Sunday, November 7, 2021

समय भले ही बहुत है बीता

 याद आज भी ठहरी हैं


प्रेम दिनों-दिन बढ़ता जाता, आँखें तुम्हारी गहरी हैं।

समय भले ही बहुत है बीता, याद आज भी ठहरी हैं।।

यादों में जीते हैं हम संग।

सौन्दर्य पूरित, है अंग-अंग।

उम्र भले ही हुई पचास की,

बुद्धि और उर की जारी जंग।

मन मारतीं, उर है दबातीं, लज्जा तुम्हारी प्रहरी है।

समय भले ही बहुत है बीता, याद आज भी ठहरी हैं।।

कब तक यूँ मारोगी मन को।

सुन्दर हो तुम, सजाओ तन को।

पास नहीं आ सकतीं माना,

बातों से हरषाओ मन को।

हम तो गाँव के गँवार रह गए, तुम बनीं अब शहरी हैं।

समय भले ही बहुत है बीता, याद आज भी ठहरी हैं।।

करते हैं हम तुम्हारी प्रतीक्षा।

प्रेमी कभी करते न समीक्षा।

इंतजार की वेला असीमित,

प्रेम की तुमने ही दी दीक्षा।

उर की पुकार, जबाव नहीं है, जान बूझकर बहरी है।

समय भले ही बहुत है बीता, याद आज भी ठहरी हैं।।


Sunday, October 31, 2021

तब रोज ही मनती दीवाली

 दीवाली 

     


जब साथ में होती घरवाली,

तब रोज ही मनती दीवाली।


जब पास में अपने होती है।

वह सपने नए नित बोती है।

हमें जीवंत बनाए रखने को,

वह अपने आपको खोती है।

जब प्रेम में होती मतवाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


जादू उसके कर में है।

खुशी छिपी हर वर में है।

समस्याओं से घिरी हुई,

पर समाधान भी सर में है।

दूध की देती जब प्याली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


कभी नहीं रहती खाली।

कभी तवा, कभी थाली।

संतुष्ट नहीं कभी होती,

पर नहीं कभी देती गाली।

जब हमें सजाती बन माली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


फूल नहीं, वह फुलवारी।

कभी नहीं वह है हारी।

समर्पण और त्याग की देवी,

हर पल लगे हमें प्यारी।

जब सजा के लाती है थाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


साक्षात लक्ष्मी, नहीं है मूरत।

दुनिया में सबसे खुबसूरत।

साथ में जब वह होती है,

नहीं किसी की हमें जरूरत।

जब आती है छोटी साली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


जीवन मधु है वही पिलाती।

मरते हुए भी हमें जिलाती।

हमने भले ही हो ठुकराया,

नहीं कभी भी वह ठुकराती।

जब उसके चेहरे पर लाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।


सखी, सहेली, वह आली।

कष्टों के हित है काली।

चाह नहीं, चाहत नहीं,

मुस्कान उसकी, सजी थाली।

अधर नयन हों, रस प्याली।

साक्षात, वही, है दीवाली।


जब साथ में होती घरवाली।

तब रोज ही मनती दीवाली।




Monday, October 25, 2021

इक दूजे के हित ही बने हैं

 नर हो  या फिर नारी है


इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।

संघर्ष में ना समय नष्ट कर, प्रेम से खिली फुलवारी है।

इक-दूजे के दिल में समाओ।

इक-दूजे पर प्रेम लुटाओ।

इक-दूजे बिन रह नहीं सकते,

इक होकर के भेद मिटाओ।

हाथ थाम दोनों, साथ चलो जब, देखे दुनिया सारी है।

इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।।

अलग अलग क्यों रहे अधूरे।

मिलकर दोनों हो जाओ पूरे,

इक-दूजे के विपरीत चलकर,

हो जाओगे, तुम दोनों  घूरे।

प्रेम में कोई माँग न होती, प्रेम के बनो न व्यापारी है।

इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।

प्रेम खेल मिल साथ में खेलो।

कष्टों को मिलकर के ठेलो।

दुनिया जो कहती है कह ले,

साथ में रह वियोग ना झेलो।

साथ-साथ चल कर्म करो, सजाओ जीवन क्यारी है।

इक दूजे के हित ही बने हैं, नर हो  या फिर नारी है।


Sunday, October 17, 2021

ईश्वर भक्तों से कुत्ता भक्तों तक की महान परंपरा


वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर भक्तों की चर्चा जोर-शोर से हो रही है। कुछ अज्ञानी लोग भक्त शब्द का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में भी करते हैं। भक्ति योग को सभी योगों में श्रेष्ठतम् माना गया है। भक्त परंपरा अनादि काल से रही है। वह चाहे ईश्वर भक्ति के रूप में रही हो या देशभक्ति के रूप में, राज भक्तों से भी इतिहास भरा पड़ा है। समय समय पर राजभक्ति को ही देशभक्ति की भी संज्ञा दी जाती रही है। देशभक्ति से राजभक्ति, राजभक्ति से कुर्सीभक्ति से होते हुए व्यक्ति भक्ति ही नहीं कुछ भक्त लोग तो कुत्ता भक्ति में भी महानता सिद्ध करते हैं। भक्तों की महानता की यह श्रृंखला अनादि काल से जारी है और अनादि काल तक अक्षुण्य रहेगी। इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। इसे अक्षुण्य रहना भी चाहिए क्योंकि भ्रष्टाचार की महान परंपरा भी भक्त परंपरा के आधार पर ही फलती-फूलती है।

