Saturday, February 13, 2016

हे प्रिय! बसन्त की करो न प्रतीक्षा




हे प्रिय! बसन्त की करो न प्रतीक्षा,
बसन्त  प्रेमियों  की  थाती  है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

प्रेम से बढ़ शिक्षा ना दूजी
प्रेम हमारी सच्ची पूँजी।
प्रेम का स्रोत अजस्र है प्यारे
जग में बाँट क्यों बनता मूँजी?
प्रेम की परिधि असीमित कर ले,
प्रेम स्नेहक, प्रेम ही बाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।


प्रेम बीत जब उर महिं उगता,
दुलहिन नहिं मारी जाती है।
प्रेम बीज परिवार में पलता,
हर कन्या पोषण पाती है।
प्रेम, ज्ञान और कर्म की खेती,
योग विवेकानन्द की पाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

प्रेम को ना चाहिए कोई भाषा,
प्रेम करे ना प्रेम की आशा।
प्रेम तो है भावों की खेती,
कैसे करे कोई परिभाषा।
प्रेम को दूषित कर मत प्यारे,
प्रेम के गीत दुनिया गाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

प्रेम तो उर-उर में पैठा है,
ना कोई लघु, ना कोई जेठा है।
प्रेम रंग रंग, नृत्य करें अणु,
राष्ट्रप्रेमी तू क्यों ऐंठा हैं?
प्रेम असीमित जिसको मिलता,
मोक्ष की चाह न रह जाती है।
प्रेम सुमन उर महिं खिलते,
बसंत वहाँ फिर-फिर आती है।

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