वास्तविक समस्या ?
वर्तमान समय में नारी समस्या ,नारी सशक्तीकरण,नारी कल्याण, नारी अत्याचार, नारी मुक्ति आदि विषय किसी भी मीडिया संगठन के लिये आकषZक, मनोहारी, आदशZवादी ,सहज उपलब्ध ,सर्वस्वीकृत व अपने आप को आधुनिक प्रगतिशील सिद्ध करने में सहायक विषय हैं। इन विषयों पर प्रकािशत आलेखों, विभिन्न चर्चाओं व प्रसारित कार्यक्रमों से ऐसा आभास होता है कि भारत में अचाानक नारी पर अत्याचार बढ़ गये हैं। यदि कहीं ऐसा है भी तो उसके लिए केवल पुरूष को उत्तरदायी ठहराना उसके साथ अन्याय करना है। आधुनिक स्वच्छन्दता ही इसके लिए उत्तरदायी है। जन्म से लेकर शादी तक बेटी को दुलार से पालने वाला, बेटी की सुरक्षा व संरक्षा में अपनी जान की बाजी लगाने वाला, बेटी की िशक्षा व शादी के लिए कोल्हू के बैल की तरह काम करके व पेट काटकर धन इकट्ठा करने वाला, जीवन-पर्यन्त बेटी की इच्छा व परंपरा के अनुरूप विभिन्न उपहार पहु¡चाने वाला पिता भी एक पुरूष ही है। जबकि जन्म से पूर्व बेटा की कामना करने वाली,गर्भस्थ भ्रूण की जा¡च व नष्ट करवाने को मजबूर करने वाली या स्वीकार करने वाली ,पालन-पोषण के समय बेटा-बेटी में भेद करने वाली , शादी के बाद बहू को ताने देने वाली भी एक महिला ही होती है क्योंकि कोई भी परिवार हो घर पर नियंत्रण स्त्री का ही होता है। इसीलिए तो वह गृहिणी कहलाती है। पुरूष बेटी को दुलारता है, बहन की राखी के लिए सब कुछ न्यौछावर करता है ,पत्नी की सलाह के अनुसार चलता है तथा माता की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म समझता है। अपवादों को छोड़ दें तो पुरूष स्त्री पर अत्याचार कर ही नहीं सकता क्योंकि वह नारी के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। वह जो भी करता है किसी स्त्री की सलाह, पे्ररणा, आज्ञा या जिद पर ही करता है। वह तो एक कठपुतली की तरह नारी के इशारों पर ना¡चता है। युगो-युगों से यही होता आया है और यही होता रहेगा। नारी के नयनों के एक संकेत पर अपनी जान की बाजी लगाने वाला पुरुष किस प्रकार नारी पर अत्याचार कर सकता है ? विशेष कर भारत के सन्दर्भ में, जहा¡ स्त्री के बारे में कहा जाता रहा है कि जहा¡ नारी की पूजा होती है वहा¡ देवता वास करते हैं। यही कारण है कि विदेशी नारियां भी भारतीय पुरूष से शादी करने की अभिलाषा रखतीं हैं। हो सकता है कि इस उक्ति का आज के सन्दर्भ में विशेष महत्व न हो किन्तु नारी के बिना नर का एक कदम भी चलना संभव नहीं। हो सकता है कुछ परिवारों में नारी को तात्कालिक रूप से निर्णयों में भागीदारी नहीं मिलती हो किन्तु अपवादों की कमी नहीं होती। यदि अपवादों को ही देखा जाय तो ऐसे पुरूष भी मिल जायेंगे जिनकी जिन्दगी को नारी ने तबाह कर दिया है और उसे चैन से जीने नहीं देतीं। कहने का आशय यह नहीं है कि नारी पर किसी भी प्रकार के अत्याचार नहीं हो रहे, वास्तविकता यह है कि अत्याचार तो हर जगह हर क्षण देखने को मिल जायेंगे। किन्तु अत्याचारों के लिए हमारे यहा¡ की व्यवस्था व युगों-युगों से स्थापित अंधविश्वास, कुछ गलत धारणाए¡ व कुप्रथाए¡ हैं। अगर कहीं महिला पर अत्याचार भी होता है तो महिला की सहायता करने आने वाला भी पुरूष ही होता है। मेरे कहने का आशय यह नहीं है कि नारी पर किसी भी प्रकार का अत्याचार या अन्याय नहीं हो रहा है या सुधार की आवश्यकता नहीं है। सुधार की आवश्यकता तो सदैव रहती ही है।