भक्तों की महान परंपरा सभी धमों में मिलती है। सनातन धर्म कहलाने वाले हिंदू धर्म में भक्ति मार्ग, भक्ति साहित्य, भक्ति आंदोलन, भक्त कवियों और संतो की भरमार है तो सूफी भक्त परंपरा के साथ नवीनतम् धर्म इस्लाम भी पीछे नहीं है। पितृ भक्ति में राम, और भ्रातृ-भक्ति में लक्ष्मण और भरत के सानी मिलना मुश्किल है तो राजभक्त के रूप में विभीषण का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने राज्य की खातिर अपने ही कुटुंब से किनारा कर लिया। कुर्सी भक्तों में कंस का नाम ले सकते हैं, जिसने कुर्सी की खातिर अपने पिता को बंदी बनाया, यह परंपरा मुगल काल से लेकर अभी तक जारी है। वर्तमान में भी पिता को हटाकर कुर्सी पर बैठने की परंपरा जारी है। अंग्रजों ने भी इस महान परंपरा के फलने-फूलने की पूरी व्यवस्था की। भारत में मैकाले महोदय द्वारा स्थापित शिक्षा प्रणाली अभी तक इस भक्त परंपरा को जिंदा रखे हुए है। तभी तो राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-

आधुनिक शिक्षा अगर तुम, प्राप्त भी कुछ कर सको।

तो लाभ क्या बस क्लर्क बन, पेट अपना भर सको।

सिर झुका लिखते रहा सुन, अफसरों की गालियाँ,

दो सकेगीं रात को दो रोटियाँ, घर वालियाँ।

वही भक्त पैदा करने वाली शिक्षा व्यवस्था कुछ सामयिक संशोधनों के साथ बदस्तूर जारी है। कहने को तो हम नयी शिक्षा नीति लागू करने का बार-बार प्रयास करते हैं किंतु अंग्रेजी की भक्त परंपरा हिंदी थोपी जाने का हवाला देकर सारी राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों को धता बता देती है।

जब भक्त की बात करते हैं तो कुछ लोग अंधभक्त कहकर खिल्ली उड़ाने का काम करते हैं किंतु लेखक इस बात का सख्त विरोधी है। भक्ति के क्षेत्र में कहावत है कि गुरू और इष्ट के अवगुणों को नहीं देखा जाता। गुरू के अवगुण देखने पर महापाप लगता है। वह भक्त ही क्या जो अंधा न हो। आँखों, कानों और दिमाग का प्रयोग करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्ति तो स्वार्थ आधारित दिल का सौदा है। सूरदास अंधे होने के कारण ही भक्त बन सके। तुलसी ने दास्य भाव को अंगीकार कर लिया और भक्तों में नाम लिखाया। तभी तो तुलसी के हवाले से कहा जाता है-

कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा।

अर्थात इस मशीनी युग में केवल नाम की भक्ति करके ही हमारे स्वार्थ सिद्ध हो सकते हैं। वह स्वार्थ भले ही काम करने के झंझट से मुक्ति का हो या कुर्सी से चिपके रहने का या येन केन प्रकारेण धन लिप्सा को पूरा करने का। दास परंपरा के मलूकदास ने तो स्पष्ट लिखा है-

अजगर करे न चाकरी, पंक्षी करे न काम।

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

कहने का आशय यह है कि भक्तों को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। वे काम में नहीं नाम की भक्ति में विश्वास रखते हैं। उनका स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए वह कुत्ते की भक्ति से भी पीछे नहीं रहेंगे। यह भक्त परंपरा ही है जो भ्रष्टाचारी व्यवस्था का संरक्षण करती है।

भक्त परंपरा पर लिखने का आशय पाठक गण यह न निकालें कि लेखक भी कोई महान भक्त है। लेखक न कभी भक्त था, न भक्त है और न ही, भक्त बनने का कोई इरादा रखता है। इन भक्तों, राजभक्तों, कुर्सीभक्तों व कुत्ताभक्तोें की अक्षुण्य परंपरा में लेखक कोई योगदान देना नहीं चाहता। लेखक न तो इस परंपरा को को पुष्ट करना चाहता है और न ही इसको समाप्त करने में कोई रूचि रखता है। लेखक ने अपने पिता से बचपन में ही सुना था, ‘कुत्ता पाले, सो कुत्ता और कुत्ता मारे सो कुत्ता।’ अतः लेखक भक्तों को दूर से ही साक्षात दण्डवत करने में विश्वास रखता है। उनकी महानता पर किसी प्रकार का प्रश्नचिह्न लगाए बिना अपने कर्म पथ पर बढ़ते रहने में विश्वास रखता है। 

भारत में भक्त परंपरा कितनी पुष्ट है इसकी पुष्टि के लिए इसी प्रकार के भजन भी प्रचलित हैं। लेखक आश्चर्यचकित रह गया, जब सुना ‘‘राम से बड़ा राम का नाम।’’ जबकि इसको होना चाहिए था, ‘‘राम से बड़ा राम का काम।’’ प्रसिद्ध दार्शनिक कांट के अनुसार नैतिक मूल्यों का आधार कर्तव्य के लिए कर्तव्य( doctrine of duty for duty's sake ) होना चाहिए अर्थात कर्तव्य महत्वपूर्ण है कर्तव्य किसी उद्देश्य से किया जा रहा है या किस स्वार्थ के लिए किया जा रहा है, वह नैतिक मूल्य को गिरा देता है। विश्व प्रसिद्ध प्रबंधन गुरू श्री कृष्ण ने भी अपने प्रबंधन ग्रंथ गीता में लिखा है-

‘कर्मण्येवाधिकारेस्तु मा फलेशु कदाचन’

