संदेश
मैं फिर, मानवता का संदेश सुनाने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
भारतीय हम संस्कृति अपनी, युगों-युगों तक अमर रहे।
दूधों की नदियां बहती थी,पानी को हम तरस रहे ।
घर-घर में तुलसी का पौधा बाग लगाना भूल गये।
पेड़ो को थे देव मानते उन्हें बचाना भूल गये।
विकास कर रहे किस कीमत पर यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
अतिथि सेवा करने वाले पड़ासियों को भूल गये।
भूखे मरते भाई हमारे,स्व-धर्म निभाना भूल गये।
गाँव छोड़कर शहर में आये,माँ-बापों को भूल गये।
अधिकारों को भोग रहे नित कर्तव्यों को भूल गये।
कर्म छोड़कर सुविधा भोगी यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
वसुधा थी परिवार हमारा,लगाते आज तुम प्रान्त का नारा!
देशभक्ति का खुला पिटारा, भाई-भाई का हत्यारा।
इन्तजार में जब थी कारा, जननायक का रूप है धारा।
समस्याओं से किया किनारा, बॉस से मिलकर हड़पा सारा।
नर-सेवा नारायण सेवा, याद दिलाने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
गैरों को था गले लगाया, अपनों को भी अब ठुकराया ?
जाति-पाँति में पड़कर हमने झगड़ो को ही नित्य बढ़ाया।
लम्बा किया संघर्ष जिन्होंने देश की खातिर शीश चढ़ाया।
क्षुद्र स्वार्थ की खातिर हमने, पूर्वजों को आज भुलाया।
हाथी के पाँव में, सबका पाँव, यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
मैं फिर, मानवता का संदेश सुनाने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
भारतीय हम संस्कृति अपनी, युगों-युगों तक अमर रहे।
दूधों की नदियां बहती थी,पानी को हम तरस रहे ।
घर-घर में तुलसी का पौधा बाग लगाना भूल गये।
पेड़ो को थे देव मानते उन्हें बचाना भूल गये।
विकास कर रहे किस कीमत पर यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
अतिथि सेवा करने वाले पड़ासियों को भूल गये।
भूखे मरते भाई हमारे,स्व-धर्म निभाना भूल गये।
गाँव छोड़कर शहर में आये,माँ-बापों को भूल गये।
अधिकारों को भोग रहे नित कर्तव्यों को भूल गये।
कर्म छोड़कर सुविधा भोगी यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
वसुधा थी परिवार हमारा,लगाते आज तुम प्रान्त का नारा!
देशभक्ति का खुला पिटारा, भाई-भाई का हत्यारा।
इन्तजार में जब थी कारा, जननायक का रूप है धारा।
समस्याओं से किया किनारा, बॉस से मिलकर हड़पा सारा।
नर-सेवा नारायण सेवा, याद दिलाने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
गैरों को था गले लगाया, अपनों को भी अब ठुकराया ?
जाति-पाँति में पड़कर हमने झगड़ो को ही नित्य बढ़ाया।
लम्बा किया संघर्ष जिन्होंने देश की खातिर शीश चढ़ाया।
क्षुद्र स्वार्थ की खातिर हमने, पूर्वजों को आज भुलाया।
हाथी के पाँव में, सबका पाँव, यही बताने आया हूँ।
कुछ नया बताने नहीं,पुरातन मूल्य बचाने आया हूँ।।
डॉ. राष्ट्रप्रेमी जी,
ReplyDeleteसुन्दर भावनयें जो अब केवल नैतिक शिक्षा का पाठ भर रह गई हैं को समझाती हुई कविता प्रेरक है और आपका प्रयास हमारे सामाजिक मूल्यों के पुर्नस्थापन का स्तुत्य और प्रेरणादायक है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
thanks!!!!!!!!!!!!
ReplyDeletei needed this poem badly for my project
i m greatful to u!!!!!!!
:)
IT IS REALLY A GREAT POEM
ReplyDeleteIT'S A REALLY GREAT POEM
ReplyDeleteI NEEDED IT FOR MY PROJECT
धन्यवाद! आप यहां पधारे, कविता पसन्द की और अपने पदार्पण की छाप के रूप में टिप्पणी भी छोड़ी. मुकेश जी "अब केवल नैतिक शिक्षा का पाठ भर रह गई हैं को समझाती हुई कविता प्रेरक है और आपका प्रयास हमारे सामाजिक मूल्यों के पुर्नस्थापन का स्तुत्य और प्रेरणादायक है" कोई भी भावना हमारे आचरण के लिये ही होती हैं. यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम उनको आचरण में ढालें और समाज व व्यक्ति को लाभान्वित करें. भावनाएं समय के बन्धन से परे हैं. समय सदैव इसी प्रकार चलता रहा है और इसी प्रकार चलता रहेगा. व्यक्ति अपनी कमजोरी को समय के गले मढ़कर बचना चाहता है.
ReplyDeleteकिसी भी व्यक्ति को यदि इस कविता का कहीं अन्यत्र गैर-व्यावसायिक प्रयोग करना है तो वह कवि व बेबसाइट के नाम का उल्लेख करते हुए कर सकता हैं. हां, प्रोजेक्ट का नाम,तिथि व विवरण मुझे ईमेल कर दें. मुझे प्रसन्नता होगी.
धन्यवाद.
THNX THNX THNX A LOT I REALLY NEEDED A GUD POEM FOR MY PPROJECT ND FINALLY MY SERACH ENDED UP HERE!!! :)
ReplyDeletevery sweat poem
ReplyDeleteआप इसका अपनी पुस्तक में प्रयोग प्रसन्नता के साथ करिये, साथ में कवि का नाम होना चाहिये। पुस्तक की प्रति मेरे पास भेजना उचित रहेगा।
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