विरोधाभासों की जिंदगी
स्त्री को पूजनीया मानने वाले समाज ने स्त्री के लिए बहुत सारी विसंगतियां खड़ी कर रखी हैं। विरोधाभासों की जिंदगी जी रहे हैं हम। एक ओर स्त्री पूजनीया है, तो दूसरी ओर सबसे अधिक अत्याचार और उत्पीड़न की भागीदार! मनो उसे देवी बनाना है या दासी, हमने इसका निर्णय ही नहीं किया है या सदियों से पुरुष की दासता भुगतती नारी स्वयं अपनी पहचान नहीं कर पा रही है। जो अपनी शक्ति पहचानती है, वह सारे बंधन तोड़कर पुरुष से आगे निकलने की होड़ में एक फजूल दौड़ में उलझ गयी हैं। इस दौड़ में उन्होंने अपने शरीर और मन के तकाजे और माँगों को भी ताक पर रख दिया है। इस दौड़ में उन्हें न माँ बनने की सुध है, न बच्चो की देखभाल से प्राप्त आनंद की सुध। उनका बस चले तो बराबरी की दौड़ में वे पुरुष को ही माँ बनने के लिए बाध्य करें। ऐसा करते हुए इन्हें यह स्मरण नहीं कि प्रकृति प्रदत्त यही एक विशेष गुण है, जो उसे पुरुष से विशेष बनाता है। मातृत्व उसे आनंद भी देता है और सीधे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के साथ खड़ी कर देता है।
मातृत्व का अधिकार- मृदुला सिन्हा से साभार
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