अत्याचार एवं अन्याय से केवल नारी ही पीिड़त नहीं बल्कि पुरूष भी अत्याचार झेलते हैं।किसी भी समस्या पर विचार करते समय हमें पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होना चाहिए।नर या नारी दोनों में से किसी के प्रति पक्षपात न रखते हुए ,स्वतंत्र व खुले दिमाग से विचार करके ही हम किसी उचित निष्कषZ पर पहु¡च सकते हैं।अपनी परंपराओं को गलत सिद्ध करके ही हम अपने को सुधारक सिद्ध करना चाहें तो यह भी उचित नहीं। हमें किसी भी परंपरा,अवधारणा,मान्यता व स्थापित मानदण्डो का विरोध केवल विरोध के लिए नहीं करना चाहिए। परंपराओं व संस्कृति की श्रेष्ठता व उदात्ता से किसी समाज के चरित्र का विकास व उसके नागरिकों के जीवन का निर्माण होता है। अत: हमें विचार करना चाहिए कि समाज में विभिन्न प्रकार की नयी-नयी समस्याओं के उदय का कारण हमारे द्वारा संस्कृति का विकृत किया जाना तो नहीं है। हमें विचार करना चाहिए कि समाज केिन्द्रत विचारधारा स्वार्थकेिन्द्रत क्यों होती जा रही है ? बढ़ते हुए बलात्कारों ,अपहरणों ,दहेज हत्याओं व भ्रूण हत्याओं का कारण सांस्कृतिक पतन,मानसिक विकृति व हमारी संकीर्णता तो नहीं है? नर या नारी किसी एक को इसके लिए जिम्मेदार ठहराकर हम केवल बौिद्धक विलासिता की पूर्ति ही कर रहे होते हैं। हमारी कथनी व करनी में कितनी समानता है स्वयं अपने अन्दर झा¡ककर देखने की आवश्यकता है। वास्तविक समस्या का समाधान अवधारणाओं, मान्यताओं व वास्तविकता को समझे बिना संभव नहीं है। वर्तमान समय में हमने ऐसा वातावरण बना दिया है जैसे कि नर-नारी एक दूसरे के दुश्मन हों। नर-नारी को आमने सामने लाकर खड़ा कर दिया है। प्राकृतिक रूप से ही एक-दूसरे के पूरक, प्राकृतिक मित्र व प्राकृतिक सहचर होने के बाबजूद यह धारणा बना लेना कि पुरूष महिलाओं के अधिकारों का हनन करता है या महिलाओं पर अत्याचार करता है, किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। आज नारी पुरूष समानता की बात करके, नारी अधिकारों की बात करके नर और नारी को एक दूसरे का प्रतियोगी बना दिया है। परिवार, समाज व राष्ट्र समानता के लिए तराजू रखकर बैठने से नहीं चलते। सभी की मूलभूत आवश्यकताएं पूर्ण हों,सभी को िशक्षा मिलें,सभी को विकास के अवसर मिलें तथा सभी को गौरव पूर्ण मानव जीवन मिले, प्रयास इसके लिए किये जाने की आवश्यकता है। कभी भी किसी को एक दूसरे के समान नहीं बनाया जा सकता। प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति का अपना महत्व होता है। किसी को किसी के स्थान पर प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। नर