Wednesday, February 17, 2016

आत्म सन्तुष्टि भी कोई चीज होती है

क्यों लिखूँ?





पढ़ना-लिखना साक्षर होने की पहचान है,
शिक्षित होने की नहीं।
साक्षर शिक्षित हो, यह आवश्यक नहीं;
निरक्षर अशिक्षित हो, यह अनिवार्य नहीं।
उच्च-डिग्रीधारी भी अशिक्षित मिल जाते हैं,
तो आज भी कबीर जगह-जगह पाये जाते हैे।
हम जानते हैं, उन्हें लिखना नहीं आता था, 
और न ही कभी लिखने की कभी कोशिश की।
वे नहीं जानते थे, पत्र-पत्रिका और ब्लॉग।

मैं लिखना जानता हूँ और लिखता हूँ।
लेकिन क्यों?
शायद इस भ्रम में कि
कविता, कथा और आलेख आदि
मेरे लेखन से बदल जायेगी दुनियाँ
ब्लॉगिंग करके कर लिया बहुत बड़ा काम
और सभी करेंगे मेरा अनुकरण
इस झूँठे अहम् में कब तक जीता रहूँगा मैं?

रचे जाते रहे हैं,
महाकाव्य, शास्त्र, पुराण और ग्रन्थ,
युगों-युगों से।
पढ़े व पढ़ाये ही नहीं,
रटे व रटाये भी जाते रहे हैं।
यही नहीं, हम करते रहते हैं, उनकी पूजा
और मन्दिर, मस्जिद और चर्चो में पारायण।

किन्तु परिवर्तन न हो सका आज तक,
सूपर्णखा की नाक आज भी काटी जा रही है
‘ऑनर किलिंग’ के नाम पर भरी पंचायत में ही
मारा जा रहा है, सूपर्णखा को ही नहीं उसके प्रेमियों को भी।
सीता की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं आया है,
जमीन में दफनाई गई, जनक द्वारा निकाली गई,
शादी के बाद पति के साथ वनवास,
राज्यारोहण के बाद, पति के द्वारा वनवास
आखिर पृथ्वी से निकली थी, पृथ्वी में समाई;
हम करते रहते हैं, पूजा किन्तु आज सीता,
गर्भ में ही जाती हैं गिराई।
विज्ञान का कमाल है, पढ़ने-लिखने का चमत्कार है
भ्रूण में ही जानकर, नष्ट कर सकते हैं,
जन्म देकर दफनाने की मजबूरी नहीं,
ताकि कोई जनक आकर, उसे जमीन से निकाल न सके।

प्रेमचन्द का होरी और गोबर,
आज भी वहीं है, महँगाई की मार से
आत्महत्या करने को मजबूर है।
रावण और कंस को बनाकर खलनायक,
लिखते रहंे ग्रन्थ, कमाते रहें नाम और यश
जलाते रहें रावणों के असंख्यों पुतले हर वर्ष,
किन्तु राज आज भी रावण कर रहा है,
पुतलों के दहन का आयोजन भी वह स्वयं कर रहा है,
ताकि लोग पुतले को जलता देख मान ले रावण का अन्त,
और उसे पहचान न सके और अक्षुण्य रहे उसकी सत्ता
उसकी इच्छा के विरूद्ध हिलता नहीं पत्ता,
राष्ट्र को आतंक व रिश्वत से चूना लगाने वाला ही
आज जगह-जगह तिरंगा फहरा रहा है
और जन-गण-मन बूँदी के दो लड्डू खाकर खुश है
ताली बजा रहा है।

क्यों लिखूँ?
मेरी समझ नहीं आता।
युगों-युगों के लेखन से भरे हैं ग्रन्थागार,
सीताओं के अपहरण, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या का ग्राफ,
निरन्तर ऊपर चढ़कर रावण और कंस के अस्तित्व को,
प्रमाणित कर रहा है।
दहेज के विरूद्ध लिखने वाला,
दहेज हत्या कर रहा है।
हनुमान विकास की चमक में फंस,
चेटिंग व ब्लॉगिंग कर रहा है।

