Friday, February 14, 2014

प्रेम-दिवस पर विशेष

प्रेम ही ईश्वर है अविनाशी



तुम तो हो  प्राणों में बसते, हमको जग भी प्यारा है।
प्रेम तो बस विश्वास जगाए, समझो नहीं यह कारा है।।
प्रेम ही ईश्वर है अविनाशी,
प्रेमी क्यों जाए मथुरा काशी।
उर-उर में है प्रेम का सोता,
दुनिया फिर भी नेह की प्यासी।
प्रेम बीज भय में ना पलता, प्रेम तो सच का सहारा है।
तुम तो हो  प्राणों में बसते, हमको जग भी प्यारा है।।
प्रेम नहीं बंधन है प्यारी!
प्रेम नहीं झूठ की क्यारी।
प्रेम-पात्र हो दूर भले ही,
राह कभी ना होगी न्यारी।
राष्ट्रप्रेमी बस प्रेम ही बाँटे, प्रेम में जग सब हारा है।
तुम तो हो  प्राणों में बसते, हमको जग भी प्यारा है।।
प्रेम नहीं देता है धोखा,
प्रेम है बसन्त का झोका।
बासन्ती है बयार बह रही,
प्रेम रंग  चढ़ेगा  चौखा।
बसन्त प्रेम को दे आमन्त्रण, ईश प्रेम का मारा है।
तुम तो हो  प्राणों में बसते, हमको जग भी प्यारा है।।
 


तुमने तन ही दिया भले हो, हमने मन भी बारा है

जो भी तुमको प्यारा है 

                               

तुमने तन ही दिया भले हो, हमने मन भी बारा है।
हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।
नहीं किसी से ईर्ष्या हमको
नहीं बाँधना चाहे तुमको
हमें भले ही ना मिल पाया,
जीवन-रस मिल जाये तुमको।
हिमगिरि तब था भाया हमको, अब सागर का किनारा है।
हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।
नेत्रों से जल, कभी न निकसे
हृदय-कुमुद रहे हरदम विकसे
अधरों पर मुस्कान रहे नित,
आप नहीं, अब हम ही सिसके।
स्वार्थों की मारी मति ने ही तो, प्रेम से छीना सहारा है।
हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।
मृग-मरीचिका है अब अपनी,
मरूथल में है माला जपनी
अपनी जान जहाँ में खोई,
नहीं किसी की जान हड़पनी।
विस्तृत जग आमन्त्रित करता, याद तुम्हारी कारा है।
हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।
क्षिति जल पावक गगन समीरा
देखो कैसे भये अधीरा ?
अवशोषण नासूर बना अब
कौन लगाये इसको चीरा।
धरा ही नहीं, आसमान भी, देखो हमने फाड़ा है।
हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।
जल को भी, हमने नहीं बक्शा
वायु भी फेलाये गमछा
पावक को भी बाँधा नर ने,
 कब तक इसका चलेगा चमचा।
प्रकृति के आड़ोलन ने ही, भय का झण्डा गाड़ा है।
हमको सब कुछ अच्छा लगता, जो भी तुमको प्यारा है।।


Tuesday, February 11, 2014

हे पिक! छिप जा घर में जाकर

हे पिक! छिप जा घर में जाकर



हे पिक! छिप जा घर में जाकर।
निरापद यहाँ कोई राह नहीं है,
विषैलेपन की थाह नहीं है।
जिनको रक्षक समझ रही तू,
ऐसी उनकी चाह नहीं है।
आग उगलते आम यहाँ पर!
हे पिक! छिप जा घर में जाकर।


शिक्षक नहीं, नौकर हैं यहाँ पर,
नेता नहीं, जोकर है यहाँ पर।
प्रशासक शिक्षा के माफिया,
अपराधी ही शाह यहाँ पर।
बसन्त झुलसता आज यहाँ पर!
हे पिक! छिप जा घर में जाकर।


घर भी सुरक्षित नहीं है लगता,
मसलें कली, फूल नहीं खिलता।
मर्यादा ही विकास पथ रोके,
कागज का ही, फूल है बिकता।
क्या पायेगी? यहाँ गा-गाकर!
हे पिक! छिप जा घर में जाकर।


नहीं फूल अब यहाँ हैं खिलते,
भ्रमर भी अब नहीं मचलते।
 तितली तेजाब से डरती हैं,
आस्तीनों में साँप ही पलते।
राष्ट्रप्रेमी डरता, प्रेम भी पाकर!
हे पिक! छिप जा घर में जाकर।
 


Tuesday, February 4, 2014

मित्रो बसन्तोत्सव आपके  जीवन में प्रेम और सौन्दर्य की सौगात लेकर के आये 

Sunday, February 2, 2014

समलैंगिकता का कुष्ठ मिटे

शीत ऋतु अब बीत गई है, कोयल गा बसन्त के गीत


न्याय कुमुद भारत में विकसे, जनतंत्र पाये फिर जीत।
शीत ऋतु अब बीत गई है, कोयल गा बसन्त के गीत।।
शिक्षालयों में शिक्षा की कामना,
जलाशयों में जल की कामना।
गर्भ में भी सुरक्षित हो नारी,
सुरक्षा बलों में सुरक्षित भावना।
राजनीति में नीति आये फिर, दहेज बिना मिले मन का मीत।
शीत ऋतु अब बीत गई है, कोयल गा बसन्त के गीत।।
कानून मंत्री कानून न तोड़े,
तत्र नहीं जन का सिर फोड़े।
न्यायालयों में न्याय मिल सके,
पीड़ित पर ना पड़ें हथोड़े।
नर-नारी संग-साथ रहें मिल, ऐसी बनायें अब हम रीत।
शीत ऋतु अब बीत गई है, कोयल गा बसन्त के गीत।।
समलैंगिकता का कुष्ठ मिटे,
भ्रष्टाचार का कलंक मिटे।
शिक्षक-छात्र सदाचारी बनें,
शिक्षालयों से धुंध हटे।
राष्ट्रप्रेमी हरियाली हो और सुन्दर सुमन खिलें हो पीत।
शीत ऋतु अब बीत गई है, कोयल गा बसन्त के गीत।।