Tuesday, November 25, 2008

राजस्थान की वीर-नारियाँ -चतुर्थ भाग

व्यक्ति से ऊपर समाज है, सबके हित में जीना होगा।

सबका हित जब सधता हो, प्यारे विष भी पीना होगा।


राजस्थान की वीर-नारियाँ -चतुर्थ भाग

पद्मिनी :- महारानी पद्मिनी चित्तौड़ के रावल रतनसिंह की पत्नी थी। पद्मिनी इतनी सुन्दर थी कि काव्य में उसे उपमान के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जब पद्मिनी की सुन्दरता के बारे में सुना तो वह उसे प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा। उसने अपनी इच्छापूर्ति के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण भी किया, किन्तु जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने रावल रतनसिंह को सन्देश भेजा कि यदि उसे पद्मिनी को केवल दिखा दिया जाय तो वह दिल्ली लौट जायेगा।
चित्तौड़ को विनाश से बचाने के लिए खिलजी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। सुल्तान किले में बुलाया गया और उसे पद्मिनी का प्रतिबिम्ब दिखाया गया। उसे चाहकर भी पद्मिनी प्रत्यक्ष देखने को नहीं मिली। रावल रतनसिंह जब खिलजी को औपचारिकता वश छोड़ने के लिए गए तो वहा¡ उन्हें कैद कर लिया गया और सुल्तान के द्वारा रतनसिंह को छोड़ने के लिए पद्मिनी को साथ ले जाने की शर्त रखी।
सुल्तान की चाल का जबाब भी चाल से दिया गया। रानी ने दिलेरी के साथ सुल्तान के पास यह सन्देश भिजवाया कि वह सुल्तान के साथ जाने को तैयार है किन्तु वह अपने साथ अपनी दासियों को भी ले जाना चाहती है। सुल्तान को इससे क्या आपत्ति हो सकती थी। योजनानुसार पालकिया¡ तैयार की गयीं। प्रत्येक पालकी में एक वीर योद्धा शस्त्रों सहित बैठ गया। पालकी उठाने के लिए भी कहारों के रूप में छ: सशस्त्र योद्धाओं का चयन किया गया। गोरा के नेतृत्व में पालकिया¡ सुल्तान के डेरे पर पहु¡ची। गोरा ने सुल्तान से कहा कि रानी अन्तिम बार अपने पति से मिलना चाहतीं हैं।
सुल्तान की अनुमति के बाद पालकिया¡ रतनसिंह के खेमें में पह¡ची और वहा¡ पहु¡चते ही पालकियों में छिपे योद्धाओं ने राव रतनसिंह को मुक्त करा कर किले में भेज दिया। मुगल सैनिक उन्हें नहीं रोक पाये। निराश होकर सुल्तान दिल्ली लौट गया किन्तु उसने कुछ समय बाद पुन: चित्तौड़ पर आक्रमण किया जिसमें राजपूतों को पीले वस्त्र पहनकर मरने-मारने के संकल्प के साथ किले से निकलना पड़ा।
पद्मिनी के नेतृत्व में महिलाओं ने अपना बलिदान करके अपनी पवित्रता व चित्तौड़ के आत्मसम्मान की रक्षा की और सिद्ध कर दिया कि भारतीय नारिया¡ सुन्दरता में ही नहीं, वीरता और बलिदान में भी आगे हैं; उन्हें शक्ति के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं ।
रानी कर्मवती - राणा सांगा खानवा के युद्ध में घायल होकर अधिक समय तक जीवित न रह सके। उनकी मृत्यु के बाद विक्रमादित्य को गद्दी पर बिठाया गया किन्तु वे अयोग्य शासक सिद्ध हुए, उनकी कमजोरी का फायदा उठाने के लिए गुजरात के शासक बहादुर शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया।
विक्रमादित्य ने बहादुरशाह से सन्धि कर ली। राणा सांगा की पत्नी वीरांगना कर्मवती को यह सन्धि अपमान के रूप में लगी। उसने मेवाड़ के सामन्तों व सैनिकों को इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित किया। सभी ने रानी के सामने मातृभूमि की रक्षा में मर मिटने का संकल्प लिया। बहादुर शाह ने जब सन्धि तोड़ते हुए चित्तौड़ पर पुन: आक्रमण किया तो कर्मवती की प्रेरणा से उत्साहित राजपूत सेना ने शत्रु-सेना का डटकर मुकाबला किया।