क्यों लिखूँ?
लिखने की बजाय यदि,
बचा सकूँ, एक सीता को अपहरण होने से,
बचा सकूँ एक गीता को भ्रूण में नष्ट होने से,
सूपर्णखाँ को बचा सकूँ ऑनर किलिंग से,
दहेज-हत्या रोक सकूँ, सिर्फ एक ही,
शिक्षित कर सकूँ एक बच्चा और
लगा सकूँ एक पौधा,
तो क्या कविता लिखने और छपने से
बेहतर नहीं होगा?
नहीं मिलेगीं, ब्लॉग पर टिप्पणी,
नहीं आयेगा पत्र-पत्रिकाओं में नाम।
किन्तु आत्म सन्तुष्टि भी कोई चीज होती है।  

Tuesday, February 16, 2016

आओ सभी नर और नारी


समानता का नारा,
लगता बहुत प्यारा,
उठते जो प्रश्न,
करते सभी किनारा।
समानता: एक कृत्रिम शब्द,
यथार्थ में, दिखती नहीॅ समानता
किसी भी पदार्थ में।
यहॉ तक कि एक ही व्यक्ति के,
दो अॅगों में भी नहीॅ होती समानता,
हर स्थान पर है असमानता,
यह असमानता जरूरी है,
क्यों कि यही करती सृष्टि को पूरी है।
सभी एक-दूसरे के बिन अधूरे हैं।
आपस में मिलकर ही होते सब पूरे हैं।
विभिन्न असमानतायें मिलकर ही
पूर्णता की ओर ले जाती हैं।
समानता एक यक्ष प्रश्न??
जिसका उत्तर, कब खोज पाया युधिष्ठर??
केवल है प्रश्न, नही है उत्तर
आओ सभी नर और नारी
मिलकर ही शायद
पड़ें प्रश्नों पर भारी।
क्या दो नर, या दो नारी,
आपस में समान होते हैं??
क्या दो जुड़वा भी
एक जैसे महान होते हैं ??
क्षमता, दक्षता या निष्ठा में
अन्य किसी भी विशेषता में।
क्या नहीॅ समेटे होते
कोई न कोई असमानता??
प्रश्न है फिर हम क्यों??
आग और पानी पर समानता थोप रहे हैं।
चॉद और सूरज को,
एक ही तराजू में तोल रहे हैं।
समानता के नाम पर, प्रकृति के सृजन में
क्यों छुरा भोंक रहे हैं??
एक-दूसरे के पूरक,
प्राकृतिक मित्र नर-नारी में
समानता के नाम पर,
जगाकर प्रतिस्पर्धा,
क्यों बना इनको जौॅक रहे हैं??
क्यों नर को लगने लगी नारी- एक वैश्या??
क्यों नारी को लगने लगा नर- जॅगली और भेड़िया??
केवल है प्रश्न, नही है उत्तर
आओ सभी नर और नारी
मिलकर ही शायद
पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों नारी भ्रूण को,
कोख में ही नष्ट किया जा रहा है??
क्यों मानवता को मिटाया जा रहा है??
क्यों लक्ष्मी को ही किया जा रहा है??
पैतृक सम्पत्ति से वंचित!
वंचित करके दी जाती रही हैं: जो छोटी-छोटी भेंटें।
दहेज के नाम पर गरियाकर,
उनसे भी वंचित किये जाने का
रचा जा रहा है ? षड्यॅत्र??
केवल है प्रश्न, नही है उत्तर
आओ सभी नर और नारी
मिलकर ही शायद
पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों देखते हैं सदैव पुरुष ही हो बड़ा,
शिक्षा, शक्ति, सामर्थ्य ही नहीॅ,
उम्र में भी।
क्यों शिक्षा से वंचित
किया जाता रहा है- सरस्वती को ही,