अर्थात हमें अपने कर्तव्य पालन पर ही ध्यान देना है। उससे प्राप्त होने वाले फल पर ध्यान केन्द्रित करके अपने जीवन मूल्यों का पतन नहीं करना है। किंतु ईश्वर भक्तों से लेकर कुत्ता भक्तों की इस महान परंपरा को श्री कृष्ण भी कहाँ तोड़ पाए? भक्त परंपरा में कृष्ण भक्तों की एक नई परंपरा सुदामा और गोपियों की और जुड़ गई। गोपियाँ तो भक्त परंपरा में इतनी महान थीं कि उन्होंने उद्धव को भी भक्त बना डाला। नारियाँ तो भक्ति परंपरा की पराकाष्ठा रहीं हैं। सती प्रथा भक्ति का शिखर कही जा सकती है, जिसको नारियों के बलिदान पर ही तथाकथित भक्तों ने स्थापित किया। 



Saturday, October 16, 2021

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो

 मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ


परिस्थितियों की दासी बनीं तुम, मैं तो पथ पर खड़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

समय बहुत अब बीत गया है।

यौवन बीता, मन रीत रहा है।

तुमने भले ही भुला दिया हो,

कर प्रतीक्षा, मन मीत रहा है।

तुम संबन्धों की बेल में जकड़ीं, मैं प्रेम की सूली चढ़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

यादों में तुम नित आती हो।

सद्य स्नाता, अब भी भाती हो।

अंग-अंग सौन्दर्य टपकता,

स्वर में ज्यों कोयल गाती हो।

वियोग वेदना कितनी भी दे लो, तुम्हारे प्रेम से गढ़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

मैंने तो केवल प्रेम किया है।

दूर से भी,  साथ जिया है।

तुम्हारे लिए मैं तड़प रहा हूँ,

तुमको भी तो, मिला न पिया है।

एक बार आ, दर्शन दो प्रिय, प्रेम के पथ पर पड़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

अधरों की मुस्कराहट देखूँ।

सौन्दर्य से मैं, आँखें सेकूँ।

एक बार आ गले लगा लो,

तुम्हारे लिए मैं खुद को बेकूँ।

अन्दर लेकर देखो तो प्रिय, तुम्हारे प्रेम से बड़ा हुआ हूँ।

तुम वायदे से, मुकरी मौन हो, मैं वचनों पर अड़ा  हुआ हूँ।।

Thursday, October 7, 2021

जीवन मधुर संगीत भी है

जीवन

यहां हार भी है, यहां जीत भी है।

जीवन मधुर संगीत भी है।।

अपनों का संग है,जीने की उमंग है।

इंद्रधनुष सम खुशियों का रंग है।।

खुशहाली भी है, और लाचारी भी।

छाई है जीवन में, महामारी भी।।

खुशियों के,गमों के,सभी प्रकार के रंग है।

जीवन अपने आप में, एक मीठी जंग है।।

कोरोना के इस रण में, हम सभी अस्त्र है।

धैर्य और आत्मविश्वास, हमारे शस्त्र है।।

बुलंद र हौसला, जंग में कर प्रहार।

न देख उस पार, जीत हो या हार।।

जीत की न खुशी, न हो अफसोस हार का।

जीवन एक सबक है , मौका है सुधार का।।

जीवन एक सीख है,जीवन गुरु है।

अंतके बाद ही तो कुछ नया शुरू है।

                       

                                                                                                                                                                                                                    आदित्य चंद्र साहा, मेघालय

 

 

Sunday, October 3, 2021

तुम्हारे अधरों से हँसता में

 तुम मेरे नयनों से रोती हो


मैं तो केवल सींच रहा हूँ, प्रेरणा तुम ही बोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।

भले ही तुम मेरे पास नहीं हो।

पल नहीं कोई आस  नहीं हो।

जीवन में कभी मिल न सकोगी,

करती क्या परिहास  नहीं हो?

जो भी, जहाँ भी कर्म में करता, यादों में तुम ही रोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।

तुम्हें उर में सजाये जीता हूँ।

नित .स्वप्न सुधा, मैं पीता हूँ।

तुम्हारे बिना, नही कोई जीवन,

ना मालूम, मैं, क्यों जीता हूँ?

नयनों में अब भी स्वप्न बसे, निहार रहा मैं, तुम सोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।

मिलन वायदा, तुमने किया था।

वायदे में, मैंने, स्वप्न जिया था।

आओगी तुम, प्रतीक्षा है अब भी,

याद करें, जो, सुधा पिया था।

जग से मुझको, कुछ चाहिए, मेरे मन की तुम मोती हो।

तुम्हारे अधरों से हँसता में, तुम मेरे नयनों से रोती हो।।


Sunday, August 22, 2021

पता परिवर्तन

 सभी मित्रों को रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ।

स्थानांतरण के कारण मेरे कार्यस्थल व आवास में परिवर्तन हुआ है  मेरा नवीन पता अधोलिखित है-

डा संतोष कुमार गौड़,

प्राचार्य

जवाहर नवोदय विद्यालय

कालेवाला, पोस्ट- गोपीवाला, 

ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद-244601

उत्तर प्रदेश

Wednesday, June 30, 2021

साथ भले ही, आए न कोई

 हम बढ़ते ही जाएंगे


साथ भले ही, आए न कोई, हम बढ़ते ही जाएंगे।

पथिक हैं हम, पथ ही साथी, पथ का साथ निभाएंगे।।

अविचल होकर पथिक को बढ़ना।

बाधा कितनी भी, सघन, न डरना।

साथ भले ही मोहक प्यारे!

