महाराष्ट्र से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका लोक-यग्य के अप्रैल-जून २००८ के अंक के सम्पादकीय में सुप्रसिद्ध कहानीकार अमरकान्तजी की दयनीय स्थिति को उजागर किया गया है कि वे आजकल अपने गांव में दाने-दाने को तरस रहै है. इसी प्रकार का एक समाचार २००६ में बिहार के बढईया के कवि श्री कान्त प्रसाद सिंह का भी मिला था. इस प्रकार के उदाहरण साहित्य-जगत में भरे पढे हैं. भावनात्मक रूप से यह विषय साहित्यकार की सहायता की मांग करता है किन्तु यह प्रश्न भी उठ्ता है कि सन्सार को सीख देने वाला एक बुध्दिजीवी इतना असहाय क्यों हो जाता है कि उसे रोटी के लिये हाथ फ़ैलाना पडे? मेरा विचार है साहित्य जीविकोपर्जन का साधन नहीं है, यह केवल एक शौक, एक जज्बा है समाजसेवा जैसा. इसको समाज सेवा की तरह ही लेना चाहिये, इससे जो आजीविका कमाना चाहेगा, उसका ऐसा ही हश्र होगा. यद्यपि कुछ लोगों ने साहित्य से मलाई भी उडाई है किन्तु वे अपवाद हैं और साहित्य की राजनीति करने वाले रहै हैं. सामान्य सहित्यकार के लिये यह संभव नहीं है. वर्तमान समय मैं हिन्दी के कवियों से तो छापने के भी रुपये मांगे जा रहै हैं, पुरस्कार बेचे जा रहै हैं, ऐसी स्थिति में विचारणीय है कि अलग आजीविका का साधन रखकर ही इस मार्ग पर बढा जाय ताकि हमको रोटी के लिये दान या भीख के लिये हाथ न फ़ैलाना पढे.
साहित्य से पेट नहीं भरता, शायद आप यही कहना चाहते हैं
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