क्यों ?शक्ति से वंचित किया जाता रहा हैः
साक्षात शक्ति रूपा नारी को ही।
क्यों धन, शिक्षा,स्वास्थ्य, शक्ति से वॅचित करके??
पिता कर देता है दान: एक वस्तु की तरह!
या फिर बेच देता है: दामाद रूपी ग्राहक को!
और कल्पना करता है कि,
उसकी दान की हुई या बेची हुई पुत्री,
पूजी जायेगी दूसरे घर में??
विवाद की स्थिति में
हो जायेगी निर्वाह-व्यय की हकदार??
क्यों ? क्या है इसके पीछे तर्क??
पति रूपी नर के लिए??
क्या ?शादी करना है अपराध??
जो एक पुरूष,
केवल एक परेपरा के निर्वाह मात्र से,
कुछ पल/दिन/माह/वर्ष के साथ से,
ही पा जाता है पति का तमगा
और विवाद की स्थिति में
मजबूर किया जाता है-
जीवन भर निर्वाह भत्ता देने को।
दोनों ही शिक्षित, दोनों हैं समर्थ,
दोनों का अधिकार,
अपनी-अपनी पैतृक सम्पत्ति में।
दोनों हैं समान तो क्यों कोई
किसी पर निर्वाह व्यय के लिए बने भार!
क्या है इसका आधार ??
केवल है प्रश्न, नही है उत्तर
आओ सभी नर और नारी
मिलकर ही शायद
पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों चरित्र की परिभाषा,
सीमित है ?शारीरिक सम्बन्धों तक,
क्यों झूठ, कपट, छल, धूर्तता,
रिश्वतखोरी, देशद्रोह, लाटरी, जुआ
और मदिरापान,
चरित्र का निर्धारण करते समय,
विचारणीय नहीॅ होते,
क्या पति-पत्नी द्वारा,
एक-दूसरे पर बलात्कार नहीॅ होते??
क्यों ‘वैश्या’ ? शब्द प्रयुक्त होता है -
केवल स्त्री के लिए,
जबकि पुरुष के बिना
स्त्री कुछ कर ही नहीॅ सकती,
प्राकृतिक व्यवस्था है, स्त्री ?
शारीरिक सम्बन्धों में,
एक सहयोगी होती है, प्रेरक होती है,
किन्तु निष्क्रिय पार्टनर मानी जाती है,
वह नहीॅ कर सकती, पुरुष के साथ,
भौतिक रूप से बलात्कार,
फिर भी वही क्यों दोषी है?
वही क्यों ‘वैश्या’ है?
उसके पास जाने वाले,
उसको वहाँ तक पहुंचाने वाले,
वैश्या की श्रेणी में क्यों नहीॅ आते??
केवल है प्रश्न, नही है उत्तर
आओ सभी नर और नारी
मिलकर ही शायद
पड़े प्रश्नों पर भारी।
क्यों नारी को ही सहारे की मानी जाती है जरूरत,
जबकि पुरुष है हर पल: नारी पर आश्रित,
नहीॅ आ सकता, जमीन पर नारी के बिना,
नहीॅ जी सकता, नारी-दुग्ध के बिना,
चाहिए नारी का स्नेह, दुलार, प्रेम,
मार्गदर्शन व प्रेरणा कदम-कदम पर
नहीॅ चल सकता, नारी के बिना,
एक कदम भी,
नहीॅ सो सकता माँ की लॉरी,
पत्नी की हमसौरी के बिना एक क्षण को भी,
माँ के अभाव में धाय, पत्नी के अभाव में
या फिर वियोग में प्रेमिका,
वह भले ही बाजारू हो या वास्तविक,
नारी ही साथी बनती है।
फिर नर-नारी में समानता की,
प्रतिस्पर्धा क्यों चलती है??
केवल है प्रश्न, नही है उत्तर
आओ सभी नर और नारी
मिलकर ही ?शायद
पड़े प्रश्नों पर भारी।