राह में तुझको, नहीं ठहरना।

सुख-सुविधाओं के आकांक्षी, क्यूं कर साथ निभाएंगे।

साथ भले ही, आए न कोई, हम बढ़ते ही जाएंगे।।

चलना ही बस मूलमंत्र है।

नहीं है, साधन, नहीं यंत्र है।

साथी ने भी, पथ है छोड़ा,

साथ हमारे, नहीं तंत्र है।

सुविधाओं में कैद हुए तुम, हम तो अलख जगाएंगे।

साथ भले ही, आए न कोई, हम बढ़ते ही जाएंगे।।

धन की हमको चाह नहीं थी।

पद की भी परवाह नहीं थी।

विश्वास का संबंध था चाहा,

अपयश पर भी आह! नहीं थी।

किसी से कोई, माँग नहीं है, सबको प्रेेम लुटाएंगे।

साथ भले ही, आए न कोई, हम बढ़ते ही जाएंगे।।


Sunday, June 20, 2021

अमूल्य धरोहर को नमन

आज पितृ दिवस के अवसर पर लगातार काव्य साधना में जुटे श्री तेजपाल शर्मा की अत्यन्त भावुक कविता प्रस्तुत है-

 पिता दिवस पर

*******

पिता नाम की संज्ञा से

मेरे मन में कोई भी

हलचल नहीं होती।

क्या

करते हैं पिता संतान के लिए,

यह जानने की इच्छा नहीं होती?

कैसे ऊंगली पकड़ कर चलाना,घुमाना, चूमना, पुचकार ना

आदि चीजें भी मेरी समझ नहीं आती

जानते हो क्यों? 

क्योंकि मेरे पिता ने मेरी याददाश्त में,

 यह सब कुछ भी नहीं किया।

करते भी कैसे?

मैं जब पिता की ऊंगली पकड़ कर चलने की स्थिति में था 

वे दैव प्रिय होगये

मात्र बत्तीस की आयु में।

फिर क्या करते वे मेरे लिए

अन्य पिता ओं की भांति।

आह!

मां जब कहती हैं कि

तेरे (मेरे) पिता 

बहुत बलिष्ठ 

शरीर सुगठित

तन पहलवानी था।

तुझे बहुत दुलार थे,

कंधे पर रख कर दूर तलक

घुमाते थे।

यह सब सुन कर मन भर आता है,

नेत्र अश्रुपूरित हो जाते हैं।

पछतावा हो ता है कि

क्यों नहीं छोड़ गए वे अपने कुछ स्मृति चिन्ह?

जिन्हें देखकर मैं सिहर उठता

और बहुत ही यत्न से सहेजकर रख लेता 

उनकी अनमोल धरोहर।

पर उनपर कुछ था ही नहीं

न तो चश्मा

न घड़ी

न छड़ी

किंतु

इन सबकी उन्हें जरूरत नहीं थी।

युवा थे

शौकीन न थे,छड़ी चश्मा की जरूरत नहीं थी

फिर कैसे छोड़ कर जाते 

ये चीजें।

हां एक श्वेत श्याम 

फोटो तो होता?

पर वह भी कैसे होता

वह समय भी कैमरे वाला न था।

खैर ,मन का प्रलाप है यह सब।

काश!

काश!!

कुछ भी तो होता उनका

स्मृति चिन्ह 

जिसे सहेज, संवारे रखता 

अपने जीवन भर।

किंतु मैं कितना अज्ञानी हूं

जो प्रलाप किये जा रहा हूं

और

भूल गया हूं कि

वे छोड़ गए हैं एक अमूल्य धरोहर।

उसी की देखभाल कर रहा हूं,अहर्निश

अनथक

अविराम

और बताऊं

उस धरोहर का नाम

वह है ममतालु

लगभग नौ दशक

पुरानी , कृशकाय

लेकिन

वटवृक्ष की सघन शीतल छांव

मेरी 

मां

पूज्य पिता की

उस अमूल्य धरोहर को नमन

प्रणाम!


तेजपाल शर्मा

प्राचार्य

श्री ब्रज आदर्श कन्या इंटर कालेज

मांट, मथुरा।

Wednesday, June 16, 2021

सभी को हम हैं, मित्र मानते

 सभी को माने सहेली है                       


कण्टक पथ के पथिक हैं हम, खतरों से अठखेली है।

सभी को हम हैं, मित्र मानते, सभी को माने सहेली है।।

साथ में हमने जिसे पुकारा।

हमारे पथ से किया किनारा।

छल, कपट से विश्वास में लेकर,

विश्वासघात का वज्र है मारा।

नहीं साथ कोई आएगा, राह मेरी अलबेली है।

सभी को हम हैं, मित्र मानते, सभी को माने सहेली है।।

नहीं हमारा कोई ठिकाना।

मालुम नहीं, कहाँ है जाना।

साथ में कोई क्यों आएगा?

आता नहीं, स्वार्थ का गाना।

जीवन पथ के सच्चे पथिक हैं, जीवन नहीं पहेली है।

सभी को हम हैं, मित्र मानते, सभी को माने सहेली है।।

हमको घर ना कोई बसाना।

हमको रोज कमाकर खाना।

धन, पद, यश, तुम्हें चाहिए,

हमको पथ ही लगे सुहाना।

कष्टों में पल बड़े हुए हम, मृत्यु से खेला-खेली है।

सभी को हम हैं, मित्र मानते, सभी को माने सहेली है।।

 


Sunday, June 13, 2021

भय भी हमें भयभीत न कर सके

हमको कौन डराएगा?

