आज पितृ दिवस के अवसर पर लगातार काव्य साधना में जुटे श्री तेजपाल शर्मा की अत्यन्त भावुक कविता प्रस्तुत है-
पिता दिवस पर
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पिता नाम की संज्ञा से
मेरे मन में कोई भी
हलचल नहीं होती।
क्या
करते हैं पिता संतान के लिए,
यह जानने की इच्छा नहीं होती?
कैसे ऊंगली पकड़ कर चलाना,घुमाना, चूमना, पुचकार ना
आदि चीजें भी मेरी समझ नहीं आती
जानते हो क्यों?
क्योंकि मेरे पिता ने मेरी याददाश्त में,
यह सब कुछ भी नहीं किया।
करते भी कैसे?
मैं जब पिता की ऊंगली पकड़ कर चलने की स्थिति में था
वे दैव प्रिय होगये
मात्र बत्तीस की आयु में।
फिर क्या करते वे मेरे लिए
अन्य पिता ओं की भांति।
आह!
मां जब कहती हैं कि
तेरे (मेरे) पिता
बहुत बलिष्ठ
शरीर सुगठित
तन पहलवानी था।
तुझे बहुत दुलार थे,
कंधे पर रख कर दूर तलक
घुमाते थे।
यह सब सुन कर मन भर आता है,
नेत्र अश्रुपूरित हो जाते हैं।
पछतावा हो ता है कि
क्यों नहीं छोड़ गए वे अपने कुछ स्मृति चिन्ह?
जिन्हें देखकर मैं सिहर उठता
और बहुत ही यत्न से सहेजकर रख लेता
उनकी अनमोल धरोहर।
पर उनपर कुछ था ही नहीं
न तो चश्मा
न घड़ी
न छड़ी
किंतु
इन सबकी उन्हें जरूरत नहीं थी।
युवा थे
शौकीन न थे,छड़ी चश्मा की जरूरत नहीं थी
फिर कैसे छोड़ कर जाते
ये चीजें।
हां एक श्वेत श्याम
फोटो तो होता?
पर वह भी कैसे होता
वह समय भी कैमरे वाला न था।
खैर ,मन का प्रलाप है यह सब।
काश!
काश!!
कुछ भी तो होता उनका
स्मृति चिन्ह
जिसे सहेज, संवारे रखता
अपने जीवन भर।
किंतु मैं कितना अज्ञानी हूं
जो प्रलाप किये जा रहा हूं
और
भूल गया हूं कि
वे छोड़ गए हैं एक अमूल्य धरोहर।
उसी की देखभाल कर रहा हूं,अहर्निश
अनथक
अविराम
और बताऊं
उस धरोहर का नाम
वह है ममतालु
लगभग नौ दशक
पुरानी , कृशकाय
लेकिन
वटवृक्ष की सघन शीतल छांव
मेरी
मां
पूज्य पिता की
उस अमूल्य धरोहर को नमन
प्रणाम!
तेजपाल शर्मा
प्राचार्य
श्री ब्रज आदर्श कन्या इंटर कालेज
मांट, मथुरा।
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