Sunday, February 14, 2016

नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा



मैं कर सकता/सकती हूँ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!
मैं भारत का/की शिक्षित नर/नारी हूँ
मैं हूँ सशक्त, नहीं बिचारा/बेचारी हूँ।
मैं जानता/जानती चैंटिंग और ब्लागिंग
मै अंग्रेजी में धारा-प्रवाह,
लिख व बोल सकता/सकती हूँ
मैं गालियाँ दे सकता/सकती हूँ
भारतीय संस्कृति, विरासत और परंपराओं को,
मैं शादी, परिवार व समाज को,
गरिया सकता/सकती हूँ
सब जायँ जहन्नुम में,
मैं सबको अपने ठेंगे पर रखता/रखती हूँ।
अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता और
स्वछन्दता की खातिर,
मैं नारी को देखना चाहता/चाहती हूँ
स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ही नहीं,
पूर्णतः स्वतंत्र और स्वछन्द भी,
शादी, परिवार व समाज की,
समस्त मर्यादाओं से मुक्त
आज के भारतीय नर और नारी शिक्षित हैं,
वे नहीं रह सकते बनकर एक-दूसरे के पूरक
औरत को मर्द की और मर्द को औरत की,
वश है जरूरत,दोनों समान हैं,
दोनों के लिए खुला आसमान है,
समलैंगिक सम्बन्धों को भी सम्मान है
जरूरतें पूरी करना बड़ा आसान है,
हम अपनी जरूरतें! कर लें पूरी,
कैसे भी, कहीं से भी,
किसी के साथ रहकर या
किसी को साथ रखकर 
या फिर चलते फिरते,
ऑफिस में काम करते।
क्या फर्क पड़ता है?
मैं कर सकता/सकती हूँ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।
मैं झूँठ बोलने में पारंगत,
भ्रष्टाचार में सिद्धहस्त,
मैं अपने में ही रहता/रहती मस्त,
सत्य का सूरज कर दूँ अस्त,
ईमानदारी के हौसले पस्त।
कथनी से ही छा जाऊँ जगत में
शराब पीकर, माँस खाकर,
बन जाऊँ भगत मैं।
मैं, जो बोलता/बोलती हूँ,
जो करता/करती हूँ,
दोनों में दूर-दूर तक,
खोज न पाये कोई रिश्ता,
भले ही आ जाये फरिश्ता।
मैं बोलकर और लिखकर ही सम्मान पाता/पाती हूँ,
साथ में दौलत भी कमाता/कमाती हूँ।
गधे को तो क्या? 
दुश्मन को भी बाप बनाता/बनाती हूँ,
किसमें है हिम्मत जो मेरी करनी को देखे
आखिर प्राइवेसी भी कोई चीज होती है!
तुम्हे क्या वह किसके साथ सोता या सोती है?
अरे भाई! निजत्व का सम्मान करो!!
जाओ! अपना काम करो।
तुम हो ही क्या चीज?
अपने आदर्शो के झोले को,
उठाये फिरते/फिरती हो!
केवल ठगे जाते/जाती हो!
किसी को नहीं ठगते/ठगती हो।
शादी करके एक पत्नी या पति के साथ
रहने वाले या रहने वाली,
दो जून की रोटी के लिए,
रात-दिन परिश्रम करने वाले या करने वाली
ईमानदारी और सत्य के व्यसनी मूर्खो की,
बात करने वाले या करने वाली,
जाओ आगे बढ़ो!
यह दुनियाँ तुम्हारी नहीं, मेरी है,
क्योंकि यह इक्कीसवीं सदी है,
मेरे पास सोने की ढेरी सजी है।
मैं खरीद सकता/सकती हूँ कुछ भी,
सारी सुख-सुविधाएँ,
यहाँ तक कि बिस्तर के साथी,
नर-नारी को भी खरीदना संभव है,
आत्मा को जिन्दा रखकर
आत्मनिर्भर बनना असंभव है।
मैं कर सकता/सकती हूँ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।
मैं आजाद भारत का/की,
आजाद नागरिक हूँ,
स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा,
फहराऊँगा/ फहराऊँगी।
मिठाई बाँटकर खुशियाँ,
मनाऊँगा/मनाऊँगी।
पीटकर ताली लोग,
मिठाई खाने में हो जायेंगे मस्त,
मैं तो वश कमीशन खाऊँगा/खाऊँगी।
जरूरत पड़ी तो आतंकवादियों से भी
हाथ मिलाऊँगा/ मिलाऊँगी!
आखिर वे भी हमारे वोटर हैं,
उनके लिए कानून सरल बनाऊँगा/बनाऊँगी।
बाजार तो भाई!
आज युग की हे जरूरत,
दोस्तो देखो बाजार है, कितना खुबसूरत
जिसको आती है कला,
रुपया बनाने, छापने या लूटने की,
वही सबसे है भला,
खरीदना या बेचना नहीं है आसान,
बाजार में मच जाता है घमासान,
सांसदों, विधायकों या मन्त्रियों की बिक्री मैंने देखी है,
हम क्या कर सकते यह तो ईश्वर की लेखी है।
मैं भी अपनी सरकार बनाऊँ!
बड़ा सा सरकारी पद पा जाऊँ
स्वयं मलाई खाकर, दूसरों को भी खिलाऊँ!
नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा,
चाहत है यही वश सफल कहाऊँ!
हिन्दी का नाम जपकर,
अंग्रेजी का झण्डा लहराऊँ!!