                                      


 सबके सुख की बातें करते, लेकिन दुःख ही बाँट रहे हो।

देख रहे हो, सबकी कमियाँ, अपने को ना आँक रहे हो।

औरों की नजरों में क्या हो? इस पर विचार करो तुम प्यारे,

अपनी ढपली-अपना राग, तुम, अपनी ही हाँक रहे हो।


भय भी हमें भयभीत न कर सके, हमको कौन डराएगा?

किसी से कोई होड़ नहीं, फिर, हमको कौन हराएगा?

प्रेम और विश्वास बिना, हमसे कुछ भी मिल न सकेगा,

नहीं ठहरना हमको कहीं पर, हमको कौन भगाएगा?


अपना काम मस्ती से किए जा, कर किसी की परवाह नहीं।

जो भी आए, स्वागत कर तू, करनी, किसी की चाह नहीं।

कोई न अपना, कोई न पराया, स्वार्थ से  है संबन्ध होते,

कहता कुछ, और करता कुछ, किसी के मन की थाह नहीं।


नहीं चाह है, नहीं कामना, कर्म पथ, जो मिले सही।

आज यहाँ है, कल वहाँ होगा, तेरे लिए सब खुली मही।

धन, पद, यश संबन्ध क्षणिक सब, प्यारे, इनसे मोह को तज,

कैसा भय? और कैसी चिंता? बेपरवाही की बाँह गही।


संग-साथ की इच्छा से आई, कैसे अकेली रह पाऊँगी?

साथ छोड़कर जाते हो यूँ, मैं रक्त के अश्रु बहाऊँगी।

अकेले छोड़कर जाना था तो, शादी क्यों की तुमने मुझसे,

काम-काज में बीतेंगे दिन, क्यूँ कर रात बिताऊँगी?


परदेश को प्यारे जाते हो, मैं यादों में अश्रु बहाऊँगी।

हर पल क्षण याद तुम आओगे, मैं गीत तुम्हारे गाऊँगी।

दिन में तो होगें काम बहुत, बीत जाएगा किसी तरह,

यह तो बतलाकर जाओ, रात को कैसे जी पाऊँगी?


Wednesday, June 9, 2021

पापों की तू रचना काली

 

    कभी न बने घरवाली है


बाहर से ही नहीं, सखी तू, अन्दर से भी काली है।

पापों की तू रचना काली, कभी न बने घरवाली है।।

छल-कपट, षड्यंत्र की देवी।

तू है, केवल धन की सेवी।

प्रेम का तू व्यापार है करती,

प्रेम नाम, प्राणों की लेवी।

धोखा देकर, जाल में फांसे, यमराज की साली है।

पापों की तू रचना काली, कभी न बने घरवाली है।।

धन से खुश ना रह पायेगी।

लूट भले ले, पछताएगी।

नारी नहीं, नारीत्व नहीं है,

पत्नी कैसे बन पाएगी?

पत्नी प्रेम की पुतली होती, तू तो जहर की प्याली है।

पापों की तू रचना काली, कभी न बने घरवाली है।।

साथ में सबके, कहे अकेली।

कपट के खेल कितने है खेली?

शाप किसी का नहीं लग सकता,

कैसे होगी? कालिमा मैली।

विश्वासघात कर, पत्नी कहती, लगे जंग की लाली है।

पापों की तू रचना काली, कभी न बने घरवाली है।।

दुष्टता से तू चाहे जीतना।

लूट रही तू, हमें रीतना।

दुरुपयोग कानूनों का करके,

कभी मिलेगा, तुझे मीत ना।

मोती सा फल चाह रही है, बंजर है, सूखी डाली है।

पापों की तू रचना काली, कभी न बने घरवाली है।।


Tuesday, June 8, 2021

समय नहीं है, अब बचपन का

समय आ रहा, अब पचपन का


अधर मंद, मुस्कान विराजे।

वक्षों पर काले, केश हैं साजे।

नयनों में है, प्यास प्रेम की,

कामना नयन, पलक हैं लाजे।


चाहत तुमरी, कह ना, पाऊँ।

पास में तुमरे,  कैसे  आऊँ?

वियोग व्यथा से, पीड़ित उर,

चेहरा तुम्हारा, देख न पाऊँ।


आओगी, यह वादा किया था।

दूर से पास के, क्षण को जिया था।

हम अब भी, यादों में जीते,

देख चित्र, जो तुमने दिया था।


वायदा अपना, भूल गयी हो।

हमारे लिए, नित ही नयी हो।

मैं तो खड़ा, प्रेम के पथ में,

प्रेम के पथ को, भूल गयी हो।


दुनियादारी मंे  खोई हो।

पाल रहीं, जिसको बोई हो।

हम यादों में, करवट बदलें,

चैन की नींद, प्यारी सोई हो।


जहाँ था, छोड़ा, वहीं खड़े हैं।

जीवन जीना,  भूल, अड़े हैं।

ठोकर मार, चली गईं तुम,

करते प्रतीक्षा, वहीं पड़े हैं।


वायदा किया था, वायदा निभाओ।

एक बार आ,  गले मिल जाओ।

बीस वर्ष का, प्रेम हुआ बालिग,

प्रेम को तज, ना, कायदा निभाओ।


समय नहीं है, अब बचपन का।

समय आ रहा, अब पचपन का।

तुम्हारी चाहत में हैं टूटे,

काम करें, हम फिर बचपन का।


कुछ ही पलों को, भले ही आओ।

प्रेम-सुधा का, इक, घूँट पिलाओ।

दुनियादारी भूलो,  कुछ पल,

कस के, हमको, गले लगाओ।


साथ भले ही, ना रह पायें।

इक-दूजे को, ना बिसरायें।

यादें मधुर हैं, फिर जी लेंगे,

मधुर पलों में, युग जी जायें।


Friday, June 4, 2021

तू ही अर्धांगिनी नहीं है मेरी

 मैं भी अर्धांग तेरा हूँ

                                        


