भोर ही नहीं, रजनी में भी
डाॅ.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी
समय, काम की, सीमा न कोई, नहीं, वेतन की माँग उठी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
सबसे पहले, जग जाती है।
शुभ हो दिन, मंगल गाती है।
साथ-सफाई का चक्र है चलता,
बार-बार कह, नहलाती है।
गृहलक्ष्मी, सबको है देती, चाह न कुछ भी, स्वयं लुटी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
समय की नहीं, कोई सीमा है।
घर ही तो, इसका बीमा है।
अन्दर बाहर काम कर रही,
कभी तेज, कभी धीमा है।
स्वयं भले ही नहीं पढ़ पाई, संतान की शिक्षा हेतु पिटी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
संघर्षो में भी नहीं बुझी है।
सजती-संवरती, कितनी हंसी है?
काम काज सबके निपटाकर,
बिस्तर में भी, पति की खुशी है।
घर में ही नहीं, दफ्तर में भी, शालीनता कभी न मिटी है।
भोर ही नहीं, रजनी में भी, घर सभाल, घरवाली जुटी है।।
No comments:
Post a Comment
आप यहां पधारे धन्यवाद. अपने आगमन की निशानी के रूप में अपनी टिप्पणी छोड़े, ब्लोग के बारे में अपने विचारों से अवगत करावें.