प्रेम करती है

प्रेम नहीं कर सकती 

बुद्धि,

वह तो हानि-लाभ का 

हिसाब लगाती है।

प्रेम नहीं कर सकती

कामना,

वह तो स्वार्थो को

पूरा करने के तिगड़में लगाती है।

प्रेम नहीं कर सकतीं

सुविधाएँ

वे तो येन-केन-प्रकारेण

हरदम संसाधनों को जुटाती हैं।

प्रेम नहीं कर सकता

 अहम

वह तो अपने को ही सही

सिद्ध करने के कुतर्क खंगालता है।

प्रेम नहीं कर सकती

चुनौती

सब कुछ कर पाने की 

वह तो रोंदने में मजा पाती है।

प्रेम उपजता है

 दिल में

जो देने के अहम से भी दूर

समर्पण करना जानता है।

प्रेम करती है

 भावना

जो अपना सब कुछ सौंपकर भी

कुछ नहीं चाहती।

Saturday, February 13, 2016

हे प्रिय! बसन्त की करो न प्रतीक्षा




हे प्रिय! बसन्त की करो न प्रतीक्षा,
बसन्त  प्रेमियों  की  थाती  है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

प्रेम से बढ़ शिक्षा ना दूजी
प्रेम हमारी सच्ची पूँजी।
प्रेम का स्रोत अजस्र है प्यारे
जग में बाँट क्यों बनता मूँजी?
प्रेम की परिधि असीमित कर ले,
प्रेम स्नेहक, प्रेम ही बाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।


प्रेम बीत जब उर महिं उगता,
दुलहिन नहिं मारी जाती है।
प्रेम बीज परिवार में पलता,
हर कन्या पोषण पाती है।
प्रेम, ज्ञान और कर्म की खेती,
योग विवेकानन्द की पाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

प्रेम को ना चाहिए कोई भाषा,
प्रेम करे ना प्रेम की आशा।
प्रेम तो है भावों की खेती,
कैसे करे कोई परिभाषा।
प्रेम को दूषित कर मत प्यारे,
प्रेम के गीत दुनिया गाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

प्रेम तो उर-उर में पैठा है,
ना कोई लघु, ना कोई जेठा है।
प्रेम रंग रंग, नृत्य करें अणु,
राष्ट्रप्रेमी तू क्यों ऐंठा हैं?
प्रेम असीमित जिसको मिलता,
मोक्ष की चाह न रह जाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

Friday, February 12, 2016

षड्यन्त्र तुम्हारा है अब मालुम

कथनी और करनी में अन्तर, कैसे होगा किसी से मिलना?


जड़ को काट, पत्तों पर अर्चन, पुष्प नहीं कभी है खिलना!



विश्वास ही जड़ रिश्तों की, विश्वासघात कर रिश्ते सिलना?



शब्द-शब्द में झूठ और धोखा, नहीं हुआ हिये का मिलना!



रिश्तों का सृजन तुम क्या जानों, बर्बादी की तुम हो छलना!



बर्बाद करने को तुम प्रगटीं, तुम्हारे साथ रहें एक पल ना!