तू ही अर्धांगिनी नहीं है मेरी, मैं भी अर्धांग तेरा हूँ।

तू दिल का राजा, कहती, रानी, मैं तेरा चेरा हूँ।।

नारी ने नर को चलना सिखाया।

नारी ने जन्मा, दूध पिलाया।

नारी बिन, अस्तित्व न नर का,

नारी प्रेम ने, नर को मिलाया।

जब-जब मैं भटका हूँ, पथ से, तूने ही तो टेरा हूँ।

तू ही अर्धांगिनी नहीं है मेरी, मैं भी अर्धांग तेरा हूँ।।

नारी प्रेरणा है, हर नर की।

नारी आधार है, इस भव की।

तुझसे ही तो, घर है बसता,

तू ही लक्ष्मी, है घर-घर की।

तू है, मेरे उर की शेरनी, मैं भी तो तेरा शेरा हू।

तू ही अर्धांगिनी नहीं है मेरी, मैं भी अर्धांग तेरा हूँ।।

तेरे बिन है, नीरस जीवन।

तू ही साज, तू ही है सीवन।

अधर तेरे अमृत के प्याले,

तू ही प्राण, तू ही संजीवन।

तू ही, मेरे प्राणों की कुटिया, मैं, भी, तेरा खेरा हूँ।

तू ही अर्धांगिनी नहीं है मेरी, मैं भी अर्धांग तेरा हूँ।।


Wednesday, June 2, 2021

ऊपर अब नारी चढ़ी,

नर को आती लाज

     


गए जमाने बीत वह, कहलाते थे नाथ।

हम तुमको ही नाथ दें, नहीं चाहिए साथ।।


पिजड़ों को हम तोड़कर, आज हुईं आजाद।

हमको घर ना चाहिए, ना सजने का साज।|


आई लव यू कह ठगी, ठग कर साधे काज।

विधान का कोड़ा चला, नर पर नारी  राज।।


छेड़छाड़ के केस में, पल में देत फंसाय।

किसकी मजाल, देख ले, बिन मर्जी कह हाय।।


सास-ससुर, चलती कहा, ना पति की है खैर।

झूठे दहेज केस से, निकले सारा वैर।।


हमने तो अब छोड़ दी, लाज, शर्म औ आन।

सब नर के जिम्मे किए, कहकर तुम हो जान।।


मरजी से सब कुछ करें, बलात्कार का केस।

नारी को जब खुश करें, बदल जात तब वेश।।


पढ़ी-लिखी नारी भली, करती है सब काज।

ऊपर अब नारी चढ़ी, नर को आती लाज।।


नारी नर को छोड़ कर, लग विकास की दौड़।

दोनों मिल आगे बढ़ो, करो न कोई होड़।।


नारी अब है जग रही, नर के चलती साथ।

शिक्षा में आगे बढ़ी, थामे नर का हाथ।।


Monday, May 31, 2021

प्रेम की चाहत, सबको रहती

 नर हो, या फिर नारी है

           



प्रेम की चाहत, सबको रहती, नर हो, या फिर नारी है।

नर, नारी को, प्यारा है तो, नारी, नर को प्यारी है।।

इक-दूजे बिन, रह नहीं सकते।

वियोग व्यथा वे, सह नहीं सकते।

इक-दूजे हित, सब कुछ अर्पण,

प्रेम है, इतना, कह नहीं सकते।

कोई किसी से, नहीं बड़ा है, कोई न किसी पर भारी है।

नर, नारी को, प्यारा है तो, नारी, नर को प्यारी है।।

नारी बिन, घर, भूत का डेरा।

नारी ही बनाती, स्वर्ग बसेरा।

नारी से रंगत, रजनी की है,

नारी ही से, शुभ है सबेरा।

नर प्रेम में, नहीं है जीता, नारी, कभी,  न  हारी है।

नर, नारी को, प्यारा है तो, नारी, नर को प्यारी है।।

नारी ने नर को, नित है दुलारा।

नर ने है पल-पल उसे पुकारा।

माता, सुता, भगिनी के रूप में,

पत्नी ने भी, पथ है  बुहारा।

नर देव है, देवी है नारी,  देव-देवी की  यारी है।

नर, नारी को, प्यारा है तो, नारी, नर को प्यारी है।।


Saturday, May 29, 2021

प्रेम ही पथ है, प्रेम पथिक है

 प्रेम ही, प्रेम का, पूजन है


            


