Sunday, February 14, 2016

नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा



मैं कर सकता/सकती हूँ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास!!
मैं भारत का/की शिक्षित नर/नारी हूँ
मैं हूँ सशक्त, नहीं बिचारा/बेचारी हूँ।
मैं जानता/जानती चैंटिंग और ब्लागिंग
मै अंग्रेजी में धारा-प्रवाह,
लिख व बोल सकता/सकती हूँ
मैं गालियाँ दे सकता/सकती हूँ
भारतीय संस्कृति, विरासत और परंपराओं को,
मैं शादी, परिवार व समाज को,
गरिया सकता/सकती हूँ
सब जायँ जहन्नुम में,
मैं सबको अपने ठेंगे पर रखता/रखती हूँ।
अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रता और
स्वछन्दता की खातिर,
मैं नारी को देखना चाहता/चाहती हूँ
स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ही नहीं,
पूर्णतः स्वतंत्र और स्वछन्द भी,
शादी, परिवार व समाज की,
समस्त मर्यादाओं से मुक्त
आज के भारतीय नर और नारी शिक्षित हैं,
वे नहीं रह सकते बनकर एक-दूसरे के पूरक
औरत को मर्द की और मर्द को औरत की,
वश है जरूरत,दोनों समान हैं,
दोनों के लिए खुला आसमान है,
समलैंगिक सम्बन्धों को भी सम्मान है
जरूरतें पूरी करना बड़ा आसान है,
हम अपनी जरूरतें! कर लें पूरी,
कैसे भी, कहीं से भी,
किसी के साथ रहकर या
किसी को साथ रखकर 
या फिर चलते फिरते,
ऑफिस में काम करते।
क्या फर्क पड़ता है?
मैं कर सकता/सकती हूँ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।
मैं झूँठ बोलने में पारंगत,
भ्रष्टाचार में सिद्धहस्त,
मैं अपने में ही रहता/रहती मस्त,
सत्य का सूरज कर दूँ अस्त,
ईमानदारी के हौसले पस्त।
कथनी से ही छा जाऊँ जगत में
शराब पीकर, माँस खाकर,
बन जाऊँ भगत मैं।
मैं, जो बोलता/बोलती हूँ,
जो करता/करती हूँ,
दोनों में दूर-दूर तक,
खोज न पाये कोई रिश्ता,
भले ही आ जाये फरिश्ता।
मैं बोलकर और लिखकर ही सम्मान पाता/पाती हूँ,
साथ में दौलत भी कमाता/कमाती हूँ।
गधे को तो क्या? 
दुश्मन को भी बाप बनाता/बनाती हूँ,
किसमें है हिम्मत जो मेरी करनी को देखे
आखिर प्राइवेसी भी कोई चीज होती है!
तुम्हे क्या वह किसके साथ सोता या सोती है?
अरे भाई! निजत्व का सम्मान करो!!
जाओ! अपना काम करो।
तुम हो ही क्या चीज?
अपने आदर्शो के झोले को,
उठाये फिरते/फिरती हो!
केवल ठगे जाते/जाती हो!
किसी को नहीं ठगते/ठगती हो।
शादी करके एक पत्नी या पति के साथ
रहने वाले या रहने वाली,
दो जून की रोटी के लिए,
रात-दिन परिश्रम करने वाले या करने वाली
ईमानदारी और सत्य के व्यसनी मूर्खो की,
बात करने वाले या करने वाली,
जाओ आगे बढ़ो!
यह दुनियाँ तुम्हारी नहीं, मेरी है,
क्योंकि यह इक्कीसवीं सदी है,
मेरे पास सोने की ढेरी सजी है।
मैं खरीद सकता/सकती हूँ कुछ भी,
सारी सुख-सुविधाएँ,
यहाँ तक कि बिस्तर के साथी,
नर-नारी को भी खरीदना संभव है,
आत्मा को जिन्दा रखकर
आत्मनिर्भर बनना असंभव है।
मैं कर सकता/सकती हूँ कुछ भी,
आखिर !
बड़ी-बड़ी डिग्री हैं मेरे पास।
मैं आजाद भारत का/की,
आजाद नागरिक हूँ,
स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा,
फहराऊँगा/ फहराऊँगी।
मिठाई बाँटकर खुशियाँ,
मनाऊँगा/मनाऊँगी।
पीटकर ताली लोग,
मिठाई खाने में हो जायेंगे मस्त,
मैं तो वश कमीशन खाऊँगा/खाऊँगी।
जरूरत पड़ी तो आतंकवादियों से भी
हाथ मिलाऊँगा/ मिलाऊँगी!
आखिर वे भी हमारे वोटर हैं,
उनके लिए कानून सरल बनाऊँगा/बनाऊँगी।
बाजार तो भाई!
आज युग की हे जरूरत,
दोस्तो देखो बाजार है, कितना खुबसूरत
जिसको आती है कला,
रुपया बनाने, छापने या लूटने की,
वही सबसे है भला,
खरीदना या बेचना नहीं है आसान,
बाजार में मच जाता है घमासान,
सांसदों, विधायकों या मन्त्रियों की बिक्री मैंने देखी है,
हम क्या कर सकते यह तो ईश्वर की लेखी है।
मैं भी अपनी सरकार बनाऊँ!
बड़ा सा सरकारी पद पा जाऊँ
स्वयं मलाई खाकर, दूसरों को भी खिलाऊँ!
नहीं चाहिए मुझे ईमानदारी का तमगा,
चाहत है यही वश सफल कहाऊँ!
हिन्दी का नाम जपकर,
अंग्रेजी का झण्डा लहराऊँ!!

No comments:

Post a Comment

आप यहां पधारे धन्यवाद. अपने आगमन की निशानी के रूप में अपनी टिप्पणी छोड़े, ब्लोग के बारे में अपने विचारों से अवगत करावें.