प्रेमी तुम्हारे हों कितने भी, तुमको सबको है बस छलना!



झूठ से नफ़रत करते हम, हमें न झूठ के साथ है चलना!


पोल खुलीं, आरोप औरों पर, पैसों बिन तुम्हें पड़े न कलना!



षड्यन्त्र तुम्हारा है अब मालुम, मित्र नहीं, नहीं हमें मिलना!

ज्ञान

समझे थे, ज्ञानी हुये, यही बड़ा अज्ञान।


ज्ञान खोज में जन मिटे, खोज रहा जग ज्ञान॥

Wednesday, February 10, 2016

वह काली बन जायेगी

पैसा कमाकर खर्च जो कर ले,उसे किसी का अभाव कहाँ?
बाजार बड़ा है इस दुनियाँ का,मिल जाती हर चीज यहाँ।
और कोई यहाँ सोच नहीं है,पैसे पर ही ध्यान है।
किसी से कोई संबंध नहीं है,पैसा ही भगवान है।
देवालय में जाकर देखो, पैसा ही है देव जहाँ
बाजार बड़ा है इस दुनियाँ का, मिल जाती हर चीज यहाँ।
पैसे ही  की खातिर देखो,सभी बने बहुधंधी हैं।
पैसा नहीं है,यदि माँ पर भी,वह बुढ़िया है,अंधी है।
बिना कमाये यदि घर जाओ,नहीं है तुमको जगह वहाँ।
बाजार बड़ा है इस दुनियाँ का,मिल जाती हर चीज यहाँ।
पैसे का यदि तुम अपनाओ,पत्नी तुम्हें अपनायेगी
इच्छा पूरी ना कर पाये,वह काली बन जायेगी।
पैसे से बेटा मिल जाता,पैसे बिन माँ-बाप कहाँ?
बाजार बड़ा है इस दुनियाँ का,मिल जाती हर चीज यहाँ।

काश मुखोटे न होते


Shuchi Bhavi Shuchi ने 2 नई फ़ोटो को जोड़ा.
29.11.15
प्रेम नहीं होता सबका,,,,,
हाँ डरती हूँ बहुत आज भी
मुखोटों से
बचपन में डरी थी न
जब खेल खेल में भूत का मुखोटा
पहना था सहेली ने
कई दिनों का डर
आज भी है न साथ
जब किसी दोस्त का मुखोटा उतरा
डरी कई वर्ष दोस्ती से
जब किसी साथी का मुखोटा उतरा
डरी हर साथ से फिर
डर न जाने प्रेम को किस
तहखाने बन्द कर आया
अचानक वो तहखाने तोड़
प्रेम गिरहें खोल भाग आया
मैं भी हो ली थी उसके संग
चली उड़ी तैरी भी
रंग गयी थी उसके रंग
पर सिर्फ आधा कदम
के प्रेम भी था मुखोटा धारी
मैं फिर डर के आगे हारी
अकेली थी
अकेली ही रही
सोचती
काश मुखोटे न होते
या
न होता डर,,,,,,
शुचि(भवि)

Friday, February 5, 2016

आपकी भी इच्छा कभी होती होगी....


08.25.2007

आपकी भी इच्छा कभी होती होगी मिलने की

आपकी भी इच्छा कभी होती होगी खिलने की

परंपराओं, अहम, बड़प्पन के भावों को छोड़,

आपकी भी इच्छा कभी होती होगी.....?

Tuesday, February 2, 2016

कब तक? तड़पते रहेंगे

08.24.2007

कब तक?

तड़पते रहेंगे

इस तरह

एक मुलाकात को

कब तक?

खोजते रहेंगे

इस तरह

अंधेरे में

चाँदनी रात को

कब तक?

तड़पते रहेंगे

इस तरह

सुनने को

अपने ही

दिल की बात को।

Monday, February 1, 2016

कुचल बढ़ी, क्या आपकी भूल!

08.23.2007
सैकड़ों दुनियाँ में खिलते हैं फूल

कुचले जाते और बनते धूल

हम भी आपके पथ में आए,

कुचल बढ़ी, क्या आपकी भूल!