और नारी की समानता की तो बात ही दूर की बात है दो नारिया¡ भी समान नहीं होतीं। प्रकृति से ही प्रत्येक वस्तु,पदार्थ व प्राणी की भूमिका निर्धारित हैं। उनकी भूमिकाओं में किसी भी प्रकार का परिवर्तन व छेड़छाड़ विनाश को आमिन्त्रत करना है। हम प्रकृति से छेड़छाड़ करके ही पर्यावरण को इतना प्रदूषित करते जा रहे हैं कि एक दिन जिन्दा रहना ही समस्या बन जाने वाला है। यदि हम इसी प्रकार चलते रहे तो पृथ्वी से जीवन समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार नर और नारी की भी भूमिकाए¡ प्रकृति ने निर्धारित कर दी हैं। हम उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते और करेंगे तो उसके कुपरिणाम भी भोगने पड़ेंगे। समस्या प्रकृति प्रदत्त भूमिकाओं में परिवर्तन करके और बढ़ाई जा रही है। आज स्थिति यह है कि युगों-युगों से नारी जिस मातृत्व के कारण अपने आप को गौरवािन्वत महसूस करती रही है। वात्सल्य की जो नदी उसके उर के सागर में बहती है, आज उसी को गाली दी जा रही है। वात्सल्य,ममता व प्रेम लुटाने में कितने आनन्द की अनुभूति होती है इसे एक नारी ही बता सकती है। आज कहा जा रहा है कि नारी बच्चे पैदा करने वाली मशीन नहीं है। ये किसने कहा कि नारी मशीन है। एक जीता-जागता व्यक्तित्व एक मशीन कैसे हो सकता है। मशीन बनाने के प्रयत्न तो आज हो रहे हैं। आज नारी को ही नहीं पुरूष को भी एक मशीन बनाया जा रहा है। जिस समानता की बात की जा रही है वह समानता मशीन व उपकरणों में ही खोजी जा सकती है और आज मानव को संवेदनहीन प्राणी ही बना दिया है। केवल स्त्री को ही नहीं पुरूष को भी एक मशीन बना दिया गया है। इस समानता के नारे ने ही आज परिवार जैसी आधारभूत संस्था पर ही संकट खड़ा कर दिया है। स्त्री के रूप में परिवार का जो आधारभूत स्तम्भ था केवल वही नहीं पुरूष भी भौतिकता को अधिक महत्व दिये जाने के कारण धन कमाने की मशीन ही बन गया है। पति-पत्नी,माता-पिता,बाप-बेटा,भाई-बहन,बाप-बेटी तक के रिश्तों में कुछ नहीं रह गया है। इसके लिए हमारी गलत धारणाए¡,भौतिकता की अंधी दौड़,प्रकृति के विरूद्ध समानता का नारा जिम्मेदार है। जब परिवार का आधारभूत स्तम्भ नारी भी धन कमाने की मशीन बन गई तो परिवार का अस्तित्व कहा¡ रहेगा इसका तात्कालिक परिणाम तो यही आ रहा है कि हमारे बुजुगोZं के लिए ओल्डएज होम बनाने पड़ रहे हैं। यदि बहुत शीघ्र ही हमने इन गलत अवघारणाओं, मान्यताओं, कुप्रथाओं, भौतिकता की अंधी दौड़ तथा प्रकृति विरूद्ध समानता के राग से मुक्त नहीं हुए तो क्या होगा? कल्पना करना कितना कठिन है? कहा नहीं जा सकता।
स्वामी विवेकानन्द के दृष्टिकोण से
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धर्म
*स्वामी विवेकानन्द को हिन्दू संन्यासी कहना एकदम गलत होगा। वे संन्यासी तो
थे, किन्तु हिंदू संन्यासी थे, यह सही नहीं है। उन्हें हिन्दू धर्म तक सीमित
क...
2 weeks ago
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