कर्म
योगी जो होत हैं, कहां मिलत अवकाश।
मांग किसी से है नहीं, रोटी ना आवास॥
प्रेम
भाव में सरसता, ये है आनन्द मूल।
कोई झूठ छिपाव ना, मिटते सारे शूल॥
कल
था वह ना आज है, आज का रहे न कल।
टेढ़े पथ तू छोड़ कर, सच के साथ जी पल॥
चाह
छोड़ तू राह चल, चाह न पूरी होत।
चाह तजे राहत मिले, हिय माहि जले जोत॥
प्रेम
नाम विस्तार का, जग भी जात समाय।
सीमित करती वासना, दूजा लखा न जाय॥
प्रेम
पात्र ना खोज तू, कर निज से ही प्रेम|
निजता को विस्तार दे, जग प्रेम निज प्रेम॥
साथ
न कोई चल सके, तक न किसी की राह।
आना तो नीका लगे, बिछड़े निकले आह॥
राही
अपनी राह चल, चल अपने ही साथ।
साथ चले वह ठीक है, ना थाम किसी हाथ॥
षड्यन्त्र चालें तेरी, हम समझे हैं आज!
तेरे खातिर हम तजे, सारे साज-समाज॥
विश्वास कर की मूर्खता, सही है हमने चोट!
मूर्खता की मिली सजा, नहीं आपका खोट!!