बहादुर शाह की विशाल सेना को रोक पाना संभव न रहा तो रानी ने सैनिकों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा कि शत्रु हमारे जीवित रहते हुए किले में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। रानी ने स्वयं सेना का नेतृत्व किया। रानी ने हुमायू¡ की सहायता प्राप्त करने के लिए उसे राखी भी भेजी। हुमायू¡ राखी का सम्मान करते हुए चित्तौड़ के लिए सेना के साथ रवाना भी हो गया किन्तु वह समय पर चित्तौड़ न पहु¡च सका। रानी कर्मवती ने दुर्ग के द्वार खोलकर मातृभूमि की के लिए युद्ध करते हुए रानी ने प्राण न्यौछावर कर दिए।
हाड़ी रानी :- सलूम्बर के युवा सामन्त चुण्डावत की नवविवाहिता पत्नी का नाम हाड़ी रानी था। मेवाड़ में महाराणा राजसिंह का शासन था। महाराणा राजसिंह का विवाह चारूमती (रूपमती) के साथ होने जा रहा था, उसी समय औरंगजेब ने अपनी सेना लेकर आक्रमण कर दिया।
विवाह होने तक मुगल सेना को आगे बढ़ने से रोकना आवश्यक था। औरंगजेब की सेना को रोकने का दायित्व नव विवाहित राव चुण्डावत ने स्वीकार किया। महाराणा ने चुण्डावत से कहा - `आपका कल ही तो विवाह हुआ है, आप युद्ध में न जाए¡।´ चुण्डावत सरदार ने उत्तर दिया, ``महाराणा! राजपूतों के लिए युद्ध भी विवाह के समान ही है। युद्ध में मौत का वरण किया जाता है। युद्ध में भाग लेना ही राजपूतों का धर्म है।´´
चुण्डावत सरदार महाराणा की आज्ञा प्राप्त कर अपनी हवेली पहु¡चे और रानी को दरबार में हुई बात के बारे मेें जानकारी दी। अपने वीर पति की वीरता से रोमांचित रानी प्रसन्न हो उठी, उसने सोचा मेरा जीवन धन्य हो गया, जो मुझे ऐसे वीर पति मिले। मैं आदशZ क्षत्राणी धर्म का पालन करू¡गी। हाड़ी रानी ने अपने हाथों से अपने पति को अस्त्र-शस्त्र धारण कराये, टीका लगाया और आरती उतार कर युद्ध क्षेत्र के लिए विदा किया।
चुण्डावत सरदार ने सेना के साथ युद्ध क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया किन्तु जाते समय उन्हें अपनी नव-विवाहिता पत्नी की याद सताने लगी। उन्होंने अपने एक सेवक से कहा, ``जाओ! रानी से सैनाणी (निशानी) लेकर आओ।´´ सेवक ने हवेली में जाकर सरदार का संदेश सुनाया। रानी ने सोचा युद्ध क्षेत्र में भी उन्हें मेरी याद सतायेगी तो वे कमजोर पड़ जायेंगे, युद्ध कैसे कर पायेंगे। मैं उनके कर्तव्य में बाधक क्यों बनू¡? यह सोचकर हाड़ी रानी ने सेवक के हाथ से तलवार लेकर सेवक को अपना सिर ले जाने का आदेश देते हुए तलवार से अपना सिर काट डाला। सेवक रानी का कटा सिर अपनी थाली में लेकर, सरदार के पास पहु¡चा। रानी का बलिदान देखकर चुण्डावत की भुजाए¡ फड़क उठी। उत्साहित सरदार तलवार लेकर शत्रु-दल पर टूट पड़े और वीर गति को प्राप्त हुए ।
स्रोत: वीर बालिकाए¡, गीताप्रेस gorakhapur; सामाजिक विज्ञान (पर्यावरण अध्ययन-1) कक्षा- 4, राजस्थान राज्य पाठयपुस्तक मण्डल, जयपुर; स्वतंत्रता सेनानी वीर आदिवासी-िशवतोष दास, ´पोस्ट बॉक्स नं.11 कुचामन शहर -341508 राजस्थान

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