प्रेम अमर है,  कभी न मरता,  प्रेम,  प्रेम का, जीवन है।

प्रेम ही पथ है, प्रेम पथिक है, प्रेम ही, प्रेम का, पूजन है।।

प्रेम न देखे, उम्र की सीमा।

प्रेम ही है, बस, प्रेम का बीमा।

परंपराओं में, प्रेम न बँधता,

प्रेमी को, प्रेम ही, बड़ी हसीना।

प्रेम,  प्रेम का, पथ प्रदर्शक, प्रेम विश्वास का, खीवन है।

प्रेम ही पथ है, प्रेम पथिक है, प्रेम ही, प्रेम का, पूजन है।।

प्रेम ही जीने की इच्छा है।

प्रेमी न लेता,  परीक्षा है।

प्रेम ही चाह, प्रेम कामना,

प्रेम की, मिले न भिक्षा है।

प्रेमाराम की,  प्रेम कामना, प्रेम ही,  प्रेमा का, जीवन है।

प्रेम ही पथ है, प्रेम पथिक है, प्रेम ही, प्रेम का, पूजन है।।

प्रेम ही नर है, प्रेम है नारी।

प्रेम, प्रेम पर, नहीं है भारी।

नर को नारी का प्रेम चाहिए,

नारी! प्रेम में, उतारे  सारी।

प्रेमी को, तन-मन सब अर्पण, प्रेम का, प्रेम ही, जीवन है।

प्रेम ही पथ है, प्रेम पथिक है, प्रेम ही, प्रेम का, पूजन है।।

प्रेम नहीं है, केवल भावना।

प्रेमी करे न, कोई कामना।

सब कुछ देना, सब कुछ पाना,

नहीं है, केवल, हाथ थामना।

प्रेम में हँसना, प्रेम में रोना, पथिक को, प्रेम ही, जीवन है।

प्रेम ही पथ है, प्रेम पथिक है, प्रेम ही, प्रेम का, पूजन है।।


Friday, May 28, 2021

साथ चाहा था, हर पल तुमने,

  किंतु साथ हम रह न सके

                

हम प्यार करते हैं, कितना! कभी किसी से कह न सके।

साथ चाहा था, हर पल तुमने, किंतु साथ हम रह न सके।।

हम भी तड़पे, तुम भी तड़पी।

अलग हुए, तुम किसी ने हड़पी।

तुमने उस पर विश्वास किया,

इधर भी तड़पी, उधर भी तड़पी।

हम थे तुम्हारा विकास चाहते, प्रेम का मार्ग दिखा न सके।

साथ चाहा था, हर पल तुमने, किंतु साथ हम रह न सके।।

जिस पथ पर तुम हमें मिलीं थीं।

पड़ी हुई, अधकुचली कली थीं।

हम भी, यूँ ही, भटक रहे थे,

हम भी सँभले, तुम भी खिलीं थीं।

पथ था रोका, तुमने हमारा, किंतु हाय! हम रुक न सके।

साथ चाहा था, हर पल तुमने, किंतु साथ हम रह न सके।।

पथ कठिन, तुम चलतीं कैसे?

मेरे साथ, तुम रहतीं कैसे?

तुमको, सबको, अच्छा था दिखना,

सच के पथ पर, चलतीं कैसे?

कटु सत्य कह देते हैं हम, प्रेम गान कभी हम, गा न सके।

साथ चाहा था, हर पल तुमने, किंतु साथ हम रह न सके।।

तुमने सब कुछ सौंपा था हमको।

मैं न दे सका, कुछ भी तुमको।

चन्द क्षणों को, मिले भले ही,

विछड़न पीड़ा,  अब भी हमको।

प्रेम नहीं है, किसी से हमको, दिल से तुम्हें, मिटा न सके।

साथ चाहा था, हर पल तुमने, किंतु साथ हम रह न सके।।


Thursday, May 27, 2021

चरैवेति सृष्टि की चाल है

                                                                                  

          समय कभी ना रुकता है                            


ऊपर वह ही चढ़ पाता है, समय-समय जो झुकता है।

चरैवेति सृष्टि की चाल है,  समय कभी ना रुकता है।।

खुद ही बन लो, नहीं बनाओ।

स्वयं ही समझो, ना समझाओ।

लेना नहीं,  देना चाहे  बस,

व्यर्थ की सीख, न उसे सिखाओ।

समय सदुपयोग, पल पल कर, यह ही जीवन मुक्ता है।

चरैवेति सृष्टि की चाल है,  समय कभी ना रुकता है।।

कोई भी, स्थाई मित्र नहीं है।

रंग न उड़े, कोई चित्र नहीं है।

मरना सबको, सब नश्वर हैं,

लालच, धोखा विचित्र नहीं है।

उचित समय पर, सब छूटेगा, भले ही कितना युक्ता है।

चरैवेति सृष्टि की चाल है,  समय कभी ना रुकता है।।

साथ आज जो, वही मित्र है।

प्रेम ही जीवन, प्रेम  इत्र है।

सब कुछ अपना, ना है पराया,

षड्यंत्र फिर भी, कितना विचित्र है?

