगा या मेरे सामने से उसकी लाश ही निकलेगी।´ मेवाड़ की छोटी सेना जयपुर-नरेश का युद्ध में सामना नहीं कर सकती थी, किन्तु धमकी पर पुत्री को देना तो देश के पराजय से भी बड़ा अपमान था। अन्त में महाराणा भीमसिंह ने जयपुर नरेश की बात पकड़ ली- `कृष्णा की लाश ही निकलेगी।´

राजमहल में हा-हाकार मच गया। कृष्णा ने जब यह सुना तो वह ऐसी प्रसन्न हुई, जैसे उसे कोई बहुत बड़ा उपहार मिल गया हो। उसने अपनी माँ को समझाया- `माँ! आप क्षत्राणी होकर रोती हो? अपने देश के सम्मान के लिए मर जाने से अच्छी बात क्या हो सकती है? माँ! तुम्हीं तो बार-बार कहा करती थीं कि देश के लिए मर जाने वाला धन्य है। देवता भी उसकी पूजा करते हैं।´

अपने पिता महाराणा से उस वीर बालिका ने कहा-`पिताजी! आप राजपूत हैं, पुरुष हैं और फिर भी रोते हैं? चित्तौड़ के सम्मान की रक्षा के लिए तो मैं सौ-सौ बार मरने के लिए तैयार हूँ । मुझे विष का प्याला दीजिये।´

कृष्णा को विष का प्याला दिया गया, जिसे वह गटागट पी गई। जब कृष्णा की लाश निकली उस बलिदानी बालिका के लिए जयपुर-नरेश ने भी हाथ जोड़कर सिर झुका दिया और उनकी आंखों से भी आंसू टपकने लगे।

वीर बाला चम्पा :- महाराणा प्रताप परिस्थितियों के कारण वन-वन भटक रहे थे किन्तु उन्होंने मुगलों के सामने झुकना मंजूर नहीं किया। महाराणा को बच्चों के साथ दिन रात पैदल चलना पड़ता था। बहुधा बच्चों को उपवास करना पड़ता था। तीन-तीन, चार-चार दिन जंगली बेर व घास की रोटियों पर निकल जाते। कई बार ऐसा अवसर भी आता कि घास की रोटियां भी बनाते-बनाते छोड़कर भागने को विवश होना पड़ता।

महाराणा की पुत्री चम्पा ग्यारह वर्ष की थी। चम्पा एक दिन अपने चार-वर्षीय भाई के साथ नदी किनारे खेल रही थी। कुमार को भूख लगी थी। वह रोटी मांगते हुए रोने लगा। उस चार वर्ष के बच्चे में समझ कहां थी कि उसके माता-पिता के पास अपने युवराज के लिए रोटी का टुकड़ा भी नहीं है। चम्पा ने अपने भाई को कहानी सुनाकर व फूलों की माला पहनाकर बहला दिया। राजकुमार भूखा ही सो गया।

चम्पा जब अपने छोटे भाई को गोद में लेकर माता के पास सुलाने आई तो महाराणा को चिन्ता में डूबे हुए देखकर बोली, ``पिताजी! आप चिन्तित क्यों हैं?´´ `बेटी! हमारे यहां एक अतिथि पधारे हैं। आज ऐसा भी दिन आ गया है कि चित्तौड़ के राणा के यहां से अतिथि भूखा चला जाय।´ महाराणा ने उत्तर दिया।

चम्पा बोली, `पिताजी! आप चिन्ता न करें! हमारे यहां से अतिथि भूखा नहीं जायेगा। आपने मुझे कल जो दो रोटियां दी थीं, वे मैंने भाई के लिए बचा कर रखीं थीं, वह सो गया है। मुझे भूख नहीं है। आप उन रोटियों को अतिथि को दे दीजिये।´ पत्थर के नीचे दबाकर रखी घास की रोटियां पत्थर हटाकर चम्पा ले आई। थोड़ी सी चटनी के साथ वे रोटियां अतिथि को दे दी गयीं। अतिथि रोटी खाकर चला गया।

महाराणा बेटी के त्याग को देखकर द्रवित हो उठे, उनसे अपने बच्चों का कष्ट देखा नहीं गया। उस दिन उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र लिख दिया। ग्यारह-वर्षीय सुकुमार बालिका चम्पा दो-चार दिन में तो घास की रोटी पाती थी और उसे भी बचाकर रख लिया करती थी। अपने भाग की रोटी वह अपने भाई को थोड़ी-थोड़ी करके खिला देती थी। भूख के मारे वह स्वयं दुर्बल व कृश-काय हो गई थी। उस दिन अतिथि को रोटियां देने के बाद वह मूर्छित भी हो गयी।

महाराणा ने उसे गोद में उठाते हुए रोकर कहा- `मेरी बेटी! अब मैं तुझे और कष्ट नहीं दूंगा। मैंने अकबर को पत्र लिख दिया है।´ यह सुनकर चम्पा मूर्छा में भी चौक पड़ी, बोली, `पिताजी! आप यह क्या कहते हैं? हमें मरने से बचाने के लिए आप अकबर के दास बनेंगे? पिताजी! हम सब क्या कभी मरेंगे नहीं? पिताजी! देश को नीचा मत दिखाइये! देश और जाति की गौरव-रक्षा के लिए लाखों लोगों का मर जाना भी उत्तम है। पिताजी! आपको मेरी शपथ है, आप अकबर की अधीनता कभी स्वीकार न करें।´ बेचारी चम्पा महाराणा की गोद में ही सदा के लिए चुप हो गयी।

कहा जाता है जब अकबर के दरबार में महाराणा का पत्र पहुंचा तो पत्र देखकर पृथ्वीराजजी ने पत्र की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए महाराणा को पत्र लिखा और उसे पढ़कर महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने का विचार त्याग दिया। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि बालिका चम्पा ने अपने बलिदान से ही महाराणा को दृढ़ता देकर हिंदुकुल गौरव की रक्षा की।

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