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Sunday, June 22, 2008

मेरी चाहत का जनाजा

मुक्तक
मेरी चाहत का जनाजा

मेरी चाहत का क्या जनाजा निकाला है तुमने,
मेरी गलतियों का अहसास कराया है तुमने,
मैंने तुम्हें अपना मानने का भ्रम पाला था जो,
गलत था, खुबसूरती से आभास कराया है तुमने ।


तुम्हारे सोने,जागने,बतियाने का साक्षी होता था मैं,
तुम्हारे पढ़ने,पढ़ाने, हरषाने का चिन्तन करता था मैं,
न समझा, न जाना, न पहचाना,इसमें मेरा क्या दोष?
तेरे हित में प्रबंधन हर-पल किया करता था मैं।



मैं आया था सीख देने,सीख लेकर जा रहा हूँ ,
निज नियम,सिद्धांत,कार्यविधि गलत पा रहा हूँ,
तुम्हारी दृष्टि में, निर्दयी था,छुटकारा तुमको देकर,
पथ में विछी हों कलियां, दुआएं देता जा रहा हूँ।


तुमको छोटा,ना समझ,नादान समझ बैठा था मैं,
न थी इच्छा-शक्ति, सामर्थ्य,विवेक,जो मान बैठा था मैं,
चाहा था स्वच्छन्दता से जीना,बाधक बन बैठा था मैं,
हो सके तो माफ करना,गलतियां जो कर बैठा था मैं।


अनिश्चित, दुर्गम, नीरस यात्रा, दुआएं, देता जा रहा हूँ मैं।
अविरल,अनविरत,निर्भय बढ़ो,कामना करता जा रहा हूँ मैं।
अबाधित,अकण्टक,अभयता,असीमितता हो, विकास पथ पर,
चिर प्राप्त्याशा,फलागम हो तुझे,तू रह सुखी, जा रहा हूँ मैं।


चहुँ ओर सुख की छाया, सरस हो तुम्हारा जीवन,
कुसुम पूरित हो पथ,पल-पल पाओ पराग संजीवन।
कण्टक,कष्ट,कठिनाई,मिल जायं मुझे,तुम्हें बहारें,
जन्नत और स्वर्ग मिलें,इस भू पर ही तुम्हें आजीवन।