समय चक्र, कभी न रुकता, व्यवस्था बनी ये पुख्ता है।

चरैवेति सृष्टि की चाल है,  समय कभी ना रुकता है।।


Wednesday, May 26, 2021

कष्ट सारे, छूमन्तर होते

जब,  प्रेम गान मिल  गाते हैं


 नर-नारी मिल, साथ-साथ चल, सुख का माहोल बनाते हैं।

कष्ट सारे,  छूमन्तर होते,  जब,  प्रेम गान मिल  गाते हैं।।

साथ आए, सब चिंता छोड़ो।

दुख्खों से नाता, तुम तोड़ो।

कदम-कदम करे, मस्ती प्रतीक्षा,

सुख की ओर, मुख तुम मोड़ो।

वाद्य यंत्रों संग, मिलकर ही तो, सुर को, संगीत  बनाते हैं।

कष्ट सारे,  छूमन्तर होते,  जब,  प्रेम गान मिल  गाते हैं।।

शिकवा-शिकायत भूल जाओ तुम।

प्रेम गान मिल, नित  गाओ तुम।

पथ में, पग-पग पर हैं  बाधा,

पार करो, और बढ़ जाओ तुम।

अलग-अलग,  अकेले भटकन,  मिल परिवार बनाते हैं।

कष्ट सारे,  छूमन्तर होते,  जब,  प्रेम गान मिल  गाते हैं।।

साथी के साथ, खुश रहना सीखो।

रूकना नहीं, तुम  बहना  सीखो।

नारी बिन नर, नीरस जीवन,

जीवन रस, पीना, पिलाना सीखो।

नर-नारी मिल, प्रेम से रहकर, घर को स्वर्ग बनाते हैं।

कष्ट सारे,  छूमन्तर होते,  जब,  प्रेम गान मिल  गाते हैं।।

मिलने से, परिवार है बनता।

टूटेगा, यदि, कोई है छलता।

विश्वास बीज है, संबन्धों का,

विश्वास से ही है, प्रेम निकलता।

विश्वासघात कर, साथ, जो चाहें, खुद को मूर्ख बनाते हैं।

कष्ट सारे,  छूमन्तर होते,  जब,  प्रेम गान मिल  गाते हैं।।


बेटी की विदाई

जी भर रोया!!

                      श्री तेजपाल शर्मा, मथुरा


पाणिग्रहण की /रीति पूर्ण कर

सात वचन औ'/सात फेरों की/

रीति पूर्ण हुई/सजधज कर/

जब बेटी मेरी/चलने को तैयार /खड़ी थी/

कुछ मंगल गीतों की/धुन को कुछ महिलाएँ /ध्वनित कररही।

बेटी धीर धीरे/उनके साथ बढ़ रही।


पास में आई/मेरे तो मन व्यथित हुआ था/

देखा मेरे पार्श्व में/मेरा छोटा भाई/

विगलित होकर/अश्रु बहाकर/

बहुत दुखी था।


उसे देख/मैंने अपने /आंसुओं को रोका

जैसे मानो/हृदयहीन/

पाषाण हृदय मैं

और 

चाहकर भी मैं/इस क्षण रो न सका था।

कैसे रोता?

विकट प्रश्न था/

सबसे बड़ा/सभी को /मुझको ही तो/

सब कुछ समझाना था।


मुड़कर/बेटी मेरे संमुख/

जब थी आई/

खुश रहो!

खुश रहो!!

की आशीष/मैंने दुहराई


और 

गटक कर/सारे आंसू/पूर्ण वेदना

बेटी को/पाषाण हृदय /

दे रहा विदाई।


तो

क्या मैं/

कोई हृदयहीन/पाषाण हृदय था???

नहींं

नहींं/मैं सरल हृदय हूं/

अति भावुक हूं।

कोई पूछे

मुझसे /

कैसे?

सहन कर सका??

अपनी पीड़ा/

नहीं बहा/पाया मैं आंसू

किंतु

विदाई की वेला/बिटिया की देखी

सबसे छिपकर

विलख  विलख कर/

जी भर रोया!


जी भर रोया!!


औ'

बेटी की विदाई/

पर मैं

सचमुच रोया!

जी भर रोया!!

Tuesday, May 25, 2021

हाथ-थाम, जब, दोनों चलते

कोई पथ ना, इनको भारी

         
सीधा-सच्चा पथ है मेरा।
नहीं करता, मैं मेरा तेरा।
ना कोई अपना, ना है पराया,
सबका अपना-अपना घेरा।

नर-नारी का इक है डेरा।
मिलते जहाँ, वहाँ बने बसेरा।
नारी नर बिन, नहीं रह सकती,
नर, नारी का ही, है चेरा।

जीवन पथ पर पथिक हैं मिलते।
संबन्धों के, पुष्प हैं खिलते।
सह-अस्तित्व है, प्रकृति सिखाती,
संबन्धों को, प्रेम से सिलते।

आओ हम मिल, जग को सजायें।
जहाँ, मुस्काती हों, सभी फिजायें।
नर-नारी  में मैत्री  भाव हो,
ना, अपराध हो, ना हों  सजायें।

आओ देखें, हम, इक सपना।
कोई न पराया, हर है अपना।
मानवता के भाव हर उर में,
नहीं किसी को, पड़ेगा तपना।

भिन्न-भिन्न ना, नर और नारी।
वो है प्यारा,  वो है प्यारी।
इक-दूजे के हित हम जीते,
नारी नहीं है, नर से न्यारी।

नहीं किसी की, कोई बारी।
इक-दूजे की संपत्ति सारी।
हाथ-थाम, जब, दोनों चलते,
कोई पथ ना, इनको भारी।

Monday, May 24, 2021

अकेलेपन की साथी कविता

 जहाँ न पहुँच सकता है सविता

         

अकेलेपन  की साथी  कविता।

जहाँ न पहुँच सकता है सविता।

सुनती, रोती, गाती है  जो,

मेरी सखी,  सहेली कविता।


कोई न मेरी बात है सुनता।

मैं  अपने सपनों को बुनता।

संग-साथ  ना कविता छोड़े,

भाव-शब्द, निश-दिन हूँ चुनता।


कविता ने है, मुझे सँवारा।

पीड़ा में  है,  मुझे दुलारा।

हृदय से मेरे, निकल के आई,

जब-जब मैंने, उसे पुकारा।


कविता ने है, स्नेह लुटाया।

कभी नहीं, धन मान जुटाया।

हृदय में मेरे,  बसी हुई है,

कभी नहीं,  अधिकार जताया।


प्रेमिका जैसी, माँग नहीं है।

पत्नी की तकरार  नहीं है।

भावानुगामिनी  मेरे उर की,

किसी की करे परवाह नहीं है।


संबन्धों से पीड़ित जब होता।

बंधनों से, जब, है मन रोता।

कविता के आँचल में छिप,

लगाता प्रेम सुधा में गोता।