मुंह छिपाने की नौबत क्यों?
सर्व प्रथम में अपनी फेवरेट लेखिका श्रीमती मृदुला सिन्हा से माफी मांगता हूँ कि मैंने उनके लिखे हुए विषय पर लिखने का दुस्साहस किया। महिला लेखिकाओं में अमृता प्रीतम के बाद मृदुला सिन्हा मेरी चहेती(फेवरेट) लेखिका हैं। इन दोनों का लिखा हुआ, जहाँ भी मिल जाता है। पढ़ने के लोभ को नियंत्रित नहीं कर पाता या यूँ कहूँ कि नियंत्रित करना ही नहीं चाहता। अमृता प्रीतम के लेखन में कहीं भी झूठ या छिपाव नहीं है। उन्होंने जो लिखा है, वह जिया है। लिखना और, और करना और, वाला दोगलापन उनमें नहीं है। वे केवल आदर्श की बात नहीं करतीं, व्यवहार में जो है, सो है। यथार्थ लिखती रही हैं। दूसरी ओर मृदुला सिंहा पारिवारिक चिंतन पर बहुत अच्छा लिखती हैं। इनके लेखन का कायल में इनकी एक ही पंक्ति से हो गया था, जब राजस्थान पत्रिका में कभी पढ़ा था, ‘परिवार समानता के लिए फीता लेकर माप-तौल करने से नहीं चलते।’ यथार्थ यही है। परिवार और समाज कानूनों से नहीं चलते परिवार और समाज का आधार तो भावनात्मक संबंध होते हैं कानून नहीं।
इन दिनों मृदुला जी की पुस्तक, ‘मात्र देह नहीं हैं औरत’ पढ़ रहा हूँ। यद्यपि उनका लिखा हुआ एक-एक शब्द परिवार और समाज के लिए ही नहीं व्यक्ति के लिए भी उपयोगी है। तथापि पुस्तक में से जो भी मुझे अंदर तक प्रभावित करता है, उसे दूसरों के साथ बांटने का प्रयास करता हूँ। आखिर मृदुला जी जिस संस्कृति को विकसित होते देखना चाहती हैं, वह मिल जुलकर रहना ही तो सिखाती है। अतः जो अच्छा लगता है, उसे अपने ब्लाॅग पर भी प्रस्तुत कर देता हूँ। किंतु इस आलेख का आधार वे पंक्तियाँ बनीं, जो मुझे अच्छी नहीं लगीं। जी हाँ! पहली बार है, जो मुझे श्रीमती मृदुला सिंहा का लिखा हुआ कुछ पसंद नहीं आया। उसको भी अपनों के साथ बांटना चाह रहा हूँ।
मृदुला जी की उक्त पुस्तक के आलेख, ‘ मुंह छुपाने की नोबत क्यों?’ की पंक्तियाँ, ‘‘‘ सही माने में ये लड़कियां तो हमारे समाज पर कलंक हैं। तालाब के स्वच्छ जल में विचरण करती असंख्य बड़ी-छोटी मछलियों के बीच चंद सड़ी मछलियां हैं। सुगधिंत पके आमों की टोकरियों में एक सड़ा आम है। लाखों युवतियों द्वारा जीवन जगत में किए जा रहे जीवन जगत में किए जा रहे निरंतर संघर्ष पर धब्बा हैं।’’ मेरे विचार में सही नहीं है। हालांकि इतनी बड़ी लेखिका के लेखन पर प्रश्न चिह्न लगाने की मेरी औकात नहीं है किंतु किसी भी विषय पर अपने विचार प्रकट करने का प्रयास तो कर ही सकता हूँ। इसका बुरा शायद वे भी नहीं मानेंगी। कोई भी व्यक्ति कभी भी कलंक नहीं हो सकता। व्यक्ति कोई गलती कर सकता है। व्यक्ति द्वारा किया गया कोई कृत्य परिवार और/या समाज के मानकों के हिसाब से अनुचित हो सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह व्यक्ति समाज के लिए कलंक हो गया। व्यक्ति जीवन में लगातार कर्म करता ही रहता है। उनमें से कुछ कर्म समाज के लिए अच्छे होते हैं और समाज उन पर गर्व करता है। व्यक्ति को पुरस्कृत करता है। कुछ कर्म समाज के मानकों के हिसाब से अनुचित हो सकते हैं। इसके लिए परिवार और समाज में निंदा या प्रताड़ना ही नहीं कभी-कभी तो सजा की भी व्यवस्था होती है। किंतु ये प्रशंसा या निंदा कर्मों की होती है। व्यक्ति को कभी भी कलंक जैसे शब्द से नहीं नवाजा जाना चाहिए। हमें स्मरण रखना होगा कि कभी-कभी गलती से हमारे पैर कीचड़ में पड़ जाते हैं, तो हम अपने पैरों को नहीं काट फेंकते। हम साफ पानी से कीचड़ को साफ करते हैं और फिर आगे की ओर चल पड़ते हैं।
