कली
कभी कली थी अल्हड़पन में,
बढ़ी जवानी के मधुवन में।
चार चाँद थे लग रहे तन में,
निकल जिधर जाये मधुवन में।
भ्रमरों से घिर जायें छन में,
मादकता छाये हर मन में।
अलि वे दिन तो बीत गये,
भ्रमर रसिक कब मीत भये।
अंग -अंग अब पीत भये,
प्रेम भरे नहीं गीत रहे।
सिसकत छोड़ी मीत गये,
रिश्ते नहीं पुनीत रहे।
अलि! वे अलि अब गये कहाँ ?
नव कली जहाँ वो होंग वहाँ।
यही रीति पालता जहाँ,
पूर्णेच्छा कर टालता जहाँ।
अलि आएं वो सुगन्ध कहाँ ?
पीने को मकरन्द कहाँ ?
अरी! नव कलि को बतलाना होगा ,
नव गीत उसे ही गाना होगा।
भ्रमरों से घिर जाना होगा,
कैसे ? उनसे बच पाना होगा।
मन चंचल समझाना होगा,
फिर नहीं बसन्त का आना होगा।
अरी घबड़ा मत वो दिन नहीं रहे,
ये भी न रहें सब कोई कहे।
जीवन परिवर्तन कष्ट सहे ,
समर्पण कर कुछ भी न लहे।
तन- मन-धन सब वही महे,
आदर्शों का सार यहे।
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