मृदुला जी ने उक्त आलेख ‘मुह छुपाने की नोबत क्यों?’लड़कियों के देह व्यापार में या सेक्स संबंधों में फंसने को लेकर लिखा है। संदर्भित पंक्तियाँ भी देह व्यापार में धकेली हुई या जा रहीं या शौकीन लड़कियों के लिए प्रयोग की हैं। यहाँ पर स्मरण रखना होगा कि कोई भी व्यापार केवल विक्रेता से नहीं चलता। विक्रेता को ग्राहकों की भी आवश्यकता पड़ती है। यदि ये लड़कियाँ देह व्यापार में फंस गई हैं और मुंह दिखाने के काबिल नहीं हैं तो उनके ग्राहकों को भी इसी श्रेणी में आना चाहिए। वैसे इतिहास में कोई भी काल ऐसा नहीं मिलेगा, जब देह व्यापार की उपस्थिति न मिलती हो। यह एक अनिवार्य बुराई है। चंद रूपयों या उपहारों के लालच में सामान्य घरों में भी इस प्रकार के संबंध बनाने की बातें सुनी जाती रहती हैं। इस प्रकार की घटनाओं को पूर्णतः रोका जाना संभव ही नहीं है। संक्षिप्त रूप से विचार करें तो बहुत कम महिलाएं होंगी जो स्वच्छा से इस पेशे में उतरती होंगी। कुछ को जबरदस्ती इस पेशे में धकेल दिया जाता है।
समाज व सरकार को यह भी विचार करना चाहिए कि जिस बुराई को समाप्त नहीं किया जा सकता। उसको नियंत्रित करने के लिए क्यों न उसका नियमितीकरण कर दिया जाय? क्यों न कानून बनाकर उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाय? क्यों न इस कार्य को भी एक पेशा घोषित कर दिया जाय? इस संबन्ध में मेरा कोई निश्चित स्थिर मत नहीं है किंतु जिसको आदि काल से ही रोका जाना संभव नहीं हुआ है। वह अब कैसे होगा? हमारी स्वर्ग की कल्पना में भी अप्सराओं का अस्तित्व है तो जन्नत की कल्पना भी हूरों से ही प्रारंभ होती है। अब तो वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर कोई भी बालिग स्त्री पुरूष किसी के साथ भी रह सकता है। लिव इन रिलेशनशिप को भी लगभग कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया गया है। वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर सभी प्रकार की छूटें दी जा रही हैं। ऐसी स्थिति में कानूनन इस प्रकार के कृत्यों को रोका जाना संभव नहीं है। अच्छा यही होगा कि इस प्रकार के पेशे में लगे महिला पुरूषों को कानूनी संरक्षण प्रदान करते हुए उन्हें स्वास्थ्य संबंधी न्यूनतम सुविधाएं सुनिश्चित की जायं। वे भी अपनी हीन भावना से निकल कर एक सम्मानित जीवन की अनुभूति कर सकें।
वर्तमान समय में देखने में आ रहा है कि केवल रेड लाइट ऐरिया में ही यह कार्य नहीं हो रहा। हमारे-आपके आसपास भी इस प्रकार के लोग हैं जो इन कार्यो में लिप्त पाये जाते हैं। वर्तमान समय में वैश्या शब्द का स्थान काॅलगर्ल लेने लगी हैं। इनमें से कुछ तो मजबूरी में इस काम में प्रवेश करती हैं। समाचारों के अनुसार कुछ को ब्लेकमेल करके उनके ही बाॅयफ्रेण्ड इस दलदल में धकेल देते हैं। इसका मूल कारण चकाचैंध और ग्लेमर की जिंदगी की ओर आकर्षण भी है। वर्तमान में नयी पीढ़ी रातोंरात धनी हो जाना चाहती है। एक गरीब परिवार के लड़के-लड़कियों को स्मार्टफोन क्यों चाहिए? मेरी समझ में नहीं आता। टी.वी., लेपटाॅप ओर स्मार्टफोन परिवार व समाज को कमजोर कर रहे हैं। लालच, आकर्षण और गरीब व मध्यम वर्ग में बढ़ती विलासिता की प्रवृत्ति लड़कियों को इस जाल में आसानी से फंसा देती है। इंटरनेट पर पढ़े गये एक समाचार के अनुसार एक व्यक्ति अपने मनोंरंजन के लिए बाजार से अपने फोन में कुछ पोर्न फिल्में डलवाकर लाया था। जब उसने घर में आकर देखा तो एक फिल्म में तो उसकी अपनी पत्नी ही थी। ऐसी घटनाओं के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।
मृदुला जी के अनुसार, ‘‘दरअसल, मां-बाप बच्चियों और समाज पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते। अपनी बेटियों को संस्कारित करना, उन्हें अंगुली पकड़कर सही राह पर चलाना अभिभावक का दायित्व है। इतनी-भर स्वतंत्रता उन्हें जरूर मिलनी चाहिए कि वे अपने जीवन के बारे में स्वयं निर्णय लें। परंतु उन निर्णयों में मां-बाप और शिक्षक की सहायक या परामर्शदाता की भूमिका रहनी ही चाहिए।’’ निश्चित रूप से लड़के या लड़कियाँ बुरी संगत या बुरी आदतों में फंस रहे हैं तो उसके लिए परिवार भी नहीं परिवार ही जिम्मेदार है। आज लोगों के पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है। लोग टीवी, कम्प्यूटर, लेपटाॅप और स्मार्ट फोन पर इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उनके बच्चे जब उनसे बात करना चाहते हैं, तब वे अपने बच्चों को समय ही नहीं देते। बच्चे भी फिर अपना समय अलग गतिविधियों में लगाने लगते हैं तो हमारे पास पछताने के सिवाय कुछ नहीं रह जाता। अतः हमें भटकी हुई लड़कियों या लड़कों के लिए कंलक शब्द न प्रयोग करके इस प्रकार की व्यवस्था पर विचार करना होगा कि वे अपनी भटकन से बाहर निकल कर पुनः सामान्य राह पर आ सकें। उन्हें कलंकित कह कर तो हम उन्हें आत्महत्या या विद्रोह की ओर धकेल रहे होते हैं। हमें उनमें आत्मविश्वास और साहस जगाने की आवश्यकता है कि वे न केवल उस दलदल से बाहर निकल सकें वरन् यह स्वीकार भी कर सकें कि हम इसमें फंस गर्यी थीं या फंस गये थे किंतु अपने प्रयासों के बल पर हम उससे बाहर आने में सफल रहे और हमें अपने आप पर गर्व है कि हम अपने प्रयासों में सफल रहे। अपनी गलतियों को स्वीकार करके उनसे बाहर निकलना बहुत बड़े साहस का काम है और यह शर्म की नहीं गर्व करने की बात होनी चाहिए। तभी सुधार प्रक्रिया आगे बढ़ सकेगी।
हमें सेक्स अपराधों से पीड़ित व्यक्तियों को कलंक कहने की प्रवृत्ति से बचना होगा। इसी प्रवृत्ति के कारण पीड़िताएं आत्कहत्या कर लेती हैं। हमें व्यक्ति, परिवार और समाज की सोच को बदलना होगा। हमें समझना होगा कि पीड़िता या पीड़ित कलंक नही है। दोषी तो अपराधी है, पीड़ित को कलंक नहीं कहा जाना चाहिए। लड़कियां इस दलदल में फंस भी गई हैं, तो भी वे दोषी नहीं हैं, व्यवस्था ही दोषी है, परिवार और समाज दोषी है। यदि कोई बलात्कार से पीड़ित या इस धंधे में धकेल दी गई युवती आत्महत्या करती है तो उसका दोष हम सभी पर है, जो इस प्रकार का वातावरण बना दिया है कि वे अपने आपको कलंक समझने लगती हैं। इस व्यवस्था मंे सुधार की आवश्यकता है। जिन्होनंे गलती की है या जो फंस गये हैं और उससे बाहर निकलना चाहते हैं तो ऐसा वातावरण बनना चाहिए कि गलती को सुधार लेना गर्व करने वाली बात है। मुंह छुपाने वाली बात नहीं।
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